Tuesday, June 5, 2007

संघर्ष में मीडिया पर भी कब्जा जरूरी है

((कुछ दिन पहले चौखंबा पर एक लेख छपा "शावेज से सीखो मनमोहन (पहली कड़ी)"। उस लेख के पक्ष और विपक्ष में काफी खत मिले। कुछ लोगों ने यहां तक कह दिया कि लेखक भारत की बनावट नहीं समझता। साथ ही वेनेजुएला में 53 साल से चल रहे टेलिविजन चैनल को बंद किये जाने के फैसले का हवाला देकर ये भी कहा कि शावेज लोकतंत्र के दुश्मन हैं। लेकिन सच यही है कि आरोप लगाने वाले तमाम लोग उस साजिश को भांप नहीं सके हैं जो आम लोगों के खिलाफ चल रही है। दुनिया के हर देश में इस साजिश की जड़ें बेहद गहरी हैं। हमारे देश में भी। मनमोहन सिंह जैसे नेता और मीडिया से जुड़ा एक बड़ा तबका, या यूं कहें की पूरी मीडिया... उसी साजिश में शामिल हैं। चौखंबा के एक पाठक ने इसके कुछ पहलुओं की तरफ इशारा किया है। लेकिन नाम और पता दिये बगैर। शायद वो भी मीडिया से ही जुड़े हैं। दूसरे संवेदनशील पत्रकारों की तरह उन्हें भी लगता होगा कि सच बोलने की कीमत वसूली जा सकती है। लेकिन हम उनका ये चिट्ठा छाप रहे हैं। इस उम्मीद में कि आज भले ही सामने आने से लोग हिचक रहे हैं, लेकिन एक दौर ऐसा भी आएगा जब लोग खुल कर बोलेंगे। हर उस शख्स के खिलाफ बोलेंगे ... जिसने सच का गला घोंटा है और जिसने आम लोगों के खिलाफ साजिश की है।))

राजेश जी जहां सत्ता बदलाव होता है वहां सूचना तंत्र बदलना लाजिमी है। क्योंकि सूचना दूसरे विश्व युद्ध के बाद ही तंत्र यानी सत्ता का हिस्सा है। शावेज जब देशहित में कंपनियों का राष्ट्रीयकरण कर रहे हैं तो वे कॉरपोरेट के इस हिस्से को क्यों छोड़ें? वास्तविक अर्थों में टेलीविजन या सूचना का कोई भी माध्यम एक फैक्ट्री से ज्यादा कुछ नहीं है। जिसके रग-रग में प्रॉफिट बसा है। उस प्रॉफिट पर मीडिया कंपनी का सीईओ नजर रखता है। दुनिया में हर मीडिया हाउस का सीईओ होता है और वह संपादक से कहीं ज्यादा ताकतवर होता है। संपादक की जिम्मेदारी आपको लगता है कि खबरों का चयन है। लेकिन सच तो यह है कि आज के दौर में संपादक लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे जुमलों के बीच खबरनुमा उत्पाद के प्रॉफिट मेकिंग का जरिया है। यही नहीं संपादक और सीईओ की पहली कोशिश जनता में राजनीतिक उदासीनता बढ़ाने की रहती है। लोगों को सत्ता पर सवाल उठाने से रोकने की इसी कोशिश में वो खुद जनता से दूर चले जाते हैं। इन्हीं लोगों की वजह से मीडिया अब किसी भी राजनीतिक और आर्थिक बदलाव में साकारात्मक भूमिका नहीं निभा पा रहा है। चाहे वो बदलाव राजनीतिक स्तर पर हों या फिर आर्थिक स्तर पर। कुल मिला कर "मास" मीडिया के भीतर एक "क्लास" मीडिया है और इस समय इस पर उच्च वर्ग और मध्य वर्ग का कब्जा है। यह छह महीने वाले पत्रकारिता कोर्स में समझने वाली बात नहीं है। इसे अनुभव से समझा जा सकता है। वो भी तभी जब समझने की कोशिश की जाए।

आज के दौर में शावेज सत्ता के एक अलग किस्म की बनावट के प्रतिनिधि हैं। देश में एक टेलीविजन चैनल बंद करना उनका मकसद नहीं है। यह पूरे बदलाव का एक छोटा सा हिस्सा भर है। जिस टेलीविजन चैनल को बन्द करना, लोगों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला लग रहा है दरअसल वह दो साल पहले वेनेजुएला में तख्ता पलट की साजिश में शामिल था। साजिश रचने के आरोप में इस चैनल का सीईओ तक फंसा है। शावेज जिस क्लास को सत्ता में जगह दिलाना चाहते हैं उसके मुताबिक ही सूचना तंत्र उन्हे चाहिए और ऐसा करने का हक है।

