Friday, July 6, 2007

खेती के लिए कर्ज या कर्ज की खेती?

((एमटीएनएल ने धोखा दे दिया, ब्रॉडबैंड ठप हो गया और तीन दिन तक मैं ब्लॉग की दुनिया से अछूता रहा। इसलिए साथी मणीष के लेख (किसानों के खून से काली कमाई) का अगला हिस्सा पोस्ट करने में थोड़ी देर हो गई। इस हिस्से में मणीष ने उदाहरण के साथ समझाया है कि कैसे दलालों की मदद से सरकारी बैंकों के घूसखोर अफसर किसानों का खून चूस रहे हैं। ये एक ऐसा जाल है जिसमें जो भी फंसता है और फंसता चला जाता है।))

कृषि में फेस्टिव सीजन के अकाल को जानने के लिए एक वैसा ही उदाहरण देते हैं जिसकी थोड़ी चर्चा पिछले लेख में की गई थी। भारत में ट्रैक्टर का कारोबार। ट्रैक्टर के कारोबार से जिस कदर काली कमाई होती है वो हैरान कर देती है।
भारत में ट्रैक्टर बनाने वाली 14 कंपनियां हैं। इनमें देसी के साथ विदेशी भी शामिल हैं। देश में जो सबसे कम दाम का ट्रैक्टर मिलता है वो देसी तकनीक से बना बेहद छोटी श्रेणी का ट्रैक्टर “अंगद” है। इसकी कीमत एक लाख रुपये के करीब है। मगर इसकी बिक्री बेहद कम होती है। ऐसा इसलिए कि ये ट्रैक्टर यहां के आम किसानों की जरूरत के हिसाब से बेहद छोटा है। ये चर्चा पहले ही की जा चुकी है कि किसानों के लिए सबसे मुफीद ट्रैक्टर 35-40 हॉर्स पॉवर की श्रेणी के होते हैं। बाजार में इनकी कीमत इस आधार पर तय होती है कि आप नकद खरीदेंगे या फिर कर्ज लेकर। नकद और कर्ज की खरीद में 70 हजार से लेकर एक लाख रुपये का अंतर होता है। यानी अगर आप 35-40 हॉर्स पॉवर का ट्रैक्टर नकद खरीदेंगे तो उसकी कीमत तीन से सवा तीन लाख रुपये होगी। लेकिन कर्ज लेकर खरीदने पर आपको चार से सवा चार लाख रुपये चुकाने होंगे।
दाम में यह फर्क क्यों? इस फर्क से ट्रैक्टर की गुणवत्ता में कोई अंतर नहीं आता है। उसकी यह कीमत कर्ज की कीमत के तौर पर वसूली जाती है, गुणवत्ता में बढ़ोत्तरी के लिए नहीं। यहां आप कहेंगे कि कर्ज की कीमत तो उस पर वसूला जाने वाला ब्याज होता है, फिर यह कौन सी कीमत है? आपको बताएं कि यह कीमत उन लोगों के द्वारा ब्याज के अतिरिक्त वसूली जाती है, जो किसानों को कर्ज देते और दिलवाते हैं।
दरअसल कर्ज लेने की शुरुआत ट्रैक्टर कंपनी का दलाल करता है। उसकी बैंकों से सांठगांठ होती है। इस दलाल का काम ट्रैक्टर कंपनी के लिए ग्राहक ढूंढ कर उसके लिए बैंक से कर्ज की व्यवस्था करवाना होता है। यह बेहद जटिल और उल्टी प्रक्रिया है। मसलन अगर आपको कार खरीदनी हो तो सबसे पहले आप कार की कंपनी और उसके मॉडल को चुनते हैं। फिर डीलर के पास जाकर अपनी जमा पूंजी बताते हैं। जो रकम बच जाती है उसके लिए ऐसा बैंक तलाशते हैं जो सबसे कम ब्याज दर पर कर्ज मुहैया कराए। ऐसा अक्सर होता है कि कार कंपनी का डीलर ही अपने किसी विशेष ऑफर के तहत बैंक से आपके लिए न्यूनतम दर पर कर्ज की व्यवस्था करवा दे। पर भारत में ट्रैक्टर की बिक्री ऐसे नहीं होती।
इस सौदे में होता यह है कि ट्रैक्टर कंपनी के दलाल किसानों को बताते हैं कि वो किस बैंक से कितने कर्ज की व्यवस्था करवाएगा। ट्रैक्टर कंपनी के दलाल की इलाके के जिस बैंक के अधिकारियों से गहरी सांठगांठ होती है वह उस बैंक से कर्ज की व्यवस्था ज्यादा आसनी से करवा देता है। इस प्रक्रिया में किसानों के पास से चुनने की वह आजादी जाती रहती है जो कार खरीदते समय हम और आप जैसे शहरी ग्राहकों के पास होती है। उसे उसी कंपनी का ट्रैक्टर खरीदना पड़ता है जिस कंपनी का दलाल उसके लिए कर्ज का बंदोबस्त करता है।
बात तय हो जाने पर किसान के साथ वह दलाल बैंक पहुंचता है। अधिकारियों और किसान की मुलाकात होती है और मोटे तौर पर किसान को यह बता दिया जाता है चार लाख ट्रैक्टर के साथ आपको तीन और कृषि उपकरण भी लेने होंगे। ऐसा इसलिए कि ट्रैक्टर अपने आप में कोई उत्पादक वाहन नहीं होता। वह किसी अन्य उपकरण के साथ ही उपयोगी होता है जैसे ट्रेलर, कल्टिवेटर, थ्रेसर वगैरह वगैरह। भारत सरकार की यह नीतिगत मान्यता है कि बिना तीन यंत्र के कोई भी किसान ट्रैक्टर से इतनी आमदनी नहीं कर सकता कि कर्ज को ब्याज समेत चुकता कर दे। यहां यह भी याद रखिये कि कर्ज के एवज में ट्रैक्टर व अन्य उपकरण समेत छह से सात एकड़ सिंचाई योग्य जमीन भी गिरवी रख ली जाती है। ऐसी जमीन जिसकी बाजार में कीमत कम से कम 12-15 लाख रुपये होती है।
