Friday, June 29, 2007

"विकल्प नहीं है तो अनुकल्प से काम चलाइए"

राष्ट्रपति पर चल रही बहस में साथी विचित्र मणि के लेख पर विप्लव भाई ने कई गंभीर सवाल उठाए हैं। शुरू से ही धर्म और हिंसा की सियासत करने वाली पार्टी के नुमाइंदे को कैसे सही ठहराया जा सकता है ? जो पार्टी गुजरात में नरसंहार की जिम्मेदार है उसके नुमाइंदे को इस देश के सर्वोच्च पद पर कैसे बिठाया जा सकता है ? सवाल और भी हैं और अब साथी विचित्र मणि ने विप्लव भाई के सवालों पर अपना जवाब भेजा है।

प्रिय विप्लव भाई,
जिस समय मैं यह लेख लिख रहा था, यह बात मेरे मन में ये शंका थी कि अटल बिहारी वाजपेयी का उदाहरण प्रस्तुत हो सकता है। बावजूद इसके लिखा तो इसलिए नहीं कि भैरों सिंह शेखावत भारतीय राजनीति और इतिहास के आदर्श पुरुष हैं। यह ठीक है कि हम दलीय राजनीतिक व्यवस्था का हिस्सा हैं और हमारे लोकतंत्र की वह एक अहम कड़ी है। लेकिन जब राष्ट्रपति के चुनाव का सवाल आता है, तो उसे दलीय जोड़ तोड़ से ऊपर रखकर आंकने की जरूरत होती है। राष्ट्रपति पद के लिए इस बार कांग्रेस की अगुवाई में जिस प्रतिभा पाटील को मैदान में उतारा गया है, उन प्रतिभा जी से तुलना करने पर शेखावत मीलों आगे नजर आते हैं।
रही बात विचारधारा से दशकों तक जुड़े रहने की, तो विप्लव भाई, उदाहरण तो यही बताते हैं कि समता मूलक समाज बनाने वाले नाम की पार्टियों में भी कितने अच्छे लोग हैं। उंगली पर गिन कर देखिए, दोनो हाथों की उंगलियां ज्यादा पड़ जाएंगी। एक उदाहरण लीजिए। मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी में अमर सिंह भी हैं। कल अगर तीसरा मोर्चा कहीं सेकुलरिज्म के नाम पर अमर सिंह को ही राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बना देती तो क्या पार्टी की समाजवादी विचारधारा के नाम पर उनका समर्थन किया जा सकता था। फिर अमर सिंह की छोड़िये, जिनका कोई राजनीतिक दीन ईमान ही नहीं है। लोग कहते हैं, हालांकि मैं नहीं मानता, कि कम्युनिस्टों से ज्यादा विचारधारा और आदर्श से जुड़ा कोई नहीं होता। लेकिन पश्चिम बंगाल में बुद्धदेव भट्टाचार्य जिस आदर्श का परिचय दे रहे हैं, उसे आप क्या कहेंगे। कहां चले जाते हैं सर्वहारा के सृजनहार। आखिर टाटा या सलेम ग्रुप के लिए बुद्धदेव से लेकर सीताराम येचुरी और प्रकाश करात तक क्यों किसान विरोधी भाषा समवेत स्वर में बोलने लगते हैं। गुजरात में मोदी ने बेगुनाह मुसलमानों को मरवाया, पश्चिम बंगाल में बुद्धदेव ने दीन हीन किसानों को। क्या फर्क है दोनो में। जरा बताइए। और हां, जो किसान मारे गये हैं ना पश्चिम बंगाल में, उनमें बहुतेरे मुसलमान भी हैं। जी हां, मुसलमान, जिनकी आड़ लेकर इस देश में बहुतों की सेकुलर दुकान चलती है। लेकिन साठ साल में मुसलमानों का भला कैसे हो, इसके बारे में मुकम्मल एजेंडा उनके पास नहीं है। और चलते चलते बात कांग्रेस की। पीछे मुड़कर देख लीजिए, कांग्रेस धर्म के नाम पर दंगों में अपनी साजिश की वजह से बेगुनाहों के खून से रंगी नजर आएगी। चाहे मेरठ का दंगा हो या भागलपुर का या फिर दिल्ली में सिख विरोधी दंगा। कांग्रेस हर जगह जल्लाद के कटघरे में खड़ी दिखेगी। इस तरह देखिए तो कांग्रेस, भाजपा, कम्युनिस्ट सभी एक ही चेहरे के अलग अलग क्लोन नजर आते हैं। बस नजरों का धोखा है कि हम उन्हें गलत मानते हैं।
विप्लव भाई, देश की मौजूदा राजनीति से लोगों का मोह भंग हो चुका है। लोग चाहते हैं, एक नई राजनीति की शुरुआत हो। लेकिन जब तक ये प्रयास किसी अंजाम तक नहीं पहुंचता या यूं कहें कि कोई सार्थक विकल्प पेश नहीं होता, तब तक हमें छोटे छोटे अनुकल्पों से ही काम चलाना होगा। राष्ट्रपति पद के चुनाव में भैरों सिंह शेखावत फिलहाल वैसे ही एक अनुकल्प हैं।
आपका विचित्र मणि

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