Friday, June 29, 2007

कोमा में भारतीय क्रिकेट

हमारे साथी अभिषेक दुबे ने बड़ी तेजी से खेल पत्रकारिता में अपनी पहचान बनाई है। कई साल तक डेस्क पर काम करने के बाद जब उन्हें टीवी पर आने का मौका मिला तो वो पूरी तरह छा गए। क्रिकेट पर वो किताब लिख चुके हैं और उन्हें करीब से जानने वाले ये मानते हैं कि खेल को लेकर उनकी समझ और जानकारी ज्यादातर खेल पत्रकारों से बेहतर है। यही वजह है कि मैंने उनसे क्रिकेट के मौजूदा हालत पर कुछ लिखने की गुजारिश की। साथी अभिषेक ने मेरी गुजारिश कबूल कर ली। बीसीसीआई अध्यक्ष शरद पवार के नाम इस चिट्ठी से वो चौखंबा पर दस्तक दे रहे हैं।

जरा सुनिये “केपीएस” पवार साहब,
ये क्या हो रहा है? मरीज बीमार है और रिश्तेदार और मित्र बेहाल है। दो साल पहले तक यही शख्स जोश से भरा हुआ था। तंदरुस्त था। लंबी चौड़ी छलांगे लगाता था। दुश्मनों के छक्के छुड़ाता था और हर किसी को अपने अंदाज से दीवाना बना देता था। लेकिन जबसे इसे संभालने और सही दिशा देने की जिम्मेदारी आपके हाथ में गई है, इसकी हालत बिगड़ती ही जा रही है। पिछले तीन महीने में तो सेहत इतनी खराब हो गई है कि मरीज आईसीयू में पहुंच गया है। कोमा में है। लेकिन इसका इलाज कराने वाला कोई नहीं। आखिर ये हो क्या रहा है?
पवार साहब, आप ये तो नहीं बोल सकते कि इस मरीज के इलाज के लिए आपके पास पैसे नहीं। भाई, आप भारतीय क्रिकेट नाम की जो दुकान चला रहे हैं, उसकी कमाई करोड़ों में नहीं अरबों में हैं। टीवी राइट्स से पैसा। स्पॉन्सरशिप से पैसा। दर्शकों से पैसा। न्यूट्रल मैदानों में एक के बाद एक मैच कराने से पैसा। आपके पास तो ऐसी मुर्गी है जो दनादन सोने का अंडा दे रही है। उसके अलावा आपके पास ललित मोदी जैसा शख्स भी है। जिनका बस चले तो मिट्टी को भी सोने के भाव बेच दें। फिर ऐसी क्या बात हो गई है कि मरीज का इलाज नहीं हो पा रहा?
पवार साहब, आप ये भी नहीं कह सकते कि ये मरीज बाहर से भले ही तंदरुस्त दिखे लेकिन असल में शुरू से ही कमजोर था। आपके अध्यक्ष बनने से पहले, आज का ये मरीज, एक दमदार नौजवान था। इसी ने वर्ल्ड कप 2003 में फाइनल तक का सफर तय किया। इसी ने ऑस्ट्रेलिया को उसकी मांद में जाकर चुनौती दी थी। इसी ने पहली बार पाकिस्तान को उसकी ही सरजमीं पर टेस्ट और वनडे में धूल चटाई। इसी ने इंग्लैंड और वेस्टइंडीज में जाकर सीरीज बराबर की। आज इसके जो हाथ पांव खराब पड़े हैं ... मैदान में उतरने के साथ ही कांपने लगते हैं ... कुछ दिनों पहले तक यही हाथ पांव एक झटके में दुश्मन को पटक देते थे। चंद दिनों में ही इतना कुछ बदल गया, आखिर कैसे?
पवार साहब, आपको ये शिकायत करने का हक भी नहीं है कि आपको मनमुताबिक टीम इंडिया चुनने की आजादी नहीं मिली। सच तो ये है कि आप भले ही अध्यक्ष हैं भारतीय क्रिकेट बोर्ड के, लेकिन ऐसा लगता है कि आप महाराष्ट्र क्रिकेट बोर्ड चला रहे हैं। राजनीति में आप चाहकर भी महाराष्ट्र से बाहर पहचान नहीं बना सके। वही हाल खेल में भी है। यहां भी आप महाराष्ट्र और पश्चिमी जोन के बाहर सोच नहीं पा रहे हैं। अगर भरोसा ना हो तो अपने सिपाहसलारों की सूची पर नजर दौड़ाएं। सीईओ रत्नाकर शेट्टी मुंबई के हैं तो उपाध्यक्ष और कांट्रैक्ट समिति के अध्यक्ष शशांक मनोहर नागपुर के रहने वाले। निरंजन शाह राजकोट के हैं तो मुख्य चयनकर्ता दिलीप वेंगसरकर मुंबई से। कोच की खोज समिति के तीन सदस्यों में से दो सुनील गावस्कर और रवि शास्त्री मुंबई से। बांग्लादेश दौरे के लिए मुंबई के रवि शास्त्री क्रिकेट मैनेजर बनाए गए तो ऑयरलैंड-इंग्लैंड दौरे के लिए पुणे के चंदू बोर्डे को क्रिकेट मैनेजर चुना गया। सवाल उठता है कि क्या देश के किसी और हिस्से में काबिल लोग हैं ही नहीं? आखिर माजरा क्या है?
पवार साहब, बात निकली है तो दूर तक जाएगी ही। सौरव गांगुली ने भारतीय क्रिकेट को क्षेत्रवाद के चंगुल से निकाला था, लेकिन आपने इसे फिर से उसी दलदल में ढकेल दिया। आखिर क्या सोच कर 34 साल के सचिन तेंदुलकर को अचानक टीम का उपकप्तान बना दिया गया? तेंदुलकर के जितने बड़े आप फैन हैं उससे शायद अधिक मैं हूं, लेकिन वर्ल्ड कप से ठीक पहले कप्तान द्रविड़ पर ये दबाव बनाना कि तेंदुलकर उनकी जगह ले सकते हैं कहां तक सही था? आखिर किस आधार पर वसीम जाफर को वनडे टीम में शामिल किया गया? कैसे राजेश पोवार बांग्लादेश में टेस्ट टीम में शामिल कर लिए गए? आखिर क्यों वीरेंद्र सहवाग के कोच ये आरोप लगाने को मजबूर हो रहे हैं कि पश्चिमी लॉबी ने सहवाग को खत्म करने के लिए युवराज सिंह का इस्तेमाल किया? चलिये एक मिनट के लिए मान लेते हैं कि वो अंधेरे में तीर चला रहे है, लेकिन आग के बिना धुआं कैसे उठ सकता है? ये तो आप भी मानेंगे की वर्ल्ड कप में पहले सहवाग को चुना गया। उसके बाद आपके मुख्य चयनकर्ता ने कहा कि कप्तान द्रविड़ के दबाव में सहवाग को चुना गया है। मान लिया कि आपने कभी गंभीर क्रिकेट नहीं खेला, लेकिन कर्नल वेंगसरकर तो खेल चुके हैं। कम से कम उन्हें तो ये अंदाजा होना चाहिए कि अहम मुकाबले से पहले किसी बल्लेबाज पर दबाव बनाना सही नहीं। फिर उनसे ये गलती कैसे हो गई?
पवार साहब, आपके सिपाहसलार हर चीज के लिए मीडिया को दोषी बताते है। लेकिन वे अपनी गिरेबां में झांककर क्यों नहीं देखते। इसमें हमारी क्या गलती कि निंबस हो या फिर जी स्पोर्ट्स, पहले हर किसी से करार होता है और फिर करार फेल हो जाता है। इसमें मीडिया कि क्या गलती कि कांट्रैक्ट मुद्दे को लेकर विवाद महीने चलता है और क्रिकेटरों को आठ महीने तक मैच फीस नहीं मिलती। चलिए, तेंदुलकर, द्रविड़, सौरव और धोनी विज्ञापन से मोटी कमाई करते हैं। लेकिन मुनाफ पटेल, पीयूष चावला, श्रीशांत और रोमेश पोवार जैसे क्रिकेटरों का क्या होगा जो नए हैं और मैच फीस पर ही निर्भर हैं। प्रसारण अधिकार का मसला हो या फिर कोच और टीम के चयन का, टीम इंडिया के खेल की बात हो या फिर खिलाड़ियों से करार की- आप और आपके सिपहसालार हर मोर्चे पर नाकाम साबित हो रहे हैं। आखिर माजरा क्या है?
पवार साहब, आपके मन में होगा कि काश, टीम इंडिया आयरलैंड और इंग्लैंड में अच्छा खेले जिससे कि विरोधियों की जुबां पर ताला लग जाए। मेरा भी दिल यही चाहता है, लेकिन दिमाग नहीं मानता। मौजूदा टीम इंडिया से अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद करना भी गुनाह है। आखिर आपने किस तैयारी से भेजा इस टीम को। कांट्रैक्ट को लेकर क्रिकेटरों को अंतिम वक्त तक तनाव में रखा। अहम दौरे के लिए रवाना होने से पहले तक इस बात को लेकर सस्पेंस बरकरार रहा कि आखिर कोच कौन होगा। भारतीय क्रिकेट के चाणक्य गावस्कर ने एजेंडा चलाने के चक्कर में डेव व्हॉटमोर का पत्ता तो साफ कर दिया, लेकिन बदले में कोई विकल्प नहीं सुझाया। गावस्कर और उनके साथियों के रंगढंग देख कर ग्राहम फोर्ड को अंदाजा मिल गया कि बीसीसीआई सर्कस में शामिल होकर काम करना कितना मुश्किल होगा, इसलिए उन्होंने भी इनकार कर दिया। भरी तिजोरी के बावजूद जब आप स्थायी कोच नहीं चुन सके, तो आपने 73 साल के चंदू बोर्डे को क्रिकेट मैनेजर बना दिया। आखिर ये क्या हो रहा है?
पवार साहब, वर्ल्ड कप में हार के बाद खेलप्रेमियों का गुस्सा शांत करने के लिए आपने मुंबई में दो दिन बैठक की। लंबे चौड़े वादे किए। घरेलू क्रिकेट को बदल कर रख दूंगा। युवा टीमें तैयार होंगी। हर टीम को फीजियो और ट्रेनर दिया जाएगा। क्रिकेटरों के विज्ञापन पर लगाम लगेगी। प्रदर्शन के आधार पर क्रिकेटरों को पैसा मिलेगा। लेकिन धुर नेता की तरह चंद ही दिनों में सारे वादे भूल गए। जिस तरह से कृषि मंत्री के तौर पर आप किसानों के साथ विश्वासघात कर रहे हैं, ठीक उसी तरह बीसीसीआई अध्यक्ष के तौर पर खेलप्रेमियों को धोखा दे रहे हैं। आखिर ये कब तक चलेगा?
पवार साहब, माना कि आपके हाथों में सोने का अंडा देने वाली मुर्गी है, लेकिन ये मुर्गी ही मर गई, तो फिर आप और आपके सिपाहसलारों का क्या होगा? जिस तरह से आपके सिपाहसलार काम कर रहे हैं, किसी भी दिन इस मुर्गी के मरने की खबर आ सकती है। अगर खेलप्रेमियों के लिए नहीं तो कम से कम अपने सिपाहसलारों के लिए तो इस मुर्गी को बचाईए। जड़ें खोदने का जो काम के पी एस गिल ने भारतीय हॉकी संघ के लिए किया वही काम आप भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के लिए कर रहे हैं। ऐसे में आपको केपीएस पवार कहना क्या गलत होगा? अगर बुरा लग रहा है तो गुस्ताखी माफ करें, लेकिन कहते हैं कि सच बहुत कड़वा होता है।

भवदीय
अभिषेक दुबे

"विकल्प नहीं है तो अनुकल्प से काम चलाइए"

राष्ट्रपति पर चल रही बहस में साथी विचित्र मणि के लेख पर विप्लव भाई ने कई गंभीर सवाल उठाए हैं। शुरू से ही धर्म और हिंसा की सियासत करने वाली पार्टी के नुमाइंदे को कैसे सही ठहराया जा सकता है ? जो पार्टी गुजरात में नरसंहार की जिम्मेदार है उसके नुमाइंदे को इस देश के सर्वोच्च पद पर कैसे बिठाया जा सकता है ? सवाल और भी हैं और अब साथी विचित्र मणि ने विप्लव भाई के सवालों पर अपना जवाब भेजा है।

प्रिय विप्लव भाई,
जिस समय मैं यह लेख लिख रहा था, यह बात मेरे मन में ये शंका थी कि अटल बिहारी वाजपेयी का उदाहरण प्रस्तुत हो सकता है। बावजूद इसके लिखा तो इसलिए नहीं कि भैरों सिंह शेखावत भारतीय राजनीति और इतिहास के आदर्श पुरुष हैं। यह ठीक है कि हम दलीय राजनीतिक व्यवस्था का हिस्सा हैं और हमारे लोकतंत्र की वह एक अहम कड़ी है। लेकिन जब राष्ट्रपति के चुनाव का सवाल आता है, तो उसे दलीय जोड़ तोड़ से ऊपर रखकर आंकने की जरूरत होती है। राष्ट्रपति पद के लिए इस बार कांग्रेस की अगुवाई में जिस प्रतिभा पाटील को मैदान में उतारा गया है, उन प्रतिभा जी से तुलना करने पर शेखावत मीलों आगे नजर आते हैं।
रही बात विचारधारा से दशकों तक जुड़े रहने की, तो विप्लव भाई, उदाहरण तो यही बताते हैं कि समता मूलक समाज बनाने वाले नाम की पार्टियों में भी कितने अच्छे लोग हैं। उंगली पर गिन कर देखिए, दोनो हाथों की उंगलियां ज्यादा पड़ जाएंगी। एक उदाहरण लीजिए। मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी में अमर सिंह भी हैं। कल अगर तीसरा मोर्चा कहीं सेकुलरिज्म के नाम पर अमर सिंह को ही राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बना देती तो क्या पार्टी की समाजवादी विचारधारा के नाम पर उनका समर्थन किया जा सकता था। फिर अमर सिंह की छोड़िये, जिनका कोई राजनीतिक दीन ईमान ही नहीं है। लोग कहते हैं, हालांकि मैं नहीं मानता, कि कम्युनिस्टों से ज्यादा विचारधारा और आदर्श से जुड़ा कोई नहीं होता। लेकिन पश्चिम बंगाल में बुद्धदेव भट्टाचार्य जिस आदर्श का परिचय दे रहे हैं, उसे आप क्या कहेंगे। कहां चले जाते हैं सर्वहारा के सृजनहार। आखिर टाटा या सलेम ग्रुप के लिए बुद्धदेव से लेकर सीताराम येचुरी और प्रकाश करात तक क्यों किसान विरोधी भाषा समवेत स्वर में बोलने लगते हैं। गुजरात में मोदी ने बेगुनाह मुसलमानों को मरवाया, पश्चिम बंगाल में बुद्धदेव ने दीन हीन किसानों को। क्या फर्क है दोनो में। जरा बताइए। और हां, जो किसान मारे गये हैं ना पश्चिम बंगाल में, उनमें बहुतेरे मुसलमान भी हैं। जी हां, मुसलमान, जिनकी आड़ लेकर इस देश में बहुतों की सेकुलर दुकान चलती है। लेकिन साठ साल में मुसलमानों का भला कैसे हो, इसके बारे में मुकम्मल एजेंडा उनके पास नहीं है। और चलते चलते बात कांग्रेस की। पीछे मुड़कर देख लीजिए, कांग्रेस धर्म के नाम पर दंगों में अपनी साजिश की वजह से बेगुनाहों के खून से रंगी नजर आएगी। चाहे मेरठ का दंगा हो या भागलपुर का या फिर दिल्ली में सिख विरोधी दंगा। कांग्रेस हर जगह जल्लाद के कटघरे में खड़ी दिखेगी। इस तरह देखिए तो कांग्रेस, भाजपा, कम्युनिस्ट सभी एक ही चेहरे के अलग अलग क्लोन नजर आते हैं। बस नजरों का धोखा है कि हम उन्हें गलत मानते हैं।
विप्लव भाई, देश की मौजूदा राजनीति से लोगों का मोह भंग हो चुका है। लोग चाहते हैं, एक नई राजनीति की शुरुआत हो। लेकिन जब तक ये प्रयास किसी अंजाम तक नहीं पहुंचता या यूं कहें कि कोई सार्थक विकल्प पेश नहीं होता, तब तक हमें छोटे छोटे अनुकल्पों से ही काम चलाना होगा। राष्ट्रपति पद के चुनाव में भैरों सिंह शेखावत फिलहाल वैसे ही एक अनुकल्प हैं।
आपका विचित्र मणि

