Tuesday, July 10, 2007

खामोश हुई संसद की सबसे मुखर आवाज

(चंद्रशेखर जी देश के नेता और पूर्व प्रधानमंत्री बाद में थे, हमारे सांसद पहले थे। उन्होंने देश की राजनीति में अपने स्वभाव और विचारधारा के बूते लीक से हटकर जगह बनायी। उनके निधन के बाद बेशक राजनीति में एक शून्य पैदा हुआ, लेकिन राजनीति को बदलने का जो माद्दा उनमें था, उसका भरपूर इस्तेमाल उन्होंने नहीं किया। उनकी मृत्यु के बाद उनके राजनीतिक उत्कर्ष और गिरावट को रेखांकित करता पेश है हमारे साथी विचित्रमणि का ये लेख।)


चंद्रशेखर जी ने अपनी जेल डायरी में लिखा है कि जुलाई का महीना उनकी जिंदगी में हमेशा नयापन लेकर आया। उसी महीने में गांव से बाहर पढ़ने के लिए गये, उसी महीने में सियासत की राह पर उनके मजबूत कदम बढ़े, उसी महीने में जिंदगी की नई अनुभूतियों से दो चार होना पडा। लेकिन नियति का खेल देखिए कि उसी जुलाई महीने में वो एक ऐसी यात्रा पर निकल पडे, जिसका कोई आदि-अंत नहीं है। हर जन्म की सरहद मौत से मिलती है। चंद्रशेखर ने भी अस्सी साल की उम्र होते होते इस दुनिया को राम राम कह दिया। और जाते जाते छोड़ गये वो सवाल, जो संसद से लेकर सड़क तक हर मंच पर वो हुक्मरानों से पूछते रहे। पीछे छोड़ गये वो यादें, जिनमें गरीबी और बेबसी से मोर्चा लेती जन्मजात विद्रोही वाली उनकी छवि बैठी है। पीछे छोड़ गये वो संकल्प, जो याद दिलाता है कि सत्ता ही सब कुछ नहीं होती। बल्कि सत्ता के गलियारों के बीच सिद्धांतों और मूल्यों की कीमत कहीं ज्यादा होती है। ये दूसरी बात है कि सत्ता की गूंज में सिद्धांतों की आवाज अक्सर दब जाती है।
पिछले ढाई साल से चंद्रशेखर बीमार चल रहे थे और बीमारी भी ऐसी वैसी नहीं, बल्कि शरीर के अंग अंग को तोड़ देने वाला असाध्य रोग कैंसर। उस कष्ट और पीड़ा से जितनी निश्छल मुक्ति मौत दिला सकती थी, उतनी और कोई दवा नहीं। चंद्रशेखर जी तो मुक्त हो गये लेकिन समाज के आखिरी आदमी की जो आवाज वो उठाते रहे, वो अब कौन उठाएगा। जिस विपदा और वेदना की चक्की में देश का किसान और खेतिहर मजदूर समाज पिसता रहा, उस समाज को अन्याय से कौन मुक्ति दिलाएगा। ये कोई अरण्यरोदन नहीं है और ना ही मृत्यु के बाद लिखा गया महज एक श्रद्धांजलि लेख। ये उन सवालों से टकराने की कोशिश है, जो चंद्रशेखर के जाने के बाद पैदा हुए शून्य से उपजे हैं।
बेहद सामान्य परिवार में पैदा हुए चंद्रशेखर का बचपन अभाव में गुजरा था। जवानी उस अभाव की बेचैनी को पूरे समाज के कैनवास पर ढालने में गुजरी और उसी संघर्ष, द्वंद्व और जद्दोजहद के बीच से निकला वो चंद्रशेखर, जो समाजवादी समाज बनाने का सपना देखता था। ३५ साल की उम्र में संसद की दहलीज पर पहली बार कदम रखने वाले उस चंद्रशेखर में ठेठ देसी दृढ़ता थी, समाजवादी आंदोलन के शिखर पुरुष आचार्य नरेंद्र देव का शिष्यत्व था, गांधी की मान्यताओं से पैदा हुई गहरी दृढ़ता थी और अन्याय के खिलाफ मोर्चाबंदी के लिए मार्क्स जैसी तीखी चिंतन शैली। उसी भरोसे के बूते चंद्रशेखर ने चीन युद्ध के बाद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु को राज्यसभा में कटघरे में खड़ा कर दिया। संघर्ष से पैदा हुए साहस का ही नतीजा था कि कांग्रेस में शामिल होने के बावजूद चंद्रशेखर कभी कांग्रेसी नहीं बन पाए। कांग्रेसी यानी जो आलाकमान कहे, वो सर माथे पर रखने वाली मानसिकता। बैंकों के