किसानों की बेबसी का अंदाजा इसी से लगाइये कि अगर वो तीन अतिरिक्त उपकरण बाजार से खरीदना चाहे तो उसे ऐसा करने नहीं दिया जाता। दलाल और बैंक अधिकारी ही यह तय करते हैं कि जो उपकरण खरीदे जाने हैं वो कहां से खरीदे जाएंगे और उनकी कीमत क्या होगी। इसकी एक बड़ी वजह है। खुले बाजार में अगर तीनों उपकरण (ट्रेलर-35 हजार, कल्टिवेटर – 10 हजार और थ्रेसर – 35 हजार रुपये) खरीदे जाएं तो उनकी कीमत 80 हजार रुपये के करीब बैठेगी। वहीं बैंक अधिकारियों और दलाल के दबाव में किसान उन उपकरणों के लिए 1 लाख 25 हजार रुपये (ट्रेलर 55 हजार, कल्टिवेटर 15 हजार और थ्रेसर 55 हजार) चुकाता है। इस प्रकार किसान से ट्रैक्टर के लिए 70 हजार ज्यादा (नकद की तुलना में) और तीन उपकरणों के लिए 50 हजार रुपये ज्यादा वसूले जाते हैं।
ऐसा नहीं करने पर किसान को कर्ज नहीं मिलता। चूंकि कर्ज मंजूर करना बैंक अधिकारियों का विवेकाधिकार होता है, इसलिए एक सचेत और पढ़ा लिखा किसान भी कुछ नहीं कर सकता। उसे यह भी नहीं बताया जाता है कि कर्ज नहीं देने के क्या कारण हैं। जनता की जमा पूंजी पर ये बैंक अधिकारी ऐसे नागकुंडली मार कर बैठे हैं, जैसे ये उनका खानदानी अर्जित धन हो।
इस गोरखधंधे के बाद शुरू होता है काली कमाई का बंटरबांट। ट्रैक्टर कंपनी और उपकरण निर्माता कंपनी की तरफ से कोट की गई रकम का भुगतान बैंक की तरफ से ड्राफ्ट के जरिये कर दिया जाता है। अधिकारी इसका पूरा ख्याल रखते हैं कि कागजी कार्रवाई में कोई चूक नहीं हो जाए। यही वजह है कि ज्यादातर लोगों को कागजात पर नजर डालने के बाद कुछ भी गलत नहीं लगता। लेकिन कागजी काम पुख्ता करने के तुरंत बाद दलाल ट्रैक्टर कंपनी के डीलर से अतिरिक्त 70 हजार रुपये और उपकरण निर्माता कंपनी से अतिरिक्त 50 हजार रुपये नकद वसूल लाता है। यह सब पिछले दरवाजे से होता है। वसूली गई रकम में से बैंक के अधिकारी अपने हिस्से का 30-40 हजार रुपये वसूल लेते हैं। यह न्यूनतम राशि होती है, अधिकांश समय यह राशि इससे ज्यादा ही होती है। बचे हुए पैसे नीचे पटवारी से लेकर ऊपर जमीन के जिलापंजीयक (रजिस्ट्रार) के बीच बंटते हैं। पटवारी बैंक को गिरवी रखी जमीन की उपज का ब्योरा सत्यापित (अटेस्ट) करके देता है और पंजीयक (रजिस्ट्रार) जमीन को गिरवी रखने संबंधित काम निपटाता है। हम सब जानते हैं कि इस देश में जिस तरह भ्रष्टाचार फैला हुआ है उसमें इनमें से किसी से भी मुफ्त में काम करने की उम्मीद बेमानी है। आखिर में पांच से दस हजार रुपये दलाल के हाथ लगते हैं।
यह जानिये कि इस देश में सालाना 4 लाख ट्रैक्टरों की बिक्री होती है। इसमें सबसे बड़ा हिस्सा उत्तर भारत के मैदानी इलाकों का होता है। यही नहीं 90 फीसदी से ज्यादा ट्रैक्टरों की बिक्री बैंकों के कर्ज पर आधारित है। यानी कर्ज लेकर खरीदे गए ट्रैक्टरों की संख्या 3.6 लाख सालाना से ज्यादा होती है। कुछ मामलों को अपवाद मान कर छोड़ भी दें तो भी 3 लाख ट्रैक्टरों की बिक्री के मामले में पैसे की उगाही दलालों के जरिये ही की जाती है।
अब आप इसका गणित देखें। कम से कम एक लाख (ऊपर के हिसाब से 1 लाख 20 हजार रुपये दिखाई गई है) की दर से सालाना तीन लाख ट्रैक्टर के लिए वसूली गई अतिरिक्त व बेजा राशि तीन हजार करोड़ रुपये बैठती है। प्रति वर्ष यह राशि चुकाता है यहां का किसान। इसमें शामिल है वह रकम जो 30 हजार रुपये (कम से कम) प्रति ट्रैक्टर की दर से बैंक अधिकारियों की जेब में जाता है। यानी 900 करोड़ रुपया। आपको मालूम हो कि भारत में कार्यरत लगभग 260 बैंकों में से 90 प्रतिशत का सालाना लाभ इस रकम तक नहीं पहुंचता।
सरकार कहती है कि वह बैंकों के माध्यम से किसानों को कर्ज उपलब्ध कराने को प्रतिबद्ध है। यानी मरीज को खून की उपलब्धता हमेशा रहेगी। क्या आपको लगता है कि खून के इस कारोबारी बाजार में मरीज के लिए कभी कोई फेस्टिव सीजन आएगा?
(जारी...)

