Tuesday, December 9, 2008

कुछ दिन ज़िंदगी के नाम

ब्लॉग की दुनिया में चार महीने बाद लौट रहा हूं। बीते चार महीनों में मैंने अपने लिये कुछ नहीं लिखा। सिर्फ नौकरी की, लेकिन अब नौकरी से मुक्त हो चुका हूं और वो हर काम कर रहा हूं जिसके लिए मन तरसता था। सुबह देर तक सोता हूं। अख़बार पढ़ता हूं। किताबें पढ़ता हूं। बच्चे के साथ खेलता हूं। गाना सुनता हूं। रात देर तक टीवी देखता हूं। अपने दोस्त गिरिजेश के पास से २९ बेहतरीन फिल्मों की डीवीडी ले आया हूं और हर रोज रात ग्यारह बजे के बाद एक फिल्म देखता हूं। १२ तारीख का रिजर्वेशन है गांव जा रहा हूं। करीब दो हफ्तों के लिए गांव में रहूंगा। आलू की पहली फसल पक चुकी है और अब आलू कोड़ने (जमीन से आलू निकालने) का वक़्त है। वहीं खेत में आलू भून कर खाऊंगा। गंगा किनारे बैठ कर ज़िंदगी को करीब से देखूंगा। अगले दो-तीन महीने तक सिवाये घूमने और सोचने के कुछ और नहीं करना है।

इस दौरान मैं सोचना चाहता हूं कि मीडिया में लौटूं या पूरी तरह गांव लौट जाऊं। गांव लौटने के ख्याल का सब विरोध कर रहे हैं। दोस्त और घर के लोग भी। सबका कहना है कि गांव लौटने लायक नहीं रह गए हैं। बात सही है। गांव की हालत बहुत बुरी है। लेकिन क्या मीडिया रहने लायक है। क्या मीडिया में वो बुराइयां नहीं हैं जो गांवों में हैं या फिर इस पूरी व्यवस्था में हैं। जाति की राजनीति मीडिया में भी है। धर्म के ठेकेदार भी हैं। क्षेत्रवाद भी हावी है। दलाली मीडिया के लोग भी करते हैं। चंद अपवादों को छोड़ दें तो जितना बड़ा पत्रकार उतना बड़ा दलाल। साज़िशें यहां भी खूब होती हैं। आप कोई साज़िश मत करिये, लेकिन आपके ख़िलाफ़ साज़िश करने वालों की कमी नहीं होगी। तो फिर मीडिया में क्यों लौटा जाए? क्या सिर्फ़ इसलिये कि यही काम करना आता है और उम्र के इस पड़ाव पर कोई दूसरा काम करना मुमकिन नहीं। रोजी रोटी चलानी है तो मीडिया में किसी तरह बने रहना होगा। जोंक की तरह चिपके रहना होगा।

आप सोच रहे हैं कि नौकरी छोड़ दिया है तो भाषण दे रहा है। नहीं ऐसा नहीं है। यकीन मानिये मैं ये सब लगातार सोच रहा हूं। बीते तीन साल से मैंने मीडिया के चरित्र, यहां के काम के हालात और लोगों पर बहुत विचार किया है। पिछले ११ साल में पांच मीडिया हाउस में काम कर चुका हूं। तीन चैनल में काम कर चुका हूं। इसलिए मीडिया के हर सच और झूठ को करीब से जानता हूं। कई बड़े रिपोर्टरों को जानता हूं जो सिंडिकेट बना कर सत्ता की दलाली करते हैं। मैं जानता हूं कि कैसे ख़बरें खड़ी की जाती हैं, ख़बरें खरीदी और बेची जाती हैं और ख़बरें दबाई जाती हैं। मैं जानता हूं एक ही तरह की दो ख़बरों पर क्यों चैनल दो नीतियां अपनाते हैं। उन ख़बरों में शामिल चेहरों के आधार से चैनलों की नैतिकता तय होती है। मैं मीडिया में चल रहे इस ख़तरनाक खेल पर एक किताब लिखने की योजना बना रहा हूं। उसमें बीते ग्यारह साल के अपने सफ़र और अनुभवों को दर्ज करूंगा। उसमें मेरठ के ट्रांसपोर्ट नगर में बीताए दिनों का जिक्र होगा, सपने और सच के बीच हुए टकराव की चर्चा होगी। वो टकराव जिसमें पत्रकार धीरे धीरे दम तोड़ता है और एक कॉरपोरेट जर्नलिस्ट जन्म लेता है। वो जर्नलिस्ट जो असल में एक सेल्समैन की भूमिका में है जिसके लिए ख़बर एक उत्पाद है और पत्रकारिता उत्पाद को बेचने का तरीका।

