Sunday, June 22, 2008

ये बरसात भी यूं ही खर्च हो गई!

ये बरसात भी यूं ही निकल जाएगी। इस बरसात भी गांव जाना नहीं हो सकेगा। मन तो काफी चाहता है लेकिन गांव जाने की भूमिका तैयार नहीं हो रही। मतलब इस बरसात भी मैं झिझरी नहीं खेल सकूंगा। गांव से सटी मगई नदी के किनारे नहीं बैठ सकूंगा। बारिश में कुछ चिकनी और मुलायम हुई परती की रेत पर चीका नहीं खेल सकूंगा। वो रेत जो कूदने पर भुरभुरा जाती, बिखर जाती मगर हमें चोट नहीं लगने देती। ये बरसात भी बीते कई साल की तरह यादों के सहारे काटनी होंगी। रोजी रोटी के नाम पर इस बरसात को भी खर्च करना होगा।

शेष यहां पढ़ें... http://dreamndesire.blogspot.com/2008/06/blog-post_22.html

Saturday, June 21, 2008

उच्च वर्ग का औजार है मीडिया

अच्छा हुआ मैं एसपी सिंह से नहीं मिला से आगे....

दो दिन पहले ख़बर आई। आधी रात को लखनऊ में सहारा सिटी में मायावती सरकार ने बुलडोज़र चला दिया। इमारतें तोड़ दी गईं। दीवार ढहा दी गई। ख़बर बड़ी थी और तेजी से फैली भी। लेकिन सिर्फ एनडीटीवी और ऐसे ही एक दो संस्थानों ने इस ख़बर को दिखाने का साहस किया। सच और झूठ को सामने रखने का हौसला दिखाया। इन्हें छोड़े दें तो ज्यादातर जगहों से ख़बर गायब कर दी गई। किसी में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वो ख़बर को प्रसारित या प्रकाशित करता। आखिर क्यों? ये सवाल बड़ा है और इससे मीडिया की चाल-चलन का अंदाजा लगाया जा सकता है।

मैंने अब तक के अपने सफ़र में बहुत कुछ देखा, सुना और भोगा है। उस आधार पर मैं ये बड़ी आसानी से कह सकता हूं कि बड़े पैमाने पर मीडिया सत्ता का एक औजार भर है। वरना सहारा जैसी कंपनी जो गरीब लोगों का पैसा डकार रही हो, गलत तरीकों से संपत्ति जमा कर रही हो। उस पर हुई कार्रवाई को ना दिखाने की कोई वजह नहीं। हालांकि अभी ये मसला कोर्ट में है। लखनऊ विकास प्राधिकरण या यूं कहें कि मायावती सरकार का बुलडोज़र चलाने का फ़ैसला कितना सही और ग़लत है ये पता चलना बाकी है। फिर भी प्रशासनिक कार्रवाई तो हुई ही थी और उसे नहीं दिखाना बहुत कुछ बयां कर जाता है।

इस पूरे वाकये से मुझे रूस की एक कहानी याद आ गई। मैंने बचपन में ये कहानी पढ़ी थी। जार के शासन काल से जुड़ी कहानी। जार ने वहां अखबार शुरू किया था। तब पूरे रूस से सैकड़ों खबरें आतीं, लेकिन उन ख़बरों को लेकर जार का अपना नज़रिया था। जार का साफ कहना था कि देश में तरक्की की ख़बरें प्रकाशित करो। कोई भी बुरी ख़बर नहीं। हत्या, खुदकुशी, बलात्कार, भ्रष्टाचार जैसी बुरी ख़बरों से समाज में गलत संदेश जाता है। बुराई फैलती है। इसलिए हमेशा वही खबरें दो जिनसे आक्रोश बढ़े नहीं बल्कि कम हो। जार के वो अख़बार और आज के मीडिया का चरित्र एक सा ही है। जार शाही में भी सत्ता पर काबिज लोगों के खिलाफ कुछ नहीं छपता था और आज के लोकतंत्र में भी बहुत कुछ नहीं छपता है। ऐसा इसलिए कि समय के साथ सत्ता बदली है, व्यवस्था का रूप बदला है, शासकों के चेहरे बदले हैं। अगर कुछ नहीं बदला है तो वह शासकों का चरित्र और इसकी अपनी ठोस वजह है। सत्ता की बागडोर हमेशा उच्च वर्ग के हाथ में रही है और शासन करने में मध्य वर्ग के प्रभावशाली लोगों ने उसका हमेशा साथ दिया है।