"सभी कुछ कम, कुछ ज्यादा खतरनाक हैं"

चौखंबा पर राष्ट्रपति चुनाव को लेकर एक बहस चल रही है। इसकी शुरुआत साथी मणीष के लेख से हुई फिर साथी विचित्र मणि ने अपनी राय रखी। इन पर कई प्रतिक्रियाएं आईं। सबसे सटीक प्रतिक्रिया विप्लव भाई ने दी। उन्होंने कई गंभीर सवाल उठाए हैं। सवाल जो बहस को नई दिशा दे सकते हैं। उनकी इस प्रतिक्रिया को हम आपके सामने रख रहे हैं। इस उम्मीद में कि और लोग भी सामने आएंगे और एक सार्थक बहस होगी।

अगले राष्ट्रपति की पसंद-नापसंद पर अच्छी बहस चल रही है। लेकिन कुछ अ-राजनैतिक(apolitical) है। राजनीति के मैदान में किसी भी अहम किरदार की जगह उसकी राजनीतिक विचारधारा के बिना, या उसे अलग करके तय करना कितना सही है? इस कसौटी पर कलाम, प्रतिभा पाटिल और भैरों सिंह शेखावत - सभी कुछ कम, कुछ ज्यादा खतरनाक हैं। जनता के हित में, आम आदमी के हक में खड़ा होने का माद्दा इनमें से किसी में नहीं है। हो भी नहीं सकता है। इन सभी का विचारधारागत रुझान या उसका अभाव इसकी इजाज़त नहीं देता। इस लिहाज से बेशक के आर नारायणन आज़ाद हिंदुस्तान के सबसे बेहतर राष्ट्रपति लगते हैं। हालांकि उनके कार्यकाल ने बार-बार ये भी साबित किया कि राष्ट्रपति देश का सर्वोच्च पद है जरूर, लेकिन देश राजनीति में उसकी अहमित सिर्फ सांकेतिक ही है। और संसदीय ढंग के लोकतंत्र में ये गलत भी नहीं है। इस तरह से देखें, तो हमें वैसे ही राष्ट्रपति मिलते हैं, जैसी हमारी संसद और विधानसभाएं होती हैं। भ्रष्ट, अपराधी और जन विरोधी प्रतिनिधियों के समर्थन से सरकार बनाने वाले प्रधानमंत्री हों या उनके वोट से चुनकर आने वाले राष्ट्रपति, इनसे किसी क्रांतिकारी बदलाव या जनता के हक की आवाज बुलंद करने की उम्मीद करना शेखचिल्ली के सपने से कम नहीं। यहां साध्य और साधन के रिश्ते पर गांधी के विचार और वर्ग चरित्र पर मार्क्स का चिंतन, दोनों सटीक नजर आते हैं। एक बात और, "गलत खेमे में खड़ा सही आदमी" ये लेबल काफी अरसे तक अटल बिहारी वाजपेयी पर चिपकाया जाता रहा। कितना बेमतलब था ये लेबल, अब तक शायद साफ हो चुका है। अब इस लेबल को शेखावत पर चिपकाना, कुछ समझ नहीं आता। राजनीति के मैदान में, ना सिर्फ गलत खेमे में खड़ा, बल्कि बरसों उसकी पतवार थामने वाला, उसकी कमान अपने हाथ में रखने वाला कोई धुरंधर, सही कैसे हो सकता है? गुजरात में नरसंहार करने वाली जमात के प्रतिनिधि और अगुवा, देश के किसी भी सर्वोच्च पद पर बैठने के लायक कैसे समझे जा सकते हैं? नफरत की बुनियाद पर खड़ी विचारधारा को सीने से लगाए रखने वाले लोग, बड़े दिलवाले और उदार राजनेता कैसे हो सकते हैं? ये कुछ सवाल हैं, जिन पर सोचने की जरूरत है। फिलहाल इतना ही। हालांकि बात अभी अधूरी है। शायद ठीक से शुरू भी नहीं हो पाई है। लेकिन एक साथ लंबा लिखते जाना, कुछ एकालाप सा लगता है। ये विषय ऐसा है, जो संवाद मांगता है। विचारों का आदान-प्रदान मांगता है। इसलिए आगे की बात आगे होगी....

विप्लव

Tuesday, June 26, 2007

राजनीति के दंगल में राष्ट्रपति

राष्ट्रपति को लेकर उठापटक जारी है। सबसे चौंकाने वाली पलटी शिवसेना ने मारी है। मराठी अस्मिता का नारा देते हुए ठाकरे कांग्रेस की गोद में जा बैठे हैं। इससे प्रतिभा पाटील की दावेदारी और मजबूत हो गई हैं। ऐसे में सवाल यही है कि क्या इस देश को एक रीढ़विहीन प्रधानमंत्री के बाद एक वैसा ही राष्ट्रपति भी मिलेगा ? इसी अहम सवाल पर रोशनी डाल रहे हैं हमारे साथी विचित्र मणि
वही हुआ, जो होना था। पहले शक था, लेकिन एक झटके में उसके यकीन में बदलते देर नहीं लगी। शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने दो टूक कह दिया कि राष्ट्रपति पद के चुनाव में वह भैरों सिंह शेखावत के साथ नहीं बल्कि प्रतिभा पाटील के पक्ष में खड़े हैं। शिवसेना के इस रवैये पर बीजेपी ने छाती कूटना शुरु किया कि ठाकरे ने तो पीठ में छूरा घोंपा है। ये तो विश्वासघात है। पता नहीं, बीजेपी को शिवसेना पर कितना विश्वास था लेकिन शिवसेना का इतिहास तो यही बताता है कि बड़ी ताकतों के आगे झुक जाना उसकी फितरत है। ठाकरे ने वही किया, जो उनसे अपेक्षित था।

लेकिन राजनीति ऐसे ही मौकों पर दुर्गम इम्तिहान लेती है। 25 जून को निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर उप राष्ट्रपति भैरों सिंह शेखावत ने राष्ट्रपति पद के लिए पर्चा दाखिल किया। और शाम होते होते बाल ठाकरे ने कह दिया कि मराठा सम्मान के लिए वो पाटील को वोट देंगे, शेखावत को नहीं। दोनों घटनाएं जिस तारीख को हुईं, उसकी बड़ी अहमियत है। आखिर 32 साल पहले वो 25 जून की ही काली रात थी, जब सत्ता के नशे में चूर श्रीमति इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लागू कर दिया था। तब जय प्रकाश नारायण समेत विपक्ष के तमाम नेता एक झटके में काल कोठऱी में ठूंस दिये गए। विपक्ष तो छोड़िये, कांग्रेस के कद्दावर नेता चंद्रशेखर को भी रातो रात गिरफ्तार कर लिया गया। जिसने भी इंदिराशाही के खिलाफ और लोकशाही के पक्ष में आवाज उठायी, उसकी नियति उसे सलाखों के पीछे ले गयी। शेखावत भी उन्हीं लोगों में से थे, जिन्होंने लोकतंत्र के पक्ष में जेल जाने का रास्ता चुना। लेकिन जानते हैं, हिंदू तन मन जीवन की बात करने वाले बाल ठाकरे ने क्या किया था? इंदिरा गांधी के आतंक और अपने स्वार्थ और सुविधा के लिए ठाकरे ने इंदिरा गांधी से माफी मांग ली थी और उस जमात में शामिल हो गये, जो जम्हूरियत का जनाजा निकालने में जुटा था।

32 साल बाद इतिहास ने खुद को कमोबेश वैसे ही दुहराया। बल्कि और विद्रूप तरीके से। भले नाम मराठी अस्मिता का दिया गया हो लेकिन ठाकरे तो कांग्रेस की झोली में जा गिरे। और कांग्रेस ने क्या किया। धर्मनिरपेक्षता का राग अलापने वाली कांग्रेस को शिवसेना से वोट मांगने में हिचक नहीं हुई, जिसे वो सांप्रदायिक और देश की सबसे बड़ी सांप्रदायिक पार्टी मानती है। बीजेपी से भी ज्यादा। उस हाल में अगर प्रतिभा पाटील चुनाव जीत जाती हैं तो कांग्रेस शिवसेना की मदद का दाग कैसे धोएगी। लेकिन सच कहिये तो ये सवाल उठाना ही बेमानी है, क्योंकि ऐसे सवाल उनकी आत्मा को कचोटते हैं, जिनके लिए सिद्धांत हर हाल में स्वार्थों से बड़े होते हैं। उनके लिए नहीं, जिनकी सियासत की तराजू पर स्वार्थ और सुविधा का पलड़ा सिद्धातों पर भारी पड़ जाता है। कांग्रेस ने वही किया और पहली बार नहीं किया। और शिवसेना? आज वह मराठा हित की बात करती है लेकिन पिछली बार उप राष्ट्रपति के चुनाव में उसका मराठा प्रेम कहां चला गया था, जब उसने सुशील कुमार शिंदे को वोट नहीं दिया था। जबकि शिंदे तो महाराष्ट्र से ही हैं। तो क्या ये माना जाए कि शिंदे का दलित होना ठाकरे को रास नहीं आया था या अवसरपरस्ती शिवसेना का मूल मंत्र है?

तो ये तो तय माना जा रहा है कि प्रतिभा पाटील ही अगली राष्ट्रपति होंगी क्योंकि वोटों का मौजूदा समीकरण साफ साफ उनके पक्ष में जाता है। यूपीए उनके साथ है, वामपंथियों को उनमें महिला सशक्तिकरण का आभास मिलता है और सेकुलर नीतियों की खुशबू, बहन मायावती को केंद्र से बनाकर रखना है, लिहाजा उनके लिए भी प्रतिभा ताई से बेहतर कोई और नहीं। और आखिरकार शिवसेना भी साथ खड़ी हो गयी। दूसरी तरफ निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर मैदान में डटे शेखावत के पक्ष में पूरा एनडीए भी नहीं है। जनता दल यूनाइटेड के अध्यक्ष शरद यादव तो साथ हैं लेकिन नीतीश को शेखावत रास नहीं आते। रही बात नवजात तीसरे मोर्चे की, तो उसमें भी कई अगर मगर हैं। धर्मनिरपेक्षता के बहाने कई पार्टियां शेखावत से दूर खड़ी हैं। बावजूद इसके शेखावत खम ठोंककर मैदान में डटे हैं। हो सकता है कि वो हार जाएं लेकिन कई बार हार का संघर्ष जीत की बधाइयों से ज्यादा सुहाना होता है। पिछले चुनाव को याद कीजिए। बीजेपी ने पहले तो तत्कालीन उप राष्ट्रपति कृष्णकांत को उम्मीदवार बनाने का ऐलान किया था और तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने तो फोन करते अपने जमाने के युवातुर्क को बधाई भी दे दी थी। लेकिन ऐन मौके पर बीजेपी ने पलटी मार दी और मैदान में ला खड़ा किया एपीजे अब्दुल कलाम को। क्या कांग्रेस, क्या समाजवादी पार्टी, सबने कलाम की जयजयकार शुरू कर दी। क्या इसकी वजह कलाम की योग्यता थी। बेशक कलाम जितने बड़े वैज्ञानिक हैं, कहीं उससे बड़े इंसान हैं। और याद रखिए, विद्वान मिल जाते हैं, इंसान नहीं मिलते। लेकिन राष्ट्रपति के तौर पर अपने कार्यों से जो अमिट छाप के आर नारायणन ने छोड़ी है, उस स्तर पर दूसरा कोई राष्ट्रपति नहीं टिकता।

वो नारायणन ही थे, जो पहली बार कतार में खड़ा होकर आम लोगों की तरह वोट डालने पहुंचे थे और इस मिथक को तोड़ा था कि राष्ट्रपति वोट नहीं डालता। वो नारायणन ही थे, जिन्होंने गुजराल सरकार के कहने पर यूपी में और वाजपेयी के कहने पर बिहार में राष्ट्रपति शासन लागू करने के सिफारिश को पहली बार सिरे से खारिज कर दिया था। वो नारायणन ही थे, जिन्होंने वाजपेयी सरकार की तरफ से संविधान समीक्षा के प्रस्ताव पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करके जता दिया था कि हमारे संविधान में कोई खोट नहीं है। वो नारायणन ही थे, जिन्होंने दुनिया के बाहुबली बने फिरने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की आंखों में आंखे डालकर ये कहने का साहस दिखा सके कि कश्मीर दुनिया का सबसे खतरनाक जगह नहीं है और हां, अगर दुनिया ग्लोबल विलेज में बदल रही है तो उस गांव को सारे पंच मिल कर चलाएंगे, कोई चौधरी नहीं। कहते हैं कि ये बात अमेरिका की पिछलग्गू वाजपेयी सरकार को अच्छी नहीं लगी थी। लेकिन इससे अपने नारायणन का क्या बिगड़ता है? उनके लिए राष्ट्रीय अस्मिता बड़ी थी, अपना स्वार्थ नहीं। और हां, जब गुजरात में मोदी सरकार ने नरसंहार शुरू कराया तो नारायणन ने प्रधानमंत्री वाजपेयी को चिट्ठी लिखकर कहा कि ये सब रोको। लेकिन भाषणवीर वाजपेयी और पाखंड की पुजारन बीजेपी से आप समरस समाज बनाने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं। वही हुआ, पहले गुजरात जला और उसके बाद जब राष्ट्रपति चुनाव का समय आया और कुछ लोगों ने नारायणन का नाम दोबारा राष्ट्रपति के लिए सामने लाया तो बीजेपी का कलेजा जलने लगा। लेकिन मजे देखिये कि बीजेपी ही नहीं, कांग्रेस और मुलायम सिंह जैसे दलितों-पिछड़ों-उपेक्षितों-वंचितों के आलमबरदारों को भी नारायणन सुहाते नहीं थे। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर को छोड़ दें तो किसी बड़े नेता ने नारायणन के पक्ष में एक बयान तक देना गवारा नहीं समझा। लेकिन जब इतने विरोध थे, तो नारायणन ने ही खुद को इस दांवपेंच से अलग कर लिया।