मीडिया में मैंने सबसे अधिक दिन एनडीटीवी में बिताए हैं। जाहिर सी बात है मेरी उस किताब में एनडीटीवी का जिक्र सबसे अधिक होगा। मैं व्यक्तिगत तौर पर मानता हूं कि एनडीटीवी का ख़बरों के बाज़ार में टिका रहना बेहद जरूरी है। लेकिन जब भी कोई मुझसे कहता है कि एनडीटीवी आइडियल है तो मैं इसका विरोध करता हूं। मैं मानता हूं कि एनडीटीवी की मौत का मतलब एक साफ-सुथरी टीवी पत्रकारिता की मौत होगी। यहां साफ-सुथरी टीवी पत्रकारिता का मतलब सिर्फ इतना है कि बिना किसी अश्लील वीडियो को दिखाए और बिना फूहड़ हुए भी चैनल चलाया जा सकता है। इससे अधिक मतलब निकलना ग़लत होगा। क्योंकि मैं निजी तौर पर ये भी मानता हूं कि एनडीटीवी स्कूल ऑफ जर्नलिज्म किसी भी दिन आज तक स्कूल ऑफ जर्नलिज्म से ज़्यादा घातक है। क्यों, इसे समझाने के लिए सिर्फ एक छोटा किस्सा सुनाना चाहूंगा।

कुछ समय पहले एनडीटीवी ने मनमोहन सरकार के सबसे अच्छे और सबसे खराब मंत्रियों पर एडिटर्स सर्वे कराया था। देश भर के संपादकों की राय ली गई। एक सूची तैयार की गई। रात आठ बजे के बुलेटिन में उसे चलाया गया। लेकिन फिर खराब मंत्रियों की सूची गिरा दी गई। मगर अच्छे मंत्रियों की सूची चलती रही। वो खराब मंत्री कौन थे और एनडीटीवी ने वो सूची क्यों गिराई इस पर विस्तार से चर्चा किताब में होगी। लेकिन इससे आप एनडीटीवी के चरित्र का अंदाजा लगा सकते हैं। जो चैनल सिर्फ हल्के से दबाव में अपने ही सर्वे को तोड़-मरोड़ सकता है उस चैनल में स्टेट के विरुद्ध खड़े होने का कितना हौसला होगा?

यही वजह है कि मैं लंबे समय से एनडीटीवी को छोड़ने का मन बना रहा था। मेरे करीबी मेरी उलझन , मेरे द्वंद को जानते हैं। वो जानते हैं कि एनडीटीवी की झूठी नैतिकता में मुझे किस कदर घुटन महसूस हो रही थी। ग्यारह साल तक नौकरी करते करते मेरे भीतर के पत्रकार ने दम तोड़ दिया था और वो एक बड़ी वजह थी कि मैं तमाम घुटन के बावजूद एनडीटीवी की नौकरी छोड़ने का फैसला नहीं ले पा रहा था। मगर हाल ही में एनडीटीवी प्रॉफिट से एनडीटीवी इंडिया में एक्सपोर्ट किये गए नए मैनेजिंग एडिटर अनिंदो चक्रवर्ती ने मुझे ये बड़ा फैसला लेने का बहाना दे दिया। एक झटके में सारी उलझन दूर हो गई और इसके लिए मैं उनका शुक्रगुजार हूं।

समरेंद्र सिंह (०९-१२-०८)

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