Tuesday, July 10, 2007

खामोश हुई संसद की सबसे मुखर आवाज

(चंद्रशेखर जी देश के नेता और पूर्व प्रधानमंत्री बाद में थे, हमारे सांसद पहले थे। उन्होंने देश की राजनीति में अपने स्वभाव और विचारधारा के बूते लीक से हटकर जगह बनायी। उनके निधन के बाद बेशक राजनीति में एक शून्य पैदा हुआ, लेकिन राजनीति को बदलने का जो माद्दा उनमें था, उसका भरपूर इस्तेमाल उन्होंने नहीं किया। उनकी मृत्यु के बाद उनके राजनीतिक उत्कर्ष और गिरावट को रेखांकित करता पेश है हमारे साथी विचित्रमणि का ये लेख।)


चंद्रशेखर जी ने अपनी जेल डायरी में लिखा है कि जुलाई का महीना उनकी जिंदगी में हमेशा नयापन लेकर आया। उसी महीने में गांव से बाहर पढ़ने के लिए गये, उसी महीने में सियासत की राह पर उनके मजबूत कदम बढ़े, उसी महीने में जिंदगी की नई अनुभूतियों से दो चार होना पडा। लेकिन नियति का खेल देखिए कि उसी जुलाई महीने में वो एक ऐसी यात्रा पर निकल पडे, जिसका कोई आदि-अंत नहीं है। हर जन्म की सरहद मौत से मिलती है। चंद्रशेखर ने भी अस्सी साल की उम्र होते होते इस दुनिया को राम राम कह दिया। और जाते जाते छोड़ गये वो सवाल, जो संसद से लेकर सड़क तक हर मंच पर वो हुक्मरानों से पूछते रहे। पीछे छोड़ गये वो यादें, जिनमें गरीबी और बेबसी से मोर्चा लेती जन्मजात विद्रोही वाली उनकी छवि बैठी है। पीछे छोड़ गये वो संकल्प, जो याद दिलाता है कि सत्ता ही सब कुछ नहीं होती। बल्कि सत्ता के गलियारों के बीच सिद्धांतों और मूल्यों की कीमत कहीं ज्यादा होती है। ये दूसरी बात है कि सत्ता की गूंज में सिद्धांतों की आवाज अक्सर दब जाती है।
पिछले ढाई साल से चंद्रशेखर बीमार चल रहे थे और बीमारी भी ऐसी वैसी नहीं, बल्कि शरीर के अंग अंग को तोड़ देने वाला असाध्य रोग कैंसर। उस कष्ट और पीड़ा से जितनी निश्छल मुक्ति मौत दिला सकती थी, उतनी और कोई दवा नहीं। चंद्रशेखर जी तो मुक्त हो गये लेकिन समाज के आखिरी आदमी की जो आवाज वो उठाते रहे, वो अब कौन उठाएगा। जिस विपदा और वेदना की चक्की में देश का किसान और खेतिहर मजदूर समाज पिसता रहा, उस समाज को अन्याय से कौन मुक्ति दिलाएगा। ये कोई अरण्यरोदन नहीं है और ना ही मृत्यु के बाद लिखा गया महज एक श्रद्धांजलि लेख। ये उन सवालों से टकराने की कोशिश है, जो चंद्रशेखर के जाने के बाद पैदा हुए शून्य से उपजे हैं।
बेहद सामान्य परिवार में पैदा हुए चंद्रशेखर का बचपन अभाव में गुजरा था। जवानी उस अभाव की बेचैनी को पूरे समाज के कैनवास पर ढालने में गुजरी और उसी संघर्ष, द्वंद्व और जद्दोजहद के बीच से निकला वो चंद्रशेखर, जो समाजवादी समाज बनाने का सपना देखता था। ३५ साल की उम्र में संसद की दहलीज पर पहली बार कदम रखने वाले उस चंद्रशेखर में ठेठ देसी दृढ़ता थी, समाजवादी आंदोलन के शिखर पुरुष आचार्य नरेंद्र देव का शिष्यत्व था, गांधी की मान्यताओं से पैदा हुई गहरी दृढ़ता थी और अन्याय के खिलाफ मोर्चाबंदी के लिए मार्क्स जैसी तीखी चिंतन शैली। उसी भरोसे के बूते चंद्रशेखर ने चीन युद्ध के बाद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु को राज्यसभा में कटघरे में खड़ा कर दिया। संघर्ष से पैदा हुए साहस का ही नतीजा था कि