अतीत के आंगन में झांकने का आशय ये नहीं था कि पुरानी यादों को ताजा किया जाए बल्कि कहने का मतलब ये है कि मौजूदा राजनीति में असरदार राष्ट्रपति किसी को नहीं चाहिए। मौजूदा राष्ट्रपति डॉक्टर अब्दुल कलाम के प्रति बिना किसी किस्म का अनादर भाव प्रकट किये ये तो कहा ही जा सकता है कि राष्ट्रपति के तौर पर बच्चों में जरूर उन्होंने बडा भाव जगाया लेकिन राष्ट्र प्रमुख के तौर पर उनका कार्यकाल सतही ही रहा। उस हाल में नया राष्ट्रपति जाति-लिंग-धर्म के दायरे से बाहर एक सुलझा हुआ राजनेता होना चाहिए जो नीर-क्षीर विवेक का इस्तेमाल करके सही फैसला सुना सके। शेखावत का इतिहास भले ही बीजेपी से जुड़ा रहा है लेकिन पिछले पांच साल में बतौर उपराष्ट्रपति उन्होंने साबित कर दिया है कि वो दलगत राजनीति की परिधि से बाहर निकल चुके एक ईमानदार और साफगोई पसंद बड़े दिल के राजनेता हैं। तो क्या कभी बीजेपी से उनका साथ ही उनकी राह में रोड़ा होना चाहिए। रत्नाकर तो डाकू था लेकिन राम नाम की ताकत ने उसे महर्षि बाल्मीकि बना दिया।

और फिर ये कैसे कहा जा सकता है कि शेखावत जीत नहीं सकते। 1969 में सबको यही लग रहा था कि कांग्रेस के उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी चुनाव जीत जाएंगे लेकिन वराह वेंकट गिरि ने उन्हें धूल चटा दिया था। करिश्मे बार बार नहीं होते लेकिन कई बार इतिहास खुद को दोहराता तो जरूर है। लिहाजा, मन साध कर देखते रहिए कि देश के पहले नागरिक के चुनाव में होता क्या है।

Thursday, June 21, 2007

इन्हें प्यादा चाहिये, काका कलाम नहीं

काका कलाम पर लेख पढ़ने के बाद बहुत लोगों ने लेखक के बारे में पूछा। दरअसल मणीष से मेरा परिचय 1997 से है। एक साल के लिए ही सही हम दोनों ने साथ पढ़ाई की। आज मणीष पेशे से बैंक में मैनेजर हैं , लेकिन ग्राहकों के रुपये पैसे का लेखा जोखा रखते हुए भी उन्होंने पढ़ने लिखने की आदत नहीं छोड़ी। वो हर रोज वक्त निकाल कर कई घंटे पढ़ते हैं। जब उन्हें पता चला कि एक ऐसा ब्लॉग शुरू हुआ है जिसमें वो सरकार की गलत नीतियों और सामयिक विषयों पर अपनी राय रख सकते हैं तो उन्होंने लिखना शुरू कर दिया। लिखते वो काफी पहले भी रहे हैं। लेकिन इस बार उन्होंने वादा किया है कि ये क्रम तोड़ेंगे नहीं। चौखंबा के लिए वो एक महीने में ही सही एक लेख जरूर देंगे। इस मंच पर उनके पहले के दोनों लेख जिसने भी पढ़े उसे कुछ नया जरूर मिला। हमें उम्मीद है कि ये अच्छा सिलसिला बना रहेगा। साथी मणीष के लिखने और पाठकों के सुझावों का सिलसिला।

वे वाकई सहज आदमी लगते हैं। इतने सहज कि उन्हें पवित्र कहने को जी चाहता है। उनकी ऐसी ही सहज पवित्रता के कारण उनसे अपनापन लगता है। वे हमें नहीं जानते, पर हम उन्हें बेहद नजदीक से जानते हैं। नजदीकी इस कदर कि कई लोग और बच्चों का एक बड़ा वर्ग उन्हें चाचा कलाम कहता है। मैं खुद उन्हें काका कलाम कहता हूं। काका से अपनापन ज्यादा लगता है और कलाम के साथ काका की जोड़ी भी चाचा से ज्यादा अच्छी जमती है। वैसे भी चाचा तो नेहरू के साथ पहले से ही जुड़ा हुआ है।

तो मामला काका कलाम का है। आजकल वे फिर चर्चा में हैं। हमारे देश के राजनीतिक गुटों ने सुविधा और सहूलियत के हिसाब से गणराज्य के अगले प्रथम नागरिक के बारे में गुणा गणित शुरू किया, तो काका को सबसे पहले खारिज कर दिया। दलील ये दी कि प्रथम राष्ट्रपति के अलावा परंपरागत रूप से किसी भी शख्स को एक ही बार राष्ट्रपति बनने का मौका दिया जाता रहा है। मालूम पड़ता है कि राष्ट्रपति का चयन किसी व्यक्ति विशेष को उपकृत करने के लिए किया जाता है। गोया देश और देशवासियों के हित अनहित का इस पद के लिए चुने जा रहे व्यक्ति के कोई लेना-देना नहीं हो। सार्वभौम गणराज्य (sovereign republic) की अवधारणा हमारे संविधान में हैं और उसमें राष्ट्रपति किसी व्यक्ति विशेष को उपकृत करने वाला पद बन कर रह जाए, इसकी किसी ने कल्पना नहीं की होगी।

खैर, बाखबर लोग इसे जान पा रहे होंगे कि अगर चुनावी गणित राजनीतिक दलों के प्रति निष्ठा पर चला तो हमें प्रतिभा पाटिल के रूप में नई राष्ट्राध्यक्षा मिलेंगी। ये कहीं से आलोचना योग्य कदम नहीं है। पर मंशा वह कभी नहीं रही तो अभी जताई जा रही है। यूपीए और उसके सहयोगियों द्वारा प्रतिभा पाटिल के नाम की घोषणा ऐसे की जा रही है कि मानों शुरू से ही उनका उदेश्य शीर्ष पद पर किसी महिला को बैठाना रहा हो।

लेकिन ऐसा कतई नहीं है। इसे और गहराई से समझने के लिए हम थोड़ा अतीत में झांकते हैं। आप राष्ट्रपति के लिए पिछले चुनाव (2002) को याद करें। मरहूम कोचिल रमनन नारायणन तत्कालीन राष्ट्रपति थे। जानने और मानने वाले जानते और मानते हैं कि अब तक जितने भी राष्ट्रपति रहे हैं उनमें नारायणन किसी से कमतर नहीं थे। आप हर राष्ट्रपति के कार्यकाल का विवरण पढ़ें। संक्षेप में बताएं कि डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद अगर हिंदू कोड बिल को लेकर आलोचना के शिकार हुए तो फखरूद्दीन अली अहमद आपातकाल में अपनी भूमिका को लेकर। बीबी गिरी और नीलम संजीव रेड्डी तो अपने दौर में कांग्रेस में चल रही वर्चस्व की लड़ाई में मोहरे के तौर पर इस्तेमाल किये गये। डॉक्टर राधाकृष्णन और डॉक्टर शंकर दयाल शर्मा अपनी अकादमिक रूचियों के कारण ज्यादा विद्वत भले माने जाते रहे, पर राजनीतिक अभिरूचि से पद के महत्व को बढ़ाने के लिहाज से उनका कार्यकाल नहीं जाना जाता है।

वैंकटरमन कांग्रेस और श्रीमति गांधी(प्रथम) के वफादार बने रहे, तो ज्ञानी जैल सिंह को अलग तरह के क्रियाकलापों के लिये जाना गया। श्रीमति गांधी (प्रथम) के समय ज्ञानी जैल सिंह खुद को राष्ट्रपति से ज्यादा एक स्वामिभक्त कारिंदा मानते रहे। लेकिन राजीव काल में उन्होंने टकराव का नया द्वार खोला। राष्ट्राध्यक्ष और शासनाध्यक्ष के बीच टकराव का अभूतपूर्व उदाहरण सामने आया। हालत यहां तक बिगड़े कि राष्ट्रपति के द्वारा प्रधानमंत्री की बर्खास्तगी के कयास लगाए जाने लगे। साथ ही प्रधानमंत्री द्वारा राष्ट्रपति के खिलाफ महाभियोग लाने की अटकलें भी जोर पकड़ने लगीं। गनीमत रही कि ऐसा कुछ नहीं हुआ और ज्ञानी जैल सिंह ने अपना कार्यकाल पूरा कर लिया। इन सबों के कार्यकाल के बाद कभी इतनी शिद्दत से तत्कालीन समाज को महसूस नहीं हुआ कि इनके कार्यकाल को और विस्तार दिया जाए।

ज्ञानी जैल सिंह के बाद तो उपराष्ट्रपति के राष्ट्रपति के रूप में चुने जाने का सिलसिला सा बन गया। ये सिलसिला टूटा नारायणन के कार्यकाल के अंत में। दरअसल नारायणन का दौर उनकी बेहद खरी सोच और स्वतंत्र और निर्बद्ध कार्यपद्धति के लिए जाना जाता है। उनमें साहस भी गजब का था। बात अमेरिकी राष्ट्रपति क्लिंटन के भारत दौरे की है। तब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और उनके सभी मंत्री क्लिंटन के स्वागत में बिछे जा रहे थे। लेकिन नारायणन ने यहां भी भारत का पक्ष जोरदार तरीके से रखा। उस दौरे में क्लिंटन ने कहा कि दुनिया एक गांव के समान हो गई है और अमेरिका से दूरी किसी के लिए भी ठीक नहीं। तब नारायणन ने खाने की मेज पर क्लिंटन को दो टूक शब्दों में बताया कि इस वैश्विक गांव में कोई एक अपनी चौधराहट हांकने की कोशिश नहीं करे।

वाजपेयी सरकार के चंगु मंगुओं ने इसे नाजायज अकड़ में की गई एक बड़ी डिप्लोमेटिक भूल करार दिया। जब मन गुलाम हो, मस्तिष्क पर गुलामी का मुलम्मा चढ़ा हो तो जुबां से साहस की उम्मीद करना बेवकूफी है। गुलाम, मालिक की बेअदबी में कही गई हर बात को गलत और भूल करार नहीं देगा तो और क्या करेगा? वाजपेयी और उनके मंत्रियों ने यही किया। मगर नारायण गुलाम मन के नहीं थे। उनके मस्तिष्क पर गुलामी का मुलम्मा भी नहीं चढ़ा था।

नारायणन के दिल पर उस संयुक्त मोर्चा सरकार के प्रति भी वफादारी दिखाने का बोझ नहीं था जिसने उन्हें राष्ट्रपति भवन में प्रतिष्ठित किया था। उनके जेहन में अपनी भूमिका को लेकर कोई उलझन नहीं थी। वो जानते थे कि पद का परिस्कार या तिरस्कार उस पर आसीन व्यक्ति के चरित्र से होता है। नारायणन ने एक अहसानमंद व्यक्ति की अपेक्षा, एक कर्तव्यनिष्ठ और संविधान से आबद्ध राष्ट्रपति के रूप में अपनी भूमिका का चयन किया।

इसका उदाहरण भी मिलता है। 1998 में उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह के नेतृत्व में भाजपा की सरकार थी। केंद्र में सत्तारूढ़ संयुक्त मोर्चा सरकार ने उसकी बर्खास्तगी की सिफारिश की। लेकिन नारायणन ने उसे लौटाने में जरा भी संकोच नहीं किया। यह तय है कि केंद्र ने उन्हें अपना आदमी जान विरोधी दल की सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए उनका उपयोग करना चाहा। पर नारायणन राष्ट्रपति थे ना कि उपयोग में आने के लिए तैयार बैठा एक सामान्य अहसानमंद आदमी। उनका काम संविधान के अनुसार, संविधान की रक्षा करना था, ना कि किसी गठबंधन का अहसान चुकाना। उन्होंने वही किया जिसकी अपेक्षा संविधान उनसे करता था। नारायणन से पहले लगभग सौ बार इस देश में राज्य सरकारों को बे-सिर पैर के कारणों का हलावा देकर केंद्र की विरोधी दलों की सरकारों ने बर्खास्त करवाया था। परंपरा से हट कर भूमिका के चयन के लिए जिस साहस और स्वतंत्र चेतना की आवश्यकता होती है वह नारायणन ने अपने कामों से दिखाया।

हम और आप जानते हैं कि हर मालिक को हामी भरने वाले स्वामिभक्त टॉमी की जरूरत होती है। स्वतंत्र और निष्पक्ष राय देने वाला कभी अच्छे नौकर के तौर पर नहीं देखा जाता। इसलिए जब 2002 में राष्ट्रपति के चयन की बात आई तो एनडीए सरकार ने नारायणन की दोबारा ताजपोशी को यह कह कर नकार दिया कि दोबारा चुने जाने की परंपरा नहीं है। याद रहे कि नारायणन ने उत्तर प्रदेश में उसी एनडीए की सरकार को असंवैधानिक तरीके से उखाड़ने से मना कर दिया था। नारायणन का नाम खारिज करने के बाद तलाश ऐसे व्यक्ति की शुरू हुई जो मालिक के इशारे पर अपनी भूमिका चुने न कि संविधान के अनुरूप।

तमाम नाम आए। ताजिंदगी नौकरशाह रहे पी सी एलेक्जेंडर, तत्कालीन उपराष्ट्रपति और आंध्र प्रदेश के पूर्व राज्यपाल कृष्णकांत और 85 साल की कैप्टन लक्ष्मी सहगल भी। हर राजनीतिक गुट अपनी गोटी फिट करने में लगा हुआ था। प्रमोद महाजन को पी सी एलेक्जेंडर की वफादारी भा रही थी। तो चंद्रबाबू नायडू कृष्णकांत की पैरोकारी में जुटे थे। यह हम सबको मालूम है कि वर्तमान साझा सरकारों के दौर में आम चुनाव के तुरंत बाद या फिर बीच में किसी टकराव की स्थिति में किसी दल और व्यक्ति विशेष को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलवाना राष्ट्रपति का एक महती विवेधिकार होता है। सोचिये अगर पी सी एलेक्जेंडर राष्ट्रपति होते तब क्या प्रमोद महाजन की प्रधानमंत्री बनने की इच्छा ज्यादा परवान नहीं चढ़ती? गठबंधन की सरकार में रूठना मनाना लगा ही रहता है। ऐसे रूठने मनाने का खेल माहौल को अपने पक्ष में बनाने के लिए भी करवाया जाता है। ऐसे में जब अंपायर आपके अहसानों के बोझ से लदा, आपके पक्ष में फैसला सुनाने के लिए तैयार बैठा हो तो आशाएं क्यों न हिलोर मारें?

आंध्र प्रदेश के दिनों से ही राज्यपाल रहे कृष्णकांत पर चंद्रबावू नायडू का अहसान तारी हो रहा था। फिर उन्हें उप राष्ट्रपति बनवाने में भी नायडू की भूमिका अहम थी। नायडू को लगा कि राष्ट्रपति बनवा कर कृष्णकांत से जरूरत पड़ने पर बड़ी कीमत वसूली जाएगी। खुद कृष्णकांत को भी लगने लगा कि अब सत्ता का शीर्ष उनके करीब है। एक दौर में अपने तीखे तेवर के लिए युवा तुर्क की उपाधि पाने वाले कृष्णकांत ने 2002 के राष्ट्रपति चुनाव से पहले के मौसम में मौन धारण कर लिया। साफ लगने लगा कि पदोन्नति कि आशा में उन्होंने वो तेवर खो दिया जिसके लिए उनकी तारीफ होती थी। कालांतर में आप ऐसे व्यक्ति से दृढनिष्पक्षता की उम्मीद कैसे करते?

