Wednesday, May 30, 2007

शावेज से सीखो मनमोहन (पहली कड़ी)





एक हैं दक्षिण अमेरिका के बेहद छोटे देश वेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्यूगो शावेज और दूसरे हैं दुनिया में सबसे बड़े लोकतंत्र यानी हमारे देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह। ये दोनों शख्स दो धाराओं की पहचान हैं। शावेज जहां आजादी के प्रबल समर्थक हैं वहीं वर्ल्ड बैंक जैसी संस्थाओं में काम कर चुके मनमोहन गुलाम मानसिकता के नुमाइंदे। आप सोच रहे होंगे की मनमोहन और शावेज की क्या तुलना। लेकिन ये तुलना बेहद जरूरी है। ये जानते और सोचते हुए तो और जरूरी कि मनमोहन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत का बंटाधार करने में जुटे हैं और एक छोटे से देश वेनेजुएला के राष्ट्रपति शावेज खुलेआम अमेरिका को ललकार रहे हैं। मनमोहन कि बात बाद में। पहले चर्चा शावेज की।
ह्यूगो शावेज ये नाम ज्यादातर भारतीयों के लिए नया है। बहुत कम लोग वेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्यूगो शावेज के बारे में जानते होंगे। लेकिन आने वाले दिनों में शावेज पूरी दुनिया में संघर्ष के नए प्रतीक बनेंगे। शावेज एक ऐसे शख्स के रूप में उभर रहे हैं, जो अमेरिका को ना केवल चुनौती दे रहा है बल्कि उसके सारे औजारों को भी भोथरा करने में जुटा है। अमेरिका ने पूरी दुनिया पर राज करने के लिए कुछ तंत्र खड़े किये। वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ ऐसे ही दो तंत्र हैं। लेकिन शावेज की अगुवाई में दक्षिण अमेरिका के छोटे से देश वेनेजुएला ने इनके जाल को काट दिया है। वामपंथी विचारधारा के समर्थक शावेज ने पहली बार १९९८ में वेनेजुएला की सत्ता संभाली। तब तक दुनिया में तेल का छठें नंबर का उत्पाद देश वेनेजुएला में अमेरिकी कंपनियों ने जाल बिछा दिया था। शावेज ने बड़ी शिद्दत से महसूस किया कि ये उनके देश को गुलाम बनाने की साजिश है। उन्हें ये भी महसूस हुआ कि संपूर्ण आजादी का एक ही रास्ता है। वो रास्ता अमेरिकी समर्थक कंपनियां और संस्थाओं को देश से बाहर निकालने के बाद ही खुलेगा। उसी के बाद उन्होंने एक कठोर फैसला किया। एक के बाद एक इन कंपनियों को बाहर निकालने की योजना बनाने में जुट गए। इसी साल उन्होंने चार बड़े क्षेत्रों का राष्ट्रीयकरण किया। पेट्रोलियम, दूरसंचार और ऊर्चा इन्हीं क्षेत्रों में शामिल हैं। वेनेजुएला में इन क्षेत्रों से जुड़ी सभी निजी कंपनियों का धंधा चौपट हो गया और उन्हें अपना बोरिया बिस्तर समेटना पड़ा। इसके बाद शावेज ने वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ पर निशाना साधा। वो जानते थे कि जब तक इनकी जड़ों को नहीं काटा जाएगा आजादी का सपना सिवाए सपना से अधिक कुछ नहीं। यही वजह है कि शावेज ने सबसे पहले इन संस्थाओं का कर्ज चुकाया। वो भी तय समय से काफी पहले। ऐसा करके उन्होंने ब्याज के करीब अस्सी लाख डॉलर यानी पैंतीस करोड़ रुपये भी बचाए। उसके बाद शावेज ने दोनों संगठनों से कहा कि वो उनके वतन से अपना कामकाज समेट लें।