कांग्रेस में शामिल होने के बावजूद चंद्रशेखर कभी कांग्रेसी नहीं बन पाए। कांग्रेसी यानी जो आलाकमान कहे, वो सर माथे पर रखने वाली मानसिकता। बैंकों के राष्ट्रीयकरण से लेकर राजा महाराजाओं को दी जाने वाली सुविधाएं खत्म करने तक हर समाजवादी फैसले पर इंदिरा गांधी का साथ दिया लेकिन जब गरीबी हटाओ का नारा देकर सत्ता में लौटीं इंदिरा गांधी ने अपने वादों को भुला दिया तो चंद्रशेखर आदि विद्रोही भाव से अपने समय की सबसे शक्तिशाली नेता के सामने चट्टान की तरह खडे हो गये। उस सबसे ताकतवर महिला के खिलाफ, जिसे किसी ने दुर्गा बताया तो किसी ने भारत का पर्यायवाची। ये वो दौर था, जब चंद्रशेखर चाहते तो उनका एक बयान उन्हें इंदिरा गांधी सरकार में माननीय कैबिनेट मंत्री बना सकता था। लेकिन आपातकाल के साये में जब लोकतंत्र पर ही ग्रहण लगा तो चंद्रशेखर के पास दो विकल्प थे। या तो वे इंदिरा गांधी की जयजयकार करके सत्ता का सुख भोगते या फिर लोकशाही की हिफाजत के लिए जेल जाते। चंद्रशेखर ने दूसरा रास्ता चुना। १९ महीने के लिए उनकी ही पार्टी की सरकार ने उन्हें जेल में डाल दिया। और यही से उस चंद्रशेखर का जन्म हुआ, जो अपने सैद्धांतिक मान्यताओं और आचरण में आजादी के आंदोलन के तपे तपाए नेताओं पर भी भारी पड़ता था। जिसके बारे में ये धारणा लोगों के जेहन में बैठ गयी कि चंद्रशेखर जी के लिए तो किसी पद का महत्व उनके चप्पल के टूटे धागे से ज्यादा नहीं है।
लोगों के जुड़ने की उसी कड़ी में जब १९८३ में उन्होंने अपने पैरों से पूरे देश को नाप दिया, तब लोगों को ये आस बंधी कि राजनीतिक अंधेरे के बीच एक नेता ऐसा है, जो उम्मीदों का चिराग जलाए घूम रहा है। चंद्रशेखर भी बेहद आशान्वित थे। जन समर्थन और लोगों के प्यार के उसी प्रवाह में वे कह गये कि प्रधानमंत्री पद के वे सबसे योग्य उम्मीदवार हैं और भारत को वे इंदिरा गांधी या किसी दूसरे नेता से कहीं ज्यादा बेहतर समझते हैं। लेकिन डेढ़ साल बीतते बीतते जब इंदिरा गांधी की हत्या के बाद लोकसभा के चुनाव हुए तो चक्र बीच हल लिए हुए उनका किसान दम तोड़ चुका था। पार्टी तो बुरी तरह हारी ही, खुद चंद्रशेखर भी बलिया से चुनाव हार गये।
उस करारी हार के बाद ही चंद्रशेखर की राजनीति में निर्णायक मोड़ आया। हमेशा सिद्धांतों के ऊंचे टीले पर खड़े रहने वाले चंद्रशेखर जोड़ तोड़ की राजनीति के कीचड़ में फंसने लगे। उस कीचड़ में ही प्रधानमंत्री पद का एक कमल उनकी जिंदगी में चार महीने के लिए खिला। लेकिन सत्ता के शिखर पर पहुंचने के लिए चंद्रशेखर ने अपनी उच्च राजनीति को रसातल में मिला दिया। चंद्रशेखर जल्द ही पूर्व प्रधानमंत्री कहलाने लगे। एसपीजी सुरक्षा का तामझाम मिल गया। जनता का नेता अब नेताओं का नेता हो गया। आम लोगों से उनकी दूरी बढ़ती गयी और संसद में कभी कभार भाषण देने तक ही उनकी राजनीति सिमट कर रह गयी। दिल्ली के रेशमी माहौल में वो चंद्रशेखर गुम गया, जो गांव देहात और उसकी खारी खट्टी मिट्टी से जुड़ा था। इसीलिए उनके अंतिम संस्कार में ज्यादातर नेताओं और कमतर आम लोगों की मौजूदगी ही बता गयी कि वो चंद्रशेखर अभी मरे नहीं हैं, जिन्हें इस देश की उपेक्षित-वंचित जनता अपना नेता मानती रही है।