जहां कई नेता अपनी अनर्गल महत्वाकांक्षा को साधने की जुगाड़ में लगे थे तो वहीं उनके विरोधी काट तैयार कर रहे थे। इसी कारण ऐसे आज्ञाकारी व्यक्ति की खोज शुरू हुई जो समय आने पर इतना संविधानभक्त न बने कि उसके कृत्य से अहसानफरामोशी की बू आए। आप बताएं कि भला ऐसे में नारायणन को कौन पूछता? हालांकि देश का प्रबुद्ध और अराजनीतिक तबका उनके पक्ष में लगातार आवाज उठाता रहा और उन्होंने स्वयं भी आम सहमति की स्थिति होने पर अपनी उम्मीदवारी के लिए हामी भरी। आम सहमति पर जोर इसलिए रहा कि एक बार राष्ट्रपति रह चुका व्यक्ति अपने साथ पराजित उम्मीदवार का पैबंद कभी नहीं लगाना चाहेगा।

येन केन प्रकारेण राजनीतिक गुटों के एक बड़े वर्ग की सहमति अबील पकीर जमील अब्दुल कलाम के नाम पर बनी। कलाम का पहले का व्यवहार और बर्ताव बेहद आज्ञाकारी पदाधिकारी के रूप में रहा था। पिछली तमाम भूमिकाओं में उन्होंने हमेशा अपने से ऊपर के ओहदेवालों की प्रशंसा ही बटोरी। काम के प्रति समर्पण भाव को नेताओं ने उनकी स्वामिभक्ति के तौर पर लिया। उनके नाम पर कमोवेश आम सहमति थी। वाममोर्चे को भी कोई खास एतराज नहीं था। लेकिन सिद्धांतत: उसने दक्षिणपंथी भाजपा नेतृत्व गंठबंधन के उम्मीदवार का विरोध करने का फैसला लिया और कैप्टन लक्ष्मी सहगल को मैदान में उतार दिया।

इस तरह काका कलाम इस अपेक्षा से लदे राष्ट्रपति भवन पहुंचे कि वो अगले नारायणन नहीं बनेंगे। सोच यह थी कि आजीवन नौकरी कर चुका व्यक्ति अपनी स्वतंत्र चेतना खो चुका होगा और शीर्ष पर रह कर भी वही करेगा जैसा उससे कहा जाएगा। उनसे ऐसी ही एक गलती हुई भी। रूस प्रवास के दौरान बिहार में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश को कलाम ने आधी रात को मंजूरी दी। हड़बड़ी में हस्ताक्षर के इस एक मामले को छोड़ दें तो काका कलाम का कार्यकाल गणतांत्रिक लोकतंत्र के स्वस्थ विकास के एक चरण के तौर में जाना जाएगा।

ऐसे कई मौके आए जब अंधस्वार्थी हुक्मरानों ने कलाम से वह सब उम्मीदें की जिन पर खरा उतरने के बाद उन्हें अगला कार्यकाल मिल सकता था। बेहद हालिया घटना को लें तो लाभ के पद के बिल पर हामी भरना ऐसा ही एक कार्य होता, लेकिन काका कलाम ने ऐसा कुछ नहीं किया। श्रीमति गांधी (द्वितीय) को अराध्य देवी के रूप में पूजने वाले हुक्मरानों की वर्तमान जमात ने इसे अपनी देवी की शान में गुस्ताखी माना। कलाम को भी हमेशा अंदाजा रहा कि ऐसे भोकुस दलालों के रहते दूसरा कार्यकाल नहीं मिलेगा। इस कारण उन्होंने अपनी उम्मीदवारी की चर्चा को वही कह कर खारिज कर दिया जो नारायणन ने कहा था। मतलब आम सहमति की स्थिति में कलाम ने खुद को अगले कार्यकाल के लिए तैयार बताया। हालांकि यह भी सत्य है कि उनके नाम पर जो सियासी दुरचालें चली गईं और जाल बुना गया उसने उन्हें और क्षुब्ध कर दिया।

आप काका कलाम के कार्यों को देखें तो आप जान पाएंगे कि उनके जैसे व्यक्ति का शीर्ष पर होना कितना आश्वस्त करता है। न्यायपालिका की स्वतंत्र सत्ता के बावजूद राष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र में जो भी बन पड़ा काका कलाम ने उसका प्रयोग किया ताकि न्यायपालिका में शुचिता लाई जा सके। घाघ नेताओं के बीच काका कलाम ने हमेशा स्वच्छ राजनीतिक आचरण की वकालत की। यह उनके व्यक्तित्व का ही असर था कि कभी किसी की हिम्मत नहीं पड़ी कि चेहरे के हावभाव से भी उनके कहे का तिरस्कार कर सके। कलाम तमाम प्रकार से लूटने वाले मुनाफाखोर उद्योगपतियों के सम्मेलन में इस देश और इसके आम नागरिकों के बारे में सोचने और करने की वकालत करते हैं और श्रोता धनपशु सहमति में सिर हिलाते नज़र आते हैं। ये और बात है कि बेशर्म धनपशुओं ने उनके सुझावों पर कभी अमल नहीं किया।

काका कलाम बताते हैं कि बिना खेती और खेतीहर समाज के विकास के असली विकास का हमारा सपना बेमानी है। काका कलाम के जैसों के रहते आप इस देश के सर्वोच्च प्रतिष्ठान की निष्पक्षता को लेकर आश्वस्त रह सकते हैं। ऐसे लोगों की जरूरत हम और आप जैसे आम नागरिकों को हो सकती है। लेकिन घाघ और दलाल हुक्मरानों को नहीं। उन्हें वह सब करने की छूट चाहिये, जो उनकी दलाली के लिए जरूरी हो। ऐसा करने में नारायणन और काका कलाम जैसे लोग कहीं से फिट नहीं बैठते हैं।


राष्ट्रपति के पिछले चुनाव और अब होने जा रहे चुनाव ने इन राजनीतिक गुटों को यह समझा और सिखला दिया है कि नारायणन और कलाम जैसे लोग शुरुआत में भोले भले दिखें, लेकिन अंतत: ये भारी पड़ते हैं। इस सीख और अनुभव के बाद राष्ट्रपति पद के लिए इस बार से फिर ऐसे लोगों का चुनाव शुरू हो गया जो घुटे राजनीतिक माहौल में पला बढ़ा और स्वामिभक्त हो। आप शुरुआत में उछले नामों पर गौर करें। शिवराज पाटिल, कर्ण सिंह, प्रणब मुखर्जी, अर्जुन सिंह, मोतीलाल वोरा, नारायण दत्त तिवारी ... वगैरह वगैरह। यह भी बताते चलें कि ऐसे लोगों के बारे में हुई चर्चा का कोई मतलब नहीं जिन्हें सत्तारूढ़ गुट का जिताने वाला समर्थन हासिल नहीं हो सकता। मसलन भैरों सिंह शेखावत, सोमनाथ चटर्जी आदि।

हुक्मरानों की अराध्य देवी श्रीमति गांधी (द्वितीय) को उसी व्यक्ति की उम्मीदवारी तुष्ट करती जिसका पिछला रिकॉर्ड स्वामिभक्ति से ओत पोत रहा हो। वो भी इस कदर कि उसके भविष्य के अहसानपरस्त आचरण के प्रति आश्वस्त हुआ जा सके। सिर्फ परंपरा की दुहाई देकर कलाम की अपेक्षा श्रीमति पाटिल को तवज्जो देने का मतलब सिर्फ उतना नहीं जितना बताया जा रहा है। असल में हुक्मरानों को वह नहीं चाहिये जो नारायण और कलाम करते रहे हैं। उन्हें वह चाहिये जो प्रणब मुखर्जी या शिवराज पाटिल या फिर प्रतिभा पाटिल जैसे लोग करने की गारंटी देते हैं।

अब बात एक महिला को राष्ट्रपति बनाने की। यहां यह कहना काफी होगा कि जाकीर हुसैन, फखरुद्दीन अली अहमद और काका कलाम के राष्ट्रपति हो जाने से देश में मुसलमानों की स्थिति बेहतर नहीं हो गई है। एक सिख के राष्ट्रपति होने से उसके कार्यकाल के दौरान ठीक उसी की नाक के नीचे सिखों का सरेआम कत्ल नहीं रुका। साफ है प्रतीक रूप में आप किसी को कुछ देते हैं तो वह उस व्यक्ति के समुदाय को ... उसका बकाया देना नहीं होता। प्रतिभा पाटिल का राष्ट्रपति होना इस देश की महिलाओं को उन सब बेड़ियों से मुक्त नहीं करेगा जिनके कारण उनका शोषण होता है।

किसी महिला की उम्मीदवारी का विरोध करना इस लेख की मंशा नहीं। बताना बस इतना है कि हम ऐसे घाघ और घुटे हुए लोगों से शासित हैं, जो ऐसे व्यक्ति को भी तथाकथित परंपरा के नाम पर बाहर करने का षणयंत्र रचते हैं जिसने अपना सबकुछ इस राष्ट्र को दिया है। ऐसा शख्स जो पूरे कार्यकाल के दौरान घूम घूम कर बच्चों को सिखाता रहा कि हमेशा देश हित में सोचो। कलाम की मंशा ये रही कि इस राष्ट्र का भविष्य भी मजबूत हो। वो अपने आचरण से हम सबको सीख देते हैं कि इस मुश्किल दौर में भी ईमानदार सपनों के लिए सहज रूप से जिया जा सकता है।


याद रखिये कहने को हमारे पास तर्क है कि भला राष्ट्रपति के चयन में हमारी क्या भूमिका हो सकती है? पर तथ्य यह भी है कि हम ऐसे लोगों के द्वारा ही शासित होते हैं जिनके चयन में हमारी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष भूमिका होती है। अप्रत्यक्ष ही सही हम अपनी भूमिका के होने से इनकार नहीं कर सकते। अपनी जिम्मेदारी को ना निभाने पर या अनमने ढंग से निभाने पर हम दोमुंहे नेताओं से शासित होने को शापित हैं और सही ढंग से निभाएं तो इसी में हमारी मुक्ति है। हमारा मतलब ... हम और ठीक हमारे ही जैसे काका कलाम।

लेखक: मणीष

Tuesday, June 19, 2007

ये मौत की आहट है अमेरिका और ब्रिटेन

18 जून 2007, दैनिक हिंदुस्तान के पेज नंबर 13 पर पांच ख़बरें छपीं। इन पांचों खबरों में वक्त के कई राज छिपे हैं। आगे बढ़ने से पहले एक नज़र पांचों ख़बरों के शीर्षकों पर डालिये।
1. “नई मुसीबत में फंस सकते हैं ब्लेयर”
2. “इराकी कबीलों को हथियारों से लैस न करे अमेरिका – नूरी”
3. “खाड़ी देशों से ईरान पर अमेरिकी हमला न होने दिया जाएगा”
4. “अमेरिका बोला, लगे रहे जनरल मियां”
और
5. “काबुल में आत्मघाती हमला, 35 लोग मरे”
पहली खबर टोनी ब्लेयर के झूठ पर है। वो झूठ जो उन्होंने इराक पर हमले से पहले अपने देशवासियों से बोला था। तब टोनी ब्लेयर ने कहा था कि अमेरिका की अगुवाई में ब्रिटेन और उसके साथियों के पास हमले के बाद की पूरी योजना तैयार है। लेकिन अब सद्दाम हुसैन को सत्ता से बेदखल किये अरसा गुजर चुका है लेकिन योजना की भनक तक नहीं लग रही। यही वजह है कि अब टोनी ब्लेयर के खिलाफ ब्रिटेन में माहौल बनने लगा है। इस विरोधी माहौल को और अधिक हवा ब्लेयर के करीबी साथियों ने दी है। वो साथी जो हमले के उनके गुनाह में बराबर के भागीदार रहे, लेकिन ब्लेयर पर ही निशाना साध रहे हैं। उन्होंने एक डॉक्यूमेंट्री में कहा है कि ब्लेयर अच्छी तरह से वाकिफ थे कि युद्ध के बाद इराक के पुनर्निमाण की अमेरिका के पास कोई योजना नहीं थी, फिर भी उन्होंने हमले के लिए अपनी सेना भेजी।
दूसरी खबर भी इराक की है। अभी वहां ऐसी सरकार है जो अमेरिकी अगुवाई में तैनात सेना के दम पर राज कर रही है। वहां प्रधानमंत्री हैं नूरी अल मलिकी। नूरी से बेहतर बहुत कम लोग ही अमेरिकी ताकत का सही आकलन कर सकते हैं। लेकिन अपने वतन में हो रही रोज की हिंसा से नूरी भी जरूर आहत होते होंगे। उन्हें भी धीरे-धीरे ये अहसास हो रहा है कि अमेरिकी सैनिक इस हिंसा को बढ़ावा दे रहे हैं। अमेरिकी सैनिक अपने फायदे के लिए इराक के स्थानीय कबीली गुटों को हथियार बांट रहे हैं ताकि वो एक दूसरे पर हमले जारी रखें। इराकी लड़ाकू आपस में ही लड़ कट मरें। यही वजह है कि नूरी अब आगाह कर रहे हैं। अमेरिकी सेना को आगाह। इराक में अभी तक अमेरिका को चेतावनी विरोधी देते थे। अब समर्थक भी दे रहे हैं। हालांकि उनके सुर अभी बहुत हल्के हैं... लेकिन हालात तेजी से बदलते हैं। वक्त के साथ इराकी आवाम में छले जाने का अहसास गहरा होता जाएगा ... और ये अहसास जितना गहरा होगा ... अमेरिका के खिलाफ गुस्सा भी उतना ही बढ़ेगा। तब वो सब विरोधी और समर्थक मिल कर अमेरिका से हिसाब मांगेंगे। अपनी बर्बादी का हिसाब, अपने लोगों के लहू का हिसाब। अमेरिका इस खतरे को टाल सकता है, लेकिन हमेशा के लिए। नूरी की चेतावनी इसी बदलाव का संकेत है।
तीसरी खबर का ताल्लुक भी अरब देशों से है। सऊदी अरब और खाड़ी सहयोग परिषद ने एलान किया है कि ईरान पर हमले के लिए अमेरिका को खाड़ी देशों की जमीन का इस्तेमाल नहीं करने दिया जाएगा। उनका कहना है कि ईरान पर अमेरिकी हमले से अरब देशों को कोई फायदा नहीं पहुंचेगा इसलिए वो किसी भी सूरत में अमेरिका का समर्थन नहीं करेंगे। यही नहीं वो सभी इस विवाद में ईरान के साथ हैं। इस परिषद में सिर्फ सऊदी अरब ही नहीं है बल्कि कुवैत, कतर, बहरीन, संयुक्त अरब अमीरात और ओमान भी हैं। ऐसे में अरब देशों का ये बयान काफी अहमियत रखता है। ये संकेत है कि आने वाले दिनों में अमेरिका को किस तरह की चुनौती का सामना करना पड़ सकता है। ये संकेत है कि इराक पर हमले को बर्दाश्त कर चुके अरब देश अब ईरान पर हमले को बर्दाश्त नहीं करेंगे और अगर अमेरिका ने उनकी इच्छाओं के विपरीत हमला किया तो उसे और अधिक मुश्किलों का समाना करना पड़ सकता है। इससे आने वाले दिनों में खाड़ी के देशों में किस तरह के कूटनीतिक संबंध स्थापित होंगे इसकी भनक लगाई जा सकती है।
चौथी खबर पाकिस्तान की। इराक में सद्दाम को अमेरिका ने सत्ता से बेदखल किया और हिंसा का वो दौर शुरू किया जो थमने का नाम नहीं ले रहा। अब अमेरिका की साजिश ईरान में सत्ता परिवर्तन की है। लेकिन पाकिस्तान में वो तानाशाह मुशर्रफ को सत्ता में बने रहने का आशीर्वाद दे रहा है। आप इसी से अंदाजा लगे सकते हैं कि अमेरिका के मंसूबे कितने खतरनाक हैं। अमेरिका बार बार कहता है कि आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में पाकिस्तान की अहमियत को वो समझता है। दरअसल ये आतंकवाद के खिलाफ जंग नहीं है। ये सारी जंग पैसे की है। इस्लामिक देशों के पास ऊर्जा का ऐसा भंडार है जो आने वाले दिनों में दुनिया की दिशा तय करेगा। यही वजह है कि धीरे धीरे अमेरिका उन सब पर कब्जा करना चाहता है। लेकिन वो जानता है कि उसके मंसूबे तभी पूरे होंगे जब उसे कुछ ताकतवर इस्लामिक देशों का समर्थन भी हासिल होगा। पाकिस्तान भी एक ताकतवर इस्लामिक देश है और वहां एक बड़ा धड़ा अमेरिका के खिलाफ भी है। लेकिन मुशर्रफ अमेरिका समर्थक हैं। इसलिए बुश सरकार की कोशिश है कि मुशर्रफ लंबे समय तक बने रहें। वो जब तक पाकिस्तान की सत्ता में रहेंगे, अमेरिका का हित साधते रहेंगे। लेकिन ऐसा नहीं है कि कोई और सत्ता में आया तो अमेरिका उससे ठुकरा देगा। बल्कि उसकी कोशिश उसे भी अपने सांचे में ढालने की होगी।
अब बात पांचवी खबर की। ये खबर एक ऐसे देश से है जहां अमेरिका ने खूब प्रयोग किये। नया प्रयोग लोकतंत्र स्थापित करने के बहाने चल रहा है। वहां चुनी हुई सरकार सत्ता में भी है। लेकिन हिंसा थम नहीं रही। बावजूद इसके कि अमेरिका समेत कई देशों की सेना वहां शांति बहाली की कोशिश में लगी हुई है। वो भी कई साल से। लेकिन शांति बहाल होने की बजाए हिंसा बढ़ती जा रही है। इराक
की ही तरह अफगानिस्तान भी सुलग रहा है। ये दोनों देश गवाह हैं कि जिस देश में भी अमेरिका और उसके साथियों ने दखल दिया है वो देश बर्बाद हुआ है। अफगानिस्तान में पहले अपने हितों के लिए अमेरिका ने तालिबानियों और मुल्ला उमर को बढ़ावा दिया और बाद में अपने ही हित के लिए उनका सफाया किया। लेकिन इस सबके चक्कर में अफगानिस्तान बर्बाद हो गया।
एक बड़े अखबार के एक ही पेज पर दुनिया की पांच बड़ी खबरें और हर खबर अमेरिका और उसके साथियों की साजिश से जुड़ी हुई। उन्होंने ये साजिश रची लोकतंत्र की मजबूती और आतंकवाद विरोधी मुहिम के नाम पर। अरब देशों और इस्लामिक देशों से आती खबरें चीख चीख अमेरिका के खौफनाक चेहरे को बयां करती हैं। साथ ही ये ख़बरें आगाह भी कर रही हैं कि गरीब और पिछड़े हुए देशों को उनके नापाक इरादों की भनक लग गई है। हर तरफ अमेरिका विरोधी सुर मजबूत हो रहे हैं। ये सुर जितनी जल्दी अधिक मजबूत होंगे। अमेरिकी साम्राज्यवाद की मौत भी उतनी ही जल्दी होगी। इसलिए जरूरत है उन सुरों को मजबूत करने की।