शावेज जानते हैं कि अमेरिका को चुनौती देने के बाद उनकी जान खतरे में है। लेकिन जो डर गया वो मर गया, इसी तर्ज पर शावेज ने आक्रामक तेवर में कोई कमी नहीं आने दिया है। उन पर दो बार जानलेवा हमले हो चुके हैं। पहला हमला २००५ में हुआ। तब विपक्षी पार्टियों ने कोलंबिया के अपराधियों से हमला कराया। लेकिन जाको राखे साइयां मार सके ना कोई। शावेज का बाल भी बांका नहीं हुआ। इन हमलों के बाद शावेज के तेवर और कड़े हो गए। कुछ दिनों पहले उन्होंने संयुक्त राष्ट्र के महाधिवेशन में इसका सबूत दिया। शावेज से एक दिन पहले अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने उसी मंच से पूरी दुनिया के नुमाइंदों को संबोधित किया था। जब अगले दिन शावेज उस मंच पर पहुंचे तो उन्होंने कहा कि “एक दिन पहले एक शैतान (बुश) ने इसी मंच से भाषण दिया था। उस शैतान (बुश) की बू अभी तक फिजा में फैली हुई है”। शावेज अच्छी तरह जानते हैं कि दुनिया में सबसे बड़ा आतंकवादी देश कोई है तो वो है अमेरिका। इसीलिए वो सबसे पहले अमेरिका को चुनौती दे रहे हैं। हिंसा के रास्ते नहीं बल्कि कूटनीतिक तरीके से। हाल ही में वेनेजुएला ने इजरायल से दूत को वापस बुला लिया। शावेज ने कहा कि अमेरिका का पिछलग्गू इजरायल फिलिस्तीन समेत सभी पड़ोसी मुल्कों पर नापाक इरादों से हमले कर रहा है। इसका विरोध होना चाहिये। जिस दिन उन्होंने दूत वापस बुलाया उसी दिन बोइंग विमान में राहत सामाग्री भेज कर बमबारी में मारे गए लोगों की मदद की। हाल के दिनों में वेनेजुएला ने लैटिन अमेरिका और खाड़ी के देशों में अपना समर्थन मजबूत किया है। इक्वाडोर इसी का उदाहरण है। इक्वाडोर कच्चा तेल निर्यात करता था और पेट्रोल और डीजल आयात। वेनेजुएला ने पहल कर वहां रिफाइनरी स्थापित करवाई। अब इक्वाडोर जरूरत का तेल खुद ही तैयार करता है। इसी तरह शावेज लैटिन अमेरिका के तमाम देशों को लामबंध कर रहे हैं ताकि वो सभी अमेरिका के जाल से बाहर निकल सकें। इसमें कामयाबी भी मिल रही है। हाल ही में जब बुश लैटिन अमेरिकी देशों के दौरे पर गए तो वहां जमकर विरोध हुआ। अर्जेंटीना और ब्राजील में हजारों लोगों ने सड़कों पर उतर कर बुश विरोधी नारे लगाए और कहा “गो बैक बुश”।
ये अकारण नहीं है कि हाल के दिनों में अमेरिका और उसके समर्थक देशों की सारी एजेंसियां शावेज को बदनाम करने में जुटी हैं। आए दिन समाचार पत्र और पत्रिकाओं में उनके खिलाफ लेख छप रहे हैं। ये बताया जा रहा है कि वेनेजुएला के फॉरेन बॉन्ड की कीमत गिर रही है। अर्थव्यवस्था के सूचांक धराशायी हो रहे हैं। वो दिन दूर नहीं जब वेनेजुएला की अर्थव्यवस्था चरमा जाएगी। उसे फिर से अमेरिका और उसकी परभक्षी संस्थाओं की शरण में आना पड़ेगा। इसी दलील तो मजबूत करने के लिए जिन कंपनियों ने वेनेजुएला के फॉरेन बॉन्ड खरीदे थे वो अब अपना पैसा वापस मांग रही हैं। लेकिन इस गलत प्रचार में लगे लोग भूल जाते हैं कि वेनेजुएला में आर्थिक संकट १९८० के दशक में शुरु हुआ। तब वहां गरीबी ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिये। देश की करीब ७० फीसदी जनता गरीबी के दलदल में फंस चुकी थी। पूरे लैटिन अमेरिका में सभी देश समृद्धि और विकास के मामले में वेनेजुएला से आगे निकल गए। अब वो हालात नहीं हैं। शावेज ने जब से सत्ता संभाली है गरीबी घट रही है। अब वहां पर गरीबी तीस फीसदी के करीब है। शावेज की नीतियों की जनता भी मुरीद है। पिछले साल दिसंबर में हुए चुनाव में शावेज को ६३ फीसदी वोट मिले। जिसे अपने वतन की आवाम का इतना बड़ा समर्थन हासिल हो उसे किसी से डरने की जरूरत ही क्या है?