लेखक- विचित्रमणि

Saturday, July 7, 2007

देश को बीमार बनाती सरकार

देश के दो क्षेत्र सबसे अधिक उपेक्षित रहे हैं। पहला शिक्षा और दूसरा स्वास्थ्य। हर साल न जाने कितने लोग धीमे धीमे मौत की तरफ कदम बढ़ा रहे हैं। खराब सेहत और इलाज नहीं मिलने से। लेकिन सत्ता में बैठे लोगों का हाल ये है कि उन्हें आम लोगों की सेहत को लेकर कोई फिक्र नहीं। वैसे भी हमारे देश के हुक्मरान आम जनता के ख्याल से नीतियां नहीं बनाते बल्कि चंद खास लोगों को ध्यान में रख कर काम करते हैं। स्वास्थ्य सेवा को लेकर सरकारी उदासीनता पर हमारे साथी विचित्रमणि ने नई रोशनी डाली है।


डिजरायली ने कभी कहा था कि झूठ तीन तरह के होते हैं- एक सामान्य झूठ, दूसरा सफेद झूठ और तीसरा सांख्यिकी। इसलिए दुनिया की एक महाशक्ति बनने को उतावले या मरे जा रहे इस देश में बीमारी की मार से दुर्बल होते लोगों की संख्या पर बात करनी बेमानी है। सरकारी आंकड़े तो सरकार की सुविधा के हिसाब से होते हैं और दूसरे आंकडों को सरकार मानती नहीं। इसलिए इस देश में स्वास्थ्य के तीखे सवालों का जवाब आंकडों के आधार पर नहीं, बल्कि अनुभव की बिनाह पर खोजे जाने चाहिए। कंप्यूटर पर इस लेख को पढते हुए आप अपने जेहन को खंगाल लीजिए कि अगर मोटी रकम खर्च करने को आप तैयार ना हुए हों तो सुविधा से अपनी या किसी अपने की इसी अस्पताल में आप ठीक ठाक इलाज करा पाए हों। नहीं ना।
इस सिलसिले में कुछ समय पहले एक जाने माने सर्वे संस्था ने आम लोगों से ये जानने की कोशिश की थी कि देश में स्वास्थ्य सेवा की हालत कैसी है। आपको यकीन नहीं होगा कि लोगों ने पुलिस के बाद सबसे ज्यादा भ्रष्ट स्वास्थ्य से जुड़े कर्मचारियों और डॉक्टरों को बताया। उसमें भी डॉक्टरों के बारे में पूछा गया तो ७७ फीसदी लोगों ने माना कि डॉक्टर बेहद भ्रष्ट और संवेदनहीन हो गये हैं जबकि मेडिकल स्टाफ के बारे में ६७ फीसदी लोगों की राय थी कि वो रोगियों का खयाल नहीं रखते।
यकीकन आप भी इससे पूरा इत्तफाक रखते होंगे कि जिस डॉक्टर को आप भगवान के बराबर मानते हैं, वो आपको इंसान भी नहीं समझते। लेकिन सच पूछिए तो क्या देश को बीमार बनाने या बीमार देश को इलाज दे पाने की नाकामी का ठीकरा सिर्फ डॉक्टरों और मेडिकल स्टाफों के सिर पर ही फोड़ा जा सकता है। बिल्कुल नहीं, क्योंकि आपके सपनों की सरकार भी आपके स्वास्थ्य को लेकर थोडा भी संवेदनशील नहीं है। अगर होती तो महान मनमोहन सिंह के अतिमहान वित्त मंत्री पी चिदंबरम के बजट में स्वास्थ्य और खासकर ग्रामीण और पिछड़े इलाकों की हालत पर फोकस किया गया होता। लेकिन ऐसा था नहीं। हर भारतीय पर स्वास्थ्य के लिए सालाना करीब १०५० रुपये खर्च किये जाते हैं लेकिन उनमें सरकार की हिस्सेदारी महज १८४ रूपये है। यानी करीब साढ़े सत्रह फीसदी। सरकार के इस योगदान के औसत में आम आदमी की हिस्सेदारी इसलिए कम हो जाती है कि तमाम वीवीआईपी और वीआईपी के इलाज का खर्चा भी इसमें जुडा हुआ है। जिस तरह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जीडीपी और ग्रोथ की बोली बोलते हैं, उस लिहाज से भी टोटल मिलाएंगे तो आप पाएंगे कि स्वास्थ्य पर सरकार कुल सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का एक फीसदी से भी कम खर्चा करती है।