Monday, June 18, 2007

माफ करें ये धर्मयुद्ध नहीं है


कल देर रात उमाशंकर जी को किसी काम के लिए मैंने फोन किया। बातों बातों में उन्होंने कहा कि किसानों पर लेख का ऐसा शीर्षक (अगली आहुति आपकी) क्यों चिपकाया है कि लगे नारद पर मचे हंगामे के बारे में है। मैंने उनसे कहा कि शीर्षक एकदम लेख के मुताबिक ही है ना कि किसी को धोखा देने के लिए। मेरा मानना है कि गंभीर मुद्दों पर बहस के लिए आप किसी को झांसा देकर भले ही बुला लें उसे रोक कर नहीं रख सकते। इसलिए जो शीर्षक लगाया है वो पूरा सच है। अगर हम आज नहीं जागे तो अगली आहुति हमें ही देनी है। लेकिन उनकी बात से मुझे लगा कि इसी गलतफहमी में कई लोग चौखंबा पर आए होंगे। शायद यही वजह है कि एक घंटे के भीतर कई हिट हो चुके थे। मेरा यकीन है कि उनमें से कुछ को जब लगा होगा कि "अगली आहुति आपकी" किसानों से जुड़े गंभीर मुद्दे पर है तो उन्हें निराशा हुई होगी।
दरअसल आज के दौर का यही सच है और ब्लॉग की दुनिया भी इस सच से जुदा नहीं। यहां भी हमारे देश और दुनिया की व्यवस्था का खोखलापन साफ नजर आता है। गंभीर मुद्दों पर बहस करने वालों की संख्या बेहद कम है और रास्ता काफी तंग। मुझे लगता है कि नारद पर घमासान उसी खोखलेपन की गवाही देता है। अपनी इस बात को और साफ करने के लिए मैंने ये चिट्ठा लिखने का फैसला किया। ये फैसला इसलिए कतई नहीं है कि कुछ लोग ललकार रहे हैं कि आज तटस्थ रहे तो समय मांगेगा हिसाब। सच तो ये है कि ऐसा कहने वाले ये भूल जाते हैं कि ये नारा निर्णायक युद्ध या कहें कि धर्मयुद्ध के वक्त बुलंद किया जाता है। निर्णायक युद्ध या धर्मयुद्ध का मतलब उस युद्ध से है जब जुल्म के शिकार जुल्म करने वालों के खिलाफ जंग छेड़ देते हैं। खाये पीये अघाये लोगों के झगड़े को मैं बेहद बेतुका मानता हूं। ऐसे झगड़ों की कोख में होता है झूठा अहंकार और झूठी नफरत। आज नारद पर जो संग्राम चल रहा है उसमें ज्यादातर लोगों का यही सच है। चाहे वो नारद के समर्थक हों या फिर नारद के विरोधी।
सबसे पहले बात नारद के विरोधियों की। आखिर ये लोग हैं कौन और इनकी नीयत क्या है? अगर ये सभी विचारों को लेकर इतने गंभीर हैं तो फिर छिछली भाषा पर उतरे ही क्यों? जब ये हमले करने का हौसला रखते हैं तो हमले सहने का जिगर क्यों नहीं रखते? अब न चाहते हुए भी इस मसले पर लिखने बैठ ही गया हूं तो चर्चा सारे पहलुओं पर होगी। शुरुआत नारद के कदम के विरोध में दी जाने वाली दलीलों से। बाजार वाले के निकाले जाने के बाद कई दिग्गजों ने विरोध जताया और अब भी जता रहे हैं। कुछ ने बाजार वाले के समर्थन में कहा कि आखिर हम क्यों उस स्तर तक नहीं उठ पाते जहां वैचारिक युद्ध के बाद शाम को बिना किसी गिले शिकवे के मिल सकें और व्यक्तिगत बातें कर सकें। अब आप इसी से अंदाजा लगा सकते हैं कि ये लोग विचारों को लेकर कितने गंभीर है। जो शख्स ऐसा लिखते हैं वो मौजूदा दौर के ज्यादातर ओछे सियासतदानों की तरह ही हैं। जो चुनाव के वक्त एक दूसरे की खाल नोचते हैं और जब सत्ता की बारी आती है तो सभी वैचारिक मतभेद भुला कर एकजुट हो जाते हैं। दुश्मनों के साथ सत्ता में बैठ कर मलाई खाते हैं। अपना और खानदान का पेट भरते है। तब ये सफेदपोश भूल जाते हैं कि उनके विचारों के लिए न जाने कितने कार्यकर्ताओं ने जान की बाजी लगाई। कितने लोगों ने दिन रात पसीना से लेकर लहू तक बहाया है। वो ये भूल जाते हैं कि लाखों करोड़ों लोगों के सपनों की कब्र पर वो सत्ता का सुख भोग रहे हैं। वो ये भूल जाते हैं कि युद्ध हथियारों से हो या फिर विचारों से – दुश्मनों से दूरी जरूरी है। दुश्मनों से सिर्फ और सिर्फ युद्ध के मैदान में मिला जा सकता है .. चाय और खाने की टेबल पर नहीं।
बाजार वाले के समर्थन में दूसरा तर्क ये दिया जा रहा है कि उसने भावुक हो कर बेंगाणी बंधुओं के खिलाफ गालीगलौज शुरू कर दी, इसलिए इस बात को नजरअंदाज कर देना चाहिये। भावुकता बेहद कोमल तत्व है। भावुक होने पर इंसान रोता है ... तड़पड़ाता है। भावुकता का ताल्लुक दिल है और दीमाग से नहीं। इसलिए बाजार वाला जब भावुक हुआ तो उसके दीमाग ने काम करना बंद कर दिया और वो मार्यादाएं भूल गया। बेंगाणी बंधुओं के खिलाफ गालीगलौज पर उतारू हो गया। लेकिन यहां भी उसके निशाने पर बेंगाणी बंधु नहीं थे बल्कि मोदी और उनकी सांप्रदायिकता थी। इसलिए उसकी गालियों को नज़रअंदाज कर देना चाहिये और निष्कासन का फैसला रद्द होना चाहिये। दलील काफी मजेदार है, लेकिन वैचारिक स्तर पर उतनी ही खोखली भी। दरअसल मोदी के खिलाफ जितने घोर शब्दों का इस्तेमाल हो वो उतना कम है। रक्त में सने उसके हाथों और उसके चेहरे को देख कर मासूमों की चीखें कौंध जाती हैं। गुजरात दंगों की हक़ीक़त और राज्य की तरफ से हुए नरसंहार को शायद ही कोई संवेदनशील शख्स भूलने का साहस कर सकता है। लेकिन बाजार वाले ने मोदी पर हमला नहीं किया था, बल्कि सीधे और सीधे तौर पर बेंगाणी बंधुओं पर निशाना साधा था। उसने बेंगाणी बंधुओं को गाली दी थी। उसके लिखने का तरीका भी बेहद नीचले स्तर का था। पढ़ने पर ऐसा लगता है कि वो शख्स भले ही मोदी का विरोधी है .. लेकिन अपनी सोच और नजरिये को लेकर मोदी की तरह ही विकृत है। उसमें भी मोदी की तरह सहनशीलता जरा भी नहीं। और मेरा मानना है कि जिन लोगों में सहनशीलता नहीं होती है ... वो वैचारिक धरातल पर उतने ही खोखले होते हैं। यही नहीं सहनशील नहीं होने पर ही हिंसा जन्म लेती है और हिंसा चाहे कैसी भी हो उसका विरोध तो होना ही चाहिये। बाजार वाले भले ही धर्मनिरपेक्ष हो ... लेकिन उसने उस एक क्षण बेगाणी बंधुओं के खिलाफ हिंसक व्यवहार किया इसलिए उसे सजा तो मिलनी ही चाहिये। लेकिन सजा कैसी हो और उसका तरीका क्या हो इस पर बहस जरूरी थी। नारद से यहीं चूक हुई है ... उसने भी बाजारवाले की ही तरह भावुक होते हुए एक तुनकमिजाज फैसला ले लिया। प्रतिक्रिया में ही सही यहां वो भी हिंसक हो गया। यही नहीं उसके इस फैसले से कई सवाल उठ खड़े हुए।

बाजार वाले के समर्थक ऐसा ही एक बड़ा सवाल खड़ा कर रहे हैं। वो सवाल है एग्रीगेटर की भूमिका को लेकर। सवाल जायज है। एग्रीगेटर का चरित्र कैसा हो इस पर बहस होनी ही चाहिये। क्या किसी एग्रीगेटर को इसकी इजाजत दी जा सकती है कि वो कोई राजनीतिक फैसला ले सके? क्या एग्रीगेटर भी हमें भगवा रंग, नीले रंग या फिर लाल रंग में रंगा नजर आएगा? यहां पर अब नारद समर्थक कूद पड़ते हैं। वो कहते हैं मर्यादा तो होनी ही चाहिये और जो भी मर्यादा तोड़ेगा उसे नारद सजा देगा। यही नहीं वो ये भी कहते हैं कि जिसे जहां जाना है वो चला जाए। उससे नारद का कोई सरोकार नहीं। वो सभी अपने अपने किले से ताल ठोंक रहे हैं। लेकिन उन्हें इसका अंदाजा नहीं कि ऐसा करके वो नारद की राह मुश्किल कर रहे हैं। अभी विरोध में धुरविरोधी गायब हुआ है। बात आगे बढ़ी तो कई और नाता खत्म कर लेंगे। ऐसा हुआ तो न सिर्फ नारद के बुरे दिन शुरू हो जाएंगे।
मेरे हिसाब से एग्रीगेटर का फर्ज बनता है कि वो सब पर समान दृष्टि डाले। वो सही गलत का फैसला खुद नहीं करे, बल्कि लोगों को करने दे। क्योंकि जब कोई एग्रीगेटर खुद इस तरह के फैसले लेने लगता है तो वो खुद ही अपने चरित्र का हनन करता है। वो खुद को सीमित विचारधारा में बांध लेता है और ऐसे में उसे चुनौती भी मिलने लगती है। नारद को सोचना चाहिये कि अब से कुछ दिन पहले तक जहां सभी उसका गुणगान करते थे अब तीस फीसदी ही सही विरोध पर उतर आए हैं। ये एक एग्रीगेटर की हार है और अगर उसने अपने फैसले पर विचार नहीं किया तो आगे चल कर ऐसा हो सकता है कि कुछ और एग्रीगेटर अस्तित्व में आएं। ऐसा हुआ तब लोग उन विकल्पों की तरफ जाएंगे जो अपने फर्ज को लेकर ज्यादा ईमानदार होंगे। उस वक्त नारद के पास पछताने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचेगा।
ऐसे में आप सोच रहे होंगे कि मैं बाजारवाले को सजा देने के पक्ष में भी हूं और नारद के फैसले के खिलाफ भी हूं ... ऐसा कैसे हो सकता है। यहां मेरा मानना है कि किसी को भी उसके अपराध की सजा देने का तरीका ये नहीं है कि उसे फांसी पर लटका दिया जाए। बाजार वाले की सजा यही होती कि उसकी बेहूदा बातों पर विचार करने की बजाए उसे वैसे ही छोड़ दिया जाता। मेरा मानना है कि कई बार हम ओछी चीजों पर प्रतिक्रिया जता कर उसे महान बना देते हैं। अगर नारद ने थोड़ा उदारता दिखाई होती और बाजारवाले को छोड़ दिया होता तो कुछ दिन बाद वो अपनी मौत मर जाता। ऐसे लोग एक बुलबुले की तरह होते हैं। जो बुलबुला जितनी तेजी से उठता है वो उतनी ही तेजी से फट भी जाता है। बाजार वाला भी एक बुलबुले की तरह है। लगता है कि उसे सिर्फ और सिर्फ गालियां देने ही आता है। उसके पास शब्दों की तरह ही विचारों की कमी भी है और जिसके पास ना तो शब्द हैं और ना ही विचार .. वो बहुत दिन तक नहीं टिका रह सकता।
कुल मिला कर अपराध दोनों तरफ से हुए हैं। उसी का नतीजा है कि कुछ दिनों पहले तक नारद की दुनिया इतनी बड़ी थी कि वहां एक ही वक्त पर कई सार्थक बहसें होती थी, लेकिन अब ये दुनिया इतनी तंग हो गई है घुटन महसूस हो रही है। जहां पहले लोग सार्थक बहस करते नजर आते थे, वहां अचानक सभी के सभी तलवारें भांज रहे हैं। यही नहीं वो दूसरों को भी तलवारें भांजने के लिए उकसा रहे हैं .. भड़का रहे हैं। लेकिन माफ करें जनाब ये धर्मयुद्ध नहीं है। ये शोषकों के खिलाफ शोषितों का संघर्ष नहीं चल रहा है। इसलिए नारद एग्रीगेटर होते हुए भी भले ही तटस्थ नहीं रहे, लेकिन मैं और मेरे जैसे लोग इस झूठे विवाद में तटस्थ हो कर दोनों पक्षों की आलोचना करते हैं और करते रहेंगे।

