जम्मू सुलग रहा है. एक महीने से ऊपर हो गए हैं, हिंसा थम नहीं रही. कई ज़िंदगियों का अंत हो चुका है. जम्मू की आग कई और ज़िलों में फैल रही है. ये डर मैंने उसी समय जताया था जब गुलाम नबी आज़ाद सरकार ने अमरनाथ श्राइन बोर्ड को दी गई ज़मीन वापस ली थी. सिर्फ़ मैंने ही क्यों उन तमाम लोगों को इस हिंसा की आशंका थी जो राज्य की धर्मनिरपेक्ष अवधारणा में यकीन रखते हैं. जो राज्य के सांप्रदायिक होने का विरोध करते हैं. अब हमारी वो तमाम आशंकाएं सच हो रही हैं. इसके लिए सिर्फ़ एक व्यक्ति और एक दल का नेतृत्व ज़िम्मेदार है. वो व्यक्ति है गुलाम नबी आज़ाद और दल है कांग्रेस.
यहां पर हो सकता है कि कुछ लोग मेरी बात से इत्तेफ़ाक नहीं रखें. लेकिन मैं ये मानता हूं कि आज बीजेपी का उत्थान हुआ है तो इसके लिए काफी हद तक कांग्रेस ज़िम्मेदार है. इस बार भी कांग्रेस के गुलाम नबी आज़ाद ने बीजेपी को अमरनाथ मुद्दे पर राजनीति का मौका दिया. खाद पानी दी. यही नहीं अमरनाथ श्राइन बोर्ड को ज़मीन देने और उस फ़ैसले को वापस लेने के बीच एक लंबा वक़्त था. उस वक़्त में कांग्रेस नेतृत्व ने गुलाम नबी को उनके फ़ैसले से नहीं रोका इसलिए वो भी ज़िम्मेदार है.
यहां बहुत से लोग ये कोशिश कर रहे हैं कि सारा दोष महबूबा मुफ़्ती और जम्मू कश्मीर के दूसरे सांप्रदायिक और अलगाववादी नेताओं पर थोप दिया जाए. ये कुछ वैसी ही कोशिश है कि जो ऐटमी करार के मुद्दे पर हुई है. कांग्रेस नेताओं ने भविष्य में सोनिया को देशद्रोही करार दिया जाने की आशंका को भांप कर ऐटमी करार की ज़िम्मेदारी मनमोहन के कंधों पर डाल दी. सब यही कहते नज़र आए कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ऐटमी डील पर आगे बढ़ना चाहते हैं, ताकि भविष्य में जब इस डील के ख़तरनाक नतीजे सामने आएं तो मनमोहन को गुनहगार ठहराया जाए सोनिया को नहीं. ठीक उसी तरह कहा जा रहा है कि गुलाम नबी आज़ाद ने सियासी मजबूरी में अमरनाथ श्राइन बोर्ड को दी गई ४० हेक्टयेर ज़मीन वापस ली. लेकिन इस तर्क में कोई भी दम नहीं है. जम्मू कश्मीर में महबूबा मुफ़्ती और उनके जैसे तमाम क्षेत्रीय दल धर्म की राजनीति करते आए हैं और उन्होंने इस बार भी वही किया. लेकिन कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी है, उसका एक इतिहास है, गुलाम इस पार्टी के बड़े सिपहसालार थे... फिर वो कैसे क्षेत्रीय राजनीति के शिकार बन गए ... फिर वो कैसे राज्य की मूल अवधारणा को ताक पर रख बैठे?
