इंदौर में हिंसा के लिए आखिर जिम्मेदार कौन हैं? क्या सिर्फ बीजेपी या धर्म के नाम पर ख़ूनी सियासत करने वाले उसके जैसे तमाम दल? या फिर हमारा समाज जिसमें धर्म की बात उठते ही सोचने समझने की ताक़त ख़त्म हो जाती है? या फिर कोई और भी तबका इसके लिए जिम्मेदार है? पिछले दो तीन दिन से मैं अख़बार पर अख़बार पलट रहा था इस सवाल का जवाब ढूंढने के लिए। अभी तक मैं किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सका हूं, लेकिन कुछ सवाल जरूर कौंध रहे हैं कि आखिर अमरनाथ श्राइन बोर्ड से ज़मीन वापस लिये जाने के फ़ैसले के ख़िलाफ़ मुस्लिम समुदाय से विरोध के तीखे स्वर क्यों नहीं उठे? आखिर क्यों मुस्लिम बुद्धिजीवी फिर ख़ामोश रह गए? क्या वो इसके गंभीर नतीजों से वाकिफ नहीं थे? या फिर वो फ़ैसले पर जश्न मना रहे थे?
ये सोचने लायक बात है। जब किसी भी लोकतांत्रिक देश में किसी राज्य के शासक धर्म विशेष के हितों और मर्जी को ध्यान में रख कर फ़ैसले लेंगे तो फिर धर्मनिरपेक्षता का पाखंड किस लिए? पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ़्ती समेत जम्मू कश्मीर के तमाम कठमुल्लों की इस ओछी सियासत के आगे गुलाम सरकार के घुटने टेकने से धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा को झटका लगा है। इस पर मुस्लिम बुद्धिजीवियों की ख़ामोशी और परेशान करने वाली है। अगर वो इसी तरह ख़ामोश तमाशा देखते रहे तो नफ़रत की सियासत में माहिर बीजेपी को मौका मिलेगा ही। फिर उसे दोष क्यों देना? वो तो जिस राजनीति में माहिर है और जिसके लिए बदनाम है वही कर रही है।
सब जानते हैं कि जम्मू-कश्मीर में मुसलमान बहुसंख्यक हैं और हिंदू अल्पसंख्यक। ऐसे में अमरनाथ श्राइन बोर्ड से ज़मीन वापस लेने के फैसले को सीधे तौर पर माना जा सकता है कि बहुसंख्यक के दबाव में अल्पसंख्यकों के हितों की अनदेखी की गई है। उनकी भावनाओं को ठेस पहुंचाई गई है। फिर क्या ग़लत है अगर गुजरात में नरेंद्र मोदी बहुसंख्यक हिंदू के हितों को ध्यान में रख कर फ़ैसले लेते हैं? फिर क्या ग़लत होगा अगर इस देश के बहुसंख्यक हिंदुओं की आस्था को ध्यान में रख कर अयोध्या में राम मंदिर बनवा दिया जाए? अगर बहुसंख्यकों की इच्छा और हित ही किसी राज्य और राष्ट्र के लिए सर्वोपरी हैं तो फिर क्यों ना भारत को हिंदू राष्ट्र बना दिया जाए?
3 comments:
शायद कोई भी बुद्धिजीवी इस गंदी राजनीति में पड़ना ही नहीं चाहता है ।
रस्तोगी जी यही तो दुख की बात है… कीचड़ में घुसे बिना आप उसे साफ़ कैसे करेंगे? उतरना ही पड़ेगा इसमें वरना हालात और बदतर ही होते जायेंगे…
आखिर अमरनाथ श्राइन बोर्ड से ज़मीन वापस लिये जाने के फ़ैसले के ख़िलाफ़ मुस्लिम समुदाय से विरोध के तीखे स्वर क्यों नहीं उठे? आखिर क्यों मुस्लिम बुद्धिजीवी फिर ख़ामोश रह गए? क्या वो इसके गंभीर नतीजों से वाकिफ नहीं थे? या फिर वो फ़ैसले पर जश्न मना रहे थे?
यही तो मैं सब से पूछ रहा हूँ, मगर हर कोई हिन्दूओं को हड़काने के अलावा कुछ नहीं कहता.
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