Sunday, June 17, 2007

अगली आहुति आपकी

किसान इस देश का वो तबका है जिसने विकास की सबसे बड़ी कीमत अदा की है। हममें से बहुत सारे अमिताभ बच्चन और आमिर खान की तरह ही ये कह सकते हैं कि वो भी किसान हैं क्योंकि उनके पूर्वज किसान थे। लेकिन ये सफेद झूठ होगा। सच तो ये है कि हम, शहरों में रहने वाले अपनी जड़ों से कट चुके हैं। हमें महानगरों की तंग गलियों की आदत लग गई है और हमारे दिल भी उतने ही तंग हो गए हैं। यही वजह है कि हम किसान की मुश्किलों पर घड़ियाली आंसू भले बहा लें उन्हें गहराई से समझने की कोशिश नहीं करते हैं। मगर हमारे ही साथी मणीष ने किसानों की बेबसी को पूरी तरह समझा है। वो बता रहे हैं कि किस तरह देश की सरकारें और हुक्मरान उनके साथ धोखा करते आए हैं। उनका लेख थोड़ा लंबा जरूर है, लेकिन आप जैसे जैसे आगे बढ़ेंगे ... आपको मालूम होगा कि किसान कितने बड़े पैमाने पर छला जा रहा है और विकास के नाम पर आहुति देने की अगली बारी किसकी है।
भारत समूची दुनिया में अकेला ऐसा देश है जिसका आधा से अधिक क्षेत्रफल खेती योग्य है। भारत में उपजाऊ जमीन का क्षेत्रफल दुनिया में सिर्फ अमेरिका से कम है। कुदरत की इस दरियादिली का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि हमसे पांच गुना अधिक भू-भाग वाले रूस और कनाडा के पास भी खेती योग्य जमीन हमसे कम है। चीन, ऑस्ट्रेलिया और ब्राजील, जो कि भारत से तीन गुना के करीब बड़े हैं, खेती योग्य भूमि के मामले में हमसे कमतर हैं। यही नहीं जमीन के अलावा खेती करने वालों की संख्या के मामले में भी भारत दुनिया में अव्वल है। फिर भी तीनों मुख्य खाद्य अनाज गेहूं, चावल और मक्का में से किसी एक की भी पैदावार के मामले में भारत नंबर एक नहीं है। इसके कई मायने निकलते हैं। हो सकता है कि भूमि कम उपजाऊ हो, या किसान पूरी मेहनत से काम नहीं करता हो या फिर खेती से संबंधित कोई और वजहे हैं जिनसे हम पिछड़ जाते हैं। इन तमाम मुद्दों पर चर्चा जरूरी है।
सबसे पहले सवाल जमीन की उर्वरता का। इस मामले में यह जानना काफी होगा कि दुनिया के तमाम मैदानी भू-भागों की तुलना में भारत का मैदानी इलाका सबसे ज्यादा ऊर्वर है। इस मैदानी भू-भाग का बड़ा हिस्सा सिंधु-गंगा और ब्रह्मपुत्र के द्वारा रचा गया है। सिंधु-गंगा और ब्रह्मपुत्र के मैदानी भाग की औसत मिट्टी की गहराई 2 किलोमीटर से ज्यादा है। उसमें से कुछ भाग पर 4 किलोमीटर तक मिट्टी की परत है। यानी कि इस मैदानी भाग की मिट्टी को अगर आप 2 किलोमीटर तक भी खोदेंगे तो मिट्टी ही मिलेगी न की चट्टान। दुनिया के किसी भी हिस्से में किसी भी नदी का मैदानी क्षेत्र मिट्टी की इतनी गहरी परत वाला नहीं है।
अब उस मेहनत की। यहां आशंका जताई जा सकती है कि मेहनत की कमी के कारण ऊपज कम है। लेकिन यह आशंका बेबुनियाद है। भारत में जिस तरह की खेती होती है उसे इंटेंसिव एंड सेडेंटरी एग्रीकल्चर (Intensive and Sedentary Agriculture) कहते हैं। इसका अर्थ होता है औसत किसान के पास जमीन कम होती है। इस कमी को पूरा करने के लिए वो बार बार फसलें उगाता है। वो पूरे परिवार के साथ मिल कर अधिक से अधिक पैदावार हासिल करने के लिए पूरे साल मेहनत करता है। इसलिए मेहनत के मामले में भारतीय किसानों का कोई जोड़ नहीं। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर वह कौन से कारण हैं जिनसे हमारी ऊपज दूसरे देशों से कम है। जब हम बेहतरीन जमीन के मालिक हैं, हमारे पास अमेरिका और अन्य विकसित देशों की तरह सूटकेस फारमर (suitcase Farmer – अमेरिका और कनाडा जैसे देशों में कॉरपोरेट स्टाइल में खेती करने वाले किसान) की अपेक्षा पूरे तन-मन के मेहनत करेन वाले खालिस किसान हैं। फिर भी हम पीछे क्यों हैं।
मोटे तौर पर देखें तो कारण कई हैं और उन पर किसान का बस नहीं। नाकामी की वजहें या तो संस्थागत होती हैं या फिर व्यक्तिगत। सिंचाई सुविधा संस्थागत जिम्मेदारी है तो उसका सही तरीके से इस्तेमाल व्यक्तिगत जिम्मेवारी। उन्नत बीज और अच्छी मशीन को मुहैया कराना सरकार की जिम्मेवारी है और उस उपलब्धता से खेती को उन्नत बनाना किसान की जिम्मेदारी। पर तकनीक कभी यूं ही नहीं आती। उसकी कुछ कीमत होती है। तकनीक बेचने वाले उसे अधिक से अधिक कीमत पर बेचना चाहते हैं और खरीदार कम से कम कीमत देना चाहता है। ऐसे में सरकार नियंता और नियामक की भूमिका निभाती है। समाज और राज्य के हितों को ध्यान में रखते हुए वह ऐसी नीति बनाती है कि तकनीक ईजाद करने वाले को सही मुनाफा मिले और तकनीक को आजमाना किसान के लिए इतना महंगा सौदा नहीं हो कि उसकी हिम्मत जवाब दे जाए। यहां एक बात और ध्यान रखने की है। अगर किसान अपनी फसल का मूल्य खुद निर्धारित कर पाता तो उसे लागत की चिंता कभी नहीं होती। लेकिन भारत में ऐसा नहीं होता। फसल का मूल्य सरकार निर्धारित करती है। ऐसे में यहां सरकार की भूमिका दो स्तर पर अहम हो जाती है। उसकी पहली जिम्मेदारी है फसल के लागत को काबू में रखने का बंदोबस्त करना और दूसरी जिम्मेदारी फसल के लिए लाभदायी मूल्य की व्यवस्था करना है। उसकी दूसरी जिम्मेदारी पर चर्चा फिर कभी। अभी बात कि सरकार खेती में लागत के तत्वों का मूल्य किस तरह तय कर सकती है और करती है। ये सरकार की जिम्मेदारी है कि सिंचाई, बीज, उर्वरक और दूसरी जरूरी चीजों का मूल्य किसानों की पहुंच के भीतर रखे। अब हम जानने की कोशिश करते हैं कि सरकार ने अब तक अपनी इस जिम्मेदारी को पूरा करने की कोशिश किस हद तक की है। शुरुआत सिंचाई व्यवस्था से।

भारत में आधी से ज्यादा खेती वर्षा आधारित होती है। किसान सिंचाई के लिए मानसून का मुंह जोहते हैं। इसी से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि देश में सिंचाई के साधन की क्या हालत है। जहां सिंचाई की सुविधा है वहां भी आधे से ज्यादा भू-भाग में ये सुविधा ट्यूबेल के रूप में है (करीब 57 फीसदी)। मतलब ये कि किसान भूमिगत जल का दोहन या तो बिजली के मोटर से करता है या फिर डीजल पंपसेट से। इस देश में बिजली की उपलब्धता के बारे में आपको बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिये। पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ जैसे कुछेक राज्यों को छोड़कर भारत का कोई राज्य अपनी जरूरत भर भी बिजली पैदा नहीं कर पाता। इसमें भी यह बात स्थापित तथ्य है कि सरकारें खेती की तुलना में शहरी नागरिक जरूरत और उद्योग धंधों के लिए बिजली मुहैया कराने पर ज्यादा जोर देती हैं। तो लब्बोलुआब यह है कि सिंचाई के लिए बिजली बेहद सीमित क्षेत्र में ही उपलब्ध है। इसलिए देश में आधे से ज्यादा ट्यूबेल डीजल पंपसेट से ही चलते हैं। उदारीकरण के इस दौर में जब आप जैसे नियमित आमदनी वाले लोग अपनी डीजल कार, जीप के लिए कटौती करने में लगे होते हैं तो ऐसे में एक सामान्य भारतीय किसान 35 रुपये प्रति लीटर की दर से कितनी देर तक अपने पंपसेट चालू रख सकेगा। ये भी याद रखिये डीजल की महंगाई से आप अपने व्यक्तिगत वाहनों को चलाने से परहेज कर सकते हैं लेकिन किसान पानी की जरूरत में खड़ी फसल को मुरझाते नहीं देख सकता। फिर भी सरकार ना तो उसे कम दर पर डीजल मुहैया कराती है और ना ही डीजल खरीदने के लिए कम दरों पर कर्ज।
सिंचाई के बाद बारी बीज की। यह सारा मसला अब सरकार ने प्राइवेट कंपनियों पर छोड़ दिया है। राष्ट्रीय बीज निगम और राज्य सरकारों के बीज निगम अब मात्र ऐसी संस्थाएं रह गई हैं जिनका वजूद तो है पर प्रासंगिकता नहीं। बीजों की खपत और सरकारी संस्थाओं की बिक्री के आंकड़े को देखने से पता चल जाता है कि निजी कंपनियों की उपस्थिति के बीच आखिर सरकारी एजेंसियां क्या कर रही हैं। बीज को उन्नत बनाने के लिए किये गए अनुसंधान के खर्च के नाम पर ये निजी कंपनियां ऐसे दाम पर बीज बेचती हैं जिन्हें अदा करते वक्त किसान की रूह कांप जाती है। उदाहरण के तौर पर किसान के जिस धान की कीमत बाजार अधिक से अधिक 7-12 रुपये प्रति किलो तक लगाता है उसी के बीज के लिए वही बाजार उससे 700 से 1000 रुपये वसूलता है। आप किसी भी फसल की कीमत और उसके बीज की कीमत का बाजार में आकलन कर लीजिये आपको लगेगा कि लूट किस कदर होती है। फिर भी सरकार निजी कंपनियों को ही ज्यादा पैदावार वाले बीजों (हाई इल्डिंग वेरायटी) के विकास के नाम पर प्रोत्साहित करती है। यहां यह भी बताना जरूरी है कि बीज की महंगी कीमत चुकाने पर भी कोई गारंटी नहीं मिलती। पैदावार हो या नहीं ... किसान की अपनी किस्मत।
उर्वरक के मामले में भी सरकार का चरित्र दोहरा है। आपने उर्वरक को मिल रहे केंद्रीय अनुदान के बारे में सुना होगा। पर तथ्य यह है कि सरकार सिर्फ यूरिया पर ही सब्सिडी देती है। यह सब्सिडी भी किसानों को सीधे ना देकर यूरिया कंपनियों को दी जाती है। यह सब्सिडी की ऐसी विधा है जिसमें सरकार अपनी जेब ढीली करती है कंपनियों को नुकसान से बचाने के लिए। जबकि कायदा यह होना चाहिये कि सरकार की जेब निकला धन सीधे किसानों के पास जाय ताकि वे किसी भी लागत मूल्य पर यूरिया खरीद सकें। पर सरकार ऐसी कोई वित्तीय सहायदा नहीं देती। यह भी एक बड़ा तथ्य है कि यूरिया ही एकमात्र उर्वरक नहीं होता। डी.ए.पी, सिंगल सुपर फास्फेट, जिंक, पोटाश आदि अन्य उर्वरक हैं जिनकी जरूरत मिट्टी और फसल के हिसाब से तय होती है। लेकिन इन सबके लिए किसी भी प्रकार की सब्सिडी का कोई प्रावधान नहीं है। यहां सरकार किसानों को मुक्त बाजार के हवाले छोड़ देती है।
अब बात मशीनीकरण की। भारत में किसान खेती के लिए परंपरागत तौर पर पालतू पशुओं की सहायता लेते रहे। धीरे धीरे जब चारागाह सिकुड़ते गए और पशुपालन की लागत बढ़ती गई तो छोटी आकार की खेती भी मशीन पर आधारित होने लगी। इन मशीनों में मुख्य रूप से ट्रैक्टर, थ्रेसर, पंपसेट और कल्टीवेटर आते हैं। इन्हें अपनेदम पर खरीदना सामान्य किसान के बस की बात नहीं। फिर भी सरकार इनमें से कोई भी मशीन खरीदने के लिए किसी तरह की आर्थिक मदद नहीं देती। ना कोई सब्सिडी और ना कोई अनुदान।
आपने सिलसिलेवार रूप से जाना कि खेती में लागत के जो अवयव हैं उसमें कुछ किसान के हाथ में हैं और कुछ उसके बूते के बाहर की चीज हैं। जो उनके हाथ में है उसमें वह अपना शत प्रतिशत देता है और जिस मामले में वह सरकार पर निर्भर है उसमें सरकार उसे बाजार के हवाले छोड़ देती है। वो बाजार जो लाभ को लूट की हद तक ले जाने की फिराक में रहता है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर वो उपाय क्या हैं जिनसे किसानों की स्थिति सुधर सकती है। उपाय दो तरफा हैं। या तो उपज की कीमत का निर्धारण किसान को करने दिया जाए या जो सरकार उपज की कीमत तय करती है वह लागत के अवयवों का मूल्य इस कदर नियमित और निर्धारित करे कि किसानों को भी मुनाफा हो। इस काम को दो तरीके से अंजाम दिया जा सकता है। पहला तरीका यह है कि खेती के काम आने वाली चीजों जिन्हें ऊपर गिनाया गया है का दाम नियंत्रित करे और दूसरा तरीका है कि दाम भले ही कुछ भी हो उसे खरीदने के लिए किसानों को वित्तीय सहायता दी जाए। याद रखिये वित्तीय सहायता की आशा याचक के रुप में नहीं की जाती। बल्कि इसलिए की जाती है कि उसे किसानों को अपनी उपज का मूल्य निर्धारित करने की आजादी नहीं दी जाती।
यहां आप कहेंगे कि सरकार किसानों को सस्ती दर पर ऋण उपलब्ध कराती है। लेकिन ये सच नहीं है। आइये एक सामान्य उदाहरण से इस स्थिति को समझने की कोशिश करें। इस देश में बैंकों के माध्यम से सरकार कृषि ऋण के प्रवाह को नियंत्रित करती है। इन बैंकों में सभी प्रकार के बैंक शामिल हैं। सरकारी और गैर सरकारी। सरकारी बैंकों की संख्या 225 के आस-पास हैं। इनमें सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक, राष्ट्रीयकृत बैंक, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक और सहकारी बैंक आते हैं। ग्रामीण क्षेत्र में इन्हीं बैंकों की पहुंच है और सरकारी कर्ज इन्हीं के माध्यम से दिया जाता है। आप अगर नौकरी पेशा हैं और मोटरसाइकिल, कार, फ्रिज, टीवी या ऐसा ही कोई गैर उत्पादक यानी उपभोक्ता जरूरत भर के लिए सामान खरीदना चाहते हैं तो ये बैंक बिना किसी हील-हवाला के आपको एक ही दो दिन में इसके लिए कर्ज दे देंगे। इस ऋण पर ब्याज क्या होगा ये आये दिन अखबारों में छपने वाले विज्ञापन से जाना जा सकता है। यही हाल घर खरीदने के लिए दिये जाने वाले ऋण का भी है। हर बैंक चाहे वो सरकारी हो या गैर सरकारी – न्यूनतम दर पर आपको घर खऱीदने के लिए पैसा देने को तैयार मिलेगा। नियम और शर्तों में इतना ढीलापन होता है कि आए दिन आप ऐसे केस के बारे में सुनते व पढ़ते होंगे कि अमुक जगह पर एक ही फ्लैट पर कई बैंकों ने कई व्यक्तियों को ऋण दे दिया था। अमुक जगह पर एक बैंक ने जिस फ्लैट को बंधक रख कर कर्ज दिया था वो फ्लैट था ही नहीं। इस तथ्य को जानिये की यह कोई मानवीय भूल के तहत आने वाली समस्या नहीं है। यह इतने बड़े स्तर पर इस देश में हुआ है और हो रहा है कि वित्त मंत्रालय को इस बारे में बैंकों को सावधानी पूर्वक कदम बढ़ाने का निर्देश जारी करना पड़ा। आपने देखा कि सामान्य शहरी के लिए उपभोक्ता ऋण लेना कितना आसान है। लेकिन किसानों के लिए ऐसा नहीं है।