सत्ता को कई मौकों पर बहुत निर्मम होना पड़ता है. जब बात मूल अवधारणाओं से जुड़ी हो तो और भी निर्मम. लेकिन हमारे यहां के राजनेता सिर्फ़ वोट की राजनीति जानते हैं. यही वजह है कि कोई जाति की सियासत में माहिर है, कोई धर्म की और कोई मौके के हिसाब से कभी जाति, कभी धर्म यानी हर किसी की सियासत कर लेता है. अगर बीजेपी ने धर्म की राजनीति की है... अगर मुलायम सिंह, मायावती, लालू यादव, रामविलास पासवान जैसे नेताओं ने जाति की सियासत की है तो कांग्रेस ने धर्म और जाति दोनों की राजनीति की है. अयोध्या में राम मंदिर का कपाट खोलना हो, उच्च शिक्षण संस्थाओं ने पिछड़ों को आरक्षण देना हो, मुस्लिमों के आर्थिक सुधार के नाम पर कमेटी का गठन हो, शाह बानो केस हो या फिर सिखों का नरसंहार... ये इतिहास के चंद पन्ने हैं और ऐसे पन्नों की फेहरिस्त काफी लंबी है. ये इतिहास बताता है कि कांग्रेस ने हर बार अपनी सहूलियत और जरूरत के हिसाब से राज्य की धर्मनिरपेक्ष छवि के साथ खिलवाड़ किया है. उसे तोड़ा-मरोड़ा है. ये कांग्रेस की नाकामी ही है जिसकी वजह से आज ऐसे नेताओं की संख्या काफी ज़्यादा है जो जाति, धर्म और क्षेत्र की राजनीति करते हैं. यूं कहें कि ताकतवर राष्ट्र को टुकड़ों में बांट कर अपना उल्लू सीधा करते हैं.
इस बार भी अगर गुलाम नबी आज़ाद धर्म की राजनीति में नहीं फंसते और श्रीनगर में हिंसक विरोध पर काबू पाने के लिए थोड़ी सख़्ती कर लेते तो जम्मू में सेना नहीं बुलानी पड़ती. मनमोहन को तैंतीस दिन की हिंसा के बाद बैठक का नाटक नहीं करना पड़ता. बीजेपी को धर्म की सियासत का आधार नहीं मिलता. इसलिए इस हिंसा के लिए तो सिर्फ़ और सिर्फ़ कांग्रेस ज़िम्मेदार है.
यहां पर हो सकता है कि कुछ लोग मेरी बात से इत्तेफ़ाक नहीं रखें. लेकिन मैं ये मानता हूं कि आज बीजेपी का उत्थान हुआ है तो इसके लिए काफी हद तक कांग्रेस ज़िम्मेदार है. इस बार भी कांग्रेस के गुलाम नबी आज़ाद ने बीजेपी को अमरनाथ मुद्दे पर राजनीति का मौका दिया. खाद पानी दी. यही नहीं अमरनाथ श्राइन बोर्ड को ज़मीन देने और उस फ़ैसले को वापस लेने के बीच एक लंबा वक़्त था. उस वक़्त में कांग्रेस नेतृत्व ने गुलाम नबी को उनके फ़ैसले से नहीं रोका इसलिए वो भी ज़िम्मेदार है.
यहां बहुत से लोग ये कोशिश कर रहे हैं कि सारा दोष महबूबा मुफ़्ती और जम्मू कश्मीर के दूसरे सांप्रदायिक और अलगाववादी नेताओं पर थोप दिया जाए. ये कुछ वैसी ही कोशिश है कि जो ऐटमी करार के मुद्दे पर हुई है. कांग्रेस नेताओं ने भविष्य में सोनिया को देशद्रोही करार दिया जाने की आशंका को भांप कर ऐटमी करार की ज़िम्मेदारी मनमोहन के कंधों पर डाल दी. सब यही कहते नज़र आए कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ऐटमी डील पर आगे बढ़ना चाहते हैं, ताकि भविष्य में जब इस डील के ख़तरनाक नतीजे सामने आएं तो मनमोहन को गुनहगार ठहराया जाए सोनिया को नहीं. ठीक उसी तरह कहा जा रहा है कि गुलाम नबी आज़ाद ने सियासी मजबूरी में अमरनाथ श्राइन बोर्ड को दी गई ४० हेक्टयेर ज़मीन वापस ली. लेकिन इस तर्क में कोई भी दम नहीं है. जम्मू कश्मीर में महबूबा मुफ़्ती और उनके जैसे तमाम क्षेत्रीय दल धर्म की राजनीति करते आए हैं और उन्होंने इस बार भी वही किया. लेकिन कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी है, उसका एक इतिहास है, गुलाम इस पार्टी के बड़े सिपहसालार थे... फिर वो कैसे क्षेत्रीय राजनीति के शिकार बन गए ... फिर वो कैसे राज्य की मूल अवधारणा को ताक पर रख बैठे?
