Tuesday, June 5, 2007

कौन भुगतेगा खामियाजा?

बिहार के “सुपर 30” को बंद करने का फैसला ले लिया गया। कुछ लोगों की मूर्खता और लालच ने एक सकारात्मक पहल को बीच में ही रोक दिया। अब कई गरीब बच्चे कामयाबी का शिखर नहीं छू सकेंगे। कई सपने अधूरे रह जाएंगे। ये सब होगा एक नादानी से। दरअसल “सुपर 30” का बंद होना सिर्फ एक संस्था का बंद होना नहीं है बल्कि इसके कई मायने हैं। इसे समझने के लिए हमें पांच साल पीछे जाना होगा। उस समय गणितज्ञ आनंद कुमार और पुलिस अफसर अभयानंद ने मिल कर “सुपर 30” की नींव रखी। आनंद कुमार कुछ साल पहले पैसे की कमी के कारण ही कैंब्रिज यूनीवर्सिटी नहीं जा सके थे। ये बात उन्हें हमेशा कचोटती रही। यही वजह है कि उन्होंने चंद ही सही, जरूरतमंद लड़कों की जिंदगी संवारने का फैसला लिया। एडीजीपी अभयानंद के साथ मिल कर “सुपर 30” शुरू करने का मकसद यही था। गरीब बच्चों को ऐसी ट्रेनिंग देना, जिससे वो आईआईटी में दाखिला ले सकें। इसके लिए “सुपर 30” में दाखिले का टेस्ट हुआ। कुछ ऐसे लड़के चुने गए, जिनके पास दीमाग था, हौसला और जुनून भी मगर पैसे नहीं थे। फिर खुद आनंद कुमार और अभयानंद ने छात्रों को पढ़ाना शुरू किया।
“सुपर 30” में सबकुछ गुरूकुल की तर्ज पर था। वहां रहने वाले छात्रों से फीस नहीं ली जाती थी, बल्कि रहने और खाने का बंदोबस्त भी किया जाता। आनंद कुमार गणित पढ़ाते जबकि नौकरी से समय निकाल कर अभयानंद फिजिक्स पढ़ाते। उनकी मेहनत से पहले ही साल अच्छे नतीजे निकले। 30 में 18 छात्र आईआईटी के लिए चुने गए। अगले साल ये आंकड़ा बढ़ कर 22 और उसके बाद 26 तक जा पहुंचा। पिछले दो साल से तो नतीजे हैरतअंगेज रहे हैं। 30 में से 28-28 बच्चों ने आईआईटी की कड़ी परीक्षा पास कर ली। ये सभी गरीब बच्चे हैं और सभी जातियों के। संस्थान के मुताबिक इस बार ज्यादातर लड़के पिछड़ी जातियों के हैं। इससे कई फायदे हुए। आईआईटी को ऐसे छात्र मिले जो इंसानियत का सबक सीख कर पहुंचे हैं। आने वाले दिनों में वो नई परंपरा शुरू कर सकते हैं। वहीं इन बच्चों की कामयाबी से ना जाने कितने और गरीब बच्चों का हौसला बढ़ा होगा। ना जाने कितनी उम्मीदों ने अंगड़ाई ली होगी। पढ़ने लिखने वाले गरीब बच्चों में ये अहसास जगा होगा कि चाहत में वजन हो तो कुछ भी हासिल किया जा सकता है। आनंद कुमार और अभयानंद की इस कोशिश की हर जगह तारीफ हो रही थी। राज्य के मुखिया नीतीश कुमार ने आनंद कुमार से बात भी की ताकि इस कोशिश को व्यापक फलक दिया जा सके। बिहार से और अधिक बच्चे आईआईटी और दूसरे इंजीनियरिंग संस्थानों में पहुंचे। राज्य और देश के विकास में सार्थक भूमिका निभाएं। लेकिन लगता है कि ये कोशिश किसी बड़ी साजिश का शिकार हो गई है। बात बीते गुरूवार की है। खबर आई कि इस बार “सुपर 30” के 28 छात्रों का आईआईटी में दाखिला हुआ है। सारे अखबारों ने ये खबर छापी और टीवी चैनलों ने भी हेडलाइन बना कर खबर चलाई। दो दिन बाद प्रणव प्रिंस, गौरव और अभिषेक नाम के तीन छात्रों ने बयान दिया कि उनकी कामयाबी में प्राइवेट कोचिंग इंस्टीट्यूट का हाथ भी है। खबर चौंकाने वाली रही। उससे भी अधिक चौंकाने वाला रहा आनंद कुमार और अभयानंद का “सुपर 30” को बंद करने का फैसला।
सबसे पहले हम मान लेते हैं कि प्रणव प्रिंस, गौरव और अभिषेक ने “सुपर 30” में आने से पहले कोचिंग इंस्टीट्यूट में पढ़ाई की थी। अगर ये सही है तो इससे एक बात साफ होती है। वो ये कि तीनों लड़के उतने गरीब नहीं थे, जितने गरीब छात्रों की मदद के लिए आनंद कुमार और अभयानंद ने संस्था शुरू की थी। अगर वो बच्चे वाकई गरीब होते तो उन्हें अपनी मजबूरी का अहसास हमेशा रहता। ऐसी हरकत कतई नहीं करते। यही नहीं जो शख्स फायदे के लिए झूठ का सहारा ले सकता है वो उससे भी ओछी हरकत कर सकता है। फिर अफसोस क्यों और किस लिये?