कई बार इच्छा होती है कि आपके प्रधानमंत्री की मीठी बातों पर यकीन कर लिया जाए लेकिन क्या करें। जमीनी सच्चाई ही बेचारे मनमोहन सिंह के झूठे सच की चुगली कर देते हैं। यही मनमोहन सिंह जब वित्तमंत्री बने तो स्वास्थ्य सेवाओं में भारी कटौती शुरु हुई और आज आलम ये है कि जिन ग्रामीण इलाकों में ७० फीसदी लोग वास करते हैं वहां सरकारी स्वास्थ्य सेवा का सिर्फ २५ फीसदी हिस्सा पहुंचा है। उन सत्तर फीसदी लोगों में से भी ८३ फीसदी लोगों को टूटे फूटे अस्पतालों में भी इलाज कराना नसीब नहीं होता। नतीजा ये होता है कि नीम हकीम या ओझाओं के चक्कर में पड़कर लोग बेमौत मारे जाते हैं। एक अनुमान के मुताबिक सालाना एक लाख ३७ हजार महिलाएं प्रसव के दौरान दम तोड़ देती हैं। ये हालत भी छोटे मोटे रोगों को लेकर है। कैंसर जैसे लोगों के इलाज के बारे में सोचना भी वहां पाप है। जहां बीमारी गरीब का गला दबाती है, वहां दैव योग को निहारने के सिवाय चारा भी क्या बचता है।
ऐसा नहीं है कि सरकार गरीबों की सेहत को लेकर फिक्रमंद नहीं दिखती। बिल्कुल दिखती है। उसी का नतीजा है कि बेबस, लाचार लोगों के इलाज के नाम पर बड़े बड़े निजी अस्पतालों को सरकार कौडियों के भाव करोडों की कीमत की जमीन दे देती है। लेकिन उन अस्पतालों में किसी गरीब का नहीं बल्कि लक्ष्मीपुत्रों का इलाज होता है। ऐसे उदाहरण भी सामने आए हैं, जब प्राइवेट अस्पतालों ने मोटी रकम के लिए लाश तक को अपने कब्जे में कर लिया है। उन खबरों को पढ़कर आप जरूर व्यग्र हो जाते होंगे लेकिन वो नहीं होते, जिन्हें चुनकर आपने संसद और विधानसभा तक भेजा है।
ऐसे ही माहौल में याद आते हैं वेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्यूगो चावेज। मनमोहन सिंह से तुलना कीजिएगा तो विद्वता और अर्थशास्त्र के ज्ञान के मामले में चावेज कहीं नहीं टिकते। लेकिन उस चावेज ने पहले तो आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक का सारा कर्जा चुकाया और फिर ऐलान कर दिया कि आर्थिक दासता में फांसने वाले और अमेरिका के इशारे पर चलने वाले आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक से वो कभी कर्ज नहीं लेंगे। और अब उसी चावेज ने अपने देश के प्राइवेट अस्पतालों को दो टूक कह दिया है कि अगर आम आदमी के इलाज में कोई भी एं-बें हुआ तो उन बैंकों का राष्ट्रीयकरण करते उन्हें देर नहीं लगेगी। लेकिन ऐसा लगता नहीं कि चावेज से मनमोहन कभी प्रेरणा लेंगे। ले भी कैसे सकते हैं। मनमोहन सिंह की आत्मा पर वर्ल्ड बैंक की पुरानी नौकरी और सोनिया गांधी के प्रति दासत्व का बोझ है, जबकि चावेज की नजरों में समाजवाद का सपना पल रहा है। उस समाजवाद का, जो सिर्फ आखिरी आदमी की लड़ाई ही नहीं लड़ता, बल्कि दुनिया के दादा बने फिरने वाले अमेरिका की आंखों में आंखें डालकर बात करता है।


लेखक- विचित्रमणि

Friday, July 6, 2007

खेती के लिए कर्ज या कर्ज की खेती?