वर्तमान दौर में किसान के लिए हाथ-पांव उसका ट्रैक्टर है। ट्रैक्टरों का वर्गीकरण हॉर्स पॉवर से किया जाता है। मसलन 25-30 हॉर्सपॉवर या 30-35 और 35-40 हॉर्स पॉवर वगैरह वगैरह। 35 हॉर्स पॉवर श्रेणी का ट्रैक्टर भारत में सबसे ज्यादा बिकता है। भारतीय ट्रैक्टर बाजार में इसका हिस्सा 50 फीसदी से ज्यादा है। ऐसा इसलिए इससे कम क्षमता के ट्रैक्टर भारतीय जमीन के हिसाब से उपयोगी नहीं होते। जबकि 35 हॉर्स पॉवर से ज्यादा ताकतवर ट्रैक्टर जरूरत से ज्यादा उपयोगी और महंगे होते हैं। भारत में सबसे ज्यादा बिकने वाले 35 हॉर्स पॉवर के ट्रैक्टर की कीमत 4-4.5 लाख रुपये के बीच होती है। यहां हर साल चार लाख के आसपास ट्रैक्टर बिकते हैं। इसमें से एक फीसदी ट्रैक्टर ही ऐसे होते हैं जिनका सौदा नकद होता है। यानी भारतीय ट्रैक्टर बाजार का 99 फीसदी कारोबार कर्ज पर निर्भर है। इस तथ्य से आप ये भी अंदाजा लगा सकते हैं कि भारतीय किसान के पास पूंजी की कमी किस कदर है। पूंजीविहीन इस वर्ग के लिए, जो कि ट्रैक्टर जैसी उपयोगी मशीन के लिए ऋण लेना चाहता है, इस देश के बैंक 15 फीसदी से ऊपर की दर से कर्ज देते हैं। कर्ज की ये दर भी दो स्तरीय है। यदि कोई किसान दो लाख रुपये का कर्ज लेना चाहता है तो उसे सामान्य तौर पर एक फीसदी कम दर पर कर्ज दिया जाता है। अगर राशि दो लाख रुपये से ऊपर है तो वो दर 1-1.5 फीसदी बढ़ा दी जाती है। यानी ज्यादा कर्ज पर ज्यादा ब्याज दर। यही नहीं चूंकि ट्रैक्टर अपने आप में उपयोगी वाहन नहीं है। उसे उपयोगी बनाने के लिए उसके साथ कुछ अन्य कृषि उपकरण भी खरीदने होते हैं मसलन ट्रेलर, कल्टीवेटर, थ्रेसर आदि। बैंकों ने ये नियम बना रखा है कि सिर्फ ट्रैक्टर की खरीद के लिए कर्ज नहीं दिया जा सकता। इसके साथ कम से कम तीन अन्य कृषि उपकरण खरीदने भी अनिवार्य होते हैं। इन सब तथ्यों को अगर आप जांचे तो पाएंगे कि 5-5.5 लाख रुपये में ही एक ट्रैक्टर का सौदा हो सकता है।
सरकार खुद यह मानती है कि किसी भी सामान्य खेती के मौसम में जरूरी 20-50 हजार रुपये शुरुआती पूंजी के लिए भी किसान साहूकार की चौखट पर जाता है। ऐसे में उस सरकार को यह कौन और क्यों बताए कि वही किसान ट्रैक्टर जैसी जरूरी चीज के लिए इतने रुपये की व्यवस्था कैसे और कहां से कर पाएगा? ऐसे में कर्ज लेना उसकी मजबूरी है। कर्ज की रकम औसतन 3.5 से 4.5 लाख रुपये होती है और वो भी कड़ी शर्तों पर। ऋण चुकाने की अवधि आमतौर पर 7-9 वर्ष की होती है। साल में इसकी दो किस्ते होती हैं। रबी और खरीफ फसल की कटाई के अनुसार। यह मान कर चलें कि अगर कोई किसान 4 लाख रुपये का कर्ज लेता है तो न्यूनतम 15 प्रतिशत की दर से उसे सालाना 60 हजार रुपये बतौर ब्याज भरने होंगे। आपको मालूम हो कि ब्याज की ये दर तीन चक्रवृद्धि प्रवृति की होती है। इसलिए राशि 60 हजार रुपये से बढ़ जाती है। फिर भी मान लीजिये की कोई किसान साल भर में 60 हजार रुपये तक चुका देता है तो भी उसके कर्ज की मूल रकम 4 लाख रुपये ही रहती है। उसे चुकाने के लिए किसान को और ज्यादा पैसे भरने होंगे। यह कल्पना करना मुश्किल है कि जो किसान अपने खेतीहर जीवन के अधिकांश भाग में 3-4 लाख रुपये की ऐसी पूंजी जमा नहीं कर सका, जिससे वह अपने लिए ट्रैक्टर खरीद सके, वह किसान 60 हजार रुपये से ज्यादा की रकम सिर्फ ब्याज के रूप में कितने दिन चुका पाएगा। अगर कभी किसी भी कारण से वो एक किस्त चुकाने में चूक गया तो ब्याज की वही राशि उसके मूल धन में जुड़ कर अगली बार ज्यादा बड़ी हो जाती है। और कुछेक किसान जो हालात के कारण समय पर कर्ज नहीं चुका पाते हैं उनका हवाला देकर कृषि ऋण की प्रक्रियागत मुश्किलों व कठिनाइयों को बनाए रखने की वकालत की जाती है। आप पाएंगे कि इस देश में न चुकाए जाने वाले कर्ज में कृषि क्षेत्र की सबसे कम हिस्सेदारी है। दबाए गए कर्ज में सबसे बड़ा हिस्सा उद्योगपतियों का है। फिर भी हमारे हुक्मरान किसानों को धोखा देते हैं और उद्योगपतियों के तलवे चाटते हैं।

आप उद्योग संघों के सम्मेलनों में यहां के हुक्मरानों का भाषण सुने तो उनकी बोली से दलाली का ये भाव निकलता है कि उद्योगपति और कारोबारी चिंता नहीं करें। उनकी सुविधा और उन्नति के लिए सरकार हर कदम उठाएगी। किसी भी नीति, नियम और नियंत्रण को उनके हितों के आड़े नहीं आने दिया जाएगा। दलाली की ऐसी मानसिकता वाले यही हुक्मरान जब 15 अगस्त या 26 जनवरी जैसे मौकों पर राष्ट्र की आम जनता से मुखातिब होते हैं, तो राष्ट्रहित में कठिनाई सहने की अपील करते हैं। कहते हैं कि जना का ये कष्ट राष्ट्रहित के लिए आवश्यक आहुति है। हम और आप ऐसी आहुति देने वालों की कतार में थोड़े पीछे खड़े हैं, जबकि देश के किसान सबसे आगली कतार में हैं। इसलिए हम और आप घरफूंक हवन की आंच को उतना महसूस नहीं करते जितना कि इस देश का किसान करता है। वो तथाकथित विकास के लिए सबसे पहले आहुति देता है और आंच भी सबसे ज्यादा उसी को झुलसाती है। लेकिन याद रखिये कल आहुति देने की बारी हमारी और आपकी होगी।
लेखक : मणीष

Saturday, June 16, 2007

ये आंकड़ों के पीछे का गणित है आशीष जी

((कंपनियों के एजेंट मनमोहन के जबाव में आशीष श्रीवास्तव ने अपनी प्रतिक्रिया दी। उन्होंने लेख के एक हिस्से का जिक्र किया और कहा कि दुनिया के सबसे ज्यादा कर्ज लेने वालों की सूची में पहले 19 देश विकसित हैं। बात सही है। लेकिन भाई आशीष आंकड़ों के पीछे का गणित इतना सरल नहीं है। दरअसल गलती मेरी ही थी। मैंने लेख में ये जिक्र नहीं किया कि कर्ज का सही मूल्यांकन कैसे होता है ? कर्ज किसी देश के लिए कब और क्यों खतरनाक बनता है ? और उस लिहाज से जो सूची है उसमें विकसित देश कितने मजे में हैं और विकासशील देश कितनी बुरी तरह फंसे हैं ? इस चिट्ठे में जिक्र इन्हीं बातों का है। लेकिन मैं यहां भी साफ कर दूं कि मैं अर्थशास्त्री नहीं हूं। न ही मैंने कभी अर्थशास्त्र पढ़ा है। फिर भी इन दिनों कोशिश कर रहा हूं उसे समझने की। अगर कहीं कोई और चूक हो जाए तो आप उसे सुधारने का कष्ट करें। आपके सुझावों का स्वागत है।))

भाई आशीष,
आंकड़ों का खेल ही कुछ ऐसा है। इन्हीं आंकड़ों के मानक बदल कर हुक्मरान(नेता और अफसर) जनता को धोखे में रखते हैं। आपने जो सूची भेजी है वो सही है, लेकिन उससे अर्थव्यवस्था की सही स्थिति का मूल्यांकन नहीं हो सकता। कर्ज की भायवहता का अंदाजा सिर्फ और सिर्फ उसी सूची से लगाया जा सकता है, जिसका जिक्र मैंने किया है। आपने जो सूची भेजी है ऐसे देशों की सूची है जिन्होंने कर्ज लिया है। लेकिन इससे ये पता नहीं चलता कि वो कर्ज संबंधित देशों के लिए कितना भारी है। मैंने जिस सूची का जिक्र किया है। वो भी आपको उसी वेबसाइट पर मिल जाएगी। बस आप सकल घरेलु उत्पाद और कर्ज के बीच का अनुपात तलाशने की कोशिश करिये। इसके लिए आपको सर्च इंजन पर GDP-Debt ratio टाइप करना होगा। जिसके बाद आपको ये लिंक मिलेगा। http://en.wikipedia.org/wiki/List_of_countries_by_public_debt
यहां क्लिक करने के बाद आपको पता चलेगा कि कर्जदारों की इस सूची में पहले 25 देशों में सिर्फ और सिर्फ चार विकसित देश (जापान, इटली, ग्रीस और बेल्जियम) शामिल हैं। इन चारों देशों में सबसे ऊपर है जापान। वो भी इसलिये कि 2001 में वहां बड़ा आर्थिक संकट आया। उसका असर पूरी दुनिया पर पड़ा। लेकिन जापान अब धीरे धीरे उस संकट से उबर रहा है।
अब आप पूछेंगे कि कर्ज और जीडीपी के अनुपात से क्या मतलब निकलता है। ये कुछ वैसी ही बात है कि किस हैसियत के शख्स ने कितना कर्ज लिया है। मान लीजिये कि आपकी कमाई एक लाख रुपये महीना है। वैसी सूरत में आप 60 हजार रुपये प्रतिमाह का कर्ज लेकर भी आराम से रह सकते हैं। क्योंकि तब भी आपकी कमाई का 40 फीसदी हिस्सा इतना होगा कि आप खुद को और परिवार को एक अच्छी जिंदगी दे सकें। लेकिन मान लीजिये कि किसी शख्स की कमाई 5 हजार है और वो उसका 60 फीसदी यानी 3 हजार रुपये प्रतिमाह कर्ज चुकाने में खर्च करता है। वैसी सूरत में मात्र 2 हजार रुपये में वो परिवार तो दूर खुद का पेट भी नहीं पाल सकेगा। विकसित और गरीब देशों के कर्ज में भी यही गणित काम करता है।
यहां एक और बात का जिक्र करना जरूरी है। वो ये कि जिन विकसित देशों का नाम कर्जदारों की सूची में है (जिसका मैंने जिक्र किया है)। उनमें से जापान को छोड़ कर बाकी देश या तो यूरोपीय यूनियन का हिस्सा हैं या फिर उत्तरी अमेरिका का। ये वो देश हैं जिनकी करेंसी (यूरो और डॉलर) पूरी दुनिया में चलती है। इस लिहाज से भी उन पर संकट उतना गहरा नहीं है जितना कि कर्ज के जाल में फंसे गरीब देशों पर।
तीसरी बात। ऐसा नहीं कि जिन विकसित देशों पर कर्ज ज्यादा है, वहां कोई हंगामा नहीं मचता। मसलन अमेरिका को ही लीजिये, जो सकल घरेलु उत्पाद और कर्ज के हिसाब से 32वें नंबर पर है। वहां भी इस हालत के लिए लोग जॉर्ज बुश को आड़े हाथों ले रहे हैं। उनके मुताबिक बुश ने बिल क्लिंटन के किये धरे पर पानी फेर दिया। क्लिंटन ने अपने कार्यकाल में कर्ज को काबू में करने की कोशिश की। जब उन्होंने कामकाज संभाला तब जीडीपी की तुलना में कर्ज 67 फीसदी था। तब उन्होंने सत्ता छोड़ी तब वो गिर कर 57 फीसदी हो गया। लेकिन एक बार फिर अमेरिका पर कर्ज बढ़ा है और इस सूची में नजर आ रहा है कि वहां जीडीपी की तुलना में कर्ज 64 फीसदी से ज्यादा है। यही वजह है कि बुश की कड़ी आलोचना हो रही है।
इसलिए कर्ज को जितना जल्द हो सके कम करना चाहिये। अगर हो सके तो खत्म करना चाहिये। आर्थिक आजादी के लिए ये बेहद जरूरी है क्योंकि कर्जदार कभी आजाद महसूस नहीं करता। वो कभी जोखिम नहीं उठा सकता। और ये बात हर किसी पर लागू होती है। आम आदमी से लेकर देशों पर भी।
आपका साथी
समर