अब ये सवाल कि अगर इन तीनों छात्रों ने किसी कोचिंग इंस्टीट्यूट में पढ़ाई की तो सारा क्रैडिट “सुपर 30” को क्यों दिया जाए? बात सही है। लेकिन क्या आनंद कुमार और अभयानंद ने ये पहल क्रैडिट के लिए की? क्या उन्होंने ये सोचा था कि सुपर 30 को कामयाबी मिलेगी तो देश विदेश में उनका डंका पिटेगा? जहां तक मुझे लगता है उन्होंने नि:स्वार्थ भाव से पहल की थी। उनकी मंशा ना तो पैसा कमाने की रही और ना ही नाम। फिर किसी और के धोखे से दोनों अपना सपना क्यों तोड़ रहे हैं। वो सपना जिससे कई और सपने भी जुड़े हैं।
यहां एक और पहलू भी है। वो ये कि हो सकता है कि तीनों छात्र कोचिंग इंस्टीट्यूट्स के बहकावे में आ गए हों? उन्हें लाख, दो लाख रुपये या फिर उससे भी ज्यादा का लालच मिला हो। अगर ऐसा है तो फिर जरूरत कोचिंग इंस्टीट्यूट्स के जाल को काटने की है। वो जाल तभी कटेगा जब हर जिले में एक “सुपर 30” जैसा संस्थान होगा और आनंद कुमार और अभयानंद जैसे टीचर।
ये सही है कि प्रणव प्रिंस, गौरव और अभिषेक की करतूत ने दोनों गुरुओं को हिला कर रख दिया है। आनंद कुमार ये सोच नहीं पा रहे हैं कि जिस लड़के को अपने पास सात महीने तक रखा। आईआईटी में दाखिला दिलाने के लिए दिन रात मेहनत की .. वो ऐसा कैसे कर सकता है? इतना ही दर्द अभयानंद को भी हुआ होगा। लेकिन उन्हें इस बात की खुशी होनी चाहिये कि पांच साल में 150 छात्रों में से सिर्फ तीन ने ही धोखा दिया है। हमारे समाज की जो हालत है और जिस तरह की खतरनाक सोच फैल रही है उसे देखते हुए धोखे का ये आंकड़ा बेहद कम है। इसलिए आनंद कुमार और अभयानंद से सबकी यही गुजारिश है कि वो “सुपर 30” बंद नहीं करें .. बल्कि उसे और मजबूत करें। ताकि जिन लोगों ने भी हमला किया है उन्हें जवाब दिया जा सके।
बात खत्म करने से पहले एक वाकये का जिक्र जरूरी है। कुछ दिनों पहले दो-तीन दिन के लिए बिहार में अररिया जिले के शेखपुरा गांव जाने का मौका मिला। शादी देहात में थी। ऐसे गांव में जहां आजादी के साठ साल बाद भी बिजली का खंबा नहीं गड़ा है। सड़क नहीं पहुंची हैं। जब बारात पहुंची तो खाना परोसने के लिए कई अजनबी चेहरे पहुंच गए। 16-21 साल की उम्र के लड़के। पैंट शर्ट पहने हुए। वो सभी बड़े सलीके से खाना परोस रहे थे। मैंने अपने साथी से पूछा कि ये लड़के कौन हैं और पिछले दो दिन में इनमें से एक भी चेहरा नजर क्यों नहीं आया। दोस्त ने बताया कि वो सभी बेहद गरीब घरों के लड़के हैं और पास ही के फॉर्बिसगंज में पढ़ते हैं। कोई स्कूल में है तो कोई कॉलेज में। ये सभी पढ़ाई के लिए पैसा घर से नहीं मंगाते। बल्कि शादी-ब्याह, तीज त्यौहार पर काम करते हैं। 2-3 घंटे की मेहनत से उन्हें एक दिन का खाना मिल जाता है और 100-150 रुपये। इससे कॉपी किताब का खर्च भी निकल आता है। ऐसे न जाने कितने लड़के अपने गांव, कस्बे और शहर में सपनों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। अगर उन सबके पास अभयानंद और आनंद कुमार जैसे गुरू और मार्गदर्शक होते तो आज दुनिया बदल गई होती। इसलिए अभयानंद और आनंद कुमार से एक बार फिर यही गुजारिश है कि “सुपर 30” को बंद करने की बजाए हो सके तो उसे मजबूत करें।

2 comments:

Manish Kumar said...

बहुत अच्छी तरह से अपनी बात कही है आपने । दरअसल प्रसिद्धि लालच भी साथ ले आती है। शायद उन बच्चों को भी यही रोग लगा होगा । आशा है ये शिक्षक अपने निर्णय पर पुनर्विचार करेंगे।

आलोक said...

आपकी प्रविष्टि के ऊपर शून्य में टिप्पणी की है। इन दो महात्माओं को शत् शत् नमन।

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