((अगली कड़ी में मनमोहन की चर्चा। बात होगी की किस तरह मनमोहन देश को गुलामी के नए दौर में ढकेल रहे हैं। साथ ही ये भी कि कैसे कंपनियां (भारतीय और विदेशी) अपने फायदे के लिए मनमोहन को औजार के तौर पर इस्तेमाल कर रही हैं और वो खुशी खुशी इस्तेमाल हो रहे हैं। चर्चा मनमोहन के समर्थकों कि इस दलील पर भी होगी कि वो ईमानदार हैं। लेकिन यहां सवाल उठता है कि क्या राजनीतिक स्तर पर भ्रष्ट होना खतरनाक नहीं है।))

Tuesday, May 29, 2007

आम आदमी के खिलाफ साजिश

(("रिलायंस पर और तेज करो हमले" पर हमारे साथी दीपू राय ने अपनी प्रतिक्रिया दी है। मैं उनकी बात से सहमत हूं। ये एक बड़ी साजिश है। ये इसी साजिश है हिस्सा है कि जब संसद में मनमोहन सरकार से पूछा जाता है कि रिटेल सेक्टर में कितने आदमी काम कर रहे हैं और बड़ी कंपनियों के आने से उन पर क्या असर पड़ेगा तो सरकार कहती है कि ये समीक्षा की जा रही है। उसका ठेका एक संस्था को दिया गया है। यानी समीक्षा फैसला लागू करने के बाद, पहले नहीं। समीक्षा इसकी नहीं कि बड़ी कंपनियों के आने से क्या असर पड़ेगा। बल्कि इसकी कि बड़ी कंपनियों ने कितनों को रोजगार दिया और कितनों की पेट पर ताल मारी। ये मनमोहन सिंह जैसा शख्स ही कर सकता है। ये वही मनमोहन हैं जिन्होंने देश में आर्थिक सुधार लागू किये और अब बड़ी कंपनियों से भीख मांग रहे हैं। जनता की बेहतरी के नाम पर। ये बड़ी साजिश है और दीपू राय ने अपनी प्रतिक्रिया में इस साजिश के कुछ और पहलुओं को सामने रखा है।))

कुछ समय पहले विदर्भ में किसानों की आत्महत्या के पीछे कारणों की जांच करने के लिए एक उच्चस्तरीय सरकारी कमेटी गई थी। जिसमें नौकरशाह और मशहूर मनोवैज्ञानिकों की एक टीम शामिल थी। मनोवैज्ञानिकों ने किसानों को आत्महत्या की प्रवृत्ति को शुद्ध रूप से मानसिक बीमारी मानकर आंकलन शुरू किया। लेकिन जिन सवालों के आधार पर उन्हे पागल घोषित किया जा रहा था उससे अलग हटकर एक किसान ने हिम्मत करके ये सवाल किया कि आखिर जब हम लोग अनाज पैदा करते हैं तो भूख से क्यों मरते हैं? इसका जवाब उस टीम के पास नहीं था। हालांकि सरकार उस रिपोर्ट के जरिए विश्वबैंक और बाकी अनुदान देने वाली संस्थाओं से ऐसे एनजीओ बनाने की सिफारिश जरूर कर दी जो आत्महत्या की इस प्रवृत्ति से लड़ना सिखाए। हालांकि यह एनजीओ इस पर बात नहीं करेगा कि जो बीज किसान को दस साल पहले 300 रुपए प्रति बोरी मिलता था अब वो 1800 रुपए में क्यों? क्यों इसमें से 1200 रुपए मानसेंट के पास जाता है? क्या यह किसी मनोविज्ञान का विषय है। ऐसी समस्याओं के जड़ में जाने से रोकना ही नवउदारवाद है जिसे आज दुनिया भर की सरकारें इस्तेमाल करती हैं। यह विद्रोह की किसी संभावना को सुलगने से पहले ही दबाने की योग्यता रखता है। सांस्कृतिक स्तर पर यह धार्मिक कट्टरता और गैर वैज्ञानिक विचारों के प्रति अदभूत आग्रह दिखाता है। बहुत हद तक संभावना है कि एक्शन एड जैसे एनजीओ और पंडित रविशंकर जैसे लोग मौत को गले लगा रहे किसानों के मानसिक शांति के लिए अपने कैंप लगाएं। देश भर में हजारों की संख्या में साधुओं और अध्यात्मिक गुरुओं और पोर्टफोलियो बेस्ड औद्योगिककरण के तेज विकास में एक रिश्ता है। लोगों को गैर-राजनीतिक बनाना इनका सबसे छूपा एजेंडा होता है। हालांकि इस समझ के पीछे मजबूत राजनीतिक इच्छा ही होती है। लेकिन वह आम लोगों के लिए नहीं बल्कि खास लोगों के लिए होती है।