((एमटीएनएल ने धोखा दे दिया, ब्रॉडबैंड ठप हो गया और तीन दिन तक मैं ब्लॉग की दुनिया से अछूता रहा। इसलिए साथी मणीष के लेख (किसानों के खून से काली कमाई) का अगला हिस्सा पोस्ट करने में थोड़ी देर हो गई। इस हिस्से में मणीष ने उदाहरण के साथ समझाया है कि कैसे दलालों की मदद से सरकारी बैंकों के घूसखोर अफसर किसानों का खून चूस रहे हैं। ये एक ऐसा जाल है जिसमें जो भी फंसता है और फंसता चला जाता है।))

कृषि में फेस्टिव सीजन के अकाल को जानने के लिए एक वैसा ही उदाहरण देते हैं जिसकी थोड़ी चर्चा पिछले लेख में की गई थी। भारत में ट्रैक्टर का कारोबार। ट्रैक्टर के कारोबार से जिस कदर काली कमाई होती है वो हैरान कर देती है।
भारत में ट्रैक्टर बनाने वाली 14 कंपनियां हैं। इनमें देसी के साथ विदेशी भी शामिल हैं। देश में जो सबसे कम दाम का ट्रैक्टर मिलता है वो देसी तकनीक से बना बेहद छोटी श्रेणी का ट्रैक्टर “अंगद” है। इसकी कीमत एक लाख रुपये के करीब है। मगर इसकी बिक्री बेहद कम होती है। ऐसा इसलिए कि ये ट्रैक्टर यहां के आम किसानों की जरूरत के हिसाब से बेहद छोटा है। ये चर्चा पहले ही की जा चुकी है कि किसानों के लिए सबसे मुफीद ट्रैक्टर 35-40 हॉर्स पॉवर की श्रेणी के होते हैं। बाजार में इनकी कीमत इस आधार पर तय होती है कि आप नकद खरीदेंगे या फिर कर्ज लेकर। नकद और कर्ज की खरीद में 70 हजार से लेकर एक लाख रुपये का अंतर होता है। यानी अगर आप 35-40 हॉर्स पॉवर का ट्रैक्टर नकद खरीदेंगे तो उसकी कीमत तीन से सवा तीन लाख रुपये होगी। लेकिन कर्ज लेकर खरीदने पर आपको चार से सवा चार लाख रुपये चुकाने होंगे।
दाम में यह फर्क क्यों? इस फर्क से ट्रैक्टर की गुणवत्ता में कोई अंतर नहीं आता है। उसकी यह कीमत कर्ज की कीमत के तौर पर वसूली जाती है, गुणवत्ता में बढ़ोत्तरी के लिए नहीं। यहां आप कहेंगे कि कर्ज की कीमत तो उस पर वसूला जाने वाला ब्याज होता है, फिर यह कौन सी कीमत है? आपको बताएं कि यह कीमत उन लोगों के द्वारा ब्याज के अतिरिक्त वसूली जाती है, जो किसानों को कर्ज देते और दिलवाते हैं।
दरअसल कर्ज लेने की शुरुआत ट्रैक्टर कंपनी का दलाल करता है। उसकी बैंकों से सांठगांठ होती है। इस दलाल का काम ट्रैक्टर कंपनी के लिए ग्राहक ढूंढ कर उसके लिए बैंक से कर्ज की व्यवस्था करवाना होता है। यह बेहद जटिल और उल्टी प्रक्रिया है। मसलन अगर आपको कार खरीदनी हो तो सबसे पहले आप कार की कंपनी और उसके मॉडल को चुनते हैं। फिर डीलर के पास जाकर अपनी जमा पूंजी बताते हैं। जो रकम बच जाती है उसके लिए ऐसा बैंक तलाशते हैं जो सबसे कम ब्याज दर पर कर्ज मुहैया कराए। ऐसा अक्सर होता है कि कार कंपनी का डीलर ही अपने किसी विशेष ऑफर के तहत बैंक से आपके लिए न्यूनतम दर पर कर्ज की व्यवस्था करवा दे। पर भारत में ट्रैक्टर की बिक्री ऐसे नहीं होती।
