अच्छा हुआ मैं एसपी सिंह से नहीं मिला से आगे....
दो दिन पहले ख़बर आई। आधी रात को लखनऊ में सहारा सिटी में मायावती सरकार ने बुलडोज़र चला दिया। इमारतें तोड़ दी गईं। दीवार ढहा दी गई। ख़बर बड़ी थी और तेजी से फैली भी। लेकिन सिर्फ एनडीटीवी और ऐसे ही एक दो संस्थानों ने इस ख़बर को दिखाने का साहस किया। सच और झूठ को सामने रखने का हौसला दिखाया। इन्हें छोड़े दें तो ज्यादातर जगहों से ख़बर गायब कर दी गई। किसी में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वो ख़बर को प्रसारित या प्रकाशित करता। आखिर क्यों? ये सवाल बड़ा है और इससे मीडिया की चाल-चलन का अंदाजा लगाया जा सकता है।
मैंने अब तक के अपने सफ़र में बहुत कुछ देखा, सुना और भोगा है। उस आधार पर मैं ये बड़ी आसानी से कह सकता हूं कि बड़े पैमाने पर मीडिया सत्ता का एक औजार भर है। वरना सहारा जैसी कंपनी जो गरीब लोगों का पैसा डकार रही हो, गलत तरीकों से संपत्ति जमा कर रही हो। उस पर हुई कार्रवाई को ना दिखाने की कोई वजह नहीं। हालांकि अभी ये मसला कोर्ट में है। लखनऊ विकास प्राधिकरण या यूं कहें कि मायावती सरकार का बुलडोज़र चलाने का फ़ैसला कितना सही और ग़लत है ये पता चलना बाकी है। फिर भी प्रशासनिक कार्रवाई तो हुई ही थी और उसे नहीं दिखाना बहुत कुछ बयां कर जाता है।
इस पूरे वाकये से मुझे रूस की एक कहानी याद आ गई। मैंने बचपन में ये कहानी पढ़ी थी। जार के शासन काल से जुड़ी कहानी। जार ने वहां अखबार शुरू किया था। तब पूरे रूस से सैकड़ों खबरें आतीं, लेकिन उन ख़बरों को लेकर जार का अपना नज़रिया था। जार का साफ कहना था कि देश में तरक्की की ख़बरें प्रकाशित करो। कोई भी बुरी ख़बर नहीं। हत्या, खुदकुशी, बलात्कार, भ्रष्टाचार जैसी बुरी ख़बरों से समाज में गलत संदेश जाता है। बुराई फैलती है। इसलिए हमेशा वही खबरें दो जिनसे आक्रोश बढ़े नहीं बल्कि कम हो। जार के वो अख़बार और आज के मीडिया का चरित्र एक सा ही है। जार शाही में भी सत्ता पर काबिज लोगों के खिलाफ कुछ नहीं छपता था और आज के लोकतंत्र में भी बहुत कुछ नहीं छपता है। ऐसा इसलिए कि समय के साथ सत्ता बदली है, व्यवस्था का रूप बदला है, शासकों के चेहरे बदले हैं। अगर कुछ नहीं बदला है तो वह शासकों का चरित्र और इसकी अपनी ठोस वजह है। सत्ता की बागडोर हमेशा उच्च वर्ग के हाथ में रही है और शासन करने में मध्य वर्ग के प्रभावशाली लोगों ने उसका हमेशा साथ दिया है।
उच्च वर्ग की साज़िशों में साथ देने वाले मध्य वर्ग में दो तरह के लोग हैं। एक बेहद महात्वाकांक्षी लोग जो हर कीमत पर उच्च वर्ग में शामिल होना चाहता हैं। ऐसे लोग आगे बढ़ने के लिए भौतिक सुखों को इकट्ठा करने के लिए हर साजिश में शामिल हो सकते हैं। वो खुद को उच्च वर्ग के सबसे बड़े हितैषी के रूप में पेश करते हैं और अपने मकसद के लिए उससे भी कहीं अधिक क्रूर हो सकते हैं।
मध्य वर्ग में दूसरा तबका है ऐसे लोगों का है जो मजबूर हैं। ये लोग अपने घरवालों से बहुत प्यार करते हैं। उन्हें मझधार में छोड़ कर समाज को बदलने की जद्दोजेहद में शामिल होने का साहस नहीं जुटा पाते। इनकी स्थिति पेड़ से कटे उस साख की तरह है जो अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करता है। अपनी मिट्टी और देस से उखड़े हुए उस पौधे की तरह है जो परायी जमीन में जड़े जमाने की कोशिश में है। आज की बाज़ारवादी व्यवस्था में नौकरी करना इस तबके की मजबूरी है। उसकी इसी मजबूरी का फायदा उच्च वर्ग उठाता है। मध्य वर्ग के इस तबके में मैं भी शामिल हूं।
