अभी लोकसभा में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के विश्वास प्रस्ताव पर बहस चल रही है. इस बहस के दौरान सीपीएम सांसद मोहम्मद सलीम ने एक बेहद संजीदा मुद्दा उठाया. उन्होंने कहा कि जैसे अमेरिका की कंपनियां भारत में काम आउटसोर्स करती हैं, वैसे ही मनमोहन सरकार ने देश की विदेश नीति अमेरिका को आउटसोर्स कर दी है. वो विदेश नीति जिसे आजादी की लड़ाई लड़ने वाले आज़ाद रखना चाहते थे, उसे अमेरिका का गुलाम बना दिया. सलीम ने ये भी कहा कि लेफ्ट फ्रंट ने न्यूनतम साझा कार्यक्रम के आधार पर यूपीए को समर्थन दिया था, अमेरिका को नहीं. फिर ये डील कहां से आयी और लेफ्ट से उसके समर्थन की उम्मीद क्यों की गई. सलीम ने इसी आक्रामक अंदाज में ये भी कहा कि डील की बात डीलर करते हैं लीडर नहीं. लीडर तो डील से आगे सोचता है. उसका भूत, वर्तमान और भविष्य देखता है. इसलिए देश को डीलर नहीं बल्कि लीडर चाहिये.
मोहम्मद सलीम के इस बयान में भारत-अमेरिका ऐटमी डील की सच्चाई है तो देश के सियासत का ख़तरनाक सच भी. आज हमारे देश में तात्कालिक नफा-नुकसान से ऊपर उठ कर देशहित में फ़ैसले लेने वाले नेता कितने है, अगर गिनने बैठिये तो दोनों हाथों की अंगुलियां कम पड़ जाएंगीं. उनमें भी अगर ऐसे नेता की बात करें जिसका एक बड़ा जनाधार हो तो वैसा नेता एक भी नहीं मिलेगा. जो हैं या तो मनमोहन सिंह की तरह किताबी अर्थशास्त्री हैं. प्रणब मुखर्जी और अर्जुन सिंह की तरह बीते जमाने के धुर्त रणनीतिकार हैं. लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव और राम विलास पासवान जैसे पथभ्रष्ट और सत्ता लोलुप समाजवादी हैं. अमर सिंह जैसे दलाल हैं और सूरजभान, शहाबुद्दीन, मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद और राजा भैया जैसे पेशेवर अपराधी हैं.
इन नेताओं की फेहरिस्त में एक भी ऐसा नहीं है जिसे गरीबों से कोई वास्ता हो. जिसे किसानों से कोई लेना देना हो. जो स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार जैसे गंभीर मुद्दों पर संजीदा होकर सोचता हो. अगर ऐसा होता तो अमेरिका से किसी भी तरह की सौदेबाजी से पहले पानी की समस्या पर विचार किया जाता. देखिये इस साल भी बुंदेलखंड में सूखा है. इस साल भी ना जाने कितने किसान साहूकार का कर्ज चुकाने के लिए खेत बेचेंगे, ना जाने कितने भूख से बीमार पड़ कर दम तोड़ेंगे. ना जाने कितने किसान मालिक से मजदूर बनकर शहरों की फैक्ट्रियों में काम करेंगे.
अगर कोई संजीदा नेता होता तो वो ऐटमी करार से पहले सोचता कि किस तरह दिल्ली से सैकड़ों मील दूर बस्तर और पलामू में भी अच्छे अस्पताल खुलवाएं जाएं. ऐसे अस्पताल जहां गरीबों को उनकी हैसियत में भी अच्छा इलाज मिल सके. उन दूर दराज के इलाकों को छोड़ दें, दिल्ली से साठ किलोमीटर दूर जाने पर भी कोई औसत दर्जे का अस्पताल नहीं मिलता. दिल्ली में भी जो हैं वो अमीरों के लिए हैं. गरीब तो कतार में खड़े होने के लिए और मरने के लिए छोड़ दिये जाते हैं.
