Tuesday, December 9, 2008

कुछ दिन ज़िंदगी के नाम

ब्लॉग की दुनिया में चार महीने बाद लौट रहा हूं। बीते चार महीनों में मैंने अपने लिये कुछ नहीं लिखा। सिर्फ नौकरी की, लेकिन अब नौकरी से मुक्त हो चुका हूं और वो हर काम कर रहा हूं जिसके लिए मन तरसता था। सुबह देर तक सोता हूं। अख़बार पढ़ता हूं। किताबें पढ़ता हूं। बच्चे के साथ खेलता हूं। गाना सुनता हूं। रात देर तक टीवी देखता हूं। अपने दोस्त गिरिजेश के पास से २९ बेहतरीन फिल्मों की डीवीडी ले आया हूं और हर रोज रात ग्यारह बजे के बाद एक फिल्म देखता हूं। १२ तारीख का रिजर्वेशन है गांव जा रहा हूं। करीब दो हफ्तों के लिए गांव में रहूंगा। आलू की पहली फसल पक चुकी है और अब आलू कोड़ने (जमीन से आलू निकालने) का वक़्त है। वहीं खेत में आलू भून कर खाऊंगा। गंगा किनारे बैठ कर ज़िंदगी को करीब से देखूंगा। अगले दो-तीन महीने तक सिवाये घूमने और सोचने के कुछ और नहीं करना है।

इस दौरान मैं सोचना चाहता हूं कि मीडिया में लौटूं या पूरी तरह गांव लौट जाऊं। गांव लौटने के ख्याल का सब विरोध कर रहे हैं। दोस्त और घर के लोग भी। सबका कहना है कि गांव लौटने लायक नहीं रह गए हैं। बात सही है। गांव की हालत बहुत बुरी है। लेकिन क्या मीडिया रहने लायक है। क्या मीडिया में वो बुराइयां नहीं हैं जो गांवों में हैं या फिर इस पूरी व्यवस्था में हैं। जाति की राजनीति मीडिया में भी है। धर्म के ठेकेदार भी हैं। क्षेत्रवाद भी हावी है। दलाली मीडिया के लोग भी करते हैं। चंद अपवादों को छोड़ दें तो जितना बड़ा पत्रकार उतना बड़ा दलाल। साज़िशें यहां भी खूब होती हैं। आप कोई साज़िश मत करिये, लेकिन आपके ख़िलाफ़ साज़िश करने वालों की कमी नहीं होगी। तो फिर मीडिया में क्यों लौटा जाए? क्या सिर्फ़ इसलिये कि यही काम करना आता है और उम्र के इस पड़ाव पर कोई दूसरा काम करना मुमकिन नहीं। रोजी रोटी चलानी है तो मीडिया में किसी तरह बने रहना होगा। जोंक की तरह चिपके रहना होगा।

आप सोच रहे हैं कि नौकरी छोड़ दिया है तो भाषण दे रहा है। नहीं ऐसा नहीं है। यकीन मानिये मैं ये सब लगातार सोच रहा हूं। बीते तीन साल से मैंने मीडिया के चरित्र, यहां के काम के हालात और लोगों पर बहुत विचार किया है। पिछले ११ साल में पांच मीडिया हाउस में काम कर चुका हूं। तीन चैनल में काम कर चुका हूं। इसलिए मीडिया के हर सच और झूठ को करीब से जानता हूं। कई बड़े रिपोर्टरों को जानता हूं जो सिंडिकेट बना कर सत्ता की दलाली करते हैं। मैं जानता हूं कि कैसे ख़बरें खड़ी की जाती हैं, ख़बरें खरीदी और बेची जाती हैं और ख़बरें दबाई जाती हैं। मैं जानता हूं एक ही तरह की दो ख़बरों पर क्यों चैनल दो नीतियां अपनाते हैं। उन ख़बरों में शामिल चेहरों के आधार से चैनलों की नैतिकता तय होती है। मैं मीडिया में चल रहे इस ख़तरनाक खेल पर एक किताब लिखने की योजना बना रहा हूं। उसमें बीते ग्यारह साल के अपने सफ़र और अनुभवों को दर्ज करूंगा। उसमें मेरठ के ट्रांसपोर्ट नगर में बीताए दिनों का जिक्र होगा, सपने और सच के बीच हुए टकराव की चर्चा होगी। वो टकराव जिसमें पत्रकार धीरे धीरे दम तोड़ता है और एक कॉरपोरेट जर्नलिस्ट जन्म लेता है। वो जर्नलिस्ट जो असल में एक सेल्समैन की भूमिका में है जिसके लिए ख़बर एक उत्पाद है और पत्रकारिता उत्पाद को बेचने का तरीका।

मीडिया में मैंने सबसे अधिक दिन एनडीटीवी में बिताए हैं। जाहिर सी बात है मेरी उस किताब में एनडीटीवी का जिक्र सबसे अधिक होगा। मैं व्यक्तिगत तौर पर मानता हूं कि एनडीटीवी का ख़बरों के बाज़ार में टिका रहना बेहद जरूरी है। लेकिन जब भी कोई मुझसे कहता है कि एनडीटीवी आइडियल है तो मैं इसका विरोध करता हूं। मैं मानता हूं कि एनडीटीवी की मौत का मतलब एक साफ-सुथरी टीवी पत्रकारिता की मौत होगी। यहां साफ-सुथरी टीवी पत्रकारिता का मतलब सिर्फ इतना है कि बिना किसी अश्लील वीडियो को दिखाए और बिना फूहड़ हुए भी चैनल चलाया जा सकता है। इससे अधिक मतलब निकलना ग़लत होगा। क्योंकि मैं निजी तौर पर ये भी मानता हूं कि एनडीटीवी स्कूल ऑफ जर्नलिज्म किसी भी दिन आज तक स्कूल ऑफ जर्नलिज्म से ज़्यादा घातक है। क्यों, इसे समझाने के लिए सिर्फ एक छोटा किस्सा सुनाना चाहूंगा।

कुछ समय पहले एनडीटीवी ने मनमोहन सरकार के सबसे अच्छे और सबसे खराब मंत्रियों पर एडिटर्स सर्वे कराया था। देश भर के संपादकों की राय ली गई। एक सूची तैयार की गई। रात आठ बजे के बुलेटिन में उसे चलाया गया। लेकिन फिर खराब मंत्रियों की सूची गिरा दी गई। मगर अच्छे मंत्रियों की सूची चलती रही। वो खराब मंत्री कौन थे और एनडीटीवी ने वो सूची क्यों गिराई इस पर विस्तार से चर्चा किताब में होगी। लेकिन इससे आप एनडीटीवी के चरित्र का अंदाजा लगा सकते हैं। जो चैनल सिर्फ हल्के से दबाव में अपने ही सर्वे को तोड़-मरोड़ सकता है उस चैनल में स्टेट के विरुद्ध खड़े होने का कितना हौसला होगा?

यही वजह है कि मैं लंबे समय से एनडीटीवी को छोड़ने का मन बना रहा था। मेरे करीबी मेरी उलझन , मेरे द्वंद को जानते हैं। वो जानते हैं कि एनडीटीवी की झूठी नैतिकता में मुझे किस कदर घुटन महसूस हो रही थी। ग्यारह साल तक नौकरी करते करते मेरे भीतर के पत्रकार ने दम तोड़ दिया था और वो एक बड़ी वजह थी कि मैं तमाम घुटन के बावजूद एनडीटीवी की नौकरी छोड़ने का फैसला नहीं ले पा रहा था। मगर हाल ही में एनडीटीवी प्रॉफिट से एनडीटीवी इंडिया में एक्सपोर्ट किये गए नए मैनेजिंग एडिटर अनिंदो चक्रवर्ती ने मुझे ये बड़ा फैसला लेने का बहाना दे दिया। एक झटके में सारी उलझन दूर हो गई और इसके लिए मैं उनका शुक्रगुजार हूं।

समरेंद्र सिंह (०९-१२-०८)

Friday, August 8, 2008

जब जस्टिस ऐसे हों तो कैसे बचेगा देश?

सुप्रीम कोर्ट भी कम हिप्पोक्रेट नहीं. बीते कुछ दिनों में दो अहम मामले सुप्रीम कोर्ट के सामने थे. एक जजों से जुड़ा मामला और दूसरा नेताओं, पत्रकारों और समाज के दूसरे ताक़तवर तबकों से जुड़ा हुआ. दोनों ही मामलों में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों ने जजों के दोहरे चरित्र को सामने ला दिया. पहला मामला सरकारी मकान पर गैर कानूनी कब्जों से जुड़ा था. ये पांच अगस्त को सुप्रीम कोर्ट के सामने आया. तब सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस बी एन अग्रवाल और जस्टिस जी एम सिंघवी की बेंच ने कहा कि “सरकार कानून का पालन नहीं करना ही चाहती. पहले ये कहते थे कि देश को भगवान ही बचा सकता है, मगर अब लगता है कि भगवान भी इस देश की मदद नहीं कर सकता”.

दूसरा मामला आज अदालत में पेश हुआ. करोड़ों रुपये के प्रोविडेंट फंड घोटाले में जजों की भूमिका से जुड़ा हुआ. इसमें निचली अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट के जज भी संदेह के घेरे में. उन पर आरोपियों की मदद का शक है. इस घोटाले और जजों की भूमिका की जांच किससे कराई जाए इस पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है. सुनवाई तीन जजों की बेंच कर रही थी, जिनमें दो जस्टिस बी एन अग्रवाल और जस्टिस जी एम सिंघवी वही थे जिनकी बेंच ने कहा था कि “इस देश को भगवान भी नहीं बचा सकता”. मगर आज जस्टिस बी एन अग्रवाल आपा खो बैठे. हुआ यूं कि सुनवाई के दौरान वरिष्ठ वकील और पूर्व केंद्रीय कानून मंत्री शांति भूषण ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट भ्रष्ट जजों को बचाने की कोशिश कर रहा है. जिस पर जस्टिस बी एन अग्रवाल भड़क गए. उन्होंने शांति भूषण से बयान वापस लेने को कहा. लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया और कहा कि चाहें तो मानहानि का मुक़दमा कर दें. थोड़ी रुकावट के बाद सुनवाई आगे बढ़ी तो जस्टिस बी एन अग्रवाल ने कुछ कहा जिस पर शांति भूषण के बेटे प्रशांत भूषण ने कहा कि वो उनके सीनियर के मुंह में अपने शब्द डाल रहे हैं. फिर क्या था जस्टिस बी एन अग्रवाल सुनवाई बीच में छोड़ कर उठ गए. अब मामला सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के जी बालाकृष्णन पर छोड़ दिया गया है.

अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि जिस देश में सुप्रीम कोर्ट के जज खुद को खुदा समझने लगे हों और कड़ुवे सच को बर्दाश्त करने की हिम्मत भी नहीं रखते हों उस देश का भगवान भला कैसे करे? जस्टिस बी एन अग्रवाल (जो चीफ जस्टिस के बाद दूसरे सबसे सीनियर जज हैं) को सोचना चाहिये था कि उनके इस बर्ताब से अदालत सम्मानित नहीं बल्कि अपमानित होगी. साथ ही कानून और न्यायपालिका पर आम आदमी का यकीन और भी घटेगा.

Monday, August 4, 2008

सुलग रहा है जम्मू, अब खुश होगा गुलाम


जम्मू सुलग रहा है. एक महीने से ऊपर हो गए हैं, हिंसा थम नहीं रही. कई ज़िंदगियों का अंत हो चुका है. जम्मू की आग कई और ज़िलों में फैल रही है. ये डर मैंने उसी समय जताया था जब गुलाम नबी आज़ाद सरकार ने अमरनाथ श्राइन बोर्ड को दी गई ज़मीन वापस ली थी. सिर्फ़ मैंने ही क्यों उन तमाम लोगों को इस हिंसा की आशंका थी जो राज्य की धर्मनिरपेक्ष अवधारणा में यकीन रखते हैं. जो राज्य के सांप्रदायिक होने का विरोध करते हैं. अब हमारी वो तमाम आशंकाएं सच हो रही हैं. इसके लिए सिर्फ़ एक व्यक्ति और एक दल का नेतृत्व ज़िम्मेदार है. वो व्यक्ति है गुलाम नबी आज़ाद और दल है कांग्रेस.

यहां पर हो सकता है कि कुछ लोग मेरी बात से इत्तेफ़ाक नहीं रखें. लेकिन मैं ये मानता हूं कि आज बीजेपी का उत्थान हुआ है तो इसके लिए काफी हद तक कांग्रेस ज़िम्मेदार है. इस बार भी कांग्रेस के गुलाम नबी आज़ाद ने बीजेपी को अमरनाथ मुद्दे पर राजनीति का मौका दिया. खाद पानी दी. यही नहीं अमरनाथ श्राइन बोर्ड को ज़मीन देने और उस फ़ैसले को वापस लेने के बीच एक लंबा वक़्त था. उस वक़्त में कांग्रेस नेतृत्व ने गुलाम नबी को उनके फ़ैसले से नहीं रोका इसलिए वो भी ज़िम्मेदार है.

यहां बहुत से लोग ये कोशिश कर रहे हैं कि सारा दोष महबूबा मुफ़्ती और जम्मू कश्मीर के दूसरे सांप्रदायिक और अलगाववादी नेताओं पर थोप दिया जाए. ये कुछ वैसी ही कोशिश है कि जो ऐटमी करार के मुद्दे पर हुई है. कांग्रेस नेताओं ने भविष्य में सोनिया को देशद्रोही करार दिया जाने की आशंका को भांप कर ऐटमी करार की ज़िम्मेदारी मनमोहन के कंधों पर डाल दी. सब यही कहते नज़र आए कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ऐटमी डील पर आगे बढ़ना चाहते हैं, ताकि भविष्य में जब इस डील के ख़तरनाक नतीजे सामने आएं तो मनमोहन को गुनहगार ठहराया जाए सोनिया को नहीं. ठीक उसी तरह कहा जा रहा है कि गुलाम नबी आज़ाद ने सियासी मजबूरी में अमरनाथ श्राइन बोर्ड को दी गई ४० हेक्टयेर ज़मीन वापस ली. लेकिन इस तर्क में कोई भी दम नहीं है. जम्मू कश्मीर में महबूबा मुफ़्ती और उनके जैसे तमाम क्षेत्रीय दल धर्म की राजनीति करते आए हैं और उन्होंने इस बार भी वही किया. लेकिन कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी है, उसका एक इतिहास है, गुलाम इस पार्टी के बड़े सिपहसालार थे... फिर वो कैसे क्षेत्रीय राजनीति के शिकार बन गए ... फिर वो कैसे राज्य की मूल अवधारणा को ताक पर रख बैठे?

सत्ता को कई मौकों पर बहुत निर्मम होना पड़ता है. जब बात मूल अवधारणाओं से जुड़ी हो तो और भी निर्मम. लेकिन हमारे यहां के राजनेता सिर्फ़ वोट की राजनीति जानते हैं. यही वजह है कि कोई जाति की सियासत में माहिर है, कोई धर्म की और कोई मौके के हिसाब से कभी जाति, कभी धर्म यानी हर किसी की सियासत कर लेता है. अगर बीजेपी ने धर्म की राजनीति की है... अगर मुलायम सिंह, मायावती, लालू यादव, रामविलास पासवान जैसे नेताओं ने जाति की सियासत की है तो कांग्रेस ने धर्म और जाति दोनों की राजनीति की है. अयोध्या में राम मंदिर का कपाट खोलना हो, उच्च शिक्षण संस्थाओं ने पिछड़ों को आरक्षण देना हो, मुस्लिमों के आर्थिक सुधार के नाम पर कमेटी का गठन हो, शाह बानो केस हो या फिर सिखों का नरसंहार... ये इतिहास के चंद पन्ने हैं और ऐसे पन्नों की फेहरिस्त काफी लंबी है. ये इतिहास बताता है कि कांग्रेस ने हर बार अपनी सहूलियत और जरूरत के हिसाब से राज्य की धर्मनिरपेक्ष छवि के साथ खिलवाड़ किया है. उसे तोड़ा-मरोड़ा है. ये कांग्रेस की नाकामी ही है जिसकी वजह से आज ऐसे नेताओं की संख्या काफी ज़्यादा है जो जाति, धर्म और क्षेत्र की राजनीति करते हैं. यूं कहें कि ताकतवर राष्ट्र को टुकड़ों में बांट कर अपना उल्लू सीधा करते हैं.

इस बार भी अगर गुलाम नबी आज़ाद धर्म की राजनीति में नहीं फंसते और श्रीनगर में हिंसक विरोध पर काबू पाने के लिए थोड़ी सख़्ती कर लेते तो जम्मू में सेना नहीं बुलानी पड़ती. मनमोहन को तैंतीस दिन की हिंसा के बाद बैठक का नाटक नहीं करना पड़ता. बीजेपी को धर्म की सियासत का आधार नहीं मिलता. इसलिए इस हिंसा के लिए तो सिर्फ़ और सिर्फ़ कांग्रेस ज़िम्मेदार है.