यहां मैं साफ कर दूं कि उच्च वर्ग में शामिल नहीं होना मेरा मकसद नहीं है। फिर भी मेरी नियति यही है कि मैं उच्च वर्ग के हितों को पोषित करूं। आप मेरी इस नियति पर हंस सकते हैं। मेरा मजाक उड़ा सकते हैं। मुझे गाली दे सकते हैं। लेकिन यकीन मानिये समाज और वतन से जुड़ी तमाम संवेदनाओं के बावजूद मेरे पास कोई और विकल्प नहीं है।
मीडिया में पहला कदम रखते वक्त मेरे जैसे लोगों की संख्या ज़्यादा रहती है। ये लोग समाज को बदलने का सपना लिये इस पेशे में आते हैं। इन लोगों के जेहन में न्याय की अवधारणा काफी मजबूत रहती है और ये लोग ज़्यादती के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना चाहते हैं। लेकिन आगे बढ़ने पर दूसरा तबका हावी होने लगता है। ऐसा इसलिए कि शासकों का जाल बहुत घना और मायावी है। इसमें अगर आप धीमे पड़े तो हाशिये पर ढकेल दिये जाएंगे। रोज़ी-रोटी का इंतजाम मुश्किल हो जाएगा। तेज दौड़े तो प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी.. प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी तो धीरे धीरे आपका चरित्र भी मध्य वर्ग के महात्वाकांक्षी तबके जैसा हो जाएगा। आप भी उसी तरह क्रूर हो जाएंगे। मैं चरित्र के इस बदलाव को महसूस कर सकता हूं... शायद इसलिए हर वक़्त खुद को इससे दूर रखने की कोशिश करता हूं। लेकिन ये भी अहसास है कि वो घड़ी नज़दीक आ रही है जब या तो मैं हाशिये पर ढकेल दिया जाऊंगा ... या फिर मुझे भी क्रूर होना पड़ेगा। यहां बीच का रास्ता नहीं है ... कहीं और हो तो हो।
अब आप मीडिया के चरित्र का अंदाजा लगा सकते हैं। मीडिया जिस पर कब्जा उच्च वर्ग है और जिसे चलता मध्य वर्ग है। अब सवाल उठता है कि क्या ये मीडिया सत्ता के ख़िलाफ़ और जन साधारण के साथ खड़े होने का साहस दिखा सकता है?
((जारी है... ))
3 comments:
अनूप जी के चिट्ठे (चिटठा चर्चा ) से यहाँ आया. वैसे तो पूरा का पूरा लेख सत्य है लेकिन अन्तिम पैराग्राफ पढ़ने के बाद ये लगा कि आपने मेरे मन में कई सालो की अटकी हुई बात लिख डाली है, फर्क सिर्फ़ इतना है कि ये बातें मीडिया के लिए ही सत्य नही है, हर जगह......................... नही तो कोई कारण नही समझ में आता की इस दुनिया में जहा हजारो साल से इतने विद्वान्, सुसंस्कृत (दिखाने के लिए ही सही) , इतने मेहनती भरे पड़े है, ये समाज दिन प्रतिदिन कूड़ा ही क्यो पैदा करता जा रहा है?
दिल मेरा भी वही कहता है जो आपने कहा पर मजबूरी मेरी भी वही है जो आपकी , ऐसे ही जीने को अभिशिप्त है हम लोग
इस दयनीय स्थिति के लिए ज़्यादा उत्तरदायी..वही दूसरा तबका है..। महज़ कागज़ी शेरों की जमात..। हम लोग जो उस तबके में आते हैं, महज़ अपने दुर्भाग्य की दुहाई देकर इस भेडियाधसान को नियति मानकर पल्ला नहीं झाड़ सकते..। अफ़सोस ये है कि ऐसा ही हो रहा है..। हमारे कंक्रीट के जंगलों में जड़ से उखड़ी पौध का मलबा बढ़ता जा रहा है..। एक पूरी की पूरी पीढ़ी..'पाइडपाइपर' के चूहों की फौज की तरह वैमनस्य के गहरे भंवर में फंसती जा रही है..। 'पाइडपाइपर' यहां उच्च वर्ग के शोषक हैं..। अब 'हल' तो सिर्फ खेतों में ही होता है..और हल यही है कि खेतों की तरफ़ वापस लौटा जाए..।
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