उच्च वर्ग की साज़िशों में साथ देने वाले मध्य वर्ग में दो तरह के लोग हैं। एक बेहद महात्वाकांक्षी लोग जो हर कीमत पर उच्च वर्ग में शामिल होना चाहता हैं। ऐसे लोग आगे बढ़ने के लिए भौतिक सुखों को इकट्ठा करने के लिए हर साजिश में शामिल हो सकते हैं। वो खुद को उच्च वर्ग के सबसे बड़े हितैषी के रूप में पेश करते हैं और अपने मकसद के लिए उससे भी कहीं अधिक क्रूर हो सकते हैं।

मध्य वर्ग में दूसरा तबका है ऐसे लोगों का है जो मजबूर हैं। ये लोग अपने घरवालों से बहुत प्यार करते हैं। उन्हें मझधार में छोड़ कर समाज को बदलने की जद्दोजेहद में शामिल होने का साहस नहीं जुटा पाते। इनकी स्थिति पेड़ से कटे उस साख की तरह है जो अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करता है। अपनी मिट्टी और देस से उखड़े हुए उस पौधे की तरह है जो परायी जमीन में जड़े जमाने की कोशिश में है। आज की बाज़ारवादी व्यवस्था में नौकरी करना इस तबके की मजबूरी है। उसकी इसी मजबूरी का फायदा उच्च वर्ग उठाता है। मध्य वर्ग के इस तबके में मैं भी शामिल हूं।

यहां मैं साफ कर दूं कि उच्च वर्ग में शामिल नहीं होना मेरा मकसद नहीं है। फिर भी मेरी नियति यही है कि मैं उच्च वर्ग के हितों को पोषित करूं। आप मेरी इस नियति पर हंस सकते हैं। मेरा मजाक उड़ा सकते हैं। मुझे गाली दे सकते हैं। लेकिन यकीन मानिये समाज और वतन से जुड़ी तमाम संवेदनाओं के बावजूद मेरे पास कोई और विकल्प नहीं है।

मीडिया में पहला कदम रखते वक्त मेरे जैसे लोगों की संख्या ज़्यादा रहती है। ये लोग समाज को बदलने का सपना लिये इस पेशे में आते हैं। इन लोगों के जेहन में न्याय की अवधारणा काफी मजबूत रहती है और ये लोग ज़्यादती के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना चाहते हैं। लेकिन आगे बढ़ने पर दूसरा तबका हावी होने लगता है। ऐसा इसलिए कि शासकों का जाल बहुत घना और मायावी है। इसमें अगर आप धीमे पड़े तो हाशिये पर ढकेल दिये जाएंगे। रोज़ी-रोटी का इंतजाम मुश्किल हो जाएगा। तेज दौड़े तो प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी.. प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी तो धीरे धीरे आपका चरित्र भी मध्य वर्ग के महात्वाकांक्षी तबके जैसा हो जाएगा। आप भी उसी तरह क्रूर हो जाएंगे। मैं चरित्र के इस बदलाव को महसूस कर सकता हूं... शायद इसलिए हर वक़्त खुद को इससे दूर रखने की कोशिश करता हूं। लेकिन ये भी अहसास है कि वो घड़ी नज़दीक आ रही है जब या तो मैं हाशिये पर ढकेल दिया जाऊंगा ... या फिर मुझे भी क्रूर होना पड़ेगा। यहां बीच का रास्ता नहीं है ... कहीं और हो तो हो।

अब आप मीडिया के चरित्र का अंदाजा लगा सकते हैं। मीडिया जिस पर कब्जा उच्च वर्ग है और जिसे चलता मध्य वर्ग है। अब सवाल उठता है कि क्या ये मीडिया सत्ता के ख़िलाफ़ और जन साधारण के साथ खड़े होने का साहस दिखा सकता है?

((जारी है... ))

Wednesday, June 18, 2008

अच्छा हुआ मैं एसपी सिंह से नहीं मिला

फिर वही जून। फिर वही एसपी सिंह और फिर वही रोना धोना। एसपी होते तो ऐसा होता, एसपी होते तो वैसा होता। कुछ का दावा तो यहां तक कि एसपी होते तो टीवी पत्रकारिता का रूप ही कुछ और होता। इस रोने-धोने और एसपी के बहाने मीडिया को गरियाने में वही सबसे आगे हैं जो खुद मीडिया में ताकतवर ओहदों पर बैठे हैं। ये भी मीडिया के उसी जाने-पहचाने सिद्धांत को ज़ाहिर करता है कि ख़बरें उन्हीं की जो ख़बरों में बने हुए हैं। एसपी के जिन साथियों की टीआरपी गिर गई, जो वक़्त के साथ ताल से ताल नहीं मिला सके... हाथिये पर ढकेल दिये गए उनके लेख कम छपते हैं। उनकी बातें कभी कभार ही सुनाई देती हैं। ये अजीब त्रासदी है और उम्मीद की किरण बहुत धुंधली है।