Tuesday, July 29, 2008

इन्हें धमाकों से क्या ... ये तो खुद मौत के सौदागर हैं

बीजेपी और कांग्रेस में कोई फ़र्क नहीं. बीते समय में हम सबने इन दोनों दलों को हिंसा पर सियासत करते देखा है और हिंसा की सियासत करते भी देखा है. १९८४ में सिखों का नरसंहार और २००२ में गुजरात में मुसलमानों का नरसंहार इसके गवाह हैं. ऐसे दंगों की फ़ेहरिस्त काफी लंबी है और इन दोनों दलों की बेशर्मी का इतिहास भी उतना ही लंबा. एक बार फिर देश के ये दोनों सबसे बड़े दल अपनी उसी चाल और चरित्र का इजहार कर रहे हैं. बैंगलोर और अहमदाबाद बम धमाकों पर सियासी रोटियां सेंकने में जुटे हैं. और इसी कोशिश में एक से बढ़ कर एक विभत्स बयान जारी कर रहे हैं.

शुरुआत बीजेपी से. मनमोहन सिंह के विश्वास प्रस्ताव पर चल रही गंभीर बहस के बीच लोकसभा के पटल पर नोट बिछाने के भद्दे नाटक के बाद अब धमाकों पर उससे भी भद्दे बयान. बीजेपी की तेज तर्रार नेता सुषमा स्वराज की माने तो ये धमाके कांग्रेस ने कराए हैं. विश्वास मत में हुई सांसदों की खरीदो-फ़रोख़्त से ध्यान हटाने के लिए. ये एक बेहद संगीन आरोप है और बिना आधार इस आरोप का कोई मतलब नहीं. अगर सुषमा ने ये बात गंभीरता से... सोच समझ कर और सबूतों के आधार पर कही हैं तो उन्हें वो आधार जनता के बीच पेश करने चाहिये ताकि कांग्रेस का वो घिनौना सच सामने आ सके. अगर सुषमा की बात में दम है तो कांग्रेस के सिर्फ़ एक नेता पर नहीं बल्कि पूरी पार्टी पर देशद्रोह का मुक़दमा चला कर सभी नेताओं को फांसी पर टांग देना चाहिये. लेकिन अगर सुषमा स्वराज ने ये बात बिना सोचे समझे कही है तो वो बेहद खुद ख़तरनाक हैं. उन्हें सियासत से हमेशा के लिए दूर कर देना चाहिये. आजीवन प्रतिबंध लगाया जाना चाहिये, ताकि लोगों को हमेशा याद रहे कि वोट के लिए समाज में ज़हर घोलना एक संगीन जुर्म है और उसे माफ़ नहीं किया जा सकता.

अब बात बीजेपी के एक और नेता नरेंद्र मोदी की. इनके बारे में तो जितना कहा जाए उतना कम है. बीजेपी के ये सबसे तेज चमकते सितारे हैं और इनकी माने तो केंद्रीय खुफ़िया एजेंसी आईबी सही तरीके से जानकारी नहीं देती है. चलिये मान लीजिये कि आईबी निकम्मी है. और आपने ये बात धमाकों का सारा दोष केंद्र पर मढ़ने के इरादे से नहीं कही. लेकिन यहां सवाल उठता है कि आखिर मोदी साहब आप क्या कर रहे थे? आप तो गुजरात के शहंशाह हैं. आपने वहां की सुरक्षा व्यवस्था क्यों नहीं दुरुस्त रखी? आज एनडीटीवी पर एक रिपोर्ट दिखाई गई. राहुल श्रीवास्तव की रिपोर्ट. उसके मुताबिक अगर अहमदाबाद में सभी १६ बमों की सही-सही जानकारी एक घंटे पहले भी दे दी जाती तो भी पुलिस १४ धमाकों को रोक नहीं पाती. अहमदाबाद पुलिस के बम निरोधी दस्ते में ड्राइवर समेत सिर्फ सात कर्मचारी हैं. एक बम को बेकार करने में कम से ४५ मिनट से एक घंटे का वक़्त लगता है. इस लिहाज से देखें तो ये कर्मचारी मिल कर डेढ़-पौने दो घंटे में अधिक से अधिक दो या तीन बम बेकार कर पाते. यही नहीं पूरे गुजरात में पुलिस महकमे के साठ फ़ीसदी पद खाली पड़े हैं. तो मोदी साहब माना आप मुसलमानों की ज़िंदगी दांव पर लगा कर सियासत करने में माहिर हैं, लेकिन हिंदुओं के हितों के लिए ही सही वहां सुरक्षा व्यवस्था तो दुरुस्त रखिये. धमाकों पर बिना आधार ओछी राजनीति तो मत करिये.

अब बात कांग्रेस की. कांग्रेस के एक बड़े नेता हैं श्रीप्रकाश जायसवाल. ये जनता का दुर्भाग्य है कि जायसवाल साहब देश के गृह राज्य मंत्री हैं. इनके बारे में एक बात मशहूर है कि ये किसी भी घटना पर बयान जारी कर सकते हैं, भले ही इन्हें उसके बारे में कोई जानकारी हो या नहीं. लेकिन इस बार तो हमारे गृह राज्य मंत्री जी ने सारी हदें तोड़ दीं. ये पहुंचे एक हवन में शामिल होने के लिए और वहां इन्होंने एक बेतुका बयान जारी कर दिया. श्री श्री १००८ श्रीप्रकाश जायसवाल ने कहा कि इस तरह के हवन होते रहने चाहिये. हवन होते हैं तो हमले नहीं होते. अगर ऐसा है तो जायसवाल साहब को तुरंत मंत्रिमंडल से बर्ख़ास्त कर देना चाहिये. जब भगवान पर ही देश की सुरक्षा की जिम्मेदारी है तो गृह मंत्रालय की ज़रूरत क्या है?

कुल मिला कर ये कहा जाए कि ये धमाके इन्हीं दोनों पार्टियों बीजेपी और कांग्रेस के दोगलेपन की वजह से हुए हैं तो ग़लत नहीं होगा. देश और राज्यों में लंबे समय इन्हीं दोनों दलों का राज रहा है. समाज को बांटने में और आतंकवाद को बढ़ावा देने में इन्हीं दोनों पार्टियों का हाथ है और ऐसे में कई बार लगता है कि ये देश सच में भगवान भरोसे ही चल रहा है.

Friday, July 25, 2008

यशोदा बड़ी या देवकी... क्या सच में तय करेगा कानून?

दो मां. एक मुसलमान और दूसरी हिंदू. बच्चा जो नौ साल पहले मुसलमान मां की कोख से जन्मा, लेकिन छह साल से उसे हिंदू मां पाल रही है. अब सवाल यह कि बच्चा किसका है? छह साल से हर दुख झेल उसे बड़ा करने वाली हिंदू मां का या फिर जन्म देने वाली मुसलमान मां का, जो बीते छह साल से हर पल उसे ढूंढ रही थी. पागलों की तरह इस गली से उस गली... इस छोर से उस छोर. बच्चा मिला तो खुशी का ठिकाना नहीं रहा, लेकिन ये खुशी उस समय जाती रही जब बच्चे ने पहचानने से इनकार कर दिया. अब फ़ैसला कानून को करना है. जिसमें एक लड़ाई जन्म देने वाली मां हार चुकी है.

ये कोई कहानी नहीं, हक़ीक़त है. गुजरात के एक नौ साल के बच्चे और उसकी दो मांओं की हक़ीक़त. उस बच्चे का नाम है मुज़फ़्फ़र मगर अब वो विवेक बन चुका है. वो अब पूजा करता है. हिंदू त्योहारों पर जश्न मनाता है. गायत्री मंत्र का जाप करता है. उसकी बहनें हैं जो उसे राखी बांधती हैं. वो भूल चुका है कि कभी उसके अब्बा मोहम्मद सलीम शेख़ उसे अंगुली थमा कर मस्जिद ले जाया करते थे.

बात २८ फरवरी, २००२ की है. गुजरात में वहशी दरिंदे सड़कों पर इंसानियत का ख़ून कर रहे थे. उन्हीं ख़ौफ़नाक पलों में मोहम्मद शेख़ ने अपने तीन साल के बच्चे मुज़फ़्फ़र, बहन फ़िरोज़ा और मां को अहमदाबाद की गुलबर्गा सोसायटी में पूर्व सांसद जाफ़री के घर पर पहुंचा दिया. इस उम्मीद में कि जाफ़री पूर्व सांसद थे और दंगाई उनके घर तक पहुंचने की हिम्मत नहीं करेंगे. लेकिन जब नरसंहार सत्ता में बैठे लोगों द्वारा प्रायोजित हो तो क्या जाफ़री और क्या शेख़. दंगाइयों ने वहां हमला किया और अगली सुबह शेख़ को हमेशा के लिए मौन हो चुकी मां मिली और बहन और बेटे का पता नहीं चला.

उसके बाद शेख़ और उनकी बीवी ज़ेबुनिस्सा ने मुज़फ़्फ़र और फ़िरोज़ा की तलाश में दिन रात एक कर दिया. एक राहत शिविर से दूसरे राहत शिविर. एक शहर से दूसरे शहर. एक दर से दूसरे दर ... सभी जगह ढूंढा... गुहार लगाई, लेकिन हाथ खाली ही रहे. मुज़फ़्फ़र की याद आते ही मां का कलेजा फट पड़ता... वो मां हर वक़्त रोती रहती, पर करती भी तो क्या करती ... खुद की लाचारी और बदकिस्मती पर... वो कुछ आंसू बहा लेती.

लेकिन दो हफ़्ते पहले जैसे ज़िंदगी लौट आई. सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ और सुप्रीम कोर्ट की तरफ से गठित एसआईटी की मदद से मुज़फ़्फ़र मिल गया. डीएनए टेस्ट में भी इसकी पुष्टि हो गई. लेकिन अब वो मुज़फ़्फ़र से विवेक विक्रम पटनी बन चुका है. मुसलमान से हिंदू में तब्दील हो गया है. सिर्फ़ धर्म ही नहीं बदला है, वक़्त ने जेहन में बसी असली मां-बाप की यादें मिटा दी हैं. अब वो मीना पटनी को मां मानता है और उसके पिता विक्रम पटनी की चार साल पहले मौत हो चुकी है.

दफ़्तर में जब ये रिपोर्ट आई तो मेरे चेहरे पर एक साथ कई भाव उतर आए. आंखों में मोदी और वीएचपी के लिए घृणा तो उभरी ही दोनों मांओं और बच्चे की स्थिति के बारे में सोच कर दर्द की लकीर भी खिंच गई. थोड़ी देर सोच में डूबा रहा फिर यही ख़्याल उभरा कि देखिये ज़िंदगी भी क्या गुल खिलाती है... मौत की आंधी में भी कुछ ऐसे दीये जलते हुए छोड़ जाती है जो सदियों तक भटके हुए लोगों को सही राह दिखाती रहें. वरना जिस गुजरात में हिंदुओं ने सत्ता के संरक्षण पर मुसलमानों का नरसंहार किया ... उसी गुजरात में इंसानियत की ये मिसाल क्यों? क्यों एक हिंदू मां ने मुसलमान बच्चे को अपनाया? और क्यों डीएनए टेस्ट के बाद भी वो ये मानने को तैयार नहीं कि ये बच्चा गैर है?

बेटे की पहचान होने के बाद ज़ेबुनिस्सा ने पटनी परिवार से अपना मुज़फ़्फ़र मांगा तो उन्होंने ये कह इनकार कर दिया कि वो किसी मुज़फ़्फ़र को जानते ही नहीं. उनके बेटे के नाम तो विवेक है. मामला मेट्रोपोलिटन जज के पास पहुंचा. अदालत में बेटे की झलक पाने के बाद ज़ेबुनिस्सा की आंखें छलक आईं, लेकिन बेटा मां के आंसू पहचान नहीं सका. पहचानता भी तो कैसे... जब बिछुड़ते वक़्त वो इतना छोटा था कि स्मृतियों को लंबे वक़्त तक सहेजने की कला सीख नहीं सका था. अदालत ने जब उससे पूछा कि वो किस मां के साथ रहना चाहता है तो उसने मीना की तरफ इशारा कर दिया. अब वो उन्हें ही मां समझता है और मुश्किल के वक़्त उन्हीं की आंचल में सिर छुपाता है. कोर्ट ने भी फ़ैसला मीना के हक़ में दिया. छह साल से जिगर के टुकड़े को तलाश रही ज़ेबुनिस्सा की झोली खाली रह गई. लेकिन इस बार वो बेटा खोना नहीं चाहती, इसलिए हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटा दिया है.

जो भी मुज़फ़्फ़र से विवेक बन चुके बच्चे और उनकी दोनों मांओं की दास्तान को सुन रहा है उसके मन में पहला सवाल यही कौंधता है कि आखिर किस मां की झोली भरेगी, किसकी खाली रहेगी? कन्हैया यशोदा को मिलेगा या देवकी को? मेरे बहुत से साथियों का ये मत है कि देवकी को त्याग करना चाहिये। कान्हा को यशोदा के पास ही छोड़ देना चाहिये. लेकिन मेरा मत अलग है.

मैं ये मानता हूं कि यशोदा की नियति ही त्याग है... उसे हर जन्म में कान्हा को प्यार देना है... लेकिन इस सोच के साथ कि कान्हा उनका नहीं है. सोचिये यशोदा की झोली खाली थी चंद वर्षों के लिए ही सही कान्हा ने उस झोली को खुशियों से भर दिया ... ज़िंदगी के कई खूबसूरत रंग दिखाए... लेकिन देवकी की झोली भरी थी... और खाली हो गई ... बीते छह साल में इस देवकी के हिस्से सिर्फ़ आंसू आएं हैं ... अगर इस बार भी उसकी झोली खाली रह गई तो ये बड़ा अनर्थ होगा. यशोदा क्या खुद को माफ कर सकेगी.

Thursday, July 24, 2008

बाल हठ के शिकार हो गए हैं सोमनाथ चटर्जी


उम्र का अपना असर होता है. ये एक ऐसा सत्य है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता. बीते वक़्त में हमने चंद्रशेखर को देखा था और अभी सोमनाथ चटर्जी को देख रहे हैं. बुढ़ापे में व्यक्ति एक छोटे बच्चे की तरह फ़ैसले लेने लगता है. ग़लत होते हुए भी ग़लती मानने को तैयार नहीं होता. उसमें बार बार बाल हठ झलकता है. वो हठ कई बार खुद उसके लिए सही नहीं होता, लेकिन तब इतना विवेक ही कहां कि ग़लत और सही का फ़ैसला कर सके.

सोमनाथ चटर्जी को सत्ता के गलियारे में सोमनाथ दा कहा जाता है. सोमनाथ ज़िंदगी भर लाल झंडा उठा कर चले. १९६८ से लेकर २००८ तक. चालीस साल. इन बीते चालीस साल में हमने कई सियासदानों को पथभ्रष्ट होते देखा. सत्ता के लिए कपड़े की तरह दल बदलते देखा. सोमनाथ इन सबसे दूर अपनी पार्टी के साथ अटल रहे. लेकिन सियासत के आखिरी पड़ाव में बग़ावत पर उतर आए. ये भूल कर कि आज वो जिस मुकाम पर पहुंचे हैं उसमें उनकी काबिलियत तो है मगर लाल झंडे का योगदान ज़्यादा बड़ा है. फिर आज वो खुद को उस झंडे से बड़ा कैसे मान बैठे हैं?

कायदे से होना तो यह चाहिये था कि सोमनाथ विश्वास प्रस्ताव पर बहस के लिए बुलाए गए विशेष सत्र से पहले ही स्पीकर पद से इस्तीफ़ा दे देते. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. जिस पोलित ब्यूरो ने उनकी गुजारिश पर उन्हें स्पीकर बनने के लिए हरी झंडी दिखाई थी. सोमनाथ ने उसी पोलित ब्यूरो की गुजारिश को ठुकरा दिया. बहुत से लोग कहने लगे कि ऐसा करके उन्होंने स्पीकर पद की गरिमा बचाए रखी. मेरा मत ऐसा बिल्कुल नहीं है, फिर भी थोड़ी देर के लिए मैं इस तर्क को मान लेता हूं. तो क्या विश्वास मत के बाद उन्हें पार्टी का मान नहीं रखना चाहिये था?

विश्वास मत से पहले उन्होंने अपने करीबी सूत्रों के जरिये ये संदेश भिजवाया कि मनमोहन सरकार की किस्मत का फ़ैसला होते ही वो पद से इस्तीफ़ा दे देंगे. साथ ही संसद की सदस्यता से भी. लेकिन अब इस्तीफ़ा देने की बात तो दूर विदेश दौरे की योजना बना रहे हैं. जाहिर है पद का मोह उन पर हावी हो चुका है. वो भी इस कदर कि सीपीएम से निकाले जाने और नैतिक आधार गंवाने के बाद भी वो पद पर बने रहना चाहते हैं. यही नहीं वो कांग्रेस और यूपीए नेताओं से मिल रहे हैं. लेकिन बावजूद इसके अब भी यही उम्मीद है कि धुंधली पड़ चुकी ही सही, एक विचारधारा से चालीस साल की वफादारी को वो गद्दारी से कलंकित नहीं करेंगे. अपना बाल हठ छोड़ कर विवेक से फ़ैसला लेंगे और अगले कुछ दिनों में स्पीकर पद से इस्तीफ़ा दे देंगे.