अब विद्रोह व्यवस्था बदलने के लिए नहीं धर्म स्थापित करने के लिए पैदा किए जाते हैं। क्योंकि राजनैतिक विद्रोह के बदले धार्मिक विद्रोह नवउदारवाद को ज्यादा सहूलियत देता है। इस मुहिम को सफल बनाने के लिए सैन्य-कॉरपोरेट-धार्मिक आतंक का गठजोड़ बहुत सजगता से काम करता है। धार्मिक आतंकवाद को राजनौतिक जरूरत ने पाला पोसा है और अब भी वह इसे दुनिया भर में इस्तेमाल करता है। आतंकवादी संगठनों की सालाना लिस्ट तो केवल भरमाने का काम करती है। कुल मिलाकर सरकारें अब सैन्य क्षमता पर टिकी हैं और उन्हे कॉरपोरेट और धार्मिक आतंकवाद से ही गवर्न होना है। और हम चाकरी करने वाले इस मुहिम में अपनी वास्तविक जनता से दिन ब दिन दूर होते हैं जाएंगे। हो सकता है हमें थोड़ी उदासी घेरे जब हम किसी चैनल पर 70 साल के बुजुर्ग को 10-20 पुलिसवालों से पीटते देखें। लेकिन वो बूढ़ा तो उसी ग्रामीण और गरीब दुनिया का हिस्सा है जिसके पीछे सैन्य-कॉरपोरेट और धार्मिक आतंकवाद के गठजोड़ वाली सरकारें पड़ी हैं और दौड़ा-दौड़ाकर सभ्यता के सभी गलियारों में गोलियों का निशाना बना रही हैं।
((दीपू राय))

इस गांधीगीरी से बचाओ

कुछ लोग कभी नहीं सुधरते। चाहे जमाना इधर का उधर हो जाए। संजय दत्त भी एक ऐसा ही इंसान है। उसका स्लोगन ही है कि "हम नहीं सुधरेंगे"। इसका ताजा उदाहरण है टीवी पर रूपा अंडरगारमेंट का एक प्रचार। उसमें अपनी जवान बेटी के साथ सैर पर निकला शख्स अचानक एक टपोरी से टकरा जाता है। ये टपोरी शर्ट के सभी बटन खोल कर... बनियान दिखाता हुआ... चौड़ा होकर सड़क पर तफरी कर रहा है। अचानक हुई इस टक्कर से बौखलाया शख्स कहता है कि "ये क्या गुंडागीरी है"। जवाब में वो टपोरी कहता है कि "ये गुंडागीरी नहीं गांधीगीरी है बाबा"। साथ ही रूपा का बनियान दिखाता है और फिर उस शख्स को प्यार की एक झप्पी देता है। तपाक से उस अधेड़ शख्स की बेटी कहती है कि "मेरी झप्पी"। आप सोच रहे होंगे कि इस का संजय दत्त से क्या लेना देना। दरअसल इस विज्ञापन में टपोरी के किरदार में संजय दत्त है। ये वही संजय दत्त से जो लगे रहो मुन्नाभाई में पूरे देश को गांधीगीरी का सबक सिखाता नजर आता है। वो भी उस दौर में जब १९९३ बम धमाकों में टाडा अदालत में उसके खिलाफ सुनवाई पूरी हो चुकी थी और फैसला आना था। उन सीरियल बम धमाकों में २५० से ज्यादा लोग मारे गए थे और १००० के करीब जख्मी हुए थे। ये अब तक का सबसे बड़ा मुकदमा माना जाता है। इसमें नरगिस और सुनील दत्त जैसे भले लोगों की संतान संजय दत्त पर अवैध तौर पर हथियार रखने का आरोप था। साथ ही आतंकवादियों से साठगांठ का आरोप भी। टाडा अदालत फैसला सुनाए इससे पहले ही लगे रहो मुन्नाभाई में इस टपोरी की गांधीगीरी देखने के बाद देश में इसके समर्थन में एक माहौल सा बन गया। सुनील दत्त का कुछ ही समय पहले देहांत हुआ था तो सहानभूति की लहर पहले से ही चल रही थी। वो लहर लगे रहो मुन्नाभाई के बाद और तेज हो गई। संजय दत्त के समर्थक जहां तहां यही कहते पाए गए कि उसने चरस लेनी बंद कर दी है और अब मारपीट भी नहीं करता। हथियारों से भी उसने तौबा कर लिया है और आतंक के सौदागरों से भी। अब तो वो इतना सुधर गया है कि गांधीगीरी करने लगा है। इसलिए उसकी सजा माफ कर देनी चाहिये। लेकिन पुरानी कहावत है कि चोर चोरी से जाए हेराफेरी से ना जाए। संजय दत्त भी उसी फितरत का आदमी है। कम से कम रूपा के प्रचार से