नब्बे के दशक के बाद से टीवी मीडिया को एसपी के साथियों ने ही दिशा दी है। आज इस मीडिया का विभत्स चेहरा उन्हीं लोगों का बनाया हुआ है। वो आज भी कई चैनलों के कर्ताधर्ता हैं। लेकिन उनमें से ज़्यादातर में ऐसा हौसला नहीं कि ख़बरों का खोया सम्मान वापस लौटा सके। वो कभी मल्लिका सेहरावत तो कभी राखी सावंत के बहाने जिस्म की नुमाइश में लगे हैं। अपराध को मसाला बना कर परोस रहे हैं। कभी जासूस बन कर इंचीटेप से क़ातिल के कदम नापने लगते हैं, तो कभी पहलवान के साथ रिंग में उतर कर कुश्ती की नौटंकी करते हैं। वो झूठ को सच बना कर बाज़ार में परोसते हैं और सच को झूठ बनाने का कारोबार करते हैं। वो बलात्कार और क़त्ल की ख़बरों को दिलचस्प बता कर पेश करते हैं। जब ऐसी कोई ख़बर नहीं होती जिसमें तड़का लगा सकें तो लोगों को डराना शुरू कर देते हैं। वैज्ञानिकों की जगह ज्योतिषियों को बिठा कर बात-बात पर कहते हैं कि दुनिया तबाह होने वाली है ... ज़िंदगी देने वाला सूरज खुद ही धरती को निगल लेगा... कलयुग है ... घोर कलयुग।

सच कहूं तो ख़बरों के लिहाज से ये कलयुग ही है और सतयुगी एसपी के ज़्यादातर साथी इस कलयुगी दौर के महानायक हैं। मैंने इसी कलयुग की शुरुआत में मीडिया में कदम रखा है। मैंने १९९७ में आईआईएमसी में दाखिला लिया। ये वही साल है जब एसपी ने दुनिया को अलविदा कहा था। उनके गुजरने की ख़बर सुनकर मुझे ना जाने क्यों ऐसा लगा कि मेरी किस्मत ख़राब है। इतने बड़े पत्रकार के साथ काम करना तो दूर मिल भी नहीं सका। लेकिन आज उनके ज़्यादातर साथियों को देख कर ऐसा नहीं लगता। जब भी मैं एसपी के नाम पर उनके साथियों को घड़ियाली आंसू बहाते देखता हूं तो लगता है कि झूठ का कारोबार करते करते अब ये एसपी को भी बेच रहे हैं। उनके इस चरित्र को देख कर एसपी से नहीं मिल सकने पर अब ज़रा भी अफ़सोस नहीं रहा।

बल्कि ये कहूं कि मैं खुद को खुशकिस्मत मानता हूं तो भी ग़लत नहीं होगा। लगता है कि चलो मैंने बाज़ारवाद के दौर में मीडिया में कदम रखा है। कम से कम मुझे ये भ्रम तो नहीं कि मैं या मेरा कोई गुरू महामानव की तरह बाज़ार की घातक गति को रोक देगा। मुझे ये भ्रम भी नहीं है कि मैं निरंकुश बाज़ार की धारा को मोड़ कर मीडिया को जनहित का हथियार बना दूंगा। मुझे ये मुलागता भी नहीं कि बिना किसी साझे प्रयास के मैं व्यवस्था में कोई मूलचूल परिवर्तन कर दूंगा। मैं जानता हूं कि जब तक मैं नौकर रहूंगा मुझे कंपनी का हित सबसे पहले साधना है। ये भी जानता हूं कि कंपनियों के पैसे से क्रांति नहीं होती और ये भी कि उधार की ज़िंदगी में लड़ने का हौसला नहीं होता। मैं जानता हूं कि आज मेरे पेशे में समाज के लिए बहुत थोड़ा स्पेस है और दिन ब दिन वो स्पेस सिकुड़ रहा है।