लो अब चलेगा देश बेचने का खुला खेल

लेफ़्ट ने समर्थन वापस ले लिया फिर भी सरकार बच गई. तीन पार्टियों बीजेपी, शिवसेना, बीजेपी और टीडीपी के जयचंदों ने मिल कर सरकार बचा दी. मनमोहन की बांछें खिल गई हैं. उनकी आका सोनिया और कांग्रेस के सारे पंटर भी जश्न मना रहे हैं. जश्न मुंबई में भी मनाया जा रहा है. शेयर बाज़ार के सारे दलाल सक्रिय हो गए हैं. निफ़्टी और सेंसेक्स छलांगे लगा रहा है. एक झटके में अमेरिका की मंदी का असर ख़त्म हो गया है. पहले ही दिन सेंसेक्स ने साढ़े आठ सौ अंकों की छलांग लगाई और निफ़्टी ने करीब ढाई सौ अंक. ये छलांग बताती है अब देश में आर्थिक सुधारों के नाम पर खुला खेल चलेगा. लेफ़्ट की लगाम हट गई है और अब दलालों का राज है. सरकारी कंपनियां बेची जाएंगी, निजी कंपनियों को कई तरह की रियायतें दी जाएंगी. उन रियायतों के लिए चिदंबरम एंड कंपनी को भी तोहफा मिलेगा. अरे हां, अमर सिंह को मत भूलियेगा... वो इस वक़्त का सबसे बड़ा दलाल है, बिल्डरों के हाथ उत्तर प्रदेश के कई शहर बेच चुका है और अब देश बेचने की तैयारी है.

इसको विस्तार से समझने के लिए ज़्यादा जोर देने की ज़रूरत नहीं है. आज जिन कंपनियों के भाव चढ़े हैं उनमें सबसे ऊपर जूनियर अंबानी की कंपनियां हैं. अमर सिंह के दोस्त अनिल अंबानी की कंपनियां. आरएनआरएल जैसी कमजोर कंपनी के भाव सबसे अधिक २२ फ़ीसदी चढ़े. यही नहीं पिछले छह महीने से मार झेल रही रियेलिटी सेक्टर की कंपनियां अब बूम-बूम कर रही हैं. किसी शेयर का भाव नौ फ़ीसदी बढ़ा है तो किसी का दस फ़ीसदी. सेल जैसी सरकारी कंपनी भी नौ फ़ीसदी ऊपर है. ये संकेत है कि अब देश में क्या होने जा रहा है.

कुछ पढ़े लिखे लोग तर्क दे रहे हैं कि लेफ़्ट की समर्थन वापसी से देश के विकास में तेजी आएगी, जैसे लेफ़्ट ने विकास की रफ़्तार रोक रखी थी. उनके मुताबिक लेफ़्ट फ्रंट ने बीते चार साल में देश को गर्त में मिला दिया. अरे भाई जरा दिमाग पर जोर दीजिये और बताइये कि आखिर लेफ़्ट फ्रंट ने ऐसे कौन से गुनाह किये जो देश गर्त में मिल गया. सरकारी कंपनियों को बेचने से रोका तो क्या ग़लत किया? पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ाने पर हंगामा काटा तो क्या ग़लत हुआ? क्या किसानों को दी जा रही सब्सिडी में कटौती का विरोध ग़लत था? क्या गरीबों को सुविधाएं देने की वकालत करना गुनाह है? क्या रोजगार गारंटी योजना के लिए दबाव गुनाह है? आखिर लेफ़्ट ने ऐसा क्या किया जिससे उस पर सवाल खड़े किये जा रहे हैं?

देश की सत्ता के शीर्ष पर बैठे सबसे बड़े पंटर मनमोहन सिंह की माने तो लेफ़्ट ने उनकी सरकार को बंधुआ बना कर रखा था. ये एक बेहद बेहूदा टिप्पणी है. खासकर तब जब आपने न्यूनतम साझा कार्यक्रम को तोड़ा हो ना कि आपको समर्थन दे रहे लेफ़्ट ने. वैसे मनमोहन के उस बयान पर मैं हैरान नहीं हुआ. ये सिर्फ मनमोहन नहीं बल्कि पूरे कांग्रेस का चरित्र है. ये वही पार्टी है जिसने एक बार नहीं कई कई बार गठबंधन सरकार को सिर्फ अपनी शर्तें नहीं मानने के कारण एक साल के भीतर गिरा दिया. चरण सिंह, देवेगौड़ा, आई के गुजराल और चंद्रशेखर इसके गवाह हैं. आज़ादी बाद के कांग्रेस के इतिहास को देख कर और कांग्रेसी नेताओं के बयान को सुन कर तो यही लगता है कि ऐसी दोगली पार्टी और उसके सबसे बड़े पंटर मनमोहन सिंह की सरकार को चार साल तक समर्थन देते रहने ही लेफ़्ट का सबसे बड़ा गुनाह है.

इसलिए आज यूपीए की जीत पर जो भी जश्न मना रहे हैं वो कल पछताने के लिए तैयार रहे हैं. क्योंकि ऐसा ही जश्न तब मनाया गया था जब देश में बेरोक-टोक आर्थिक सुधारों की शुरुआत हुई. तब से अब तक विकास तो बहुत हुआ है, लेकिन देश का नहीं अंबानी और टाटा जैसे घरानों का. देश का तो काफी कुछ बिक चुका है और बाकी जो भी बचा है... उसमें से बहुत कुछ अगले छह महीने में बिक जाएगा. तो सोनिया एंड कंपनी तुम देश बेचने का खुला खेल शुरू करो... आज जो तुम्हारी जीत का जश्न मना रहे हैं... कल तो उन्हें पछताना ही है.

Tuesday, July 22, 2008

जीत ऐसी जो सिर शर्म से झुका दे

यूपीए सरकार जीत गई. लोकसभा में मनमोहन सिंह के विश्वास प्रस्ताव पर मतदान के नतीजे उसके पक्ष में गए हैं. लेकिन इस नतीजे पर फख्र महसूस करने का हक़ किसी को नहीं है. ना ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को, ना उनकी आका सोनिया गांधी को, ना ही अमर सिंह और मुलायम सिंह यादव को और ना ही उनके समर्थकों को. इसलिए कि इस विश्वास मत से पहले और उसके दौरान जितनी गंदगी फैली है उसे साफ करने में कई दशक लगेंगे.

इस बार के विश्वास मत ने अवसरवाद की नई परिभाषा को जन्म दिया. बताया कि सत्ता के संघर्ष में विचार कहीं नहीं टिकते. सत्ता सर्वोपरी है और उसे हासिल करने के लिए विचारों का वध भी जायज है. यही वजह है कि चार साल तक कांग्रेस से लतियाए जाने के बाद भी मुलायम आखिर में कांग्रेस की गोद में जाकर बैठक गए. जम्मू कश्मीर में चंद दिनों पहले कांग्रेस की सरकार गिराने वाले नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी ने मनमोहन सरकार के समर्थन में वोट दिया. अमेरिका के ख़िलाफ़ नारेबाजी करने वाले ज़्यादातर मुस्लिम सांसद अमेरिका से हुए ऐटमी करार के पक्ष में नज़र आए.

सत्ता बचाने वालों ने पूरी नंगई की तो गिराने वालों ने भी कम गलीचपन नहीं किया. एक तथाकथित धर्मनिरपेक्ष सरकार को गिराने के लिए दक्षिणपंथी और वामपंथी एक मंच पर आ गए. जाति की राजनीति का विरोध करने का दंभ भरने वाले वामपंथी सिर्फ जाति की राजनीति करने वाली मायावती के हाथ से हाथ मिला बैठे.

सिर्फ वैचारिक धरातल पर ही नहीं मर्यादाएं हर स्तर पर टूटी हैं. पहली मर्तबा नेताओं ने खुल कर एक दूसरे पर खरीदो-फ़रोख़्त के आरोप लगाए. इसकी शुरुआत सीपीआई महासचिव एबी बर्धन के बयान से हुई, फिर इस विवाद को हवा दी मायावती, मुलायम और अमर सिंह और अंत बीजेपी सांसदों ने लोकसभा में रुपयों की नुमाइश से किया. लगता है कुछ और दिन के लिए बहस खिंचती तो ना जाने क्या-क्या हो जाता.

यही नहीं इस दौरान जुबां की तल्खी भी देखने को मिली. तल्खी भी ऐसी जिसे मिटाने में कई पीढ़ियां लग जाएं. संसद के बाहर तो गालीगलौज हुआ ही. भीतर भी नेताओं ने एक दूसरे को बेपर्दा किया. वो भी इतना कि लाइव प्रसारण की आवाज़ बंद कर देनी पड़ी.

इतना सबकुछ होने के बाद जब विश्वास प्रस्ताव पर मतदान के नतीजे आए तो सोनिया गांधी और उनके भांट मनमोहन सिंह का चेहरा खिला हुआ था. उनके खिले चेहरों से ये तो अंदाजा लगाया ही जा सकता है कि बीते साठ साल में हमने कितना कुछ खो दिया है. सिर्फ स्वतंत्रता सेनानियों के सपनों से गद्दारी नहीं की है बल्कि खुद से भी गद्दारी की है. तभी तो हमारी आंखों का पानी सूख गया है... वर्ना आज एक अरब से ज़्यादा हिंदुस्तानियों की आंख से थोड़ा-थोड़ा पानी भी बहता तो संसद की सारी गंदगी बह जाती.

पूरे देश को नंगा कर दिया

आज संसद में जो कुछ भी हुआ, वह बेहद घिनौना था. बीजेपी के तीन सांसद अशोक अर्गल, फग्गन सिंह कुलस्ते और महावीर भगौड़ा ने लोक सभा के पटल पर नोटों से भरा बैग रखा. उसके बाद बैग से नोटों की गड्डियां निकाल कर कैमरे के सामने दिखाया. फिर पूरे देश और दुनिया को चीख चीख कर समाजवादी पार्टी के महासचिव अमर सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल ने उन्हें खरीदने की कोशिश की. ये एक करोड़ रुपये उन्हें बतौर एडवांस दिये गए हैं ... आठ करोड़ रुपये और बाद में दिये जाने हैं.

बीते दस दिन से हम सुनते आ रहे थे कि सांसद खरीदे और बेचे जा रहे हैं, डराए-धमकाए जा रहे हैं. लेकिन अब तो वो नंगापन सबके सामने है. ये सिर्फ हमारे सांसदों का नंगापन नहीं है. बल्कि ये वो चेहरा है जिससे हम हर रोज रू-ब-रू होते हैं और आंख मूंद कर गुजर जाते हैं. इस अंदाज में कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं है. लेकिन आज तो हम पलकें बंद करेंगे तो भी संसद का वो घिनौना दृश्य आंखों में कौंधता रहेगा और वो तस्वीरें हमें बार-बार याद दिलाती रहेंगी कि आज सिर्फ हमारे सांसद और हमारी संसद नंगी नहीं हुई है बल्कि पूरे देश को बेपर्दा कर ... कोठे पर बिठा दिया गया है. और सफेद कपड़े पहने चंद लोग उसकी बोली लगा रहे हैं... कह रहे हैं खरीद सको तो खरीद लो ... ये देश बिकाऊ है.

बीजेपी सांसदों के आरोपों में कितना दम है. ये जांच का विषय है. अमर सिंह और अहमद पटेल दोषी हैं या फिर ये उन्हें फंसाने की साज़िश है, उस सच से पर्दा उठना बाकी है. लेकिन उस सच से इतर एक सच ये भी है कि देश की संसदीय प्रणाली की आत्मा मर चुकी है. सिर्फ संसदीय प्रणाली ही क्यों हमारे और आपके भीतर भी बहुत कुछ मर चुका है. शायद यही वजह है कि आज इस घटना के बाद भी कहीं कुछ नहीं रुका. ये मुर्दा कौम अपनी रफ्तार से चलती रही. लोग आंसू बहाने की जगह हंसते रहे.

Monday, July 21, 2008

डीलर नहीं लीडर चाहिये

अभी लोकसभा में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के विश्वास प्रस्ताव पर बहस चल रही है. इस बहस के दौरान सीपीएम सांसद मोहम्मद सलीम ने एक बेहद संजीदा मुद्दा उठाया. उन्होंने कहा कि जैसे अमेरिका की कंपनियां भारत में काम आउटसोर्स करती हैं, वैसे ही मनमोहन सरकार ने देश की विदेश नीति अमेरिका को आउटसोर्स कर दी है. वो विदेश नीति जिसे आजादी की लड़ाई लड़ने वाले आज़ाद रखना चाहते थे, उसे अमेरिका का गुलाम बना दिया. सलीम ने ये भी कहा कि लेफ्ट फ्रंट ने न्यूनतम साझा कार्यक्रम के आधार पर यूपीए को समर्थन दिया था, अमेरिका को नहीं. फिर ये डील कहां से आयी और लेफ्ट से उसके समर्थन की उम्मीद क्यों की गई. सलीम ने इसी आक्रामक अंदाज में ये भी कहा कि डील की बात डीलर करते हैं लीडर नहीं. लीडर तो डील से आगे सोचता है. उसका भूत, वर्तमान और भविष्य देखता है. इसलिए देश को डीलर नहीं बल्कि लीडर चाहिये.

मोहम्मद सलीम के इस बयान में भारत-अमेरिका ऐटमी डील की सच्चाई है तो देश के सियासत का ख़तरनाक सच भी. आज हमारे देश में तात्कालिक नफा-नुकसान से ऊपर उठ कर देशहित में फ़ैसले लेने वाले नेता कितने है, अगर गिनने बैठिये तो दोनों हाथों की अंगुलियां कम पड़ जाएंगीं. उनमें भी अगर ऐसे नेता की बात करें जिसका एक बड़ा जनाधार हो तो वैसा नेता एक भी नहीं मिलेगा. जो हैं या तो मनमोहन सिंह की तरह किताबी अर्थशास्त्री हैं. प्रणब मुखर्जी और अर्जुन सिंह की तरह बीते जमाने के धुर्त रणनीतिकार हैं. लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव और राम विलास पासवान जैसे पथभ्रष्ट और सत्ता लोलुप समाजवादी हैं. अमर सिंह जैसे दलाल हैं और सूरजभान, शहाबुद्दीन, मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद और राजा भैया जैसे पेशेवर अपराधी हैं.

इन नेताओं की फेहरिस्त में एक भी ऐसा नहीं है जिसे गरीबों से कोई वास्ता हो. जिसे किसानों से कोई लेना देना हो. जो स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार जैसे गंभीर मुद्दों पर संजीदा होकर सोचता हो. अगर ऐसा होता तो अमेरिका से किसी भी तरह की सौदेबाजी से पहले पानी की समस्या पर विचार किया जाता. देखिये इस साल भी बुंदेलखंड में सूखा है. इस साल भी ना जाने कितने किसान साहूकार का कर्ज चुकाने के लिए खेत बेचेंगे, ना जाने कितने भूख से बीमार पड़ कर दम तोड़ेंगे. ना जाने कितने किसान मालिक से मजदूर बनकर शहरों की फैक्ट्रियों में काम करेंगे.

अगर कोई संजीदा नेता होता तो वो ऐटमी करार से पहले सोचता कि किस तरह दिल्ली से सैकड़ों मील दूर बस्तर और पलामू में भी अच्छे अस्पताल खुलवाएं जाएं. ऐसे अस्पताल जहां गरीबों को उनकी हैसियत में भी अच्छा इलाज मिल सके. उन दूर दराज के इलाकों को छोड़ दें, दिल्ली से साठ किलोमीटर दूर जाने पर भी कोई औसत दर्जे का अस्पताल नहीं मिलता. दिल्ली में भी जो हैं वो अमीरों के लिए हैं. गरीब तो कतार में खड़े होने के लिए और मरने के लिए छोड़ दिये जाते हैं.

आज क्या कोई नेता सोचता है कि देहात में बच्चों को अच्छी शिक्षा दी जाए ताकि वो बड़े होकर अपने लिए एक बेहतर भविष्य तैयार कर रहे हैं. गायक, संगीतकार, चित्रकार, कलाकार या फिर खिलाड़ी बनने जैसे सपनों को पूरा करने की बात छोड़ दीजिये, जरूरतें पूरी करने लायक कमा सकें. नहीं, ऐसा संवेदनशील नेता एक भी नहीं है? यही वजह है कि गांव के बच्चे वैसे सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे हैं जहां टीचर नहीं. टीचर हैं तो उन पर नज़र रखने की व्यवस्था नहीं. बच्चे पढ़ लिख कर आगे बढ़ने की जगह या तो कमाई का आसान रास्ता तलाशते हुए अपराध के दलदल में फंसते हैं या फिर मजदूरी के लिए गांव छोड़ शहरों की ओर भागते हैं. अपनी मिट्टी और परिवार से दूर गुलामों की तरह काम करते हुए चंद पैसे जोड़ कर घर भेजते हैं, ताकि उनके बच्चे पढ़ सकें, लेकिन उन गांव में तो वही व्यवस्था है जिसका वो खुद शिकार हुए. वो व्यवस्था अब भी नहीं बदली है और उम्मीद की रोशनी भी कहीं नहीं है.

इसलिए आज मनमोहन से... माफ कीजियेगा... सोनिया गांधी से पूछा जाना चाहिये कि बीते चार साल और दो महीनों में उन्होंने इस देश के लिए क्या किया? सोनिया से इसलिये कि देश की जनता ने उन्हें चुना था, मनमोहन को नहीं. मनमोहन तो शुरू से डीलर थे, लीडर नहीं. यही वजह है कि वो चार साल तक सत्ता के शीर्ष पर बैठे रहने के बाद भी जनता के बीच जाने का साहस नहीं जुटा सके. लोकसभा का चुनाव कभी लड़ नहीं सके. बस डील के चक्कर में पड़े रहे, डील भी ऐसी कि देश की सम्प्रभुता ही दांव पर लग जाए.