सत्ता को कई मौकों पर बहुत निर्मम होना पड़ता है. जब बात मूल अवधारणाओं से जुड़ी हो तो और भी निर्मम. लेकिन हमारे यहां के राजनेता सिर्फ़ वोट की राजनीति जानते हैं. यही वजह है कि कोई जाति की सियासत में माहिर है, कोई धर्म की और कोई मौके के हिसाब से कभी जाति, कभी धर्म यानी हर किसी की सियासत कर लेता है. अगर बीजेपी ने धर्म की राजनीति की है... अगर मुलायम सिंह, मायावती, लालू यादव, रामविलास पासवान जैसे नेताओं ने जाति की सियासत की है तो कांग्रेस ने धर्म और जाति दोनों की राजनीति की है. अयोध्या में राम मंदिर का कपाट खोलना हो, उच्च शिक्षण संस्थाओं ने पिछड़ों को आरक्षण देना हो, मुस्लिमों के आर्थिक सुधार के नाम पर कमेटी का गठन हो, शाह बानो केस हो या फिर सिखों का नरसंहार... ये इतिहास के चंद पन्ने हैं और ऐसे पन्नों की फेहरिस्त काफी लंबी है. ये इतिहास बताता है कि कांग्रेस ने हर बार अपनी सहूलियत और जरूरत के हिसाब से राज्य की धर्मनिरपेक्ष छवि के साथ खिलवाड़ किया है. उसे तोड़ा-मरोड़ा है. ये कांग्रेस की नाकामी ही है जिसकी वजह से आज ऐसे नेताओं की संख्या काफी ज़्यादा है जो जाति, धर्म और क्षेत्र की राजनीति करते हैं. यूं कहें कि ताकतवर राष्ट्र को टुकड़ों में बांट कर अपना उल्लू सीधा करते हैं.
इस बार भी अगर गुलाम नबी आज़ाद धर्म की राजनीति में नहीं फंसते और श्रीनगर में हिंसक विरोध पर काबू पाने के लिए थोड़ी सख़्ती कर लेते तो जम्मू में सेना नहीं बुलानी पड़ती. मनमोहन को तैंतीस दिन की हिंसा के बाद बैठक का नाटक नहीं करना पड़ता. बीजेपी को धर्म की सियासत का आधार नहीं मिलता. इसलिए इस हिंसा के लिए तो सिर्फ़ और सिर्फ़ कांग्रेस ज़िम्मेदार है.
4 comments:
ये आग कब बुझेगी समरू, कोई नहीं जानता?????
तुष्टिकरण की नीति बंद होनी चाहिये, हिन्दुओं को उनका हक मिले
आप की अधिकतर बातों से इत्तेफ़ाक़ है..
kashmir ki aag tab tak jalti rahegi jab tak hum use apne desh ko apna nahi manenge. iske piche koi ek party ya vyakti jimmedaar nahi, balki hum sab hai. BJP ka agar apki najro me uthaan hua hai to mere liye unki ahmiyat ab ek dum khatm ho chuki hai. shrine board mamle par sirf door se baaki deshvasiyo ko pareshan karne k allava unhone kiya hi kya hai? aur apki pratikriya ka ek article padna chahungi, is pure mudde par GILLANI ji par aap kya tippadi karna chahenge??
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