तो यही साबित होता है। जब वो शख्स गांधीगीरी से एक आदर्श छवि बनाने के बाद उसी गांधीगीरी को एक कंपनी के प्रचार के लिए बेच सकता है तो वो शख्स अपनी जरूरत के वक्त किसी भी स्तर तक उतर सकता है। यहां उसके समर्थक ये कह सकते हैं कि गांधीगीरी एक फिल्म का जुमला है। उस जुमले को संजय दत्त अगर प्रचार में इस्तेमाल कर रहा है तो क्या हर्ज है। बात सही है। लेकिन कुछ दिनों पहले जब इस शख्स से ये सवाल पूछा गया कि आपने गांधीगीरी के बहाने गांधी की विचारधारा को फिर से जनता के बीच पहुंचा दिया। तब इस शख्स ने कहा था कि "मेरे मां-बाप दोनों गांधीवादी थे। वो मुझे इस बारे में बताते थे, लेकिन तब मैंने इसके महत्व को नहीं समझा। अब मैं जान गया हूं कि वो दोनों सही थे। मैंने इसे अपनी जिंदगी में लागू भी किया है और इसकी ताकत को शिद्दत से महसूस करता हूं।" ... जाहिर है कि गांधी को भी इस शख्स ने अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया है और गांधीगीरी को भी। चाहे वो जनता से सहानभूति हासिल करना हो या फिर बाजार से पैसा। ऐसे में तो यही लगता है कि जो लोग भी ऐसे टपोरी (जो गांधीगीरी का पाखंड करते हैं) के प्रति हल्की सी सहानभूति रखते हैं वो भी उसके अपराध में बराबर के हिस्सेदार हैं।

((अगले अंक में एक ऐसे शख्स की चर्चा ... जो पूरी दुनिया में संघर्ष की नई पहचान बन रहा है। अमेरिका और उसके आतंकी मंसूबों के खिलाफ संघर्ष की पहचान। उस शख्स से हम सभी बहुत कुछ सीख सकते हैं।))

Sunday, May 27, 2007

रिलायंस पर और तेज करो हमले






मुकेश अंबानी की कंपनी रिलायंस फ्रेश के स्टोर पर हमले शुरू हो गए हैं। ये हमले रांची, इंदौर और मैंगलोर में हुए हैं। जबलपुर, ग्वालियर और भोपाल में भी इसका विरोध होने लगा है। हालांकि ये अभी ठोस तौर पर कहा नहीं जा सकता कि ये हमले अचानक पनपे आक्रोश का नतीजा है या फिर सोची समझी रणनीति का हिस्सा। लेकिन इससे ये तो साफ होता ही है कि रिलायंस समेत उन तमाम कंपनियों के लिए आने वाले दिन मुश्किल भरे होंगे, जो रिटेल सेक्टर में कूद रही हैं।
दरअसल ये प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनसे होशियार वित्त मंत्री पी चिदंबरम की नीतियों का नतीजा है कि आज रिटेल सेक्टर में बड़ी कंपनियों ने हाथ डाला है। वरना इस क्षेत्र को अब तक छोटे कारोबारियों के लिए मुक्त रखा गया था। बड़ी कंपनियों को इस सेक्टर में आने देने के पीछे दो अहम दलीलें दी जा रही हैं। पहली दलील ये है कि इससे किसानों को फायदा मिलेगा। बड़ी कंपनियां उन्हें अनाज की अच्छी कीमत देंगी। वो भी सीधे। दूसरी दलील ये है कि इससे रोजगार के अवसर पैदा होंगे। लाखों पढ़े लिखे नौजवानों को काम मिलेगा। ये दोनों ही दलीलें सतही तौर पर सही लगती हैं। लेकिन हकीकत में ये फैसला और इसके पीछे की मंशा बेहद खतरनाक है।
मंशा पर बात बाद में। सबसे पहले चर्चा किसानों के नफा नुकसान की। किसान इस देश का सबसे अधिक छला गया तबका है। सारे नेता किसानों की बेहतरी की दुहाई देते हैं, लेकिन सबसे अधिक धोखा भी उन्हीं को देते हैं। उदाहरण के तौर पर बैंकों की डूबत पूंजी (एनपीए) को ही लीजिये। किसानों के साथ इतनी तंगदिली जबकि कारोबारियों पर मेहरबानी की कोई हद नहीं है। देश में इस समय करीब साठ हजार करोड़ रुपये डूबत पूंजी है। ये बैंकों से लिया गया वो कर्ज है, जिसे कर्जदार चुकाने से मना कर देता है या फिर