Sunday, July 20, 2008

तो सोनिया इसलिए नहीं बनीं प्रधानमंत्री

बात २००४ की है. उन दिनों मैं स्टार न्यूज़ में था. आम चुनाव हो चुके थे और सियासी उठापटक के बीच सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम से मिलने गए. उस समय हमारे सीनियर प्रोड्यूसर अजित साही पूरे दफ़्तर में घूम-घूम कर पूछ रहे थे कि प्रधानमंत्री कौन बनेगा? उनके मुताबिक सोनिया प्रधानमंत्री बनने वाली थीं और जो उनके राय से इत्तेफाक रखता वो उसकी तारीफ करते जो नहीं वो उसे पागल घोषित कर देते. उसी क्रम में वो मेरे पास भी आए. मैंने कहा कि कौन बनेगा ये तो नहीं कह सकता लेकिन इतना तय है कि सोनिया गांधी नहीं बनेंगी. अजित साही ने मुझे भी पागल घोषित कर दिया. मैंने उनसे कहा कि सोनिया विदेशी मूल की हैं और अगर उन्होंने प्रधानमंत्री पद कबूल किया तो उनके हर फ़ैसले को देशभक्ति के पैमाने पर तोला जाएगा और एक गलत फ़ैसले पर उन्हें जनता के बीच देशद्रोही घोषित कर दिया जाएगा. ऐसे में मेरा आकलन तो यही कहता है कि उनमें अगर हल्की सी भी सियासी समझ होगी तो वो प्रधानमंत्री नहीं बनेंगी.

हुआ भी ऐसा ही. सोनिया प्रधानमंत्री नहीं बनीं. उन्होंने त्याग का दांव खेला और उनका ये दांव अब तक सही जा रहा है. सोचिये आज सोनिया देश की प्रधानमंत्री होतीं और उनकी अगुवाई में देश अमेरिका से ऐटमी करार करता. तब क्या विरोध के तेवर यही होते? नहीं. वैसी सूरत में अब तक ये नारा दिया जा चुका होता कि इटली मूल की सोनिया ने भारत की अस्मिता को अमेरिका के हाथों बेच दिया. लेकिन सोनिया और उनके चेलों ने बड़ी चतुराई से विरोध के इस तीखे तेवर को अब तक दूर रखा है. बार बार यही कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ऐटमी करार चाहते हैं. मनमोहन की चाहत और सीपीएम महासचिव प्रकाश करात की जिद की वजह से आज ऐसा सियासी संकट पैदा हुआ है जिसने संसद को बाज़ार बना दिया है और सांसदों की बोली लगाई जा रही है. जबकि हक़ीक़त इसके एकदम उलट है.

अगर किसी कम अक्ल से भी पूछा जाए कि बीते चार साल से सरकार कौन चला रहा था? सोनिया या मनमोहन? तो सब यही कहेंगे कि सोनिया. यूपीए की चेयरमैन सोनिया के इशारे से मनमोहन सभी काम करते रहे. उनकी भूमिका एक कठपुतली से अधिक नहीं रही. ऐटमी करार भी मनमोहन ने नहीं सोनिया ने किया है. अगर सोनिया नहीं चाहतीं तो मनमोहन की हिम्मत और हैसियत ऐसी नहीं थी कि वो इतना बड़ा फैसला लेते. अपनी उसी जिद को पूरा करने के लिए आज सोनिया गांधी हर हथकंडे अपना रही हैं. प्रधानमंत्री निवास से कहीं ज्यादा गहमागहमी सोनिया के घर यानी दस जनपथ पर है. हर सांसद से सोनिया खुद मिल रही हैं. मनमोहन के भरोसे पर नहीं बल्कि सोनिया से मुलाकात के बाद और उनके भरोसे पर शिबू सोरेन जैसे नेता यूपीए को समर्थन देने को तैयार हो रहे हैं.

इसलिए अगर आज के सियासी संकट के लिए कोई जिम्मेदार है तो वो सिर्फ और सिर्फ सोनिया गांधी हैं. देश की अस्मिता को ख़तरे में डालने के लिए भी अगर कोई जिम्मेदार हैं तो वो हैं सोनिया गांधी. बिजली बनाने के नाम पर भारत की सुरक्षा से समझौता करने के लिए अगर कोई जिम्मेदार है तो वो हैं सोनिया गांधी. अगर सरकार बची और करार पर अमल हुआ तो वक़्त इस तथ्य पर छाए धुंधलके को और साफ कर देगा. तब इस देश की जनता सोनिया गांधी से उनकी इस साज़िश का जवाब मांगेगी. तब सोनिया से पूछा जाएगा कि क्या देश को इतना बड़ा धोखा देने के लिए ही आपने त्याग का नाटक खेला था? प्रधानमंत्री का पद ठुकराया था? एक ऐसा धोखा जिससे उबरने के लिए हम लोगों को ना जाने कितना संघर्ष करना होगा.

Thursday, July 17, 2008

सोमनाथ जवाब दो... और कैसे रोका जा सकता है करार?

सोमनाथ चटर्जी ने फिर कहा है कि वो बीजेपी के साथ यूपीए सरकार के ख़िलाफ़ मतदान नहीं करेंगे और अपने पुराने रुख़ पर कायम हैं. ये बेहद बचकाना तर्क है. सोमनाथ चटर्जी से पूछा जाना चाहिये कि ऐटमी डील के ख़िलाफ़ हैं या पक्ष में। अगर वो पक्ष में हैं तब तो बहस की दिशा अलग होगी. अगर ख़िलाफ़ हैं तो उनसे ये पूछा जाना चाहिये कि सरकार को अमेरिका से ऐटमी करार से रोकने का क्या उपाय है? क्या सरकार गिराए बगैर ऐटमी डील रोकी जा सकती है? किसी भी औसत विवेक वाले शख़्स से भी ये पूछा जाए तो उसका सीधा जवाब होगा... नहीं. जब सरकार गिराए बगैर ऐटमी डील नहीं रोकी जा सकती तो फिर सोमनाथ से ये भी पूछा जाना चाहिये कि बिना बीजेपी के साथ मतदान किये वो सरकार कैसे गिराएंगे और ऐटमी डील को कैसे रोकेंगे?

यहां सोमनाथ ये भी बताएं कि विश्वास मत पर मतदान बराबरी पर छूटा तब वो क्या करेंगे? वैसी सूरत में लोकसभा अध्यक्ष को अपना मत देना होता है. तब क्या वो मत बीजेपी के ख़िलाफ़ और यूपीए के पक्ष में देंगे. दरअसल सोमनाथ चटर्जी की कोई भी दलील गले नहीं उतर रही. उनके जैसे सीपीएम के कुछ और सांसद यही राग अलाप रहे हैं. उन सांसदों की सोच पर ताज्जुब होता है. यहां उन तमाम सांसदों को यह भी याद दिलाना चाहिये कि इन्हीं सोमनाथ चटर्जी को जब लोकसभा का अध्यक्ष बनाया जा रहा था तब बीजेपी ने भी उनके नाम का विरोध नहीं किया था. तब क्यों नहीं सोमनाथ चटर्जी ने सामने आकर कहा कि उन्हें बीजेपी के समर्थन की कोई जरूरत नहीं. हालांकि तब बीजेपी के समर्थन या विरोध से उनके चुनाव पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता, फिर भी सोमनाथ को सांकेतिक तौर पर ही सही ये कहना चाहिये था कि उन्हें बीजेपी का समर्थन नहीं, विरोध चाहिये.

सिर्फ इन्हीं सवालों का जवाब क्यों, सोमनाथ को ये भी बताना होगा कि अगर वो सिर्फ एक सांसद होते और सदन में महिला विधेयक पेश किया जाता, बीजेपी उसके समर्थन में वोट देती तो क्या वो उसके ख़िलाफ़ खड़े होते? उन्हें ये भी बताना होगा कि अब तक के अपने संसदीय इतिहास में ऐसे कौन कौन से विधेयक हैं जिनमें उनकी पार्टी ने बीजेपी के साथ मतदान किया और उन्होंने उसके ख़िलाफ़.

सच यही है कि आज ये बुजुर्ग सियासतदान या तो पद का लोभी हो चुका है या फिर अमेरिका से ऐटमी करार के समर्थन में है. यही वजह है कि वो अपने बचाव में ऐसी बेतुका दलीलें गढ़ रहा हैं जिन्हें मंजूर नहीं किया जा सकता.

Wednesday, July 16, 2008

तो सोमनाथ भी अमेरिकी एजेंट बन गए

पथभ्रष्ट होने की कोई उम्र नहीं होती. कोई बचपन में ही राह भटक जाता है तो कोई उम्र की आखिरी दहलीज पर. लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी अस्सी साल की उम्र में अपनी ज़िंदगी की सबसे बड़ी भूल करने जा रहे हैं. उन्होंने सीपीएम के आदेश को ठुकराते हुए लोकसभा अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने से इनकार कर दिया है. ये जानते बूझते कि इस समय सीपीएम ऐतिहासिक लड़ाई लड़ रही है. अगर सरकार बची तो ऐटमी करार पर अमल होगा और भारतीय विदेश नीति की दिशा बदल जाएगी. क्या सोमनाथ चटर्जी नहीं जानते कि इससे भारत की संप्रभुता ख़तरे में पड़ेगी. भारत अमेरिका का पिछलग्गू देश बन कर रह जाएगा.

लोकतंत्र में एक-एक वोट की बड़ी अहमियत होती है. सोमनाथ चटर्जी से बेहतर शायद ही कम लोग वोट के महत्व को समझते होंगे. उन्होंने भी १९९९ में देखा था कि किस तरह उड़ीसा में मुख्यमंत्री होते हुए भी गिरधर गोमांग ने बतौर सांसद सदन में वोट दिया और वाजपेयी सरकार गिर गई। अगर गोमांग का एक वोट नहीं पड़ा होता तो वाजपेयी सरकार बच जाती. इसलिए एक वोट की ताकत से इनकार नहीं किया जा सकता. फिर भी अगर सोमनाथ चटर्जी लोकसभा अध्यक्ष की कुर्सी पर बने रहने की जिद कर रहे हैं, ये सोच कर हैरानी होती है.

यहां सोमनाथ चटर्जी का तर्क है कि वो बीजेपी के साथ वोटिंग के ख़िलाफ़ हैं. इसलिए वो पद नहीं छोड़ेंगे. इस तर्क का कोई मतलब समझ में नहीं आता. संसद में क्या वो किसी बिल का समर्थन ये देख कर करते हैं कि उस पर बीजेपी की राय क्या है? अगर ऐसा है तो सोमनाथ चटर्जी को सांसद बनने का कोई हक नहीं. उन्हें तुरंत बतौर सांसद अपने पद से इस्तीफा दे देना चाहिये. अगर उनके जैसा पढ़ा-लिखा शख़्स अपने फ़ैसले बीजेपी के रुख के आधार पर करता है, मुद्दों के आधार पर नहीं तो ये सोच भारतीय लोकतंत्र की त्रासदी पर हंसा ही जा सकता है.

भारतीय राजनीति इस वक़्त ऐतिहासिक मोड़ पर है. ख़तरा भीतरी दुश्मन से नहीं बल्कि अमेरिका जैसे बाहरी शत्रु से है जो दोस्त बन कर हमारी पीठ पर छूरा घोंपना चाहता है. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अमेरिका के एजेंट की तरह बर्ताव कर रहे हैं. अमर सिंह ने हमेशा दलाली की है और इस बार वो अपने आका मुलायम सिंह के साथ बड़ी गोटी सेट करने में जुटे हैं. दिल्ली में कारोबारी भी अड्डा जमा चुके हैं. सांसदों का बाज़ार सज चुका है, खरीद फ़रोख़्त शुरू हो गई है, बोलियां पर बोलियां लग रही हैं. ऐसे अनैतिक तरीके से सरकार बचाने में जुटी यूपीए को अगर सोमनाथ चटर्जी समर्थन कर रहे हैं तो ये ऐतिहासिक भूल है. इसके लिए उन्हें इतिहास कभी माफ नहीं करेगा.

Tuesday, July 15, 2008

मैं असद ज़ैदी का गुनहगार नहीं

मैं, असद ज़ैदी को सिर्फ एक पाठक की हैसियत से ही जानता हूं. इसलिए अभी तक मोहल्ले पर छिड़ी बहस में नहीं कूद रहा था. इसलिए भी कि किसी गैरजरूरी विवाद में कूदना मेरी आदत नहीं. लेकिन अब इस विवाद को दूसरा रंग दिया जा रहा है. कुछ लोग ये बताने की कोशिश कर रहे हैं कि असद ज़ैदी की बेइज्जती हुई और उनकी धर्मनिरपेक्षता पर सवाल खड़े किये गये तो इसके लिए सभी “सज्जन” व्यक्ति जिम्मेदार हैं. इसलिए कि इन भले लोगों ने इस गैर जरूरी बहस में हिस्सा नहीं लिया और ये साबित करने की कोशिश नहीं की कि असद धर्मनिरपेक्ष हैं.

ये बड़ी अजीब और हास्यास्पद बात है कि पहले सोची समझी साज़िश के तहत किसी शख़्स को कठघरे में खड़ा करो, उसकी तमाम अच्छाइयों को नज़रअंदाज करते हुए उसकी बेइज्जती का तमाशा देखो. उसके बाद उसी बहाने उन तमाम लोगों को कठघरे में खड़ा करने लगो जो आपकी इस घटिया सोच और साज़िश से इत्तेफ़ाक नहीं रखते.

यहां ये दलील भी दी जा रही है कि मंशा एक सार्थक बहस की थी। बहस किससे और क्यों? बहस का भी एक तकाजा होता है। उसके कुछ कायदे होते हैं. बहस तभी होनी चाहिये जब जरूरत हो. यहां असद ज़ैदी को बज़ार में खड़ा करने की कोई जरूरत नहीं थी. ये किसी को हक़ नहीं था कि वो उन्हें तनाशाही फरमान सुनाने वालों के बीच खड़ा कर उनकी भद्द पिटने का तमाशा देखते रहें. जिन्होंने भी ऐसा किया उनकी नीयत पर सवाल उठने लाजिमी हैं. अगर सवाल उठ रहे हैं तो वो उन सवालों का जवाब दें. इसे बाकी भले लोगों पर थोप कर सवालों से बचने की कोशिश न करें.

यहां एक बात और। बहस वहीं हो सकती है जहां उसकी गुंजाइश हो और सार्थक नतीजे निकलने की उम्मीद. आप बहस उसी से कर सकते हैं जो मर्यादित ढंग से बहस करने में यकीन रखता हो. जिसका इस अवधारणा में यकीन नहीं उसे बहस का न्योता देना कीचड़ में धंसने की तरह है. वहां आप तो गंदे हो जाएंगे, लेकिन उस शख़्स की सेहत पर फर्क नहीं पड़ेगा. ऐसे लोगों के सबसे सटीक उदाहरण नरेंद्र मोदी और ओसामा बिन लादेन हैं. आपने इन्हें हज़ारों की भीड़ में ज़हर उगलते देखा होगा. आपने इन्हें टीवी चैनलों पर लोगों को भड़काते सुना होगा. लेकिन क्या आपने मोदी और लादेन को कभी किसी खुली बहस में हिस्सा लेते देखा है? हो सकता है कि अविनाश और उनके साथियों ने ऐसा देखा हो, लेकिन मैंने तो नहीं देखा। इसलिए मेरा मानना है कि असद ज़ैदी को बाज़ार में खड़ा कर उनका मजाक उड़ाया गया है, उनका तमाशा बनाया गया है. इस अपराध के लिए मोहल्ले को असद ज़ैदी से माफी तो मांगनी ही चाहिये।

Saturday, July 12, 2008

जैसा घिनौना समाज, वैसी घिनौनी मीडिया

आरुषि हत्याकांड का सच सामने आ गया. गुत्थी सुलझ गई. डॉक्टर तलवार बेकसूर घोषित कर दिये गए. बिना सबूत फ़ैसला सुना दिया गया. हर तरफ सीबीआई की वाहवाही होने लगी. सबने मान लिया कि करीब दो महीने तक चले घिनौने नाटक से पर्दा गिर गया. हर चैनल अपने अपने हिसाब से दावा करने लगा कि उसने तो क़ातिलों को बेनकाब काफी पहले कर दिया था. जिस सच को सीबीआई ने इतने दिन बाद जाहिर किया वो सच तो पहले ही बता दिया था. लेकिन यहां भी सब वही ग़लती कर रहे हैं. सीबीआई के सच को अंतिम सच मान बैठे हैं. ये भूल गए हैं कि सच तो उत्तर प्रदेश पुलिस ने भी बताया था. उसकी थ्योरी अब पलट चुकी है और उसका सच झूठा निकला. ऐसे में क्या गारंटी है कि सीबीआई का खुलासा अंतिम सत्य हो? सबको मालूम है कि पीड़ितों को इंसाफ़ दिलाने में सीबीआई का ट्रैक रिकॉर्ड भी काफी बुरा है, फिर इस पर आंख मूंद कर यकीन की वजह क्या?

यहां नैतिकता का हवाला भी दिया जा रहा है. टीवी चैनलों को गालियां दी जा रही हैं. अख़बार से लेकर समाज का हर तबका लानत-मलानत करने में जुटा है. कोई मुकदमा करने की धमकी दे रहा है तो कोई दावा कर रहा है कि अब वो न्यूज चैनल ही नहीं देखेगा. यहां सब भूल जाते हैं कि इन्हीं चैनलों ने सवाल उठाए तो जांच उत्तर प्रदेश की पुलिस से छीन कर सीबीआई को दी गई. वरना तो उत्तर प्रदेश पुलिस ने पहले ही दिन केस सुलझा दिया था. हेमराज को कातिल ठहरा दिया था. यही नहीं आज आरुषि का बाप जेल से बाहर निकला है तो उसकी रिहाई में उन चैनलों का हिस्सा है. लोग सीबीआई के जिस आधे-अधूरे सच को सही मान बैठे हैं उसमें भी चैनलों का योगदान है.