इस सौदे में होता यह है कि ट्रैक्टर कंपनी के दलाल किसानों को बताते हैं कि वो किस बैंक से कितने कर्ज की व्यवस्था करवाएगा। ट्रैक्टर कंपनी के दलाल की इलाके के जिस बैंक के अधिकारियों से गहरी सांठगांठ होती है वह उस बैंक से कर्ज की व्यवस्था ज्यादा आसनी से करवा देता है। इस प्रक्रिया में किसानों के पास से चुनने की वह आजादी जाती रहती है जो कार खरीदते समय हम और आप जैसे शहरी ग्राहकों के पास होती है। उसे उसी कंपनी का ट्रैक्टर खरीदना पड़ता है जिस कंपनी का दलाल उसके लिए कर्ज का बंदोबस्त करता है।
बात तय हो जाने पर किसान के साथ वह दलाल बैंक पहुंचता है। अधिकारियों और किसान की मुलाकात होती है और मोटे तौर पर किसान को यह बता दिया जाता है चार लाख ट्रैक्टर के साथ आपको तीन और कृषि उपकरण भी लेने होंगे। ऐसा इसलिए कि ट्रैक्टर अपने आप में कोई उत्पादक वाहन नहीं होता। वह किसी अन्य उपकरण के साथ ही उपयोगी होता है जैसे ट्रेलर, कल्टिवेटर, थ्रेसर वगैरह वगैरह। भारत सरकार की यह नीतिगत मान्यता है कि बिना तीन यंत्र के कोई भी किसान ट्रैक्टर से इतनी आमदनी नहीं कर सकता कि कर्ज को ब्याज समेत चुकता कर दे। यहां यह भी याद रखिये कि कर्ज के एवज में ट्रैक्टर व अन्य उपकरण समेत छह से सात एकड़ सिंचाई योग्य जमीन भी गिरवी रख ली जाती है। ऐसी जमीन जिसकी बाजार में कीमत कम से कम 12-15 लाख रुपये होती है।
किसानों की बेबसी का अंदाजा इसी से लगाइये कि अगर वो तीन अतिरिक्त उपकरण बाजार से खरीदना चाहे तो उसे ऐसा करने नहीं दिया जाता। दलाल और बैंक अधिकारी ही यह तय करते हैं कि जो उपकरण खरीदे जाने हैं वो कहां से खरीदे जाएंगे और उनकी कीमत क्या होगी। इसकी एक बड़ी वजह है। खुले बाजार में अगर तीनों उपकरण (ट्रेलर-35 हजार, कल्टिवेटर – 10 हजार और थ्रेसर – 35 हजार रुपये) खरीदे जाएं तो उनकी कीमत 80 हजार रुपये के करीब बैठेगी। वहीं बैंक अधिकारियों और दलाल के दबाव में किसान उन उपकरणों के लिए 1 लाख 25 हजार रुपये (ट्रेलर 55 हजार, कल्टिवेटर 15 हजार और थ्रेसर 55 हजार) चुकाता है। इस प्रकार किसान से ट्रैक्टर के लिए 70 हजार ज्यादा (नकद की तुलना में) और तीन उपकरणों के लिए 50 हजार रुपये ज्यादा वसूले जाते हैं।
ऐसा नहीं करने पर किसान को कर्ज नहीं मिलता। चूंकि कर्ज मंजूर करना बैंक अधिकारियों का विवेकाधिकार होता है, इसलिए एक सचेत और पढ़ा लिखा किसान भी कुछ नहीं कर सकता। उसे यह भी नहीं बताया जाता है कि कर्ज नहीं देने के क्या कारण हैं। जनता की जमा पूंजी पर ये बैंक अधिकारी ऐसे नागकुंडली मार कर बैठे हैं, जैसे ये उनका खानदानी अर्जित धन हो।