खुद को कंगाल घोषित कर सारा पैसा डकार जाता है। इसमें से किसानों पर सिर्फ १५ फीसदी बकाया है। यानी हर डूबते रुपये में पिचासी पैसा गैरकृषि क्षेत्र से जुड़े लोगों या फिर कंपनियों का है। इसमें सबसे बड़ा हिस्सा बड़ी कंपनियों का है। रिलायंस फ्रेश के मालिक मुकेश अंबानी की कंपनी भी अरबों रुपये दबा कर बैठी है। देश की चंद बड़ी कंपनियों के द्वारा डकारी गई पूंजी ही समूचे कृषि व्यवसाय से जुड़ी डूबत पूंजी से ज्यादा हो जाती है। जब भी कृषि क्षेत्र की बेहतरी के लिए पैसा देने की बात की जाती है तो सरकार ये कहती है कि वहां दिया हुआ पैसा डूब जाता है। ये उसका दोहरा चरित्र है। सत्ता में बैठे लोगों को अमीरों की चोरी मंजूर है पर किसानों की मजबूरी मंजूर नहीं।
किसानों के साथ ये धोखा बहुत बड़ा है। इसे समझने के लिए कुछ और आंकड़ों पर नजर डालने की जरूरत है। १९८१ में करीब गांव में हर सौ में बीस परिवार कर्ज में डूबे थे। २००२ में ये आंकड़ा बढ़ कर छब्बीस हो गया है। इस समय गांववालों पर कुल १ लाख ११ हजार ४६८ करोड़ रुपये कर्ज है। इसमें एक बड़ा हिस्सा सूदखोर महाजनों से लिया गया है। १९९१ में जहां ग्रामीणों पर कुल कर्ज का १७ फीसदी हिस्सा सूदखोर महाजनों का था वो २००२ में बढ़ कर तीस फीसदी के करीब हो गया है। इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि किसानों पर सूदखोर महाजनों का जाल कितना घना हुआ है। यही वजह है कि वो आए दिन मौत को गले लगा रहे हैं और मनमोहन सिंह समेत देश के हुक्मरान बैठ कर तमाशा देख रहे हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक आंध्र प्रदेश में चार साल के भीतर २०४७ किसान खुदकुशी कर चुके हैं। महाराष्ट्र में तो पिछले ही साल २३२९ किसानों ने खुदकुशी की और इस साल के शुरुआती दो महीने के भीतर ही वहां २३९ किसान जान दे चुके हैं। पिछले चार साल में मौत का ये आंकड़ा ३९४० है। केरल में २००१ से इस साल जनवरी तक ८५४ किसान जान दे चुके हैं। पंजाब में भी तीन साल में तीस किसानों ने जान दी। गुजरात में भी चार साल में १८ किसान आत्महत्या कर चुके हैं। मौत का ये सिलसिला जारी है। खेतों में मौत और बेबसी की फसल लहलहा रही है और सरकार किसानों के साथ विश्वासघात करती जा रही है।
इसी से जुड़ा एक और पहलू भी है। बड़ी कंपनियां खेतों में खड़ी फसल सीधे खरीद रही हैं और मनमाने दामों पर शहरों में बेच रही हैं। इससे हो सकता है कि किसानों को थोड़े समय के लिए पचास सौ रुपये ज्यादा मिल जाएं। लेकिन बाद में यही कंपनियां उन्हें गुलाम बना लेंगी। ये बहुत कम लोग जानते हैं कि स्वयंसेवक प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी अपनी सत्ता के आखिरी दिनों में नेशनल कमोडोटी एक्सचेंज का गठन करा गए। जिसे हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने और मजबूत कर दिया है। ये ऐसा एक्सचेंज है जहां ५७ चीजों का कारोबार होता है। इनमें ४७ कृषि उत्पाद हैं। चावल, दाल, गेहूं और ऐसी तमाम चीजों की खरीद बिक्री यहां होती है। खरीद बिक्री एक श्रृंखला में होती है। मान लीजिये कि एक दलाल किसानों के पास जाकर १०००० क्विंटल गेहूं का सौदा आठ सौ रुपये क्विंटल के हिसाब से कर लेता है। यही दलाल एक्सचेंज पर आकर घोषणा करेगा कि उसके पास १०००० क्विंटल गेहूं है और अगर किसी को चाहिये तो वो उससे खरीद सकता है। अगला दलाल या कारोबारी उस पर बोली लगाता