आज क्या कोई नेता सोचता है कि देहात में बच्चों को अच्छी शिक्षा दी जाए ताकि वो बड़े होकर अपने लिए एक बेहतर भविष्य तैयार कर रहे हैं. गायक, संगीतकार, चित्रकार, कलाकार या फिर खिलाड़ी बनने जैसे सपनों को पूरा करने की बात छोड़ दीजिये, जरूरतें पूरी करने लायक कमा सकें. नहीं, ऐसा संवेदनशील नेता एक भी नहीं है? यही वजह है कि गांव के बच्चे वैसे सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे हैं जहां टीचर नहीं. टीचर हैं तो उन पर नज़र रखने की व्यवस्था नहीं. बच्चे पढ़ लिख कर आगे बढ़ने की जगह या तो कमाई का आसान रास्ता तलाशते हुए अपराध के दलदल में फंसते हैं या फिर मजदूरी के लिए गांव छोड़ शहरों की ओर भागते हैं. अपनी मिट्टी और परिवार से दूर गुलामों की तरह काम करते हुए चंद पैसे जोड़ कर घर भेजते हैं, ताकि उनके बच्चे पढ़ सकें, लेकिन उन गांव में तो वही व्यवस्था है जिसका वो खुद शिकार हुए. वो व्यवस्था अब भी नहीं बदली है और उम्मीद की रोशनी भी कहीं नहीं है.
इसलिए आज मनमोहन से... माफ कीजियेगा... सोनिया गांधी से पूछा जाना चाहिये कि बीते चार साल और दो महीनों में उन्होंने इस देश के लिए क्या किया? सोनिया से इसलिये कि देश की जनता ने उन्हें चुना था, मनमोहन को नहीं. मनमोहन तो शुरू से डीलर थे, लीडर नहीं. यही वजह है कि वो चार साल तक सत्ता के शीर्ष पर बैठे रहने के बाद भी जनता के बीच जाने का साहस नहीं जुटा सके. लोकसभा का चुनाव कभी लड़ नहीं सके. बस डील के चक्कर में पड़े रहे, डील भी ऐसी कि देश की सम्प्रभुता ही दांव पर लग जाए.
मोहम्मद सलीम के इस बयान में भारत-अमेरिका ऐटमी डील की सच्चाई है तो देश के सियासत का ख़तरनाक सच भी. आज हमारे देश में तात्कालिक नफा-नुकसान से ऊपर उठ कर देशहित में फ़ैसले लेने वाले नेता कितने है, अगर गिनने बैठिये तो दोनों हाथों की अंगुलियां कम पड़ जाएंगीं. उनमें भी अगर ऐसे नेता की बात करें जिसका एक बड़ा जनाधार हो तो वैसा नेता एक भी नहीं मिलेगा. जो हैं या तो मनमोहन सिंह की तरह किताबी अर्थशास्त्री हैं. प्रणब मुखर्जी और अर्जुन सिंह की तरह बीते जमाने के धुर्त रणनीतिकार हैं. लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव और राम विलास पासवान जैसे पथभ्रष्ट और सत्ता लोलुप समाजवादी हैं. अमर सिंह जैसे दलाल हैं और सूरजभान, शहाबुद्दीन, मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद और राजा भैया जैसे पेशेवर अपराधी हैं.
इन नेताओं की फेहरिस्त में एक भी ऐसा नहीं है जिसे गरीबों से कोई वास्ता हो. जिसे किसानों से कोई लेना देना हो. जो स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार जैसे गंभीर मुद्दों पर संजीदा होकर सोचता हो. अगर ऐसा होता तो अमेरिका से किसी भी तरह की सौदेबाजी से पहले पानी की समस्या पर विचार किया जाता. देखिये इस साल भी बुंदेलखंड में सूखा है. इस साल भी ना जाने कितने किसान साहूकार का कर्ज चुकाने के लिए खेत बेचेंगे, ना जाने कितने भूख से बीमार पड़ कर दम तोड़ेंगे. ना जाने कितने किसान मालिक से मजदूर बनकर शहरों की फैक्ट्रियों में काम करेंगे.