इस गोरखधंधे के बाद शुरू होता है काली कमाई का बंटरबांट। ट्रैक्टर कंपनी और उपकरण निर्माता कंपनी की तरफ से कोट की गई रकम का भुगतान बैंक की तरफ से ड्राफ्ट के जरिये कर दिया जाता है। अधिकारी इसका पूरा ख्याल रखते हैं कि कागजी कार्रवाई में कोई चूक नहीं हो जाए। यही वजह है कि ज्यादातर लोगों को कागजात पर नजर डालने के बाद कुछ भी गलत नहीं लगता। लेकिन कागजी काम पुख्ता करने के तुरंत बाद दलाल ट्रैक्टर कंपनी के डीलर से अतिरिक्त 70 हजार रुपये और उपकरण निर्माता कंपनी से अतिरिक्त 50 हजार रुपये नकद वसूल लाता है। यह सब पिछले दरवाजे से होता है। वसूली गई रकम में से बैंक के अधिकारी अपने हिस्से का 30-40 हजार रुपये वसूल लेते हैं। यह न्यूनतम राशि होती है, अधिकांश समय यह राशि इससे ज्यादा ही होती है। बचे हुए पैसे नीचे पटवारी से लेकर ऊपर जमीन के जिलापंजीयक (रजिस्ट्रार) के बीच बंटते हैं। पटवारी बैंक को गिरवी रखी जमीन की उपज का ब्योरा सत्यापित (अटेस्ट) करके देता है और पंजीयक (रजिस्ट्रार) जमीन को गिरवी रखने संबंधित काम निपटाता है। हम सब जानते हैं कि इस देश में जिस तरह भ्रष्टाचार फैला हुआ है उसमें इनमें से किसी से भी मुफ्त में काम करने की उम्मीद बेमानी है। आखिर में पांच से दस हजार रुपये दलाल के हाथ लगते हैं।
यह जानिये कि इस देश में सालाना 4 लाख ट्रैक्टरों की बिक्री होती है। इसमें सबसे बड़ा हिस्सा उत्तर भारत के मैदानी इलाकों का होता है। यही नहीं 90 फीसदी से ज्यादा ट्रैक्टरों की बिक्री बैंकों के कर्ज पर आधारित है। यानी कर्ज लेकर खरीदे गए ट्रैक्टरों की संख्या 3.6 लाख सालाना से ज्यादा होती है। कुछ मामलों को अपवाद मान कर छोड़ भी दें तो भी 3 लाख ट्रैक्टरों की बिक्री के मामले में पैसे की उगाही दलालों के जरिये ही की जाती है।
अब आप इसका गणित देखें। कम से कम एक लाख (ऊपर के हिसाब से 1 लाख 20 हजार रुपये दिखाई गई है) की दर से सालाना तीन लाख ट्रैक्टर के लिए वसूली गई अतिरिक्त व बेजा राशि तीन हजार करोड़ रुपये बैठती है। प्रति वर्ष यह राशि चुकाता है यहां का किसान। इसमें शामिल है वह रकम जो 30 हजार रुपये (कम से कम) प्रति ट्रैक्टर की दर से बैंक अधिकारियों की जेब में जाता है। यानी 900 करोड़ रुपया। आपको मालूम हो कि भारत में कार्यरत लगभग 260 बैंकों में से 90 प्रतिशत का सालाना लाभ इस रकम तक नहीं पहुंचता।
सरकार कहती है कि वह बैंकों के माध्यम से किसानों को कर्ज उपलब्ध कराने को प्रतिबद्ध है। यानी मरीज को खून की उपलब्धता हमेशा रहेगी। क्या आपको लगता है कि खून के इस कारोबारी बाजार में मरीज के लिए कभी कोई फेस्टिव सीजन आएगा?
(जारी...)