आज के दौर में हम कोई ख़बर दिखा कर किसी गरीब को किसी अमीर से चंदा दिला दें तो बहुत है। एयरकंडिशन्ड दफ़्तर और गाड़ियों से ऊबने के बाद बेबस किसानों की बात कर लें तो बहुत है। भूख से बिलबिलाते बच्चों का ख़याल आ जाए तो सोने पर सुहागा। कभी कभार हम ये रस्मअदायगी कर लेते हैं, शायद हम पत्रकार होने के झूठे भ्रम को जिंदा रखना चाहते हैं। ऐसा इसलिए कि पुरानी कहावत है जो अपनी नज़रों में गिर गया समझो वो मर गया। हम कलयुगी दौर के पत्रकार हर रोज मर कर भी मरने से डरते हैं।

आखिर में इतना ही कहूंगा कि एसपी सिंह के साथ जुड़े रहने के बाद भी, अगर यही सब करना था तो अच्छा हुआ कि मैं उनसे नहीं मिला। अगर मिला होता तो उनके तमाम साथियों की तरह उस बोझ को उठाए जी रहा होता कि एसपी हम आपको सच्ची श्रद्धांजलि नहीं दे सके। आप ने तो २७ जून, १९९७ को दुनिया को अलविदा कह दिया था, लेकिन हम तो आपको हर रोज मार रहे हैं।

Saturday, June 14, 2008

ब्लॉग की दुनिया के गिद्ध

दिलीप जी ने मुझे गिद्धों से आगाह किया है। ब्लॉग की दुनिया के गिद्धों से आगाह। आपने कुछ लिखा नहीं कि ये गिद्ध जुटने लगते हैं। ठीक वैसे ही जैसे किसी शख्स के घायल होने पर गर्म खून की गंध सूंघ कर गिद्ध उसे घेर लेते हैं। सिर पर मंडराने लगते हैं। आतंकित करने लगते हैं। तब तक, जब तक कि उसकी आखिरी सांस नहीं निकल जाती। वो दम नहीं तोड़ देता। उसके बाद गिद्ध उसे नोच कर खा जाते हैं। शेष रह जाता है, हड्डियों का एक ढांचा जिसे देखने पर कोई भी सिहर उठे। जहां तक ब्लॉग की दुनिया के गिद्धों का सवाल है, वो संजीदा लेखकों को लड़ाने-भिड़ाने का काम करते हैं। कोई बात नहीं हो तो भी भड़काने और उकसाने का काम करते हैं। ये उस बात में यकीन रखते हैं कि बार बार एक ही झूठ उस वक्त तक बोलो कि वो सच लगने लगे। उसके बाद ब्लॉग पर छिड़ी जंग को देखो और ठहाके लगाओ।

ब्लॉग की दुनिया के इन गिद्धों का एक खास चरित्र है। पहला चरित्र तो ये कि ये गिद्ध आपको हर जगह नज़र आएंगे। चाहे बहस मीडिया पर हो, समाजिक और आर्थिक मुद्दों पर हो या फिर विज्ञान और धर्म पर हो। गिद्ध हर जगह मौजूद हैं। गिद्धों का काम है शीर्षक देख कर एक कमेंट चिपका देना। पोस्ट को बिना पढ़े, शब्दों और पंक्तियों के बीच के अर्थ को बिना समझे ये टिप्पणी दे आते हैं। ऐसे ही कुछ गिद्धों ने मेरे पोस्ट दिलीप जी और विनीत मुझे माफ कर दें, प्लीज पर भी कमेंट किया है।

मसलन, एक शख्स कहते हैं कि तुमने माफी क्यों मांगी? इससे व्यक्ति का लिजलिजापन झलकता है। अरे जनाब, आपने सही से पढ़ा नहीं। मैंने अपने विचारों के लिए माफी नहीं मांगी। माफी मांगी कि शायद मैं बेहतर नहीं लिख सका और बात का गलत अर्थ निकाला गया। अगर एक लेखक के तौर पर मुझसे चूक हुई, तो मुझे माफी मांगनी ही चाहिये। अगर चूक नहीं हुई है तो जिन्होंने उसका गलत मतलब निकाला वो सुधार करेंगे। कुल मिलाकर मैंने बहस को गलत राह पर मुड़ने से बचाने के लिए माफी मांगी है और ये मैंने दो जगह पर साफ शब्दों में लिखा। लेकिन गिद्ध की नज़र उन पंक्तियों पर पड़ी ही नहीं।