है। मान लीजिये कि उसने पचास पैसे अधिक बोली लगाई और सौदा तय हो गया। अब पहला दलाल दूसरे दलाल के गोदाम तक वो गेहूं पहुंचा देगा। लेकिन इसी बीच तीसरे दलाल ने दूसरे दलाल को पचास पैसे प्रति किलो के हिसाब से अधिक पैसे देकर वो गेहूं खरीद लिये। यहां गेहूं की कीमत अब नौ रुपये प्रति किलो या कहें कि नौ सौ रुपये प्रति बोरी हो चुकी है। उसी गेहूं का सौदा दो बार और हुआ तो कीमत एक रुपये और बढ़ जाएगी। इससे कालाबाजारी को बढ़ावा मिलता है और आखिर में इसके जाल में किसान भी फंसता है। क्योंकि कोई भी किसान जरूरत की सारी चीजें अपने खेत में नहीं उगा सकता। उसे कुछ चीजें बाजार से खरीदनी ही पड़ती हैं। ऐसे में उसे भी नुकसान उठाना ही पड़ता है।
यहां एक बात और ध्यान देने की है। भारत में ज्यादातर किसान छोटे और मंझोले हैं। वो अपनी जरूरत को ध्यान में रख कर फसल उगाते हैं। उनका पहला मकसद मुनाफा कमाना नहीं बल्कि घर की जरूरत के हिसाब से अनाज पैदा करना है। लेकिन जब भी किसान जरूरत का दामन छोड़ कर मुनाफे के पीछे भागा है नतीजे खतरनाक हुए हैं। उदाहरण के तौर पर महाराष्ट्र को ही लीजिये। यहां मुनाफा कमाने के लिए किसानों ने बड़े पैमाने पर कर्ज लेकर बीटी कॉटन की खेती की। लेकिन कभी मौसम ने धोखा दे दिया तो कभी बीज खराब निकल गए। एक दो बार किस्मत ने साथ दिया और फसल अच्छी हुई तो बेरहम बाजार ने साथ नहीं दिया। कीमतें बेतहाशा गिर गईं। किसानों की बदहाली की ये वजहें सरकार द्वारा गठित राष्ट्रीय किसान आयोग ने गिनाई हैं लेकिन सरकार आंख मूंदे बैठी है। यही वजह है मेहनत से पूरे देश का पेट भरने वाले किसान मौत चुन रहे हैं।
अब बात रोजगार की। इस समय मोटे तौर पर रिटेल सेक्टर से करीब साठ लाख लोग जुड़े हुए हैं। अगर इसमें उनके परिवार के सदस्यों की संख्या जोड़ दे तो करीब साढ़े तीन करोड़ लोगों की जिंदगी रिटेल सेक्टर से जुड़ी है। आपके हर गली नुक्कड़ पर एक दो दुकान मिल जाते हैं और फेरी वाले भी घूमते नजर आ जाते हैं। इन दुकानों में एक मालिक होता है और एक-दो मजदूर। ये मजदूर कौन हैं। कोई पांचवी पास तो कोई दसवीं पास। हो सकता है कि कोई कभी स्कूल ही नहीं गया हो। रिटेल सेक्टर में ऐसे मजदूरों की संख्या सैकड़ों हजारों में नहीं है बल्कि लाखों करोड़ों में हैं। क्या इन लोगों को जीने का हक नहीं है? अगर सब जगह शॉपिंग मॉल और बिग बाजार बनेंगे और वहां ग्रैजुएट लड़के काम करेंगे तो फिर कम पढ़े लिखे लोग कहां जाएंगे? वो अपने परिवार का पेट कैसे पालेंगे? अगर बड़ी कंपनियां एक लाख पढ़े लिखे लोगों को रोजगार देंगी तो यकीन मानिये उसकी तुलना में एक करोड़ लोगों के पेट पर लात भी मारेंगी। यही नहीं इन बड़ी कंपनियों में काम करने वाले भी हमेशा के लिए सुरक्षित महसूस नहीं करेंगे। ये कंपनियां हायर ऐंड फायर की तर्ज पर काम करती हैं। एक दो साल बाद जब कर्मचारियों की तनख्वाह बढ़ने लगती है तो उन्हें हटा कर नए कर्मचारी बहाल किये जाते हैं। अभी हाल ही में बिग बाजार ने मुंबई में ज्यादातर कर्मचारियों की छंटनी की। जिसके बाद उन्हें आंदोलन पर उतरना पड़ा। इस लिहाज से देखिये तो रोजगार की दलील तो सीधे तौर पर खारिज हो जाती है।