Tuesday, July 3, 2007

किसानों के खून से काली कमाई

((हमारे साथी और बैंक में मैनेजर मणीष ने एक वादा किया और उसे निभाया भी। उन्होंने किसानों की हालत पर अपना नया लेख भेजा है। इस लेख को पढ़ कर मैं हैरान परेशान रह गया। किसानों के साथ नेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों के विश्वासघात से हम सब परिचित हैं। लेकिन हममें से बहुत कम जानते हैं कि कृषि कलपुर्जे बनाने कंपनियों और बैंकों के अफसर साजिश के तहत किसानों के खून पसीने से काली कमाई तैयार करते हैं। यह एक ऐसा जाल है जिसमें फंस कर किसान दम तोड़ता है, मगर टुकड़ों टुकड़ों में।))


फेस्टिव सीजन के बारे में हम लोगों ने बहुत सुना है। आए दिन हर संभव माध्यम पर ये प्रचार आता रहता है कि खरीदारी के इस उत्सवी माहौल का फायदा उठाएं। यह उत्सवी माहौल दिवाली के कारण हो सकता है या फिर ईद के कारण। कभी दूर्गापूजा तो कभी क्रिसमस पर बाजार का फेस्टिव सीजन। कभी समर फेस्टिवल तो कभी मानसून हंगामा। सालभर हम और आप ऐसे उत्सवी माहौल में दिये जा रहे अभूतपूर्व छूट का फायदा उठाने के लिए ललचाए जाते हैं। और वे चीजें क्या होती हैं जिन पर ये छूट दी जाती है? कपड़े, खाने का सामान, रोजमर्रा की चीजें व व्यक्तिगत वाहन, मसलन कार, स्कूटर, मोटरसाइकिल। ये सब उपभोक्ता चीजें हैं। उत्पादकता से इनका संबंध नहीं होता है।
पर कभी आपने ऐसा देखा है कि इस देश में जो सबसे बड़ा वर्ग खेतिहर लोगों का है उसके लिए कभी, कोई ऐसा फेस्टिव सीजन आता है? जिन चीजों की किसानों को जरूरत होती है उन पर कभी किसी प्रकार की छूट दी जाती है? खाद, बीज, ट्रैक्टर, पंपसेट आदि की खरीद पर दिये जाने वाले छूट के बारे में क्या आपने कभी कुछ भी सुना है? कोई तो वजह होगी कि खेती से संबंधित चीजों का धंधा कर रही कंपनियां ग्राहकों के लिए मारामारी नहीं करती हैं? आखिर छूट तो ग्राहकों को रिझाने की ही एक विद्या है। फिर ये विद्या खेती के कारोबार से जुड़ी कंपनियां क्यों नहीं आजमाती?
ऐसा भी नहीं है कि कंपनियां इतने कम लाभ पर काम करती हैं कि छूट जैसी चीज का सवाल ही नहीं उठता। या किसी एक कंपनी का वर्चस्व है कि वह जिस दाम पर चाहे उस दाम पर चीजों को बेचे। जहां इंडोगल्फ, चंबल फर्टिलाइजर्स, हिंदुस्तान फर्टिलाइजर्स, फर्टिलाइजर कॉरपोरेशन, पारादीप फास्फेट जैसी बड़ी कंपनियां और ढेरों छोटी कंपनियां रासायनिक खाद के बाजार में हैं वहीं पायोनियर, महिको, आदर्श सीड्स, पंतनगर, कारगिल जैसी बड़ी समेत सैकड़ों छोटी कंपनियां यहां के किसानों को बीज बेचने का धंधा कर रही हैं। ट्रैक्टर की 14 कंपनियां हैं तो पंपसेट की कम से कम दस। इसके अतिरिक्त उन छोटी इकाइयों की गिनती ही नहीं है जो अन्य कृषि यंत्र बनाती हैं। इन सारी कंपनियों के ग्राहक इस देश के किसान हैं।
दरअसल इन कंपनियों के लिए मामला फायदे का नहीं है। फायदे को लेकर ये पूरी तरह बेफिक्र रहती हैं। ग्राहक वर्ग इतना बड़ा है कि उसमें हिस्सेदारी के लिए बेतरह मारामारी नहीं है। यहां बात आती है उस लूट की जिसमें ये सभी कंपनियां सहभागी होती हैं। इसी लूट से निकलता है ऐसा कालाधन, जिसमें यहां के किसानों का गाढ़ा खून शामिल होता है। यह किस्सा है एक ऐसी प्रक्रिया का जिसके तहत इस देश की कंपनियां और बैंक मिलकर उस क्षेत्र से धन की उगाही करते हैं जिसके बारे में कहा जाता है कि वहां धन की बेहद कमी है। ये कुछ ऐसा है कि जिस कमजोर व्यक्ति को डॉक्टरों ने खून की जरूरत बताई है, खून चढ़ाने के बाद उस वयक्ति से ऐसी कीमत वसूली जाती है कि उसे अदा करने के लिए मजबूरी में उसे अपना दोगुना खून बेचना पड़ जाता है।
पिछले एक लेख अगली आहुति आपकी (चौखंबा, 17 जून, 2007) में मैंने इसकी चर्चा की थी कि भारत में खेती के क्षेत्र में बड़ी खरीदारी के लिए 99 फीसदी से अधिक किसान कर्ज पर आश्रित हैं। बड़ी खरीदारी से आशय ट्रैक्टर, थ्रेसर, ट्रेलर, पंपसेट जैसी चीजों से है। वो उपकरण जो उत्पादकता के लिए होते हैं ना कि उपभोग के लिए और जिनकी कीमत 50 हजार से लेकर 4-5 लाख रुपये तक होती है। यह जानिये कि जब ज्यादातार बाजार ऋण से संचालित होता है तो ग्राहकों के लिए मारामारी सामान बनाने वाली कंपनियों में नहीं, बल्कि कर्ज मुहैया कराने वाली कंपनियों के बीच होती है। उस पर जब कर्ज लेनेवाले एक खोजें हजार पाएं की तर्ज पर हों तो कर्ज देनेवालों की मनमानी चलती है। ऐसे में बुना जाता है वो जाल, जिसमें फंस कर किसानों को बेचना पड़ता है अपना लहू। उसी लहू से पैदा होती है वो लालिमा जो कंपनियों और बैंकों के लिए रंगीन फेस्टिव सीजन का निर्माण करती है। (जारी...)

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