(("रिलायंस पर और तेज करो हमले" पर हमारे साथी दीपू राय ने अपनी प्रतिक्रिया दी है। मैं उनकी बात से सहमत हूं। ये एक बड़ी साजिश है। ये इसी साजिश है हिस्सा है कि जब संसद में मनमोहन सरकार से पूछा जाता है कि रिटेल सेक्टर में कितने आदमी काम कर रहे हैं और बड़ी कंपनियों के आने से उन पर क्या असर पड़ेगा तो सरकार कहती है कि ये समीक्षा की जा रही है। उसका ठेका एक संस्था को दिया गया है। यानी समीक्षा फैसला लागू करने के बाद, पहले नहीं। समीक्षा इसकी नहीं कि बड़ी कंपनियों के आने से क्या असर पड़ेगा। बल्कि इसकी कि बड़ी कंपनियों ने कितनों को रोजगार दिया और कितनों की पेट पर ताल मारी। ये मनमोहन सिंह जैसा शख्स ही कर सकता है। ये वही मनमोहन हैं जिन्होंने देश में आर्थिक सुधार लागू किये और अब बड़ी कंपनियों से भीख मांग रहे हैं। जनता की बेहतरी के नाम पर। ये बड़ी साजिश है और दीपू राय ने अपनी प्रतिक्रिया में इस साजिश के कुछ और पहलुओं को सामने रखा है।))
कुछ समय पहले विदर्भ में किसानों की आत्महत्या के पीछे कारणों की जांच करने के लिए एक उच्चस्तरीय सरकारी कमेटी गई थी। जिसमें नौकरशाह और मशहूर मनोवैज्ञानिकों की एक टीम शामिल थी। मनोवैज्ञानिकों ने किसानों को आत्महत्या की प्रवृत्ति को शुद्ध रूप से मानसिक बीमारी मानकर आंकलन शुरू किया। लेकिन जिन सवालों के आधार पर उन्हे पागल घोषित किया जा रहा था उससे अलग हटकर एक किसान ने हिम्मत करके ये सवाल किया कि आखिर जब हम लोग अनाज पैदा करते हैं तो भूख से क्यों मरते हैं? इसका जवाब उस टीम के पास नहीं था। हालांकि सरकार उस रिपोर्ट के जरिए विश्वबैंक और बाकी अनुदान देने वाली संस्थाओं से ऐसे एनजीओ बनाने की सिफारिश जरूर कर दी जो आत्महत्या की इस प्रवृत्ति से लड़ना सिखाए। हालांकि यह एनजीओ इस पर बात नहीं करेगा कि जो बीज किसान को दस साल पहले 300 रुपए प्रति बोरी मिलता था अब वो 1800 रुपए में क्यों? क्यों इसमें से 1200 रुपए मानसेंट के पास जाता है? क्या यह किसी मनोविज्ञान का विषय है। ऐसी समस्याओं के जड़ में जाने से रोकना ही नवउदारवाद है जिसे आज दुनिया भर की सरकारें इस्तेमाल करती हैं। यह विद्रोह की किसी संभावना को सुलगने से पहले ही दबाने की योग्यता रखता है। सांस्कृतिक स्तर पर यह धार्मिक कट्टरता और गैर वैज्ञानिक विचारों के प्रति अदभूत आग्रह दिखाता है। बहुत हद तक संभावना है कि एक्शन एड जैसे एनजीओ और पंडित रविशंकर जैसे लोग मौत को गले लगा रहे किसानों के मानसिक शांति के लिए अपने कैंप लगाएं। देश भर में हजारों की संख्या में साधुओं और अध्यात्मिक गुरुओं और पोर्टफोलियो बेस्ड औद्योगिककरण के तेज विकास में एक रिश्ता है। लोगों को गैर-राजनीतिक बनाना इनका सबसे छूपा एजेंडा होता है। हालांकि इस समझ के पीछे मजबूत राजनीतिक इच्छा ही होती है। लेकिन वह आम लोगों के लिए नहीं बल्कि खास लोगों के लिए होती है।अब विद्रोह व्यवस्था बदलने के लिए नहीं धर्म स्थापित करने के लिए पैदा किए जाते हैं। क्योंकि राजनैतिक विद्रोह के बदले धार्मिक विद्रोह नवउदारवाद को ज्यादा सहूलियत देता है। इस मुहिम को सफल बनाने के लिए सैन्य-कॉरपोरेट-धार्मिक आतंक का गठजोड़ बहुत सजगता से काम करता है। धार्मिक आतंकवाद को राजनौतिक जरूरत ने पाला पोसा है और अब भी वह इसे दुनिया भर में इस्तेमाल करता है। आतंकवादी संगठनों की सालाना लिस्ट तो केवल भरमाने का काम करती है। कुल मिलाकर सरकारें अब सैन्य क्षमता पर टिकी हैं और उन्हे कॉरपोरेट और धार्मिक आतंकवाद से ही गवर्न होना है। और हम चाकरी करने वाले इस मुहिम में अपनी वास्तविक जनता से दिन ब दिन दूर होते हैं जाएंगे। हो सकता है हमें थोड़ी उदासी घेरे जब हम किसी चैनल पर 70 साल के बुजुर्ग को 10-20 पुलिसवालों से पीटते देखें। लेकिन वो बूढ़ा तो उसी ग्रामीण और गरीब दुनिया का हिस्सा है जिसके पीछे सैन्य-कॉरपोरेट और धार्मिक आतंकवाद के गठजोड़ वाली सरकारें पड़ी हैं और दौड़ा-दौड़ाकर सभ्यता के सभी गलियारों में गोलियों का निशाना बना रही हैं।
((दीपू राय))
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