यहां यह भी ध्यान रखने की बात है कि नैतिकता हमेशा सापेक्ष होती है. आप और हम एकदम उलट होते हुए भी अपनी-अपनी जगह नैतिक हो सकते हैं. कल जो मीडिया आरुषि के घरवालों के अनैतिक था, वो कृष्णा, विजय और राजकुमार समेत बहुतों के लिए नैतिक था। आज जो मीडिया आरुषि के घरवालों के लिए नैतिक है वो आरुषि के तथाकथित नए क़ातिलों कृष्णा, विजय मंडल और राजकुमार के घरवालों के लिए अनैतिक हो सकता है. इसलिए यहां ये बहस भी ख़त्म नहीं हुई है कि नैतिक कौन है और अनैतिक कौन? ये बहस जारी है और आगे भी जारी रहेगी.

एक बात और ये भी नैतिकता से जुड़ी हुई. कहते हैं मीडिया समाज का आईना है. वो समाज को उसका चेहरा दिखाता है. सच भी यही है आज मीडिया के जिस चेहरे पर आपको घिन आ रही है, जिस चेहरे से आपको नफरत हो रही है, जिस चेहरे को आप कोस रहे हैं, समाज का चेहरा भी उतना ही घिनौना है. हमारा समाज भी उतना ही अनैतिक है. चाहे वो नैतिकता की दुहाई दे रहे आरुषि के मां-बाप हो या फिर हम और आप. जरा सोचिये बेटी को जो मां-बाप नौकर के भरोसे छोड़ जाते थे, उन्हें नैतिकता की दुहाई देने का कितना हक है? जिस मां-बाप के होते हुए चार शख़्स फ्लैट में घुसते हैं ... इस हद तक शराब पीते हैं कुछ होश ना रहे ... फिर बच्ची के कमरे में घुसते हैं... उसके साथ जबरदस्ती करने की कोशिश करते हैं... विरोध करने पर उसके सिर पर चोट कर उसे बेहोश करते हैं... फिर वही चारों छत पर जाते हैं... वहां उनका झगड़ा होता है ... उनमें से तीन मिल कर चौथे का क़त्ल करते हैं ... और दोबारा फ्लैट में दाखिल हो कर बेहोश पड़ी बच्ची का भी खून करते हैं ... भारी नशे की हालत में होते हुए भी सारे सबूत मिटाते हैं और वापस चले जाते हैं ... अगली सुबह तक मां-बाप को इसकी भनक तक नहीं लगती ... वो मां-बाप कितने नैतिक रहे होंगे?

इसलिए मीडिया को एकतरफा गाली देने से पहले समाज के घिनौने चेहरे को भी देखियेगा ... ज्यादा नैतिकता का ढोल पीटने से पहले ये भी जरूर सोचियेगा कि कहीं इस चक्कर में आप भी तो अनैतिक तो नहीं हो रहे?

Thursday, July 10, 2008

ये सरकार नहीं गई तो देश जाएगा

एक हिंदुस्तानी ने अपनी डायरी में लिखा है कि यूपीए सरकार को सांसत से बचाएगा लेफ्ट? अगर ऐसा हुआ तो ये देश के लिए सबसे बड़े दुर्भाग्य की बात होगी और इस दुर्भाग्य के लिए खुद लेफ्ट जिम्मेदार होगा. इस समय सियासी माहौल काफी ख़तरनाक मोड़ पर है. मनमोहन सरकार ने ऐटमी करार के नाम पर एक बड़ा सौदा किया है और वो इस सौदे को अंजाम तक पहुंचाने के लिए हर ग़लत हथकंडे अपना रही है.

उदाहरण के तौर पर दो दिन पहले विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी ने बयान दिया कि बिना विश्वासमत हासिल किए सरकार आईएईए में नहीं जाएगी. कायदे से होना भी यही चाहिये. लेफ्ट के समर्थन वापस लेने के बाद यूपीए सरकार अल्पमत में है. उसके बाद २७२ का जादुई आंकड़ा नहीं है. समाजवादी पार्टी के समर्थन के बावजूद ये आंकड़ा २७० तक ही पहुंचता है. ऐसे में नैतिकता का तकाजा यही कहता है कि मनमोहन सरकार पहले संसद का विश्वास हासिल करे और फिर करार पर आगे बढ़े. लेकिन ऐसा करने से पहले कल सरकार ने आईएईए से मसौदे को बोर्ड के सदस्यों के बीच बांटने का अनुरोध किया. भारत सरकार के अनुरोध के बाद वो मसौदा बोर्ड के ३५ सदस्य देशों को बांट दिया गया. ये वही मसौदा है जिसे मनमोहन सिंह ने देशहित में बता कर और गोपनियता का हवाला देकर लेफ्ट को दिखाने से मना कर दिया था. इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि इस करार पर अमल के लिए सरकार किस तरह जिद पर उतर आई है और उसकी ये जिद संदेह पैदा करती है.

इसके अलावा भी कई ऐसे कारण हैं जिन्हें ध्यान में रखते हुए इस सरकार का जाना ज़रूरी है. लेफ़्ट के समर्थन खींचने के बाद बाज़ार का व्यवहार काफी संदेहास्पद है. शेयर बाज़ार हर रोज छलांग पर छलांग लगा रहा है. आखिर इसका मतलब क्या है? दरअसल ये संकेत है कि अब सुधार के नाम पर सरकारी कंपनियां बेची जाएंगी... अब तक मुकेश अंबानी चांदी काट रहे थे अब अनिल अंबानी भी चांदी काटेंगे... नए-नए सेज के रास्ते खुलेंगे... किसानों को उनकी ज़मीन से बेदखल किया जाएगा... किसानों को दी जाने वाली सांकेतिक सब्सिडी ख़त्म होगी... विकास के नाम पर रेवड़ियां बांटी जाएंगी... कुल मिला कर कहें तो सारे सफेदपोश लुटेरे मिल कर अगले छह महीने में देश में जो कुछ भी बचा है उसे बेचने की तैयारी कर रहे हैं और सरकार बची तो वो इस पर अमल भी करेंगे.

इसलिए इस सरकार का जाना बहुत ज़रूरी है. सरकार के गिरने से एक साथ कई नापाक मंसूबों पर पानी फिरेगा. सरकार के गिरने से देश की सत्ता के शीर्ष पर बैठे अमेरिकी एजेंट मनमोहन और कांग्रेस की मुखिया सोनिया गांधी को सबक मिलेगा. सबक कि देश की सर्वोच्च लोकतांत्रिक संस्था संसद को धोखे में रख कर कोई भी ऐसा करार नहीं करना चाहिये जिससे देश की दिशा बदल सकती हो. देशहित से जुड़े अहम फैसले आम राय से लिये जाते हैं .. एकतरफा नहीं.

सरकार के गिरने से एक और फायदा होगा। भारत से लेकर अमेरिका तक के दलालों को झटका लगेगा. खासकर अमर सिंह जैसे लोगों को. अमर सिंह ऐसा शख्स है जिसने उत्तर प्रदेश को गर्त में ढकेल दिया. हजारों हेक्टयर जमीन बिल्डरों के हाथ बिकवा दी. रोजगार के नए अवसर नहीं पनपने दिये. सियासत के नाम पर बॉलीवुड से भांटों को लखनऊ बुला कर सुब्रत राय के दरबार में मुजरा कराया है. अमिताभ बच्चन को लटकन बना कर कभी काशी तो कभी विंध्याचल घुमाया है. ऐसे दलालों के मंसूबों पर पानी फिरना बेहद जरूरी है. ऐसा नहीं हुआ तो उनके हौसले और बुलंद होंगे.

सरकार के गिरने से तीसरा सबक कारोबारियों को मिलेगा. उन्हें अहसास होगा कि देश में अब भी कुछ ऐसा है जो वो मैनेज नहीं कर सकते. इससे संसद की थोड़ी लाज बची रहेगी और लोकतंत्र की भी. वरना तो गुलाम मानसिकता के मनमोहन और उनके चेले पूरी नंगई पर उतर आए हैं और इस नंगई के लिए भी काफी हद तक लेफ्ट फ्रंट ही जिम्मेदार है. उसने शुरू से जरा सख्ती से चाबी भरी होती तो ऐसे दिन नहीं देखने पड़ते. वैसे भी पुरानी कहावत है बिल्ली पहली ही रात को मारी जाती है, बाद में नहीं.

Tuesday, July 8, 2008

चले गए गुलाम, सादिक को सलाम

गुलाम नबी आज़ाद की विदाई हो ही गई. अमरनाथ श्राइन बोर्ड से ज़मीन वापस लेने के फ़ैसले के बाद भी उनकी सरकार को जीवन दान नहीं मिला. उनका ये दांव भी सहयोगी पीडीपी को रिझा नहीं सका और ना ही विरोधियों की दिल पसीजा. मजबूरन इस्तीफ़ा देना पड़ा. लेकिन इस्तीफ़ा देते वक़्त भी गुलाम ने ढोंग का दामन नहीं छोड़ा. वो कहते रहे कि दूसरी पार्टियों में मौजूद दोस्तों को मुसीबत में नहीं डालना चाहते थे, इसलिए पद त्याग रहे हैं. सच में सियासतदान बड़े ढोंगी होते हैं, उनमें भी गुलाम नबी आज़ाद कई हाथ आगे निकले. आदर्श और नैतिकता की दुहाई देते वक़्त उन्हें अपने काले कारनामे का जरा भी ख़याल नहीं आया. वो कारनामा जो लंबे समय तक देश की लोकतांत्रिक सियासत में एक काले अध्याय के तौर पर याद किया जाएगा. राज्य की सत्ता के शीर्ष पर रहते हुए उन्होंने तो पूरी व्यवस्था को ही सांप्रदायिक रंग में रंग दिया.

सांप्रदायिकता हर स्तर पर घातक होती है. चाहे वह किसी व्यक्ति में हो, किसी समुदाय में हो, किसी सामाजिक संस्था में हो या फिर किसी सियासी दल में. लेकिन सबसे ज़्यादा खतरनाक किसी संवैधानिक संस्था का सांप्रदायिक होना है ... किसी सरकार का सांप्रदायिक होना है. जब सरकारें किसी धर्म विशेष के हितों को ध्यान में रख कर काम करने लगती हैं तो प्रशासन भी उसी आधार पर काम करता है और जब प्रशासन सांप्रदायिक होता है तो अल्पसंख्यकों की जान ख़तरे में रहती है. वो घुट-घुट कर जीते हैं. जम्मू कश्मीर के हुक्मरानों पर हमेशा वहां के मुसलमानों के हितों को पोषित करने का आरोप लगता रहा है. इस्लामिक कट्टरपंथियों के ख़िलाफ़ उनके ढुलमुल रवैये के कारण ही हिंदुओं को बड़े पैमाने पर पलायन करना पड़ा. हुर्रियत कांफ्रेंस और पीडीपी से इससे अधिक की उम्मीद नहीं की जा सकती. लेकिन इस बार झटका राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस ने दिया है. वो पार्टी जिसकी मूल अवधारणा ही धर्मनिरपेक्षता रही है. गुलाम नबी आजाद ने अमरनाथ श्राइन बोर्ड से ज़मीन वापस लेकर ये साबित किया है कि जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस हो या फिर कोई और वहां की सत्ता सांप्रदायिक है.

सत्ता के सांप्रदायिक होने के मुद्दे पर चर्चा करते हुए कुछ लोग ये दलील दे रहे हैं कि अगर जम्मू कश्मीर सरकार ये फ़ैसला वापस नहीं लेती तो बहुत ख़ून बहता. उन लोगों का ये तर्क भी बहुत सतही लगता है. ऐसा कहते वक़्त वो भूल जाते हैं कि धर्मनिरपेक्षता को कायम रखने के लिए बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है. बहुसंख्यकों की तानाशाही प्रवृति का दमन करना पड़ता है. इसके लिए सत्ता के शीर्ष पर बैठे हुक्मरानों को कभी कभी क्रूर होना पड़ता है. अगर आज़ादी के वक़्त हमारी सरकार सस्ते राह पर चलती और नेहरू हिंदू कट्टरपंथियों के आगे घुटने टेक देते तो क्या भारत के मुसलमान कभी चैन से जी पाते? विभाजन के वक़्त जब दिल्ली से लेकर बंगाल तक चारों तरफ मार-काट मची थी तो गांधी, नेहरू और पटेल ने घूम-घूम कर लोगों को हथियार डालने के मजबूर किया. गांधी कई-कई दिन तक अनशन पर बैठे रहे. आज उन लोगों के त्याग से कायम हुई धर्मनिरपेक्षता ख़तरे में है.

सोचिये आज़ाद भारत के सभी सूबे के हुक्मरान वहां के बहुसंख्यकों के हिसाब से काम करने लगें तो क्या अल्पसंख्यक ख़ौफ़ के साये में जीने को मजबूर नहीं होंगे? या फिर वो पलायन नहीं करेंगे? जम्मू कश्मीर में यही हुआ है और कांग्रेस से लेकर सभी सियासी दल इस साज़िश में भागीदार रहे हैं. गुलाम नबी आज़ाद ने इसी भागीदारी को जाहिर किया है. ये भारत की धर्मनिरपेक्ष अवधारणा को करारा झटका है और इस गुनाह के लिए कांग्रेस और उसके गुलाम को वक़्त कभी माफ़ नहीं करेगा.

((आखिर में एक और बात. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के उपाध्यक्ष मौलाना कल्बे सादिक ने गुलाम नबी आज़ाद के फ़ैसले का विरोध किया है. उनका कहना है कि अमरनाथ श्राइन बोर्ड को दी ज़मीन वापस नहीं ली जानी चाहिये थी. कल्बे सादिक के मुताबिक ये हमारी परंपरा और सभ्यता दोनों के हिसाब से ग़लत फ़ैसला है. कल्बे सादिक ने ऐसा कह बड़ी हिम्मत का परिचय दिया है. मैं उनके इस हौसले को सलाम करता हूं.))

Sunday, July 6, 2008

भारत फिर क्यों ना बने हिंदू राष्ट्र?

इंदौर में हिंसा के लिए आखिर जिम्मेदार कौन हैं? क्या सिर्फ बीजेपी या धर्म के नाम पर ख़ूनी सियासत करने वाले उसके जैसे तमाम दल? या फिर हमारा समाज जिसमें धर्म की बात उठते ही सोचने समझने की ताक़त ख़त्म हो जाती है? या फिर कोई और भी तबका इसके लिए जिम्मेदार है? पिछले दो तीन दिन से मैं अख़बार पर अख़बार पलट रहा था इस सवाल का जवाब ढूंढने के लिए। अभी तक मैं किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सका हूं, लेकिन कुछ सवाल जरूर कौंध रहे हैं कि आखिर अमरनाथ श्राइन बोर्ड से ज़मीन वापस लिये जाने के फ़ैसले के ख़िलाफ़ मुस्लिम समुदाय से विरोध के तीखे स्वर क्यों नहीं उठे? आखिर क्यों मुस्लिम बुद्धिजीवी फिर ख़ामोश रह गए? क्या वो इसके गंभीर नतीजों से वाकिफ नहीं थे? या फिर वो फ़ैसले पर जश्न मना रहे थे?

ये सोचने लायक बात है। जब किसी भी लोकतांत्रिक देश में किसी राज्य के शासक धर्म विशेष के हितों और मर्जी को ध्यान में रख कर फ़ैसले लेंगे तो फिर धर्मनिरपेक्षता का पाखंड किस लिए? पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ़्ती समेत जम्मू कश्मीर के तमाम कठमुल्लों की इस ओछी सियासत के आगे गुलाम सरकार के घुटने टेकने से धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा को झटका लगा है। इस पर मुस्लिम बुद्धिजीवियों की ख़ामोशी और परेशान करने वाली है। अगर वो इसी तरह ख़ामोश तमाशा देखते रहे तो नफ़रत की सियासत में माहिर बीजेपी को मौका मिलेगा ही। फिर उसे दोष क्यों देना? वो तो जिस राजनीति में माहिर है और जिसके लिए बदनाम है वही कर रही है।

सब जानते हैं कि जम्मू-कश्मीर में मुसलमान बहुसंख्यक हैं और हिंदू अल्पसंख्यक। ऐसे में अमरनाथ श्राइन बोर्ड से ज़मीन वापस लेने के फैसले को सीधे तौर पर माना जा सकता है कि बहुसंख्यक के दबाव में अल्पसंख्यकों के हितों की अनदेखी की गई है। उनकी भावनाओं को ठेस पहुंचाई गई है। फिर क्या ग़लत है अगर गुजरात में नरेंद्र मोदी बहुसंख्यक हिंदू के हितों को ध्यान में रख कर फ़ैसले लेते हैं? फिर क्या ग़लत होगा अगर इस देश के बहुसंख्यक हिंदुओं की आस्था को ध्यान में रख कर अयोध्या में राम मंदिर बनवा दिया जाए? अगर बहुसंख्यकों की इच्छा और हित ही किसी राज्य और राष्ट्र के लिए सर्वोपरी हैं तो फिर क्यों ना भारत को हिंदू राष्ट्र बना दिया जाए?