राष्ट्रीयकरण से लेकर राजा महाराजाओं को दी जाने वाली सुविधाएं खत्म करने तक हर समाजवादी फैसले पर इंदिरा गांधी का साथ दिया लेकिन जब गरीबी हटाओ का नारा देकर सत्ता में लौटीं इंदिरा गांधी ने अपने वादों को भुला दिया तो चंद्रशेखर आदि विद्रोही भाव से अपने समय की सबसे शक्तिशाली नेता के सामने चट्टान की तरह खडे हो गये। उस सबसे ताकतवर महिला के खिलाफ, जिसे किसी ने दुर्गा बताया तो किसी ने भारत का पर्यायवाची। ये वो दौर था, जब चंद्रशेखर चाहते तो उनका एक बयान उन्हें इंदिरा गांधी सरकार में माननीय कैबिनेट मंत्री बना सकता था। लेकिन आपातकाल के साये में जब लोकतंत्र पर ही ग्रहण लगा तो चंद्रशेखर के पास दो विकल्प थे। या तो वे इंदिरा गांधी की जयजयकार करके सत्ता का सुख भोगते या फिर लोकशाही की हिफाजत के लिए जेल जाते। चंद्रशेखर ने दूसरा रास्ता चुना। १९ महीने के लिए उनकी ही पार्टी की सरकार ने उन्हें जेल में डाल दिया। और यही से उस चंद्रशेखर का जन्म हुआ, जो अपने सैद्धांतिक मान्यताओं और आचरण में आजादी के आंदोलन के तपे तपाए नेताओं पर भी भारी पड़ता था। जिसके बारे में ये धारणा लोगों के जेहन में बैठ गयी कि चंद्रशेखर जी के लिए तो किसी पद का महत्व उनके चप्पल के टूटे धागे से ज्यादा नहीं है।
लोगों के जुड़ने की उसी कड़ी में जब १९८३ में उन्होंने अपने पैरों से पूरे देश को नाप दिया, तब लोगों को ये आस बंधी कि राजनीतिक अंधेरे के बीच एक नेता ऐसा है, जो उम्मीदों का चिराग जलाए घूम रहा है। चंद्रशेखर भी बेहद आशान्वित थे। जन समर्थन और लोगों के प्यार के उसी प्रवाह में वे कह गये कि प्रधानमंत्री पद के वे सबसे योग्य उम्मीदवार हैं और भारत को वे इंदिरा गांधी या किसी दूसरे नेता से कहीं ज्यादा बेहतर समझते हैं। लेकिन डेढ़ साल बीतते बीतते जब इंदिरा गांधी की हत्या के बाद लोकसभा के चुनाव हुए तो चक्र बीच हल लिए हुए उनका किसान दम तोड़ चुका था। पार्टी तो बुरी तरह हारी ही, खुद चंद्रशेखर भी बलिया से चुनाव हार गये।
उस करारी हार के बाद ही चंद्रशेखर की राजनीति में निर्णायक मोड़ आया। हमेशा सिद्धांतों के ऊंचे टीले पर खड़े रहने वाले चंद्रशेखर जोड़ तोड़ की राजनीति के कीचड़ में फंसने लगे। उस कीचड़ में ही प्रधानमंत्री पद का एक कमल उनकी जिंदगी में चार महीने के लिए खिला। लेकिन सत्ता के शिखर पर पहुंचने के लिए चंद्रशेखर ने अपनी उच्च राजनीति को रसातल में मिला दिया। चंद्रशेखर जल्द ही पूर्व प्रधानमंत्री कहलाने लगे। एसपीजी सुरक्षा का तामझाम मिल गया। जनता का नेता अब नेताओं का नेता हो गया। आम लोगों से उनकी दूरी बढ़ती गयी और संसद में कभी कभार भाषण देने तक ही उनकी राजनीति सिमट कर रह गयी। दिल्ली के रेशमी माहौल में वो चंद्रशेखर गुम गया, जो गांव देहात और उसकी खारी खट्टी मिट्टी से जुड़ा था। इसीलिए उनके अंतिम संस्कार में ज्यादातर नेताओं और कमतर आम लोगों की मौजूदगी ही बता गयी कि वो चंद्रशेखर अभी मरे नहीं हैं, जिन्हें इस देश की उपेक्षित-वंचित जनता अपना नेता मानती रही है।

लेखक- विचित्रमणि

2 comments:

Udan Tashtari said...

श्रद्धांजली!!!

Sanjay Tiwari said...

और आप कहां खामोश हो गये समरेन्द्र बाबू. आज 17 जुलाई है और कोई अन्य संपर्क न पाकर यहीं टीप रहा हूं. इतनी देर में पोस्टिंग से तो बात नहीं बनेगी.

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