Tuesday, July 8, 2008

चले गए गुलाम, सादिक को सलाम

गुलाम नबी आज़ाद की विदाई हो ही गई. अमरनाथ श्राइन बोर्ड से ज़मीन वापस लेने के फ़ैसले के बाद भी उनकी सरकार को जीवन दान नहीं मिला. उनका ये दांव भी सहयोगी पीडीपी को रिझा नहीं सका और ना ही विरोधियों की दिल पसीजा. मजबूरन इस्तीफ़ा देना पड़ा. लेकिन इस्तीफ़ा देते वक़्त भी गुलाम ने ढोंग का दामन नहीं छोड़ा. वो कहते रहे कि दूसरी पार्टियों में मौजूद दोस्तों को मुसीबत में नहीं डालना चाहते थे, इसलिए पद त्याग रहे हैं. सच में सियासतदान बड़े ढोंगी होते हैं, उनमें भी गुलाम नबी आज़ाद कई हाथ आगे निकले. आदर्श और नैतिकता की दुहाई देते वक़्त उन्हें अपने काले कारनामे का जरा भी ख़याल नहीं आया. वो कारनामा जो लंबे समय तक देश की लोकतांत्रिक सियासत में एक काले अध्याय के तौर पर याद किया जाएगा. राज्य की सत्ता के शीर्ष पर रहते हुए उन्होंने तो पूरी व्यवस्था को ही सांप्रदायिक रंग में रंग दिया.

सांप्रदायिकता हर स्तर पर घातक होती है. चाहे वह किसी व्यक्ति में हो, किसी समुदाय में हो, किसी सामाजिक संस्था में हो या फिर किसी सियासी दल में. लेकिन सबसे ज़्यादा खतरनाक किसी संवैधानिक संस्था का सांप्रदायिक होना है ... किसी सरकार का सांप्रदायिक होना है. जब सरकारें किसी धर्म विशेष के हितों को ध्यान में रख कर काम करने लगती हैं तो प्रशासन भी उसी आधार पर काम करता है और जब प्रशासन सांप्रदायिक होता है तो अल्पसंख्यकों की जान ख़तरे में रहती है. वो घुट-घुट कर जीते हैं. जम्मू कश्मीर के हुक्मरानों पर हमेशा वहां के मुसलमानों के हितों को पोषित करने का आरोप लगता रहा है. इस्लामिक कट्टरपंथियों के ख़िलाफ़ उनके ढुलमुल रवैये के कारण ही हिंदुओं को बड़े पैमाने पर पलायन करना पड़ा. हुर्रियत कांफ्रेंस और पीडीपी से इससे अधिक की उम्मीद नहीं की जा सकती. लेकिन इस बार झटका राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस ने दिया है. वो पार्टी जिसकी मूल अवधारणा ही धर्मनिरपेक्षता रही है. गुलाम नबी आजाद ने अमरनाथ श्राइन बोर्ड से ज़मीन वापस लेकर ये साबित किया है कि जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस हो या फिर कोई और वहां की सत्ता सांप्रदायिक है.

सत्ता के सांप्रदायिक होने के मुद्दे पर चर्चा करते हुए कुछ लोग ये दलील दे रहे हैं कि अगर जम्मू कश्मीर सरकार ये फ़ैसला वापस नहीं लेती तो बहुत ख़ून बहता. उन लोगों का ये तर्क भी बहुत सतही लगता है. ऐसा कहते वक़्त वो भूल जाते हैं कि धर्मनिरपेक्षता को कायम रखने के लिए बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है. बहुसंख्यकों की तानाशाही प्रवृति का दमन करना पड़ता है. इसके लिए सत्ता के शीर्ष पर बैठे हुक्मरानों को कभी कभी क्रूर होना पड़ता है. अगर आज़ादी के वक़्त हमारी सरकार सस्ते राह पर चलती और नेहरू हिंदू कट्टरपंथियों के आगे घुटने टेक देते तो क्या भारत के मुसलमान कभी चैन से जी पाते? विभाजन के वक़्त जब दिल्ली से लेकर बंगाल तक चारों तरफ मार-काट मची थी तो गांधी, नेहरू और पटेल ने घूम-घूम कर लोगों को हथियार डालने के मजबूर किया. गांधी कई-कई दिन तक अनशन पर बैठे रहे. आज उन लोगों के त्याग से कायम हुई धर्मनिरपेक्षता ख़तरे में है.

सोचिये आज़ाद भारत के सभी सूबे के हुक्मरान वहां के बहुसंख्यकों के हिसाब से काम करने लगें तो क्या अल्पसंख्यक ख़ौफ़ के साये में जीने को मजबूर नहीं होंगे? या फिर वो पलायन नहीं करेंगे? जम्मू कश्मीर में यही हुआ है और कांग्रेस से लेकर सभी सियासी दल इस साज़िश में भागीदार रहे हैं. गुलाम नबी आज़ाद ने इसी भागीदारी को जाहिर किया है. ये भारत की धर्मनिरपेक्ष अवधारणा को करारा झटका है और इस गुनाह के लिए कांग्रेस और उसके गुलाम को वक़्त कभी माफ़ नहीं करेगा.

((आखिर में एक और बात. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के उपाध्यक्ष मौलाना कल्बे सादिक ने गुलाम नबी आज़ाद के फ़ैसले का विरोध किया है. उनका कहना है कि अमरनाथ श्राइन बोर्ड को दी ज़मीन वापस नहीं ली जानी चाहिये थी. कल्बे सादिक के मुताबिक ये हमारी परंपरा और सभ्यता दोनों के हिसाब से ग़लत फ़ैसला है. कल्बे सादिक ने ऐसा कह बड़ी हिम्मत का परिचय दिया है. मैं उनके इस हौसले को सलाम करता हूं.))

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