ये सिर्फ उदाहरण भर है। ऐसे कई गिद्ध हैं जिन्होंने मेरे और दिलीप जी के लिखे पर ऐसी ही टिप्पणियां की हैं। कुछ तल्खी की वजह पूछते हैं? पूछते हैं कि कहीं ये निजी झगड़ा तो नहीं? उन गिद्धों को मैं साफ कर दूं कि कहीं कोई तल्खी नहीं। कहीं कोई झगड़ा नहीं। मैं अब भी दिलीप जी के दफ्तर में जाता हूं तो उनसे लंबी बात होती है। सामाजिक मुद्दों के साथ मीडिया और करियर से जुड़े मुद्दों पर भी। हम दोनों इस राय में इस्तेफाक रखते हैं कि दो लिखने वालों के बीच इतना स्पेस जरूर होना चाहिये कि वो अपने विचारों को बेबाक अंदाज में पेश कर सकें। मतभेद गहरे होने पर मर्यादित भाषा में एक दूसरे के तर्कों को काट सकें। दिलीप जी ने इसका जिक्र भी किया है। लेकिन गिद्धों की नज़र उस पर नहीं पड़ी।

आखिर में, मैं यही कहूंगा कि ब्लॉग की दुनिया में मैं बहुत पुराना न सही, बहुत नया भी नहीं हूं। बीते एक साल में अनियमित तौर पर ही सही ब्लॉग से जुड़े रहने पर, मैं भी इन गिद्धों को पहचानने लगा हूं। इसलिए दिलीप जी, आप ज़रा भी परेशान मत हों, यहां इन गिद्धों को दाल नहीं गलेगी। हमें एक दूसरे के सामने शर्मिंदा होना पड़े, ऐसी नौबत नहीं आएगी।

(( मैं अभय तिवारी जी का बहुत शुक्रगुजार हूं। मैं जो कहना चाहता था, उसे उन्होंने अपनी टिप्पणी में और साफ कर दिया। सच भी यही है, मैं पूरब और पश्चिम की बहस को खत्म करना नहीं चाहता। वैसे भी मेरे खत्म करने से शदियों से चली आ रही ये बहस खत्म नहीं होगी। इसलिए अच्छा यही रहेगा कि हम पूरब और पश्चिम की अच्छाइयों और बुराइयों पर छिड़ी बहस को जारी रखें। इसी बहाने हम समाज में हो रहे कुछ तेज बदलावों से एक दूसरे को अवगत कराएंगे।))

क्या एक छात्रा की हत्या दिलचस्प हो सकती है?

मैं आज आप सभी से ये जानना चाहता हूं कि क्या किसी छात्रा की हत्या दिलचस्प हो सकती है? क्या हत्या की वजह दिलचस्प हो सकती है? क्या उस वजह पर बहस दिलचप्स हो सकती है? अगर हां तो क्यों और ना तो क्यों? आप सभी अपनी राय दें। क्योंकि आज मैंने कुछ सम्मानित लोगों को इस दिलचस्प बहस को पेश करते देखा है। हत्या और हत्या की मंशा पर चटखारे लेते देखा है। तभी से मेरे मन में ये दोनों सवाल कौंध रहे हैं। आप सभी से मैं इन सवालों पर राय मांगता हूं। हो सके तो चंद मिनट ही सही रुक कर अपनी राय जरूर दें। आपकी राय मुझे किसी नतीजे पर पहुंचने में मदद करेगी।
धन्यवाद,
समरेंद्र

Friday, June 13, 2008

दिलीप जी और विनीत मुझे माफ कर दें, प्लीज

ये बात पुरानी है लेकिन उतनी ही सही भी। अगर कोई शख्स कुछ कहता है और लोग उसका गलत मतलब निकालते हैं तो ये गलती लोगों की नहीं बल्कि कहने वाले की है। लगता है कि ये गलती मुझसे हो गई है। अगर ऐसा नहीं होता तो दो पढ़े-लिखे, काबिल और बौद्धिक स्तर पर मुझसे ज्यादा संपन्न लोग – दिलीप जी और विनीत मेरी बात का गलत अर्थ नहीं निकालते। मोहल्ला पर पश्चिम से क्यों सीखे सभ्यता की आदि भूमि में दिलीप जी मुझसे ये नहीं कहते कि मैं आंखें मूंदे हुए हूं और उस पर अपनी टिप्पणी में विनीत ये नहीं कहते कि मुझे अपनी संस्कृति को महान बताने की लत है।