Saturday, July 5, 2008

जिसका डर था वही हुआ


जिसका डर था वही हुआ। अमरनाथ के नाम पर नफ़रत का खेल शुरू हो गया। शुरुआत श्रीनगर से हुई और अब पूरे देश में हिंसा फैल रही है। फिलहाल सबसे ज़्यादा असर मध्य प्रदेश के इंदौर में हुआ है। वहां छह लोगों की मौत हो चुकी है और दो दिन से कर्फ़्यू जारी है। हिंसा मध्य प्रदेश के कुछ अन्य शहरों में भी हुई है और देश के कुछ अन्य राज्यों में भी। इस हिंसा के लिए दो सियासी दल जिम्मेदार हैं। कांग्रेस और बीजेपी। जम्मू कश्मीर के कांग्रेसी मुख्यमंत्री गुलाम नबी आज़ाद के ग़लत फ़ैसले के कारण तनाव फैला और बीजेपी जैसी घोर सांप्रदायिक पार्टी को घटिया और घिनौनी सियासत का मौका मिला। ये दोनों ही पार्टियां सीधे तौर पर लोगों की मौत के लिए और सरकारी संपत्ति के नुकसान के लिए जिम्मेदार हैं। इन दोनों ही पार्टियों के ख़िलाफ़ राष्ट्रद्रोह और क़त्ल का मुक़दमा चलाना चाहिये। जब तक ऐसे मामलों में सियासी दलों और नेताओं के ख़िलाफ़ सामूहिक क़त्ल और देशद्रोह का मुक़दमा दायर नहीं होगा... भावनाओं को भड़का कर अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने की प्रवृति बनी रहेगी।

Tuesday, July 1, 2008

ये गुलाम तो मूर्ख निकला

सियासत में मूर्खों की कमी नहीं है और सत्ता में ताकतवर ओहदों पर बैठे ये मूर्ख बहुत घातक होते हैं। ऐसे ही एक मूर्ख हैं गुलाम नबी आजाद। बेहद संवेदनशील राज्य जम्मू कश्मीर में उनकी सरकार ने कुछ दिन पहले अमरनाथ श्राइन बोर्ड को १०० एकड़ जमीन देने का संवेदनशील फैसला लिया। इस फैसले के तुरंत बाद हंगामा शुरू हो गया। पूरे राज्य में हिंसा भड़क उठी। श्रीनगर सुलगने लगा। एक हफ्ते तक चली हिंसा में चार लोग मारे गए, सैकड़ों घायल हुए। पीडीपी ने सियासी दांव फेंका कहा फैसला वापस नहीं लिया गया तो वो सरकार से समर्थन वापस ले लेगी। आखिर गुलाम को भी झुकना पड़ा और उन्होंने अपना फैसला वापस ले लिया। अमरनाथ श्राइन बोर्ड को दी गई जमीन अब पर्यटन विभाग के नाम होगी। श्रद्धालुओं को सुविधा मुहैया कराने का जिम्मा सरकार संभालेगी।

पहली नज़र में लगता है कि बात जहां से शुरू हुई थी अब वहीं पहुंच चुकी है। जम्मू कश्मीर में आया उबाल थम जाएगा। हिंसा का दौर खत्म हो जाएगा। सबकुछ पहले जैसा होगा। लेकिन ऐसा नहीं है। गुलाम सरकार के उस फैसले ने काफी कुछ बदल दिया है। इसने पहले से ही जूझ रही कांग्रेस की मुश्किलें बढ़ा दी हैं ... धर्मनिरपेक्ष ताकतों को कमजोर कर दिया है और बीजेपी को बैठे बिठाए एक बड़ा मुद्दा दे दिया है। ऐसा मुद्दा जिस पर वो नफ़रत की सियासत को विस्तार दे सकेगी। यकीन मानिये उसके नेता इस ओछी सियासत में माहिर हैं। एक बार फिर उन्होंने इसकी तैयारी शुरू कर दी है और जम्मू कश्मीर के बाद अब पूरे देश को मूर्ख गुलाम के फैसले के दंश भोगने के लिए तैयार रहना चाहिये।

Sunday, June 22, 2008

ये बरसात भी यूं ही खर्च हो गई!

ये बरसात भी यूं ही निकल जाएगी। इस बरसात भी गांव जाना नहीं हो सकेगा। मन तो काफी चाहता है लेकिन गांव जाने की भूमिका तैयार नहीं हो रही। मतलब इस बरसात भी मैं झिझरी नहीं खेल सकूंगा। गांव से सटी मगई नदी के किनारे नहीं बैठ सकूंगा। बारिश में कुछ चिकनी और मुलायम हुई परती की रेत पर चीका नहीं खेल सकूंगा। वो रेत जो कूदने पर भुरभुरा जाती, बिखर जाती मगर हमें चोट नहीं लगने देती। ये बरसात भी बीते कई साल की तरह यादों के सहारे काटनी होंगी। रोजी रोटी के नाम पर इस बरसात को भी खर्च करना होगा।

शेष यहां पढ़ें... http://dreamndesire.blogspot.com/2008/06/blog-post_22.html

Saturday, June 21, 2008

उच्च वर्ग का औजार है मीडिया

अच्छा हुआ मैं एसपी सिंह से नहीं मिला से आगे....

दो दिन पहले ख़बर आई। आधी रात को लखनऊ में सहारा सिटी में मायावती सरकार ने बुलडोज़र चला दिया। इमारतें तोड़ दी गईं। दीवार ढहा दी गई। ख़बर बड़ी थी और तेजी से फैली भी। लेकिन सिर्फ एनडीटीवी और ऐसे ही एक दो संस्थानों ने इस ख़बर को दिखाने का साहस किया। सच और झूठ को सामने रखने का हौसला दिखाया। इन्हें छोड़े दें तो ज्यादातर जगहों से ख़बर गायब कर दी गई। किसी में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वो ख़बर को प्रसारित या प्रकाशित करता। आखिर क्यों? ये सवाल बड़ा है और इससे मीडिया की चाल-चलन का अंदाजा लगाया जा सकता है।

मैंने अब तक के अपने सफ़र में बहुत कुछ देखा, सुना और भोगा है। उस आधार पर मैं ये बड़ी आसानी से कह सकता हूं कि बड़े पैमाने पर मीडिया सत्ता का एक औजार भर है। वरना सहारा जैसी कंपनी जो गरीब लोगों का पैसा डकार रही हो, गलत तरीकों से संपत्ति जमा कर रही हो। उस पर हुई कार्रवाई को ना दिखाने की कोई वजह नहीं। हालांकि अभी ये मसला कोर्ट में है। लखनऊ विकास प्राधिकरण या यूं कहें कि मायावती सरकार का बुलडोज़र चलाने का फ़ैसला कितना सही और ग़लत है ये पता चलना बाकी है। फिर भी प्रशासनिक कार्रवाई तो हुई ही थी और उसे नहीं दिखाना बहुत कुछ बयां कर जाता है।

इस पूरे वाकये से मुझे रूस की एक कहानी याद आ गई। मैंने बचपन में ये कहानी पढ़ी थी। जार के शासन काल से जुड़ी कहानी। जार ने वहां अखबार शुरू किया था। तब पूरे रूस से सैकड़ों खबरें आतीं, लेकिन उन ख़बरों को लेकर जार का अपना नज़रिया था। जार का साफ कहना था कि देश में तरक्की की ख़बरें प्रकाशित करो। कोई भी बुरी ख़बर नहीं। हत्या, खुदकुशी, बलात्कार, भ्रष्टाचार जैसी बुरी ख़बरों से समाज में गलत संदेश जाता है। बुराई फैलती है। इसलिए हमेशा वही खबरें दो जिनसे आक्रोश बढ़े नहीं बल्कि कम हो। जार के वो अख़बार और आज के मीडिया का चरित्र एक सा ही है। जार शाही में भी सत्ता पर काबिज लोगों के खिलाफ कुछ नहीं छपता था और आज के लोकतंत्र में भी बहुत कुछ नहीं छपता है। ऐसा इसलिए कि समय के साथ सत्ता बदली है, व्यवस्था का रूप बदला है, शासकों के चेहरे बदले हैं। अगर कुछ नहीं बदला है तो वह शासकों का चरित्र और इसकी अपनी ठोस वजह है। सत्ता की बागडोर हमेशा उच्च वर्ग के हाथ में रही है और शासन करने में मध्य वर्ग के प्रभावशाली लोगों ने उसका हमेशा साथ दिया है।

उच्च वर्ग की साज़िशों में साथ देने वाले मध्य वर्ग में दो तरह के लोग हैं। एक बेहद महात्वाकांक्षी लोग जो हर कीमत पर उच्च वर्ग में शामिल होना चाहता हैं। ऐसे लोग आगे बढ़ने के लिए भौतिक सुखों को इकट्ठा करने के लिए हर साजिश में शामिल हो सकते हैं। वो खुद को उच्च वर्ग के सबसे बड़े हितैषी के रूप में पेश करते हैं और अपने मकसद के लिए उससे भी कहीं अधिक क्रूर हो सकते हैं।

मध्य वर्ग में दूसरा तबका है ऐसे लोगों का है जो मजबूर हैं। ये लोग अपने घरवालों से बहुत प्यार करते हैं। उन्हें मझधार में छोड़ कर समाज को बदलने की जद्दोजेहद में शामिल होने का साहस नहीं जुटा पाते। इनकी स्थिति पेड़ से कटे उस साख की तरह है जो अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करता है। अपनी मिट्टी और देस से उखड़े हुए उस पौधे की तरह है जो परायी जमीन में जड़े जमाने की कोशिश में है। आज की बाज़ारवादी व्यवस्था में नौकरी करना इस तबके की मजबूरी है। उसकी इसी मजबूरी का फायदा उच्च वर्ग उठाता है। मध्य वर्ग के इस तबके में मैं भी शामिल हूं।

यहां मैं साफ कर दूं कि उच्च वर्ग में शामिल नहीं होना मेरा मकसद नहीं है। फिर भी मेरी नियति यही है कि मैं उच्च वर्ग के हितों को पोषित करूं। आप मेरी इस नियति पर हंस सकते हैं। मेरा मजाक उड़ा सकते हैं। मुझे गाली दे सकते हैं। लेकिन यकीन मानिये समाज और वतन से जुड़ी तमाम संवेदनाओं के बावजूद मेरे पास कोई और विकल्प नहीं है।

मीडिया में पहला कदम रखते वक्त मेरे जैसे लोगों की संख्या ज़्यादा रहती है। ये लोग समाज को बदलने का सपना लिये इस पेशे में आते हैं। इन लोगों के जेहन में न्याय की अवधारणा काफी मजबूत रहती है और ये लोग ज़्यादती के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना चाहते हैं। लेकिन आगे बढ़ने पर दूसरा तबका हावी होने लगता है। ऐसा इसलिए कि शासकों का जाल बहुत घना और मायावी है। इसमें अगर आप धीमे पड़े तो हाशिये पर ढकेल दिये जाएंगे। रोज़ी-रोटी का इंतजाम मुश्किल हो जाएगा। तेज दौड़े तो प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी.. प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी तो धीरे धीरे आपका चरित्र भी मध्य वर्ग के महात्वाकांक्षी तबके जैसा हो जाएगा। आप भी उसी तरह क्रूर हो जाएंगे। मैं चरित्र के इस बदलाव को महसूस कर सकता हूं... शायद इसलिए हर वक़्त खुद को इससे दूर रखने की कोशिश करता हूं। लेकिन ये भी अहसास है कि वो घड़ी नज़दीक आ रही है जब या तो मैं हाशिये पर ढकेल दिया जाऊंगा ... या फिर मुझे भी क्रूर होना पड़ेगा। यहां बीच का रास्ता नहीं है ... कहीं और हो तो हो।

अब आप मीडिया के चरित्र का अंदाजा लगा सकते हैं। मीडिया जिस पर कब्जा उच्च वर्ग है और जिसे चलता मध्य वर्ग है। अब सवाल उठता है कि क्या ये मीडिया सत्ता के ख़िलाफ़ और जन साधारण के साथ खड़े होने का साहस दिखा सकता है?

((जारी है... ))

Wednesday, June 18, 2008

अच्छा हुआ मैं एसपी सिंह से नहीं मिला

फिर वही जून। फिर वही एसपी सिंह और फिर वही रोना धोना। एसपी होते तो ऐसा होता, एसपी होते तो वैसा होता। कुछ का दावा तो यहां तक कि एसपी होते तो टीवी पत्रकारिता का रूप ही कुछ और होता। इस रोने-धोने और एसपी के बहाने मीडिया को गरियाने में वही सबसे आगे हैं जो खुद मीडिया में ताकतवर ओहदों पर बैठे हैं। ये भी मीडिया के उसी जाने-पहचाने सिद्धांत को ज़ाहिर करता है कि ख़बरें उन्हीं की जो ख़बरों में बने हुए हैं। एसपी के जिन साथियों की टीआरपी गिर गई, जो वक़्त के साथ ताल से ताल नहीं मिला सके... हाथिये पर ढकेल दिये गए उनके लेख कम छपते हैं। उनकी बातें कभी कभार ही सुनाई देती हैं। ये अजीब त्रासदी है और उम्मीद की किरण बहुत धुंधली है।

नब्बे के दशक के बाद से टीवी मीडिया को एसपी के साथियों ने ही दिशा दी है। आज इस मीडिया का विभत्स चेहरा उन्हीं लोगों का बनाया हुआ है। वो आज भी कई चैनलों के कर्ताधर्ता हैं। लेकिन उनमें से ज़्यादातर में ऐसा हौसला नहीं कि ख़बरों का खोया सम्मान वापस लौटा सके। वो कभी मल्लिका सेहरावत तो कभी राखी सावंत के बहाने जिस्म की नुमाइश में लगे हैं। अपराध को मसाला बना कर परोस रहे हैं। कभी जासूस बन कर इंचीटेप से क़ातिल के कदम नापने लगते हैं, तो कभी पहलवान के साथ रिंग में उतर कर कुश्ती की नौटंकी करते हैं। वो झूठ को सच बना कर बाज़ार में परोसते हैं और सच को झूठ बनाने का कारोबार करते हैं। वो बलात्कार और क़त्ल की ख़बरों को दिलचस्प बता कर पेश करते हैं। जब ऐसी कोई ख़बर नहीं होती जिसमें तड़का लगा सकें तो लोगों को डराना शुरू कर देते हैं। वैज्ञानिकों की जगह ज्योतिषियों को बिठा कर बात-बात पर कहते हैं कि दुनिया तबाह होने वाली है ... ज़िंदगी देने वाला सूरज खुद ही धरती को निगल लेगा... कलयुग है ... घोर कलयुग।

सच कहूं तो ख़बरों के लिहाज से ये कलयुग ही है और सतयुगी एसपी के ज़्यादातर साथी इस कलयुगी दौर के महानायक हैं। मैंने इसी कलयुग की शुरुआत में मीडिया में कदम रखा है। मैंने १९९७ में आईआईएमसी में दाखिला लिया। ये वही साल है जब एसपी ने दुनिया को अलविदा कहा था। उनके गुजरने की ख़बर सुनकर मुझे ना जाने क्यों ऐसा लगा कि मेरी किस्मत ख़राब है। इतने बड़े पत्रकार के साथ काम करना तो दूर मिल भी नहीं सका। लेकिन आज उनके ज़्यादातर साथियों को देख कर ऐसा नहीं लगता। जब भी मैं एसपी के नाम पर उनके साथियों को घड़ियाली आंसू बहाते देखता हूं तो लगता है कि झूठ का कारोबार करते करते अब ये एसपी को भी बेच रहे हैं। उनके इस चरित्र को देख कर एसपी से नहीं मिल सकने पर अब ज़रा भी अफ़सोस नहीं रहा।

बल्कि ये कहूं कि मैं खुद को खुशकिस्मत मानता हूं तो भी ग़लत नहीं होगा। लगता है कि चलो मैंने बाज़ारवाद के दौर में मीडिया में कदम रखा है। कम से कम मुझे ये भ्रम तो नहीं कि मैं या मेरा कोई गुरू महामानव की तरह बाज़ार की घातक गति को रोक देगा। मुझे ये भ्रम भी नहीं है कि मैं निरंकुश बाज़ार की धारा को मोड़ कर मीडिया को जनहित का हथियार बना दूंगा। मुझे ये मुलागता भी नहीं कि बिना किसी साझे प्रयास के मैं व्यवस्था में कोई मूलचूल परिवर्तन कर दूंगा। मैं जानता हूं कि जब तक मैं नौकर रहूंगा मुझे कंपनी का हित सबसे पहले साधना है। ये भी जानता हूं कि कंपनियों के पैसे से क्रांति नहीं होती और ये भी कि उधार की ज़िंदगी में लड़ने का हौसला नहीं होता। मैं जानता हूं कि आज मेरे पेशे में समाज के लिए बहुत थोड़ा स्पेस है और दिन ब दिन वो स्पेस सिकुड़ रहा है।

आज के दौर में हम कोई ख़बर दिखा कर किसी गरीब को किसी अमीर से चंदा दिला दें तो बहुत है। एयरकंडिशन्ड दफ़्तर और गाड़ियों से ऊबने के बाद बेबस किसानों की बात कर लें तो बहुत है। भूख से बिलबिलाते बच्चों का ख़याल आ जाए तो सोने पर सुहागा। कभी कभार हम ये रस्मअदायगी कर लेते हैं, शायद हम पत्रकार होने के झूठे भ्रम को जिंदा रखना चाहते हैं। ऐसा इसलिए कि पुरानी कहावत है जो अपनी नज़रों में गिर गया समझो वो मर गया। हम कलयुगी दौर के पत्रकार हर रोज मर कर भी मरने से डरते हैं।

