Friday, June 29, 2007

"सभी कुछ कम, कुछ ज्यादा खतरनाक हैं"

चौखंबा पर राष्ट्रपति चुनाव को लेकर एक बहस चल रही है। इसकी शुरुआत साथी मणीष के लेख से हुई फिर साथी विचित्र मणि ने अपनी राय रखी। इन पर कई प्रतिक्रियाएं आईं। सबसे सटीक प्रतिक्रिया विप्लव भाई ने दी। उन्होंने कई गंभीर सवाल उठाए हैं। सवाल जो बहस को नई दिशा दे सकते हैं। उनकी इस प्रतिक्रिया को हम आपके सामने रख रहे हैं। इस उम्मीद में कि और लोग भी सामने आएंगे और एक सार्थक बहस होगी।

अगले राष्ट्रपति की पसंद-नापसंद पर अच्छी बहस चल रही है। लेकिन कुछ अ-राजनैतिक(apolitical) है। राजनीति के मैदान में किसी भी अहम किरदार की जगह उसकी राजनीतिक विचारधारा के बिना, या उसे अलग करके तय करना कितना सही है? इस कसौटी पर कलाम, प्रतिभा पाटिल और भैरों सिंह शेखावत - सभी कुछ कम, कुछ ज्यादा खतरनाक हैं। जनता के हित में, आम आदमी के हक में खड़ा होने का माद्दा इनमें से किसी में नहीं है। हो भी नहीं सकता है। इन सभी का विचारधारागत रुझान या उसका अभाव इसकी इजाज़त नहीं देता। इस लिहाज से बेशक के आर नारायणन आज़ाद हिंदुस्तान के सबसे बेहतर राष्ट्रपति लगते हैं। हालांकि उनके कार्यकाल ने बार-बार ये भी साबित किया कि राष्ट्रपति देश का सर्वोच्च पद है जरूर, लेकिन देश राजनीति में उसकी अहमित सिर्फ सांकेतिक ही है। और संसदीय ढंग के लोकतंत्र में ये गलत भी नहीं है। इस तरह से देखें, तो हमें वैसे ही राष्ट्रपति मिलते हैं, जैसी हमारी संसद और विधानसभाएं होती हैं। भ्रष्ट, अपराधी और जन विरोधी प्रतिनिधियों के समर्थन से सरकार बनाने वाले प्रधानमंत्री हों या उनके वोट से चुनकर आने वाले राष्ट्रपति, इनसे किसी क्रांतिकारी बदलाव या जनता के हक की आवाज बुलंद करने की उम्मीद करना शेखचिल्ली के सपने से कम नहीं। यहां साध्य और साधन के रिश्ते पर गांधी के विचार और वर्ग चरित्र पर मार्क्स का चिंतन, दोनों सटीक नजर आते हैं। एक बात और, "गलत खेमे में खड़ा सही आदमी" ये लेबल काफी अरसे तक अटल बिहारी वाजपेयी पर चिपकाया जाता रहा। कितना बेमतलब था ये लेबल, अब तक शायद साफ हो चुका है। अब इस लेबल को शेखावत पर चिपकाना, कुछ समझ नहीं आता। राजनीति के मैदान में, ना सिर्फ गलत खेमे में खड़ा, बल्कि बरसों उसकी पतवार थामने वाला, उसकी कमान अपने हाथ में रखने वाला कोई धुरंधर, सही कैसे हो सकता है? गुजरात में नरसंहार करने वाली जमात के प्रतिनिधि और अगुवा, देश के किसी भी सर्वोच्च पद पर बैठने के लायक कैसे समझे जा सकते हैं? नफरत की बुनियाद पर खड़ी विचारधारा को सीने से लगाए रखने वाले लोग, बड़े दिलवाले और उदार राजनेता कैसे हो सकते हैं? ये कुछ सवाल हैं, जिन पर सोचने की जरूरत है। फिलहाल इतना ही। हालांकि बात अभी अधूरी है। शायद ठीक से शुरू भी नहीं हो पाई है। लेकिन एक साथ लंबा लिखते जाना, कुछ एकालाप सा लगता है। ये विषय ऐसा है, जो संवाद मांगता है। विचारों का आदान-प्रदान मांगता है। इसलिए आगे की बात आगे होगी....

विप्लव

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