5 comments:

Sanjay Tiwari said...

समरेन्द्र भैया,
एक और नेक्सस खड़ा हो रहा है. सेल्फ-हेल्प-ग्रुप का. बड़े बैंक और फाइनेंस कंपनियां इन एसएचजी के जरिए बैंक किसानों को छोटे फाइनेंस बड़े व्याज के साथ मुहैया कराती हैं. कई बार तो 24 प्रतिशत सालाना होता है. अचानक से हर बड़ी शहरी फाइनेंस कंपनी को देश के किसानों को कर्जा देने का शौक चढ़ गया है. एसएचजी उनका हथियार बन रही है. कुछ जांच-पड़ताल इसकी भी करवा लो,

Manish Kumar said...

आँखें खोलने वाला लेख लगा आपका। इस वीभत्स सच्चाई से हम सब को रूबरू कराने का शुक्रिया !

Srijan Shilpi said...

बैंक, कृषि उपकरण बनाने वाली कंपनियों और दलालों के गिरोह द्वारा भारत के निरीह किसानों की लूट का यह तंत्र वर्षों से चल रहा है। लेकिन किसी पत्रकार की खोजी नज़र इस गोरखधंधे पर नहीं पड़ी।

आपका बहुत-बहुत शुक्रिया जो आप अपने बैंक अधिकारी मित्र को इस लूट तंत्र की पूरी प्रक्रिया का खुलासा करने के लिए सहमत कर पाए। मनीष जी को साधुवाद!

SHASHI SINGH said...

गरीब जाये तो जाये तो जाये कहां?... समझ नहीं आता।

सार्थक लेख के लिए मनीष को साधुवाद।

Anonymous said...

आजकल माइक्रोफाइनेंस के नाम पर भी किसानों को ठगने की मुहीम चल रही है। हर बड़ा बैंक माइक्रोफाइनेंस के कारोबार में उतर रहा है। पिछले दिनों आईसीआईसीआई बैंक और डीसीबी ने भी इसमें उतरने के लिए सरकार से इजाजत मांगी है। गौर करने की बात है कि बड़े पैमाने पर माइक्रोफाइनेंस की शुरुआत बांग्लादेश में ग्राणीण बैंक ने शुरू की थी। लेकिन उसकी ब्याज दरें पंद्रह परसेंट से ज्यादा नहीं हैं। हमारे देश में एक बड़े ठग का नाम विक्रम अकूला है और ये पच्चीस परसेंट ब्याज पर गरीबों को कर्ज देता है। औऱ इस ठग को टाइम से लेकर हर बड़ी पत्रिका ने आज के युग के नायकों में जगह दी है। इसका भी खुलासा करें तो अच्छा रहेगा।

custom search

Custom Search