आखिर में इतना ही कहूंगा कि एसपी सिंह के साथ जुड़े रहने के बाद भी, अगर यही सब करना था तो अच्छा हुआ कि मैं उनसे नहीं मिला। अगर मिला होता तो उनके तमाम साथियों की तरह उस बोझ को उठाए जी रहा होता कि एसपी हम आपको सच्ची श्रद्धांजलि नहीं दे सके। आप ने तो २७ जून, १९९७ को दुनिया को अलविदा कह दिया था, लेकिन हम तो आपको हर रोज मार रहे हैं।

Saturday, June 14, 2008

ब्लॉग की दुनिया के गिद्ध

दिलीप जी ने मुझे गिद्धों से आगाह किया है। ब्लॉग की दुनिया के गिद्धों से आगाह। आपने कुछ लिखा नहीं कि ये गिद्ध जुटने लगते हैं। ठीक वैसे ही जैसे किसी शख्स के घायल होने पर गर्म खून की गंध सूंघ कर गिद्ध उसे घेर लेते हैं। सिर पर मंडराने लगते हैं। आतंकित करने लगते हैं। तब तक, जब तक कि उसकी आखिरी सांस नहीं निकल जाती। वो दम नहीं तोड़ देता। उसके बाद गिद्ध उसे नोच कर खा जाते हैं। शेष रह जाता है, हड्डियों का एक ढांचा जिसे देखने पर कोई भी सिहर उठे। जहां तक ब्लॉग की दुनिया के गिद्धों का सवाल है, वो संजीदा लेखकों को लड़ाने-भिड़ाने का काम करते हैं। कोई बात नहीं हो तो भी भड़काने और उकसाने का काम करते हैं। ये उस बात में यकीन रखते हैं कि बार बार एक ही झूठ उस वक्त तक बोलो कि वो सच लगने लगे। उसके बाद ब्लॉग पर छिड़ी जंग को देखो और ठहाके लगाओ।

ब्लॉग की दुनिया के इन गिद्धों का एक खास चरित्र है। पहला चरित्र तो ये कि ये गिद्ध आपको हर जगह नज़र आएंगे। चाहे बहस मीडिया पर हो, समाजिक और आर्थिक मुद्दों पर हो या फिर विज्ञान और धर्म पर हो। गिद्ध हर जगह मौजूद हैं। गिद्धों का काम है शीर्षक देख कर एक कमेंट चिपका देना। पोस्ट को बिना पढ़े, शब्दों और पंक्तियों के बीच के अर्थ को बिना समझे ये टिप्पणी दे आते हैं। ऐसे ही कुछ गिद्धों ने मेरे पोस्ट दिलीप जी और विनीत मुझे माफ कर दें, प्लीज पर भी कमेंट किया है।

मसलन, एक शख्स कहते हैं कि तुमने माफी क्यों मांगी? इससे व्यक्ति का लिजलिजापन झलकता है। अरे जनाब, आपने सही से पढ़ा नहीं। मैंने अपने विचारों के लिए माफी नहीं मांगी। माफी मांगी कि शायद मैं बेहतर नहीं लिख सका और बात का गलत अर्थ निकाला गया। अगर एक लेखक के तौर पर मुझसे चूक हुई, तो मुझे माफी मांगनी ही चाहिये। अगर चूक नहीं हुई है तो जिन्होंने उसका गलत मतलब निकाला वो सुधार करेंगे। कुल मिलाकर मैंने बहस को गलत राह पर मुड़ने से बचाने के लिए माफी मांगी है और ये मैंने दो जगह पर साफ शब्दों में लिखा। लेकिन गिद्ध की नज़र उन पंक्तियों पर पड़ी ही नहीं।

ये सिर्फ उदाहरण भर है। ऐसे कई गिद्ध हैं जिन्होंने मेरे और दिलीप जी के लिखे पर ऐसी ही टिप्पणियां की हैं। कुछ तल्खी की वजह पूछते हैं? पूछते हैं कि कहीं ये निजी झगड़ा तो नहीं? उन गिद्धों को मैं साफ कर दूं कि कहीं कोई तल्खी नहीं। कहीं कोई झगड़ा नहीं। मैं अब भी दिलीप जी के दफ्तर में जाता हूं तो उनसे लंबी बात होती है। सामाजिक मुद्दों के साथ मीडिया और करियर से जुड़े मुद्दों पर भी। हम दोनों इस राय में इस्तेफाक रखते हैं कि दो लिखने वालों के बीच इतना स्पेस जरूर होना चाहिये कि वो अपने विचारों को बेबाक अंदाज में पेश कर सकें। मतभेद गहरे होने पर मर्यादित भाषा में एक दूसरे के तर्कों को काट सकें। दिलीप जी ने इसका जिक्र भी किया है। लेकिन गिद्धों की नज़र उस पर नहीं पड़ी।

आखिर में, मैं यही कहूंगा कि ब्लॉग की दुनिया में मैं बहुत पुराना न सही, बहुत नया भी नहीं हूं। बीते एक साल में अनियमित तौर पर ही सही ब्लॉग से जुड़े रहने पर, मैं भी इन गिद्धों को पहचानने लगा हूं। इसलिए दिलीप जी, आप ज़रा भी परेशान मत हों, यहां इन गिद्धों को दाल नहीं गलेगी। हमें एक दूसरे के सामने शर्मिंदा होना पड़े, ऐसी नौबत नहीं आएगी।

(( मैं अभय तिवारी जी का बहुत शुक्रगुजार हूं। मैं जो कहना चाहता था, उसे उन्होंने अपनी टिप्पणी में और साफ कर दिया। सच भी यही है, मैं पूरब और पश्चिम की बहस को खत्म करना नहीं चाहता। वैसे भी मेरे खत्म करने से शदियों से चली आ रही ये बहस खत्म नहीं होगी। इसलिए अच्छा यही रहेगा कि हम पूरब और पश्चिम की अच्छाइयों और बुराइयों पर छिड़ी बहस को जारी रखें। इसी बहाने हम समाज में हो रहे कुछ तेज बदलावों से एक दूसरे को अवगत कराएंगे।))

क्या एक छात्रा की हत्या दिलचस्प हो सकती है?

मैं आज आप सभी से ये जानना चाहता हूं कि क्या किसी छात्रा की हत्या दिलचस्प हो सकती है? क्या हत्या की वजह दिलचस्प हो सकती है? क्या उस वजह पर बहस दिलचप्स हो सकती है? अगर हां तो क्यों और ना तो क्यों? आप सभी अपनी राय दें। क्योंकि आज मैंने कुछ सम्मानित लोगों को इस दिलचस्प बहस को पेश करते देखा है। हत्या और हत्या की मंशा पर चटखारे लेते देखा है। तभी से मेरे मन में ये दोनों सवाल कौंध रहे हैं। आप सभी से मैं इन सवालों पर राय मांगता हूं। हो सके तो चंद मिनट ही सही रुक कर अपनी राय जरूर दें। आपकी राय मुझे किसी नतीजे पर पहुंचने में मदद करेगी।
धन्यवाद,
समरेंद्र

Friday, June 13, 2008

दिलीप जी और विनीत मुझे माफ कर दें, प्लीज

ये बात पुरानी है लेकिन उतनी ही सही भी। अगर कोई शख्स कुछ कहता है और लोग उसका गलत मतलब निकालते हैं तो ये गलती लोगों की नहीं बल्कि कहने वाले की है। लगता है कि ये गलती मुझसे हो गई है। अगर ऐसा नहीं होता तो दो पढ़े-लिखे, काबिल और बौद्धिक स्तर पर मुझसे ज्यादा संपन्न लोग – दिलीप जी और विनीत मेरी बात का गलत अर्थ नहीं निकालते। मोहल्ला पर पश्चिम से क्यों सीखे सभ्यता की आदि भूमि में दिलीप जी मुझसे ये नहीं कहते कि मैं आंखें मूंदे हुए हूं और उस पर अपनी टिप्पणी में विनीत ये नहीं कहते कि मुझे अपनी संस्कृति को महान बताने की लत है।

उन दोनों लोगों ने मेरी बातों को एकदम दूसरा ही मोड़ दे दिया है। मैंने दिलीप जी के नाम लिखे खुले खत में कहा कि पूरब को गरियाने के चक्कर में पश्चिम के ढोंग का गुणगान ना करें। यहां मैंने गुणगान शब्द का सोच समझ कर इस्तेमाल किया था। क्योंकि हम बीते जमाने में निराद सी चौधरी जैसे जैंटलमैन देख चुके हैं जिन्हें भारत में बुराई ही बुराई नज़र आती थी, अच्छाई नहीं। मेरे कहने का आशय इतना ही था कि हम पूरब में ढोंग और पाखंड की निंदा करें, उन्हें मिटाने की मुहिम चलाएं, लेकिन उस चक्कर में पश्चिम की बुराइयों को आत्मसात ना कर लें। लेकिन मेरी बातों का उन्होंने ये मतलब निकाल लिया कि मैं पूरब के ढोंग का समर्थक हूं और पश्चिम की अच्छाइयों का धुर्र विरोधी।

ये मतलब उन्होंने निकाला तो इसकी तीन वजहें हो सकती हैं।
१) मैं उन्हें समझा नहीं सका या यूं कहें कि मैं अपनी बात सही तरीके से नहीं रख सका।
२) वो इतने नासमझ हैं कि मेरे लिखे का सही मतलब नहीं समझ सके।
३) या फिर उन्होंने सोची समझी साज़िश के तहत बहस को गलत मोड़ दिया है। (साज़िश शब्द का इस्तेमाल इसलिए कर रहा हूं कि पिछले ग्यारह साल से मैं भी इसे पेशे में हूं। मुझे मालूम है कि एक अच्छे आदमी को यहां किस साज़िश के तहत बुरा साबित किया जाता है। मैं ये भी जानता हूं कि एक प्रगतिशील शख्स को भी लोग अपने निजी स्वार्थ के लिए दकियानूसी, जातिवादी और सांप्रदायिक करार दे देते हैं।)

शुरुआत तीसरी वजह से करता हूं। दिलीप जी को मैं व्यक्तिगत तौर पर जानता हूं। वो मेरे सीनियर हैं और मैंने उनके मातहत काम भी किया है। इसलिए ये दावे से कह सकता हूं कि वो मुझे दकियानूसी और सुधार विरोधी घोषित करने की साज़िश नहीं रच रहे। अगर खुद दिलीप जी मुझसे कहेंगे कि वो मेरे खिलाफ साज़िश रच रहे हैं तो भी मैं नहीं मानूंगा। रही बात विनीत की तो मैं उन्हें जानता ही नहीं और जिसे नहीं जानता उसे हमेशा अच्छा मान कर चलता हूं।

अब दूसरी वजह। दिलीप जी एक बेहद प्रगतिशील विचारक किस्म के आदमी हैं। मुझसे ज्यादा पढ़े लिखे और समझदार हैं। अनुभव भी मुझसे ज्यादा है। इसलिए मैं ये मान ही नहीं सकता कि वो मेरे लिखे का सही मतलब नहीं समझ सकें। जहां तक विनीत का सवाल है उनके लिखने के तौर तरीके से ये अंदाजा लगाया जा सकता है कि वो भी समझदार किस्म के शख्स हैं।

जब ये दोनों वजहें गलत हैं तो बाकी बस एक ही वजह बचती है और वो सही ही होगी। इसलिए मैं दिलीप जी और विनीत दोनों से माफी मांगता हूं और प्रार्थना करता हूं कि मुझे दकियानूसी और सुधार विरोधी घोषित ना करें।

समरेंद्र

पश्चिम के ढोंग का गुणगान ना करें

आज दिलीप मंडल जी ने मोहल्ला में एक लेख लिखा है। पश्चिम के ब्लॉग में पूरब का मोटापा। इसमें उन्होंने पूरब के ढोंग की निंदा की है और पश्चिम से सीखने की जरूरत पर बल दिया है। उनके इस लेख के कुछ मुद्दों पर मेरी सहमति है और कुछ पर अहमति। उनके नाम इस खुले ख़त के ज़रिये ... मैं सहमति और असहमति – दोनों जतला रहा हूं।
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दिलीप जी,
ये सही है कि हमारे यहां पूरी व्यवस्था हिप्पोक्रेट है। आम आदमी से लेकर देश की ज्यादातर सम्मानित और ताकतवर संस्थाएं ढोंग और पाखंड में एक दूसरे से होड़ करती हैं। इस देश में न्यायपालिका के ढोंग के कई बड़े उदाहरण हैं। ये वही न्यायपालिका है जो पर्यावरण को ताक पर रख कर नर्मदा बांध परियोजना को हरी झंडी दिखाती है। लेकिन उसी पर्यावरण का हवाला देकर दिल्ली से उद्योगों को बाहर निकाल देती है। यही नहीं हमारे देश में सर्वोच्च न्यायालय ... कार्यपालिका से लेकर विधायिका में फैले भ्रष्टाचार पर खुल कर टिप्पणी करता है। भ्रष्ट अफसरों और नेताओं की किस्मत का फैसला करता है, लेकिन न्यायपालिका में मौजूद भ्रष्ट जजों को राष्ट्रपति की इच्छा के खिलाफ जाकर उच्च पदों पर बहाल भी करता है। सीधे कहूं तो जो न्यायपालिका हर रोज न्याय की अवधारणा का मजाक उड़ाती हो उससे कुछ बेहतर की उम्मीद नहीं करनी चाहिये। ऐसे में अगर दिल्ली हाई कोर्ट के सदा सम्मानित जजों ने एयरहोस्टेज के लिए खास वजन तय कर दिया तो इसमें हैरानी की कोई बात नहीं। वो ऐसे बेतुके फैसले करते आए हैं। कर सकते हैं और करते रहेंगे। संविधान ने हमारे देश में जजों को ये ताकत दी है और वो इस ताकत का धड़ल्ले से इस्तेमाल करते आए हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उनके गलत फैसलों का विरोध नहीं होना चाहिये। हमारा दायित्व है कि उन गलत फैसलों को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाएं। उन पर बहस छेड़ें और इस दायित्व को निभाने के लिए आपको साधुवाद।

लेकिन आपके लेख के कुछ मुद्दों पर मेरा विरोध भी है। गलत फैसले पर सवाल खड़े करते वक्त आपने भी कुछ गलतियां कर दी हैं। आपने पश्चिम की जिस सभ्यता की दिल खोल कर तारीफ की है, वो व्यवस्था उतनी उदार नहीं है। सबसे पहली बात हिलेरी पर ओबामा की जीत की। आपने कहा कि राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी की दौड़ में अश्वेत ओबामा की जीत में श्वेत लोगों का भी हाथ है। बात सही है। लेकिन यहां ध्यान देने वाला एक और पहलू है। ये मुकाबला श्वेत और अश्वेत के बीच होने के साथ एक महिला और अश्वेत के बीच भी था। जिस तरह अमेरिका में आज तक कोई अश्वेत राष्ट्रपति नहीं हुआ है ठीक उसी तरह वहां आज तक कोई महिला भी राष्ट्रपति नहीं चुनी गई है। इस लिहाज से दोनों की स्थिति भारत में दलितों की तरह ही है और एक दलित पर दूसरे दलित की जीत को सामाजिक न्याय का उत्तम उदाहरण तो नहीं माना जा सकता। कम से कम इसे अमेरिकी लोगों की मानसिक महानता और उदारता तो नहीं ही कहना चाहिये।

आपकी दूसरी गलती चीयरलीडर्स में रंगभेद को लेकर है। यहां आप भूल गए कि चीयरलीडर्स के कॉन्सेप्ट की मूल बुनियाद क्या थी? क्या आपने कभी किसी ज्यादा वजन और उम्र वाली महिला को चीयरलीडर की भूमिका निभाते देखा है? हो सकता है कि आपने देखा हो, लेकिन मैंने नहीं देखा। ना तो फिल्मों में और ना ही टीवी पर किसी मुकाबले के लाइव टेलीकास्ट के दौरान। सच यही है कि चीयरलीडर्स का पेशा उसी पुरुषवादी सोच का नतीजा है जिसके तहत हवाई जहाजों में एयरहोस्टेज के पेशे की नींव रखी गई। शुरू में दोनों ही जगह महिलाओं को पुरुष ग्राहकों और दर्शकों को लुभाने के लिए एक आइटम के तौर पर पेश किया गया। आज के आधुनिक दौर में भले ही ये दोनों प्रोफेशन सम्मानित हो गए हों, लेकिन उनकी बुनियादी अवधारणा ही शोषण की रही है। शोषण की ये मानसिकता पूरब से लेकर पश्चिम आज भी हर जगह मौजूद है। कहीं कम तो कहीं ज्यादा। फिर शोषण की इस व्यवस्था में रंगभेद एक और पहलू मात्र है।

दिलीप जी, मैं विदेश कभी नहीं गया, इसलिए आपके दोस्तों की तरह वहां के उदार चरित्र का गवाह नहीं बन सका। लेकिन खबरों से जुड़े रहने के कारण इतना जरूर जानता हूं वहां भी लोग और संस्थाएं कम ढोंगी नहीं हैं। आखिर में बस इतना ही कहना चाहता हूं कि हम सबको अपने पूरब में फैले ढोंग, पाखंड और भेदभाव का जोरदार विरोध करना चाहिये, लेकिन इस चक्कर में पश्चिम के ढोंग के गुणगान से बचना भी चाहिये।