उन दोनों लोगों ने मेरी बातों को एकदम दूसरा ही मोड़ दे दिया है। मैंने दिलीप जी के नाम लिखे खुले खत में कहा कि पूरब को गरियाने के चक्कर में पश्चिम के ढोंग का गुणगान ना करें। यहां मैंने गुणगान शब्द का सोच समझ कर इस्तेमाल किया था। क्योंकि हम बीते जमाने में निराद सी चौधरी जैसे जैंटलमैन देख चुके हैं जिन्हें भारत में बुराई ही बुराई नज़र आती थी, अच्छाई नहीं। मेरे कहने का आशय इतना ही था कि हम पूरब में ढोंग और पाखंड की निंदा करें, उन्हें मिटाने की मुहिम चलाएं, लेकिन उस चक्कर में पश्चिम की बुराइयों को आत्मसात ना कर लें। लेकिन मेरी बातों का उन्होंने ये मतलब निकाल लिया कि मैं पूरब के ढोंग का समर्थक हूं और पश्चिम की अच्छाइयों का धुर्र विरोधी।

ये मतलब उन्होंने निकाला तो इसकी तीन वजहें हो सकती हैं।
१) मैं उन्हें समझा नहीं सका या यूं कहें कि मैं अपनी बात सही तरीके से नहीं रख सका।
२) वो इतने नासमझ हैं कि मेरे लिखे का सही मतलब नहीं समझ सके।
३) या फिर उन्होंने सोची समझी साज़िश के तहत बहस को गलत मोड़ दिया है। (साज़िश शब्द का इस्तेमाल इसलिए कर रहा हूं कि पिछले ग्यारह साल से मैं भी इसे पेशे में हूं। मुझे मालूम है कि एक अच्छे आदमी को यहां किस साज़िश के तहत बुरा साबित किया जाता है। मैं ये भी जानता हूं कि एक प्रगतिशील शख्स को भी लोग अपने निजी स्वार्थ के लिए दकियानूसी, जातिवादी और सांप्रदायिक करार दे देते हैं।)

शुरुआत तीसरी वजह से करता हूं। दिलीप जी को मैं व्यक्तिगत तौर पर जानता हूं। वो मेरे सीनियर हैं और मैंने उनके मातहत काम भी किया है। इसलिए ये दावे से कह सकता हूं कि वो मुझे दकियानूसी और सुधार विरोधी घोषित करने की साज़िश नहीं रच रहे। अगर खुद दिलीप जी मुझसे कहेंगे कि वो मेरे खिलाफ साज़िश रच रहे हैं तो भी मैं नहीं मानूंगा। रही बात विनीत की तो मैं उन्हें जानता ही नहीं और जिसे नहीं जानता उसे हमेशा अच्छा मान कर चलता हूं।

अब दूसरी वजह। दिलीप जी एक बेहद प्रगतिशील विचारक किस्म के आदमी हैं। मुझसे ज्यादा पढ़े लिखे और समझदार हैं। अनुभव भी मुझसे ज्यादा है। इसलिए मैं ये मान ही नहीं सकता कि वो मेरे लिखे का सही मतलब नहीं समझ सकें। जहां तक विनीत का सवाल है उनके लिखने के तौर तरीके से ये अंदाजा लगाया जा सकता है कि वो भी समझदार किस्म के शख्स हैं।

जब ये दोनों वजहें गलत हैं तो बाकी बस एक ही वजह बचती है और वो सही ही होगी। इसलिए मैं दिलीप जी और विनीत दोनों से माफी मांगता हूं और प्रार्थना करता हूं कि मुझे दकियानूसी और सुधार विरोधी घोषित ना करें।