यहां एक और अहम बात है। घर के करीब दुकानों से लोगों का एक आत्मीय रिश्ता होता है। दुकानदारों से कॉलोनी के बच्चे अंकल आंटी कह कर बात करते हैं तो बड़े लोग भाई साहब, बहन जी कह कर। आप जब भी इन दुकानों पर पहुंचते हैं तो वहां का मालिक या कर्मचारी आपको पहचाना सा लगता है। कभी कभार जेब में पैसे नहीं हुए तो वो आपको सामान दे देगा और कहेगा कि भाई पैसे अगली बार दे दीजियेगा। गांवों में तो ये रिश्ता और गहरा होता है। मुझे याद है कि झगड़ा होने के बाद भी लतीफ चचा के यहां से मैंने कई बार सामान खरीदा है और पैसे बाद में दिये हैं। बचपन में तो ये भी होता था कि झोली भरकर गेहूं ले गए और कहा कि इसकी कीमत का दूसरा सामान दे दीजिये। ये रिश्ता काफी गहरा रिश्ता है। लेकिन जब बड़ी कंपनियां आती हैं तो सीधे इस रिश्ते पर चोट करती हैं। वहां आपकी जेब में नोट नहीं हैं तो क्रैडिट या डेबिट कार्ड होना चाहिये। अगर वो भी नहीं है तो आप सामान देख तो सकते हैं लेकिन खरीद नहीं सकते।
अब आप सोच रहे होंगे कि इतने नुकसान पर भी सरकारें बड़ी कंपनियों को रिटेल में आने क्यों दे रही हैं? इसकी वजह साफ है। दरअसल सत्ता में बैठे लोगों में बड़ा तबका बिका हुआ है। ज्यादातर मंत्री किसी न किसी कंपनी का दलाल है। इस चीज को समझने के लिए यहां एक उदाहरण देना जरूरी है। ये उदाहरण भी दो बड़ी कंपनियों से जुड़ा है। आप सब जानते हैं कि रिलायंस रिटेल में उतर चुकी है। लेकिन वॉलमार्ट के साथ बाजार में उतरने की भारती की योजना अब भी उहापोह में है। वजह साफ है। वालमार्ट के साथ जैसे ही भारती का करार हुआ, सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी। उसमें कहा कि रिटेल सेक्टर के छोटे कारोबारियों के हितों का ख्याल रखना चाहिये। उसके बाद वालमार्ट की योजना खटाई में पड़ गई। क्या सोनिया गांधी इस चिट्ठी से ये कहना चाहती हैं कि रिलायंस ठीक है, लेकिन वालमार्ट नहीं? क्या सोनिया गांधी ये कहना चाहती हैं कि रिलायंस छोटे कारोबारियों की दोस्त है और वालमार्ट दुश्मन? अगर आप ऐसा समझ रहे हैं तो ये बिल्कुल गलत है। दरअसल ये सारा खेल पैसे का है। कांग्रेस में रिलायंस के बड़े एजेंट हैं और ये एजेंट दस जनपथ तक यानी सोनिया के घर तक गहरी पैठ रखते हैं। वालमार्ट से सबसे अधिक खतरा रिलायंस को है। यही वजह है कि जब भी उसके आने की चर्चा चलती है तो रिलायंस के एजेंट सक्रिय हो जाते हैं और सोनिया गांधी को समझा बुझा कर एक चिट्ठी लिखवा दी जाती है। हो सकता है कि इस समझाने बुझाने के क्रम में अरबों रुपये के वारे न्यारे भी हुए हों। लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि वालमार्ट भारत में आएगा नहीं। रिटेल सेक्टर का वो सबसे बड़ा खिलाड़ी है। उसने अमेरिका में लाखों घर उजाड़े हैं। ये शैतान कंपनी सत्ता में बैठे दलालों की जेब गरम करना बखूबी जानती है। जिस दिन वालमार्ट के अधिकारियों ने ये काम कर दिया उसी दिन उसकी भी भारत में एंट्री हो जाएगी।
ऐसे में लोगों को कंपनियों और नेताओं की इस सोची समझी साजिश का सिर्फ और सिर्फ विरोध करना चाहिये। वो भी पुरजोर विरोध। खुदरा कारोबारी, मजदूर, रेड़ी खोमचे वाले सबको एकजुट होकर अभियान चलाना चाहिये। सरकार पर दबाव बनाना चाहिये कि वो इस फैसले को बदले। दबाव बनाने के लिए हर हथकंडा जायज है। इस मुहिम का किसानों और मध्य वर्ग को भी चाहिये कि समर्थन करे। दबे सुर में नहीं बल्कि मुखर होकर। क्योंकि अभी ये साजिश भले ही खुदरा कारोबारियों के खिलाफ क्यों न हो। बाद में इसके निशाने पर किसान भी होंगे और मध्य वर्ग भी।

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