धन्यवाद,
समरेंद्र

Sunday, June 8, 2008

गलती करे जोलहा, मार खाये गदहा

लेखक - विचित्र मणि

थोडे असमंजस, थोड़ी ना-नुकूर और थोड़ी फुसफुसाहट के साथ ही सरकार ने पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की कीमतों में बढ़ोत्तरी कर ही दी। कितना किया, अब उस दुखती रग को छेड़ने से क्या फायदा। लेकिन सरकार के फैसले ने विपक्ष को तो छेड़ ही दिया। सरकार को समर्थन देने वाली कम्युनिस्ट पार्टियां उस लैला की तरह हो गयीं, जो जमाने के आगे तो मजनूं को भला बुरा कहती है लेकिन दुनिया की आड़ में उनका प्रेमालाप बदस्तूर जारी रहता है। आखिर क्या करें, खुद को जब कम्युनिस्ट कहना है तो जनवादी तो दिखना ही पड़ेगा। हों या ना हों, इसके क्या फर्क पड़ता है। इसे लोकतंत्र की बदनसीबी ही कहेंगे कि यहां कुछ करने से कुछ कर दिखाने का ढिंढोरा ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है। बेचारी कम्युनिस्ट पार्टियों ने भी कोलकाता में बंद रखकर ये मान लिया कि पेट्रोल-डीजल की बढ़ोत्तरी पर उसने अपना कर्तव्य निबाह लिया। उन्हें ये नहीं दिखता कि पेट्रोलियम पदार्थों पर आंध्र प्रदेश के बाद सबसे ज्यादा बिक्री कर पश्चिम बंगाल सरकार ही लगाती है, जहां लाल क्रांति वाले कम्युनिस्टों का परचम बीते ३१ साल से लहरा रहा है। लेकिन सबसे नाटकीय और अमानवीय विरोध रहा भारतीय जनता पार्टी का।

भाजपा नेता वेंकैय्या नायडू ने बैलगाड़ी की सवारी की तो मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री अपने मंत्रियों के साथ साइकिल पर चलते दिखे। हद तो भाजपा की एक व्यापारिक शाखा ने कर दी। उसने मारुति ८०० कार को दो गधों से जोत दिया। बेचारे गधे तथाकथित इंसानों के बीच हक्के बक्के कार को खींच रहे थे। वो मन में सोच रहे होंगे कि गलती तो मनमोहन सिंह और मुरली देवड़ा की है, खामियाजा हम भुगत रहे हैं।

आखिर उन गधों की गलती क्या थी? आपको कार पर चलना है या नहीं चलना है, उससे गधों और बैलों का क्या लेना-देना ? सरकार के पेट्रोल डीजल की कीमतें बढ़ाने से आप कार से उतरकर बस या पैदल हो गये, उसमें उन निरीह पशुओं की क्या गलती है? गधे और बैल तो सही मायने में श्रम के प्रतीक हैं। इस खेती प्रधान देश में उनकी बड़ी जरूरत है। निश्छलता, कर्मठता और स्वामिभक्ति की उनकी प्रवृति का आदर किया जाना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि देश-भक्ति की ढोल पीटने वाली बीजेपी उन महान मूल्यों की कीमत नहीं जानती। वक्त के मुताबिक एक प्रचलित कहावत को बदलकर कहें तो गलती तो जोलहा ने किया, मार बेचारा गदहा खा रहा है।

वजह साफ है कि उस हवा हवाई पार्टी में जमीन का दुख-दर्द समझने वाला कोई नहीं है। कायदे से तो उम्र के आखिरी पड़ाव पर ही सही, बीजेपी के प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी को चाहिए कि खेती-बाड़ी वाले इस देश को ठीक से जानने की कोशिश करें और हो सके तो वेंकैय्या नायडू और दूसरे अपने नेताओं को भी ये नेक सलाह दें। वैसे एक बात और जोड़ दूं कि ये बात कांग्रेस पर भी लागू होती है। आखिर भाजपा कांग्रेस का ही तो विस्तार है। कैसे? इसकी चर्चा बाद में होगी।

Saturday, May 31, 2008

राम मिलाई जोड़ी



कुछ दिन पहले मित्र अमिय मोहन और मैंने एक बार फिर ख़्वाजा के दरबार में हाजिरी बजाने का मन बनाया। हम वहां पिछले साल गए थे। जून के ही महीने में। तब मेरे घर दो नन्ही परियों ने जन्म लिया था। ख्वाजा से मैंने दुआ मांगी थी और वादा किया था कि जल्दी ही सजदा करने दोबारा आऊंगा। लेकिन एक साल होने को है, मैं लाख कोशिशों के बाद भी वहां जा नहीं सका हूं। कभी कुछ तो कभी कुछ। हर बार जाने का कार्यक्रम टालना पड़ा। इस बार फ़ैसला किया था कि कार्यक्रम नहीं टालूंगा। अमिय से बात हुई तो वो भी तैयार हो गए। वैसे वो अजमेर जाने के नाम पर हमेशा तैयार रहते हैं। कई बार जा चुके हैं। पिछले साल मैं भी उन्हीं के साथ ही गया था। उसके बाद भी वो एक चक्कर लगा आएं। तय कार्यक्रम के मुताबिक हम लोग रविवार को अजमेर पहुंचने वाले थे. लेकिन उससे पहले गुर्जर आंदोलन शुरू हो गया। घरवाले अजमेर जाने की खबर सुन कर भड़क गए। अमिय मोहन ने भी कहा कि कुछ दिन रुक ही जाते हैं। कार्यक्रम फिर टालना पड़ा और नौ दिन बीत चुके हैं हम दोनों अब भी राजस्थान में अमन का इंतज़ार कर रहे हैं। आखिर हमारा इंतज़ार क्यों बढ़ता जा रहा है? नौ दिन बीतने के बाद भी वहां हिंसा क्यों नहीं थम रही? और क्या कभी इसका हल निकलेगा या नहीं?
दरअसल ये पूरा मसला इतना उलझा हुआ है कि हल निकालने की गारंटी कोई नहीं दे सकता। गुर्जरों ने मांग ही कुछ ऐसी रख दी है कि किसी भी सरकार के लिए किसी नतीजे पर जल्दी पहुंचना मुमकिन नहीं। अगर राज्य सरकार उन्हें अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की सिफारिश करने को तैयार हो जाए तो राजस्थान में एक नया सियासी संकट पैदा होगा। वो सियासी संकट उस श्रेणी में पहले से मौजूद जातियों के विरोध के कारण पैदा होगा। उस सूरत में इसकी भी आशंका है कि उन जातियों और गुर्जरों के बीच कोई झगड़ा ना शुरू हो जाए। इस ख़तरे का अहसास बीजेपी के साथ कांग्रेस को भी है। यही वजह है कि कोई भी सियासी दल गुर्जरों को अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में डालने का सीधा वादा नहीं कर रहा।
मांग बड़ी होने के साथ गुर्जर नेतृत्व ने गलती भी की है। फौज छोड़ कर सियासत में कदम रख रहे कर्नल बैंसला अपनी नादानी के कारण अपने ही जाल में उलझ गए हैं। उन्हें अगर अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की मांग पर आंदोलन करना था तो ये आंदोलन शांतिपूर्ण तरीके से होना चाहिये था। लेकिन वो अपने लोगों को काबू में नहीं रख सके। यही नहीं सियासत में दो कदम आगे बढ़ा कर एक कदम पीछे हटाना पड़ता है। कर्नल बैंसला कदम आगे बढ़ाना तो जानते हैं लेकिन वक्त पर पीछे हटाना नहीं जानते। वो भूल गए हैं कि किसी भी रस्सी को एक सीमा तक ही खींचा जा सकता है। उसके बाद जोर देने पर रस्सी टूट जाती है। फिलहाल कर्नल बैंसला रस्सी को उसी हद तक खींचने की कोशिश कर रहे हैं।
यहां एक गलती राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे से भी हुई है। अब बीजेपी को भी वसुंधरा राजे को नेतृत्व सौंपने की गलती का अहसास हो रहा होगा। वसुंधरा राजे किसी भी लिहाज से जनता की सेवक होने की हकदार नहीं। वो निजी स्वार्थों में डूबी एक ऐसी नेता हैं जिन्हें जनता से ज्यादा फैशन और पार्टियों से मोहब्बत है। यही वजह है कि उन्होंने अपने राज्य की पुलिस को जनता से व्यवहार का तरीका नहीं सिखाया। उनके राज में पुलिस इतनी मदहोश है कि वो बात बात पर लोगों पर गोलियों की बौछार कर देती है। चाहे वो गंगानगर में पानी के लिए किसानों का प्रदर्शन हो या फिर अनुसूचित जनजाति का दर्जा मांग रहे गुर्जरों का प्रदर्शन।
ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब दोनों ही तरफ से अदूरदर्शी और अविवेकशील नेतृत्व हो तो किसी समस्या का हल निकले भी तो कैसे?

तारीख - ३१-०५-०८

समय - १०.२०

ये लेख यहां भी है....

http://dreamndesire.blogspot.com/2008/05/blog-post_31.html

Friday, May 30, 2008

कप्तान ने हरा दिया

मेरी टीम मैच हार गई। दिल्ली डेयरडेविल्स पर मैंने काफी दांव लगाया था। रुपये पैसे का नहीं बल्कि जुबानी दांव। ऑफिस और घर पर जो कोई मुझते पूछता की कौन सी टीम खिताब जीतेगी मेरे मुंह से दिल्ली का नाम निकल जाता। इसकी दो बड़ी वजहें थी। पहली वजह कि मैं दिल्ली में रह रहा हूं और मेरे गांव से बाकी टूसरे शहरों की टीमों की तुलना में दिल्ली नजदीक भी है। दूसरी वजह कि सचिन तेंदुलकर के बाद वीरेंद्र सहवाग को ही बतौर बल्लेबाज मैं सबसे अधिक पसंद करता हूं। मुझे ये हमेशा लगता रहा कि धोनी को कप्तान बना कर सहवाग के साथ ज्यादती की गई है। मैं यहा साफ कर दूं कि ये बिल्कुल मेरी निजी राय है और इससे किसी को सहमत होने की जरूरत नहीं है। मगर अब मेरी राय बिल्कुल बदल गई है।
शेष यहां पढ़ें ...
http://dreamndesire.blogspot.com/2008/05/blog-post_1232.html

क्या हम सड़क पर चलना नहीं जानते?

दफ्तर से लौटते वक्त लगा कि गाड़ी भिड़ जाएगी। ग्रेटर कैलाश से आईटीओ की तरफ बढ़ने पर ओबेरॉय होटल के पास से बायीं तरफ इंडिया गेट के लिए रास्ता निकलता है। मैं इंडिकेटर देते हुए धीरे धीरे उधर मुड़ने लगा। लेकिन तभी एक तेज रफ्तार कार पॉवर हॉर्न बजाते हुए वायें से निकलने लगी। अगर मैंने जोर से ब्रेक नहीं दबाया होता तो हादसा तय था। ये पहली बार नहीं है। दिल्ली की सड़क पर गाड़ी चलाते हुए कुछ अधिक सतर्क रहना पड़ता है। यहां ज्यादातर लोग बेतरतीब ढंग से गाड़ी चलाते हैं। कोई साठ की लेन में तीस की रफ्तार से चलता है तो कोई चालीस की लेन में अस्सी की रफ्तार से।

शेष यहां पढ़ें...

http://dreamndesire।blogspot.com/2008/05/blog-post_30.html

वतन को फिक्र कहां?

आज एक ख़बर आई। अमेरिका के न्यू आर्सलेंस प्रांत से। भारतीय मजदूरों की बेबसी से जुड़ी हुई। वहां पर एक कंट्रक्शन कंपनी ने पांच सौ से ज्यादा भारतीय मजदूरों पर कहर बरपाया है। इन मजदूरों को भारत के ही एक दलाल ने रहने और खाने के अच्छे इंतजाम और अच्छी तनख्वाह का लालच देकर अमेरिका पहुंचाया। लेकिन अब वहां पर उनके साथ बंधुआ मजदूरों जैसा बर्ताब हो रहा है। तीन सौ वर्ग फुट के कमरे में २५-२५ मजदूर रहने को मजबूर हैं। खाने-पीने का बंदोबस्त भी बुरा। यही नहीं विरोध करने पर कंपनी के गुंडे उनकी पिटाई भी करते हैं और पुलिस तमाशा देखती रहती है। न्याय के लिए वो मजदूर पिछले १६ दिन से भूख हड़ताल पर बैठे हैं। मानवाधिकार संगठनों के जरिये उन्होंने भारत के हुक्मरानों तक भी अपनी बात पहुंचाने की कोशिश की है। लेकिन हमारी सरकार खामोश हैं। मनमोहन सिंह चुप हैं। सोनिया गांधी भी चुप हैं।
कुछ दिनों पहले सूडान में चार भारतीयों के अपहरण की खबर आई थी। तब एक साथी ने कहा कि ऐसी ख़बरें दिखाने की क्या ज़रूरत है? लोग पैसे के लालच में वतन छोड़ कर चले जाएं और मुसीबत में फंसे तो सरकार मदद करे? ये भी कोई तुक है? पहली नज़र में सवाल सही लगते हैं। लेकिन सही हैं नहीं। दरअसल किसी भी देश से दो तबके के लोग नौकरी के लिए विदेश जाते हैं। एक तबका इंजीनियर, डॉक्टर, मैनेजर, वैज्ञानिक जैसे पढ़े लिखे लोगों का है और दूसरा मजदूरों का तबका। पहला तबका अपने सपनों को, महात्वाकांक्षाओं को नया आयाम देने के लिए जाता है। दूसरा रोजी रोटी की तलाश में, अपना और परिवार की जरूरतों को पूरा करने की कोशिश में।
हम अपने लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरी करने लायक गुंजाइश भी पैदा नहीं कर सके हैं, तो ये हमारे देश, हमारे हुक्मरानों और हमारी व्यवस्था की कमजोरी है। एक ऐसी कमजोरी जो किसी भी सम्प्रभु राष्ट्र के लिए शर्म की बात है। ऐसे में अगर लोग रोजी रोटी की तलाश में विदेश जाते हैं और वहां उनके साथ कुछ बुरा होता है तब खामोश रह कर हम सम्प्रभु राष्ट्र होने की एक और शर्त पर खरे नहीं उतरेंगे। ये अपने लोगों के साथ दोहरा विश्वासघात होगा। फिलहाल हमारी सरकार चुप रह कर अमेरिका में न्याय के लिए लड़ रहे अपने उन पांच सौ से ज्यादा नागरिकों और उनके घरवालों के साथ यही दोहरा विश्वासघात कर रही है।
तारीख - ३० मई, २००८
वक़्त - १०.30

Thursday, May 29, 2008

अंकों का बोझ

आज सुबह आठ बजे दसवीं के नतीजे आए। उस समय मैं दफ्तर में था और वहां से नौ बजे के करीब घर पहुंचा। तब तक मेरा भाई अपना नतीजा जानने के लिए कई फोन कर चुका था। परीक्षा के बाद वो छुट्टियां बिताने के लिए गांव चला गया। मेरी तरह उसे भी गांव काफी पसंद है। बलिया जिले का चौरा कथरिया गांव। सड़क के शोर से एक कोस दूर। बस से उतरने के बाद खड़ींजा पर गांव की तरफ बढ़ते हुए पहले खेत पड़ते हैं... फिर बगीचे और उसके बाद आबादी। बगीचे और आबादी के बीच करीब दो सौ मीटर की परती है। परती में कुछ बड़े गड्ढे और उन गड्ढों के बीच में पतली पतली पगडंडियां। उन्हों पगडंडियों से होकर हम लोग करीब पंद्रह फुट की ऊंचाई पर बसे गांव में दाखिल होते हैं। हमारा घर गांव के बाहरी छोर पर है। इसलिए दुआर से आबादी नहीं परती, बगीचे और खेल खलिहान नज़र आते हैं। वो खेत खलिहान और बगीचे जिन्हें देखने के लिए आंखें हर वक्त तरसती रहती हैं। अरे ये क्या? मैं लिखने बैठा था दसवीं के नतीजों पर और गांव का ब्योरा देने लगा।घर पहुंचते ही कंप्यूटर ऑन किया, लेकिन इंटरनेट ने धोखा दे दिया। फिर दोस्त विचित्र मणि को फोन किया और भाई का रोल नंबर नोट कराया।

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Wednesday, May 28, 2008

मेरे सपने, मेरी तमन्ना

जमाना बीत गया है अपने लिये कुछ लीखे हुए। दफ़्तर में तो हर रोज कई पन्ने टाइप कर लेता हूं, लेकिन अपनी ज़िंदगी को पन्नों पर दर्ज करने के लिए या यूं कहें कि अपने लिये लिखने की फुर्सत ही नहीं मिलती। खाली होने पर खालीपन का अहसास इतना गहरा हो जाता है कि कुछ भी करने का जी नहीं करता। जब से शराब और सिगरेट छोड़ दी है, कई दोस्तों से मिलने का बहाना भी छूट गया है। इसलिए ज्यादातर वक्त अब घर में कटता है। टीवी देखते, सोते और ये सोचते हुए कि ज़िंदगी के मायने क्या है। क्या यूं ही अंतहीन... अंधेरे सफ़र पर चलते जाना मेरी नियति है? क्या जीवन का सिर्फ़ इतना ही लक्ष्य है कि अपना और परिवार का पेट पाल लें? छोटे भाई-बहनों को पढ़ा लें? बच्चों के लिए कुछ जमा कर दें?
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