समरेंद्र

पश्चिम के ढोंग का गुणगान ना करें

आज दिलीप मंडल जी ने मोहल्ला में एक लेख लिखा है। पश्चिम के ब्लॉग में पूरब का मोटापा। इसमें उन्होंने पूरब के ढोंग की निंदा की है और पश्चिम से सीखने की जरूरत पर बल दिया है। उनके इस लेख के कुछ मुद्दों पर मेरी सहमति है और कुछ पर अहमति। उनके नाम इस खुले ख़त के ज़रिये ... मैं सहमति और असहमति – दोनों जतला रहा हूं।
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दिलीप जी,
ये सही है कि हमारे यहां पूरी व्यवस्था हिप्पोक्रेट है। आम आदमी से लेकर देश की ज्यादातर सम्मानित और ताकतवर संस्थाएं ढोंग और पाखंड में एक दूसरे से होड़ करती हैं। इस देश में न्यायपालिका के ढोंग के कई बड़े उदाहरण हैं। ये वही न्यायपालिका है जो पर्यावरण को ताक पर रख कर नर्मदा बांध परियोजना को हरी झंडी दिखाती है। लेकिन उसी पर्यावरण का हवाला देकर दिल्ली से उद्योगों को बाहर निकाल देती है। यही नहीं हमारे देश में सर्वोच्च न्यायालय ... कार्यपालिका से लेकर विधायिका में फैले भ्रष्टाचार पर खुल कर टिप्पणी करता है। भ्रष्ट अफसरों और नेताओं की किस्मत का फैसला करता है, लेकिन न्यायपालिका में मौजूद भ्रष्ट जजों को राष्ट्रपति की इच्छा के खिलाफ जाकर उच्च पदों पर बहाल भी करता है। सीधे कहूं तो जो न्यायपालिका हर रोज न्याय की अवधारणा का मजाक उड़ाती हो उससे कुछ बेहतर की उम्मीद नहीं करनी चाहिये। ऐसे में अगर दिल्ली हाई कोर्ट के सदा सम्मानित जजों ने एयरहोस्टेज के लिए खास वजन तय कर दिया तो इसमें हैरानी की कोई बात नहीं। वो ऐसे बेतुके फैसले करते आए हैं। कर सकते हैं और करते रहेंगे। संविधान ने हमारे देश में जजों को ये ताकत दी है और वो इस ताकत का धड़ल्ले से इस्तेमाल करते आए हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उनके गलत फैसलों का विरोध नहीं होना चाहिये। हमारा दायित्व है कि उन गलत फैसलों को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाएं। उन पर बहस छेड़ें और इस दायित्व को निभाने के लिए आपको साधुवाद।

लेकिन आपके लेख के कुछ मुद्दों पर मेरा विरोध भी है। गलत फैसले पर सवाल खड़े करते वक्त आपने भी कुछ गलतियां कर दी हैं। आपने पश्चिम की जिस सभ्यता की दिल खोल कर तारीफ की है, वो व्यवस्था उतनी उदार नहीं है। सबसे पहली बात हिलेरी पर ओबामा की जीत की। आपने कहा कि राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी की दौड़ में अश्वेत ओबामा की जीत में श्वेत लोगों का भी हाथ है। बात सही है। लेकिन यहां ध्यान देने वाला एक और पहलू है। ये मुकाबला श्वेत और अश्वेत के बीच होने के साथ एक महिला और अश्वेत के बीच भी था। जिस तरह अमेरिका में आज तक कोई अश्वेत राष्ट्रपति नहीं हुआ है ठीक उसी तरह वहां आज तक कोई महिला भी राष्ट्रपति नहीं चुनी गई है। इस लिहाज से दोनों की स्थिति भारत में दलितों की तरह ही है और एक दलित पर दूसरे दलित की जीत को सामाजिक न्याय का उत्तम उदाहरण तो नहीं माना जा सकता। कम से कम इसे अमेरिकी लोगों की मानसिक महानता और उदारता तो नहीं ही कहना चाहिये।

आपकी दूसरी गलती चीयरलीडर्स में रंगभेद को लेकर है। यहां आप भूल गए कि चीयरलीडर्स के कॉन्सेप्ट की मूल बुनियाद क्या थी? क्या आपने कभी किसी ज्यादा वजन और उम्र वाली महिला को चीयरलीडर की भूमिका निभाते देखा है? हो सकता है कि आपने देखा हो, लेकिन मैंने नहीं देखा। ना तो फिल्मों में और ना ही टीवी पर किसी मुकाबले के लाइव टेलीकास्ट के दौरान। सच यही है कि चीयरलीडर्स का पेशा उसी पुरुषवादी सोच का नतीजा है जिसके तहत हवाई जहाजों में एयरहोस्टेज के पेशे की नींव रखी गई। शुरू में दोनों ही जगह महिलाओं को पुरुष ग्राहकों और दर्शकों को लुभाने के लिए एक आइटम के तौर पर पेश किया गया। आज के आधुनिक दौर में भले ही ये दोनों प्रोफेशन सम्मानित हो गए हों, लेकिन उनकी बुनियादी अवधारणा ही शोषण की रही है। शोषण की ये मानसिकता पूरब से लेकर पश्चिम आज भी हर जगह मौजूद है। कहीं कम तो कहीं ज्यादा। फिर शोषण की इस व्यवस्था में रंगभेद एक और पहलू मात्र है।