अगर कोई संजीदा नेता होता तो वो ऐटमी करार से पहले सोचता कि किस तरह दिल्ली से सैकड़ों मील दूर बस्तर और पलामू में भी अच्छे अस्पताल खुलवाएं जाएं. ऐसे अस्पताल जहां गरीबों को उनकी हैसियत में भी अच्छा इलाज मिल सके. उन दूर दराज के इलाकों को छोड़ दें, दिल्ली से साठ किलोमीटर दूर जाने पर भी कोई औसत दर्जे का अस्पताल नहीं मिलता. दिल्ली में भी जो हैं वो अमीरों के लिए हैं. गरीब तो कतार में खड़े होने के लिए और मरने के लिए छोड़ दिये जाते हैं.
आज क्या कोई नेता सोचता है कि देहात में बच्चों को अच्छी शिक्षा दी जाए ताकि वो बड़े होकर अपने लिए एक बेहतर भविष्य तैयार कर रहे हैं. गायक, संगीतकार, चित्रकार, कलाकार या फिर खिलाड़ी बनने जैसे सपनों को पूरा करने की बात छोड़ दीजिये, जरूरतें पूरी करने लायक कमा सकें. नहीं, ऐसा संवेदनशील नेता एक भी नहीं है? यही वजह है कि गांव के बच्चे वैसे सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे हैं जहां टीचर नहीं. टीचर हैं तो उन पर नज़र रखने की व्यवस्था नहीं. बच्चे पढ़ लिख कर आगे बढ़ने की जगह या तो कमाई का आसान रास्ता तलाशते हुए अपराध के दलदल में फंसते हैं या फिर मजदूरी के लिए गांव छोड़ शहरों की ओर भागते हैं. अपनी मिट्टी और परिवार से दूर गुलामों की तरह काम करते हुए चंद पैसे जोड़ कर घर भेजते हैं, ताकि उनके बच्चे पढ़ सकें, लेकिन उन गांव में तो वही व्यवस्था है जिसका वो खुद शिकार हुए. वो व्यवस्था अब भी नहीं बदली है और उम्मीद की रोशनी भी कहीं नहीं है.
इसलिए आज मनमोहन से... माफ कीजियेगा... सोनिया गांधी से पूछा जाना चाहिये कि बीते चार साल और दो महीनों में उन्होंने इस देश के लिए क्या किया? सोनिया से इसलिये कि देश की जनता ने उन्हें चुना था, मनमोहन को नहीं. मनमोहन तो शुरू से डीलर थे, लीडर नहीं. यही वजह है कि वो चार साल तक सत्ता के शीर्ष पर बैठे रहने के बाद भी जनता के बीच जाने का साहस नहीं जुटा सके. लोकसभा का चुनाव कभी लड़ नहीं सके. बस डील के चक्कर में पड़े रहे, डील भी ऐसी कि देश की सम्प्रभुता ही दांव पर लग जाए.
1 comment:
पिछले चार सालों में यूपीए सरकार ने जो कुछ किया वह सबके सामने है। सबको पता है कि सत्ता के इस असामान्य समीकरण में मनमोहन सिंह से बहुत अधिक मान सोनिया का था और उससे भी अधिक मान वामदलों का। वामदलों की सहमति के बिना कुछ भी नहीं हो सकता था न हुआ है - यह समझने के लिये राजनीति का पण्डित होना आवश्यक नहीं है। इसलिये इस सरकार की कारगुजारियों के लिये प्रत्यक्ष वा परोक्ष रूप से वामपंथी ही जिम्मेदार हैं। पिछले चार वर्षों की 'उपलब्धियों' पर नजर दौड़ायें तो कहना पड़ेगा कि वामपंथी केवल 'सैद्धान्तिक शेर' हैं; जमीन पर वे कुछ भी नहीं कर पाते।
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