दफ्तर से लौटते वक्त लगा कि गाड़ी भिड़ जाएगी। ग्रेटर कैलाश से आईटीओ की तरफ बढ़ने पर ओबेरॉय होटल के पास से बायीं तरफ इंडिया गेट के लिए रास्ता निकलता है। मैं इंडिकेटर देते हुए धीरे धीरे उधर मुड़ने लगा। लेकिन तभी एक तेज रफ्तार कार पॉवर हॉर्न बजाते हुए वायें से निकलने लगी। अगर मैंने जोर से ब्रेक नहीं दबाया होता तो हादसा तय था। ये पहली बार नहीं है। दिल्ली की सड़क पर गाड़ी चलाते हुए कुछ अधिक सतर्क रहना पड़ता है। यहां ज्यादातर लोग बेतरतीब ढंग से गाड़ी चलाते हैं। कोई साठ की लेन में तीस की रफ्तार से चलता है तो कोई चालीस की लेन में अस्सी की रफ्तार से।
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1 comment:
बिल्कुल सही फरमाया आपने...तभी तो हाल ही में दिल्ली के उपराज्यपाल ने ताना मारा था कि दिल्ली वालों को तमीज नहीं है..और कुछ ऐसा ही कहना है चित्रा मुद्गल का भी...कि दिल्ली उजड्ड मानसिकता वाले नवढ़नाढ़्यों का शहर है..जहां लोगों के पास पैसा मेहनत से नहीं दलाली और बाजार के अप्रत्याशित विकास की वजह से आ गया है..ऐसे में जो एक शहरी और संभ्रान्त मानसिकता विकसित होता है..वो तो दिल्ली वालों में खोजना मारीचिका के समान है। मेरा तो मानना है कि ये हिंदुस्तान ही जैसे मुल्क में संभव है कि कोई शहर सिर्फ राजधानी होने की वजह से पूरे मुल्क के दूसरे शहरों का हिस्सा खा रहा है..जबकि देश के खजाने में इसका योगदान शायद सबसे कम है।
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