दिलीप जी, मैं विदेश कभी नहीं गया, इसलिए आपके दोस्तों की तरह वहां के उदार चरित्र का गवाह नहीं बन सका। लेकिन खबरों से जुड़े रहने के कारण इतना जरूर जानता हूं वहां भी लोग और संस्थाएं कम ढोंगी नहीं हैं। आखिर में बस इतना ही कहना चाहता हूं कि हम सबको अपने पूरब में फैले ढोंग, पाखंड और भेदभाव का जोरदार विरोध करना चाहिये, लेकिन इस चक्कर में पश्चिम के ढोंग के गुणगान से बचना भी चाहिये।

धन्यवाद,
समरेंद्र

Sunday, June 8, 2008

गलती करे जोलहा, मार खाये गदहा

लेखक - विचित्र मणि

थोडे असमंजस, थोड़ी ना-नुकूर और थोड़ी फुसफुसाहट के साथ ही सरकार ने पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की कीमतों में बढ़ोत्तरी कर ही दी। कितना किया, अब उस दुखती रग को छेड़ने से क्या फायदा। लेकिन सरकार के फैसले ने विपक्ष को तो छेड़ ही दिया। सरकार को समर्थन देने वाली कम्युनिस्ट पार्टियां उस लैला की तरह हो गयीं, जो जमाने के आगे तो मजनूं को भला बुरा कहती है लेकिन दुनिया की आड़ में उनका प्रेमालाप बदस्तूर जारी रहता है। आखिर क्या करें, खुद को जब कम्युनिस्ट कहना है तो जनवादी तो दिखना ही पड़ेगा। हों या ना हों, इसके क्या फर्क पड़ता है। इसे लोकतंत्र की बदनसीबी ही कहेंगे कि यहां कुछ करने से कुछ कर दिखाने का ढिंढोरा ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है। बेचारी कम्युनिस्ट पार्टियों ने भी कोलकाता में बंद रखकर ये मान लिया कि पेट्रोल-डीजल की बढ़ोत्तरी पर उसने अपना कर्तव्य निबाह लिया। उन्हें ये नहीं दिखता कि पेट्रोलियम पदार्थों पर आंध्र प्रदेश के बाद सबसे ज्यादा बिक्री कर पश्चिम बंगाल सरकार ही लगाती है, जहां लाल क्रांति वाले कम्युनिस्टों का परचम बीते ३१ साल से लहरा रहा है। लेकिन सबसे नाटकीय और अमानवीय विरोध रहा भारतीय जनता पार्टी का।

भाजपा नेता वेंकैय्या नायडू ने बैलगाड़ी की सवारी की तो मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री अपने मंत्रियों के साथ साइकिल पर चलते दिखे। हद तो भाजपा की एक व्यापारिक शाखा ने कर दी। उसने मारुति ८०० कार को दो गधों से जोत दिया। बेचारे गधे तथाकथित इंसानों के बीच हक्के बक्के कार को खींच रहे थे। वो मन में सोच रहे होंगे कि गलती तो मनमोहन सिंह और मुरली देवड़ा की है, खामियाजा हम भुगत रहे हैं।

आखिर उन गधों की गलती क्या थी? आपको कार पर चलना है या नहीं चलना है, उससे गधों और बैलों का क्या लेना-देना ? सरकार के पेट्रोल डीजल की कीमतें बढ़ाने से आप कार से उतरकर बस या पैदल हो गये, उसमें उन निरीह पशुओं की क्या गलती है? गधे और बैल तो सही मायने में श्रम के प्रतीक हैं। इस खेती प्रधान देश में उनकी बड़ी जरूरत है। निश्छलता, कर्मठता और स्वामिभक्ति की उनकी प्रवृति का आदर किया जाना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि देश-भक्ति की ढोल पीटने वाली बीजेपी उन महान मूल्यों की कीमत नहीं जानती। वक्त के मुताबिक एक प्रचलित कहावत को बदलकर कहें तो गलती तो जोलहा ने किया, मार बेचारा गदहा खा रहा है।

वजह साफ है कि उस हवा हवाई पार्टी में जमीन का दुख-दर्द समझने वाला कोई नहीं है। कायदे से तो उम्र के आखिरी पड़ाव पर ही सही, बीजेपी के प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी को चाहिए कि खेती-बाड़ी वाले इस देश को ठीक से जानने की कोशिश करें और हो सके तो वेंकैय्या नायडू और दूसरे अपने नेताओं को भी ये नेक सलाह दें। वैसे एक बात और जोड़ दूं कि ये बात कांग्रेस पर भी लागू होती है। आखिर भाजपा कांग्रेस का ही तो विस्तार है। कैसे? इसकी चर्चा बाद में होगी।

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