Tuesday, July 3, 2007

किसानों के खून से काली कमाई

((हमारे साथी और बैंक में मैनेजर मणीष ने एक वादा किया और उसे निभाया भी। उन्होंने किसानों की हालत पर अपना नया लेख भेजा है। इस लेख को पढ़ कर मैं हैरान परेशान रह गया। किसानों के साथ नेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों के विश्वासघात से हम सब परिचित हैं। लेकिन हममें से बहुत कम जानते हैं कि कृषि कलपुर्जे बनाने कंपनियों और बैंकों के अफसर साजिश के तहत किसानों के खून पसीने से काली कमाई तैयार करते हैं। यह एक ऐसा जाल है जिसमें फंस कर किसान दम तोड़ता है, मगर टुकड़ों टुकड़ों में।))


फेस्टिव सीजन के बारे में हम लोगों ने बहुत सुना है। आए दिन हर संभव माध्यम पर ये प्रचार आता रहता है कि खरीदारी के इस उत्सवी माहौल का फायदा उठाएं। यह उत्सवी माहौल दिवाली के कारण हो सकता है या फिर ईद के कारण। कभी दूर्गापूजा तो कभी क्रिसमस पर बाजार का फेस्टिव सीजन। कभी समर फेस्टिवल तो कभी मानसून हंगामा। सालभर हम और आप ऐसे उत्सवी माहौल में दिये जा रहे अभूतपूर्व छूट का फायदा उठाने के लिए ललचाए जाते हैं। और वे चीजें क्या होती हैं जिन पर ये छूट दी जाती है? कपड़े, खाने का सामान, रोजमर्रा की चीजें व व्यक्तिगत वाहन, मसलन कार, स्कूटर, मोटरसाइकिल। ये सब उपभोक्ता चीजें हैं। उत्पादकता से इनका संबंध नहीं होता है।
पर कभी आपने ऐसा देखा है कि इस देश में जो सबसे बड़ा वर्ग खेतिहर लोगों का है उसके लिए कभी, कोई ऐसा फेस्टिव सीजन आता है? जिन चीजों की किसानों को जरूरत होती है उन पर कभी किसी प्रकार की छूट दी जाती है? खाद, बीज, ट्रैक्टर, पंपसेट आदि की खरीद पर दिये जाने वाले छूट के बारे में क्या आपने कभी कुछ भी सुना है? कोई तो वजह होगी कि खेती से संबंधित चीजों का धंधा कर रही कंपनियां ग्राहकों के लिए मारामारी नहीं करती हैं? आखिर छूट तो ग्राहकों को रिझाने की ही एक विद्या है। फिर ये विद्या खेती के कारोबार से जुड़ी कंपनियां क्यों नहीं आजमाती?
ऐसा भी नहीं है कि कंपनियां इतने कम लाभ पर काम करती हैं कि छूट जैसी चीज का सवाल ही नहीं उठता। या किसी एक कंपनी का वर्चस्व है कि वह जिस दाम पर चाहे उस दाम पर चीजों को बेचे। जहां इंडोगल्फ, चंबल फर्टिलाइजर्स, हिंदुस्तान फर्टिलाइजर्स, फर्टिलाइजर कॉरपोरेशन, पारादीप फास्फेट जैसी बड़ी कंपनियां और ढेरों छोटी कंपनियां रासायनिक खाद के बाजार में हैं वहीं पायोनियर, महिको, आदर्श सीड्स, पंतनगर, कारगिल जैसी बड़ी समेत सैकड़ों छोटी कंपनियां यहां के किसानों को बीज बेचने का धंधा कर रही हैं। ट्रैक्टर की 14 कंपनियां हैं तो पंपसेट की कम से कम दस। इसके अतिरिक्त उन छोटी इकाइयों की गिनती ही नहीं है जो अन्य कृषि यंत्र बनाती हैं। इन सारी कंपनियों के ग्राहक इस देश के किसान हैं।
दरअसल इन कंपनियों के लिए मामला फायदे का नहीं है। फायदे को लेकर ये पूरी तरह बेफिक्र रहती हैं। ग्राहक वर्ग इतना बड़ा है कि उसमें हिस्सेदारी के लिए बेतरह मारामारी नहीं है। यहां बात आती है उस लूट की जिसमें ये सभी कंपनियां सहभागी होती हैं। इसी लूट से निकलता है ऐसा कालाधन, जिसमें यहां के किसानों का गाढ़ा खून शामिल होता है। यह किस्सा है एक ऐसी प्रक्रिया का जिसके तहत इस देश की कंपनियां और बैंक मिलकर उस क्षेत्र से धन की उगाही करते हैं जिसके बारे में कहा जाता है कि वहां धन की बेहद कमी है। ये कुछ ऐसा है कि जिस कमजोर व्यक्ति को डॉक्टरों ने खून की जरूरत बताई है, खून चढ़ाने के बाद उस वयक्ति से ऐसी कीमत वसूली जाती है कि उसे अदा करने के लिए मजबूरी में उसे अपना दोगुना खून बेचना पड़ जाता है।
पिछले एक लेख अगली आहुति आपकी (चौखंबा, 17 जून, 2007) में मैंने इसकी चर्चा की थी कि भारत में खेती के क्षेत्र में बड़ी खरीदारी के लिए 99 फीसदी से अधिक किसान कर्ज पर आश्रित हैं। बड़ी खरीदारी से आशय ट्रैक्टर, थ्रेसर, ट्रेलर, पंपसेट जैसी चीजों से है। वो उपकरण जो उत्पादकता के लिए होते हैं ना कि उपभोग के लिए और जिनकी कीमत 50 हजार से लेकर 4-5 लाख रुपये तक होती है। यह जानिये कि जब ज्यादातार बाजार ऋण से संचालित होता है तो ग्राहकों के लिए मारामारी सामान बनाने वाली कंपनियों में नहीं, बल्कि कर्ज मुहैया कराने वाली कंपनियों के बीच होती है। उस पर जब कर्ज लेनेवाले एक खोजें हजार पाएं की तर्ज पर हों तो कर्ज देनेवालों की मनमानी चलती है। ऐसे में बुना जाता है वो जाल, जिसमें फंस कर किसानों को बेचना पड़ता है अपना लहू। उसी लहू से पैदा होती है वो लालिमा जो कंपनियों और बैंकों के लिए रंगीन फेस्टिव सीजन का निर्माण करती है। (जारी...)

3 comments:

अनिल रघुराज said...

वाकई, किसानों के लिए कोई फेस्टिव सीजन क्यों नहीं आता, ये एक बड़ा सवाल है। इसका जवाब हमारे हुक्मरानों के कृषि नारों की कलई उतार देगा। लिखते रहिए क्योंकि सच्चाई को सामने लाना जरूरी है।

Sunil Deepak said...

गरीब किसानों के साथ क्या होता है इसकी चिंता कम ही लोगों को होती है, शायद इस लिए कि उनके जीवन शहरों में पले बड़े हुए लोगों के जीवन से बहुत दूर हैं. आप के लिख के अगले भाग का इंतजार रहेगा.

Sanjay Tiwari said...

आपकी समझ साफ है. ऐसे ही समझवाले लोग कंपनीराज को मुंहतोड़ जवाब देंगे.
खेती में पूंजी-निवेश ऐसा मसला है जो एकतरफा है. इसमें किसान के खून से विकास का दिया जलाया जाएगा और शहरों में बैठे हुए दलाल समृद्ध और काबिल उद्योगपति बन जाएंगे.
ऐसी समझवाले और लोगों को प्रेरित करिए जो कंपनीराज के इस मकड़जाल को भेद सकें.

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