अमेरिका बस केवल सत्ता का नाम नहीं है। वह अपने साथ-साथ एक खास किस्म की संस्कृति भी रचता है। जब कोई ठोस आर्थिक-राजनीतिक बदलाव होता है तो ऐसी सत्ता भले ही सीधे तौर पर उखाड़ फेंकी जाए, लेकिन उसकी संस्कृति से लड़ना मुश्किल हो जाता है। बहुत भोले किस्म की ईमानदारी दिखाते हुए कई लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतंत्र जैसे सवाल उठाते हैं। कई बार ये सवाल जानबूझकर उठाए जाते हैं और कई बार अनजाने में। पुराना मीडिया ग्रामर भी लोगों को इस तरह से सवाल उठाने के लिए प्रेरित करता है। लेकिन सच यही है कि स्वतंत्रता के किसी भी सवाल को गैरराजनीतिक ढंग से नहीं उठाया जा सकता। शावेज का इस टीवी चैनल को बंद करने के कदम का विरोध करना उन बदलावों के विरोध से जुड़ जाता है। चाहे आप जानबूझकर करते हैं या अनजाने में। हितों की मकड़जाल को साफ और खुली हुई नजर से देखने की आदत होनी चाहिए। जहां तक भारत की बनावट को जानने का संबंध है तो यह एक उलझाई और बेमतलब का सवाल है। हालांकि आपने एकदम सही कहा कि भारत में इस तरह 53 साल पुराने टीवी चैनल को बंद नहीं किया जा सकता। आप टीवी चैनल को बंद करने को एक घटना के रूप में ले रहे हैं लेकिन क्या भारत विश्व बैंक या आईएमएफ के कर्ज को उतारकर उनसे पीछा छुड़ाने की ताकत रखता है ? भारत ऐसा नहीं करता है तो उसमें भारत के भूगोल की गलती नहीं है बल्कि हमारे सत्ता के बनावट की गलती है। आप किसी भी राजनीतिक दल को व्यवस्था के इतने बड़े बदलवों के नाम पर चिन्हित नहीं कर सकते। विश्व बैंक या आईएमएफ पर विपक्ष में रहते हुए प्रतीकात्मक विरोध और सत्ता के सकारात्मक विरोध की संस्कृति को समझना आसान नहीं है। इस तरह के किसी भी बदलाव की इच्छा शक्ति हमारे राजनीतिक दलों में कहीं नहीं दिखती और वो यह दबी जुबान से ही सही प्रचारित करते हैं कि इस तरह के बदलाव की जरूरत भी नहीं है। भारत में वेनेजुएला की तर्ज पर कोई टेलीविजन चैनल बंद नहीं हो सकता है जैसे सवाल से पहले शावेज और उनकी विचारधारा की मौजूदगी पर सवाल होना चाहिए होनी चाहिए। रही बात भारतीय मीडिया के स्वरूप की तो नागीन और सरस सलील छाप चैनलों की भरमार महज टीआरपी बढ़ाने का खेल नहीं होता है। टीआरपी के साथ राजनीतिक माहौल को बनाए रखने के लिए भी होता है, जहां ऐसे चैनल मुनाफा कमा सके। भ्रष्टाचार से लड़ने में आगे दिखने वाले सूचना माध्यमों को करीब से जानिए और देखिए कि स्टिंग ऑपरेशन करने वाले लोग लाखों में सौदा करने के लिए सभी चैनलों का दरवाजा खटखटाते हैं। सच्चाई इतनी परतों में आगे आती है कि जहां लोगों को बीएमडब्लू कुचली थी वहां कई गुना लोग सोने चले आते हैं।

लेकिन आमलोग हमेशा कुचले नहीं जाएंगे। जब उनके माकूल कोई सत्ता आएगी तो अपने खिलाफ हुई हर साजिश का हिसाब मांगेंगे। अगर वो साजिश मीडिया की तरफ से भी हुई है तो उसे भी हिसाब देना होगा। लेकिन फिलहाल सत्ता आम लोगों के हाथ में नहीं है। इसलिए आज समाचार माध्यम का खुला एजेंडा है कि जमकर राजनीतिक उदासीनता फैलाओ और मुनाफा कमाओ। पोस्ट इंडस्ट्रियल सोसाइटी के अमेरिकी परस्त समझदारों का भी यही नारा है।

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