Friday, June 15, 2007

कंपनियों के एजेंट मनमोहन

((कुछ दिन पहले चौखंबा पर इस लेख का पहला हिस्सा पेश किया गया। उसमें बात शावेज की हुई। वेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्यूगो शावेज ने अपने देश के ढांचे को पूरी तरह बदल दिया है। अपने देश से वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ को उठा कर बाहर फेंक दिया और अमेरिकी कंपनियों पर नकेल कस दी है। बौखलाहट में पूरा अमेरिकी तंत्र शावेज और वेनेजुएला पर निशाना साध रहा है। मीडिया के सहारे ये तस्वीर पेश की जा रही है कि वेनेजुएला में लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन हो रहा है और उसकी अर्थव्यवस्था चरमरा गई है। लेकिन शावेज भी टिके हुए हैं। वो जानते हैं कि अमेरिका की कमजोर नसों पर वार नहीं किया गया तो टिकना मुश्किल होगा। इसलिए वो उसकी आर्थिक जड़ों को काटने में लगे हुए हैं। शावेज को ये भी मालूम है कि अमेरिकी के खिलाफ अकेले जंग नहीं लड़ी जा सकती। क्योंकि आज अमेरिका एक देश होने के साथ एक परभक्षी संस्कृति भी है। इसलिए अमेरिका के खिलाफ जंग में हर उस देश को शामिल करना होगा जिन्हें उसने तबाह किया है या फिर वर्षों से दबा कर रखा है। लैटिन अमेरिकी देश भी अमेरिका का जुल्म सह चुका है। सभी लैटिन अमेरिकी देश अमेरिका के सताए हुए देशों के फेहरिस्त में शामिल हैं। इसलिए शावेज उन्हें एकजुट करने में लगे हुए हैं। मतलब साफ है कि आज वो एक ऐसी जंग की पहचान हैं .. जिसमें अगर जीते तो दुनिया में सुधार होगा। अगर हारे तो उन्हें इसका मलाल नहीं होगा कि अमेरिका के पिछलग्गू होकर जिंदगी गुजार दी। साथ ही ये मलाल भी नहीं होगा कि आर्थिक गुलामी की बेड़ियों को काटने के लिए कोई पहल नहीं की। हम सब जानते हैं कि जंग में या तो जीत मिलती है या फिर हार। लेकिन हमें ये भी याद रखना चाहिये की युद्ध सिर्फ ताकत के बूते नहीं लड़े जाते .. युद्ध में जीत उसी की होती है जिसकी रणनीति बेहतर हो। अमेरिका के खिलाफ जंग में जीत भी तभी होगी .. जब लोकतंत्र और पूर्ण आजादी में यकीन रखने वाले दुनिया के तमाम देश एकजुट होंगे। भारत की मूल सोच भी पूर्ण आजादी की रही है। उससे बड़ा लोकतांत्रिक देश भी कोई नहीं है। इसलिए उसे ना केवल वेनेजुएला के समर्थन में आना चाहिये बल्कि अमेरिका के खिलाफ जंग का नेतृत्व करना चाहिये। लेकिन ये तब तक नहीं हो सकता, जब तक मनमोहन सिंह जैसे अमेरिका परस्त नेता देश के हुक्मरान बने हुए हैं। आज की कड़ी में चर्चा मनमोहन की... उनकी खतरनाक आर्थिक नीतियों की और उदारीकरण से नई गुलामी की तरफ बढ़ते तेज रफ्तार कदमों की।))



मनमोहन ने हाल ही में कटोरा फैलाया है। मनमोहन जब से किसी हैसियत के शख्स बने हैं कटोरा लेकर घूम रहे हैं। कभी उन्होंने वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ के सामने कटोरा फैलाया तो कभी सीधे अमेरिका के सामने। इस बार उन्होंने अपने ही देश के धनपशुओं से भीख मांगी है। गांधी जी की ट्रस्टीशिप के सिद्धांत का सहारा लेकर। कहा है कि कंपनियां अपने सीईओ की तनख्वाह कम करें और देश की बेहतरी में हिस्सा लें। सोच कर ताज्जुब होता है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का प्रधानमंत्री, एक अरब से ज्यादा लोगों का नुमाइंदा अपने ही देश में याचना कर रहा है। लेकिन हैसियत देखिये कि उद्योगपति ये कह कर उसकी याचना ठुकरा देते हैं कि उनकी कमाई गाढ़ी मेहनत की कमाई है। किसी को हक नहीं है कि उनकी तनख्वाह की सीमा तय करे। ये कंपनियां कौन है? इनके मालिकों का चरित्र क्या है? इस बारे में चर्चा आगे। पहले मनमोहन और उनकी नीतियों पर एक नज़र डालें। 1992 में नरसिंह राव सरकार के दौरान मनमोहन सिंह वित्त मंत्री बने। उसके बाद उन्होंने देश में आर्थिक उदारीकरण का नया दौर शुरू किया। धीरे धीरे देश में विदेशी कंपनियों के लिए तमाम दरवाजे खोल दिये। आर्थिक उदारीकरण के समर्थन में तर्क दिया गया कि जब देश सात से आठ फीसदी की विकास दर हासिल करने लगेगा तो गरीबी खुद ब खुद कम हो जाएगी और धीरे धीरे समाप्त। ये दलील आज भी दी जाती है। अब गरीबी खत्म करने के लिए दस फीसदी की विकास दर जरूरी बताई जा रही है। लेकिन हकीकत तो यही है कि गरीबी खत्म नहीं हुई है। बल्कि अमीरों और गरीबों के बीच की खाई दिनों दिन गहरी हुई है। क्षेत्रीय विषमता भी लगातार बढ़ी है। आंकड़े इसकी गवाही देते हैं।

  • 1993-94 में देश की कुल गरीबी में बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और असम की हिस्सेदारी 68.8 फीसदी थी। 2000 तक पहुंचते पहुंचते ये हिस्सेदारी बढ़ कर 74.4 फीसदी हो गई। साफ है कि ये राज्य विकास की दौड़ में काफी पिछड़ गए हैं। ((एस महेंद्र देव, सेमीनार, 2004)
  • जिन राज्यों में विकास की रफ्तार ज्यादा तेज रही है उनमें से कुछ जिलों में खुदकुशी के मामले में सामने आए हैं। महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब और केरल जैसे राज्य उसी फेहरिस्त में शामिल हैं जहां खेतों में अब मौत की फसल पैदा हो रही है।
  • आर्थिक सुधार लागू करने के बाद से सार्वजनिक क्षेत्रों में कर्मचारियों की तनख्वाह सालाना 5.0 फीसदी की रफ्तार से बढ़ी है। जबकि इस दौर में खेतीहर मजदूरों का वेतन सिर्फ 2.5 फीसदी की रफ्तार से बढ़ा है। ((एस महेंद्र देव, सेमीनार, 2004)
  • यही नहीं राष्ट्रीय सेंपल सर्वे 2004 के मुताबिक शहरों और गांवों में पढ़े लिखे बेरोजगार युवकों की संख्या काफी अधिक है। बेरोजगार युवकों की ये वही फौज है जो हल्की सी आहट होने पर सड़कों पर उतर आती है और हिंसा फैलाने लगती है।



  • यही नहीं उदारीकरण के समर्थक अक्सर ये दलील देते हैं कि विकास दर नौ फीसदी तक पहुंच गई है। लेकिन ऐसा कहते वक्त वो ये भूल जाते हैं कि पिछले एक दशक में बाल मजदूरों की संख्या में दस फीसदी बढ़ोत्तरी हुई है। आज बाल मजदूरों की संख्या १ करोड़ २६ लाख है। ये किसी भी देश के लिए शर्म की बात है।
  • इतना सबकुछ होने के बाद भी विकास की बात होती है। लेकिन वो विकास एक छलावा है। सच यही है कि आज हमारा देश कर्ज के दलदल में दब गया है। 1990-91 में भारत पर बाहरी कर्ज प्रति व्यक्ति 1943 रुपये था। जो 2002-03 में बढ़ कर प्रति व्यक्ति 4863 रुपये हो गया है। यानी बच्चा जन्म लेने से पहले कर्ज से दबा होता है। ((वित्त मंत्रालय की रिपोर्ट-2003)) ये हाल तब है जब भारत की विकास दर लगातार बढ़ रही है और आबादी भी। यानी उससे ज्यादा तेज अनुपात से कर्जा लगातार बढ़ रहा है।
  • 31 मार्च 1995 को भारत पर कुल कर्ज (बाहरी और भीतरी) करीब 632572 करोड़ रुपये था। जो कि 2005-06 में बढ़ कर 3072210 करोड़ रुपये हो गया। यानी 11 साल में करीब पांच गुना बढ़ोत्तरी। ((संसद में वित्त मंत्रालय का जवाब))
  • आज भी हमारे बजट का सबसे बड़ा हिस्सा इसी कर्ज की ब्याज अदायगी पर जाता है। 1960 के दशक में कोठारी कमीशन ने कहा था कि देश को पूरी तरह शीक्षित बनाने के लिए बजट का छह फीसदी हिस्सा शिक्षा पर खर्च करना होगा। हमारी सरकारें एक-दो साल को छोड़ कर कभी इस पर अमल नहीं कर सकीं। लेकिन बजट का बीस फीसदी हिस्सा अब भी कर्ज का ब्याज चुकाने पर खर्च होता है।
  • हालांकि यहां मनमोहन के समर्थक ये दलील देते हैं कि बाहरी कर्ज आर्थव्यवस्था की मजबूती की पहचान है। लेकिन जब भी दुनिया के चोटी के पंद्रह कर्ज के बोझ तले दबे हुए देशों की बात होती है तो उसमें कोई भी विकसित देश शामिल नहीं होता।

अब चर्चा कंपनियों के चरित्र की। आपको याद होगा कि कुछ महीने पहले भारतीय मूल के दुनिया के सबसे बड़े धनपशु लक्ष्मी निवास मित्तल ने यूरोप की स्टील कंपनी आर्सेलर के लिए दावा ठोंका। तब यूरोप में कई देशों में इस दावे के खिलाफ आवाज उठने लगी। लक्ष्मी मित्तल ने बड़ी चतुराई से उसे नस्लवादी मुहिम करार दिया और कहा कि चूंकि उनका नाता भारत से है इसलिए यूरोपीय देश उनके दावे का विरोध कर रहे हैं। यही नहीं तब टीवी चैनलों पर दिये इंटरव्यू में मित्तल ने उम्मीद जताई की भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह फ्रांस दौरे के दौरान वहां के तत्कालीन राष्ट्रपति ज्यां शिराक से इस बारे में बात करेंगे। यही नहीं तत्कालीन वाणिज्य मंत्री कमलनाथ ने आनन-फानन में लक्ष्मी मित्तल के समर्थन में आवाज बुलंद करनी शुरू कर दी। लेकिन आज उसी लक्ष्मी मित्तल से कहिये कि वो देश में निवेश करे तो जवाब मिलता है कि अगर टैक्स में छूट दोगे, जमीन खरीदने में मदद करोगे और तमाम दूसरी तरह की रियायतें दोगे तो निवेश किया जाएगा। वो दो जरूरतमंद राज्यों झारखंड और उड़ीसा के बीच मोलभाव करता है।
दूसरा उदाहरण रिलायंस से है। आपको याद होगा कि नंदीग्राम और सिंगूर में हुई हिंसा के बाद सेज का दायरा तय करने का सरकार ने फैसला लिया। ये घोषणा की गई कि कोई भी सेज पांच हजार एकड़ से ज्यादा बड़ा नहीं होगा। लेकिन मुकेश अंबानी की रिलायंस ने दस हजार एकड़ के सेज के दो प्रस्ताव दिये थे। एक मुंबई के करीब और दूसरा गुड़गांव में। उसके एक नुमाइंदे ने कहा कि सेज का दायरा कम करने का फैसला अंतिम नहीं है और उस पर विचार करना चाहिये। इस फैसले के तुरंत बाद फिर कमलनाथ ने बयान दिया कि सेज पर नीति बदली जा सकती है। आखिर क्यों? क्या सिंगूर और नंदीग्राम में जो किसानों का लहू बहा उसका कोई मोल नहीं है? या फिर कमलनाथ इस देश की जनता के नुमाइंदे हैं या रिलायंस जैसी कंपनियों के एजेंट?
इतना सबकुछ करने के बाद भी जब ये कंपनियां प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की याचना को ठुकराती हैं तो आप इनके चरित्र का अंदाजा लगा सकते हैं। दरअसल कहने को कारोबारियों का ताल्लुक किसी धर्म, जाति और देश से हो सकता है लेकिन उनका मकसद एक ही होता है। वो मकसद है ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना। वो मुनाफे के लिए किसी को भी दांव पर लगा सकते हैं। रिश्तों को, इंसानों को और देश को भी। ऐसे में ये हुक्मरानों पर निर्भर करता है कि कारोबारियों को कब, क्यों और कितनी छूट दी जाए? और जरूरत के हिसाब से कितनी नकेल कसी जाए? लेकिन हमारे देश के हुक्मरान भांट में तब्दील हो चुके हैं। ऐसे भांट जो कंपनियों की धुनों पर थिरकते हैं। कारोबारियों के आगे-पीछे दुम हिलाते हैं और अपने देश की जनता के साथ विश्वासघात करते हैं। आज के दौर में इन एजेंटों में सबसे ऊपर चल रहे हैं मनमोहन सिंह।
यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि मनमोहन सिंह की अगुवाई में हमारा देश पूर्ण आजादी की तरफ कदम बढ़ाने की बजाए गुलामी की तरफ कदम बढ़ा रहा है। एक ऐसी गुलामी की तरफ .. जहां नुमाइंदा हम चुनेंगे लेकिन वो हमारे लिए काम नहीं करेंगे। जहां कहने को देश पर नियंत्रण जनता का होगा.. लेकिन राज कंपनियां करेंगी, बड़ी कंपनियां। कहने को कानून तब भी होगा .. लेकिन चंद धनपशुओं की जेब में। आज हमने मनमोहन सिंह की नीतियों पर वार नहीं किया तो वो दिन दूर नहीं जब हम चारों तरफ से बंधें होंगे। अपने ही देश में लाचार.. खुद पर तरस खाते हुए .. और ये अफसोस करते हुए कि काश हमने कुछ समय पहले अक्ल से काम लिया होता और अपने हक़ के लिए आवाज़ बुलंद की होती।

((इस विषय पर चर्चा जारी रहेगी। आगे हम बात करेंगे अटल बिहारी वाजपेयी जैसे चेहरों की जो प्रधानमंत्री बने तो एक जन नेता थे, लेकिन आखिर तक आते आते कंपनियों के एजेंट में तब्दील हो गए। आपको याद होगा कि उनके दौर में प्रमोद महाजन देश के संचार मंत्री थे। लेकिन उन्होंने बीएसएनएल, एमटीएनएल और वीएलएनएल के विस्तार से ज्यादा रिलायंस कम्यूनिकेशन के विस्तार पर ध्यान दिया। यहां तक कि वाजपेयी जैसे प्रधानमंत्री जिसे देश की जनता ने चुन कर भेजा था, रिलायंस का प्रचार करते नजर आए। उन्होंने रिलायंस कम्यूनिकेश का उद्घाटन किया और उस तमाशे को पूरे देश ने देखा। दूरदर्शन पर। उसी का नतीजा है कि आज वीएसएनएल पर टाटा का कब्जा है। बीएसएनएल और एमटीएनएल से ज्यादा ताकतवर रिलायंस कम्युनिकेशन और भारती टेली हैं। आखिर दूर संचार की तीनों सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के पतन की वजह क्या है ? आखिर क्यों एक जन नेता सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने के बाद कंपनियों का गुलाम बन जाता है ? आखिर क्यों जन्म लेती है मनमोहन सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी जैसी गुलाम मानसिकता ? और आखिर इस मानसिकता और साजिश के खिलाफ युद्ध का तरीका क्या होगा ? मुद्दे बेहद गंभीर हैं और इन पर हम सबको मिल कर सोचना चाहिये, बहस करनी चाहिये। हमें आपके सुझावों और विचारों का इंतजार है।))

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