फिर वही जून। फिर वही एसपी सिंह और फिर वही रोना धोना। एसपी होते तो ऐसा होता, एसपी होते तो वैसा होता। कुछ का दावा तो यहां तक कि एसपी होते तो टीवी पत्रकारिता का रूप ही कुछ और होता। इस रोने-धोने और एसपी के बहाने मीडिया को गरियाने में वही सबसे आगे हैं जो खुद मीडिया में ताकतवर ओहदों पर बैठे हैं। ये भी मीडिया के उसी जाने-पहचाने सिद्धांत को ज़ाहिर करता है कि ख़बरें उन्हीं की जो ख़बरों में बने हुए हैं। एसपी के जिन साथियों की टीआरपी गिर गई, जो वक़्त के साथ ताल से ताल नहीं मिला सके... हाथिये पर ढकेल दिये गए उनके लेख कम छपते हैं। उनकी बातें कभी कभार ही सुनाई देती हैं। ये अजीब त्रासदी है और उम्मीद की किरण बहुत धुंधली है।
नब्बे के दशक के बाद से टीवी मीडिया को एसपी के साथियों ने ही दिशा दी है। आज इस मीडिया का विभत्स चेहरा उन्हीं लोगों का बनाया हुआ है। वो आज भी कई चैनलों के कर्ताधर्ता हैं। लेकिन उनमें से ज़्यादातर में ऐसा हौसला नहीं कि ख़बरों का खोया सम्मान वापस लौटा सके। वो कभी मल्लिका सेहरावत तो कभी राखी सावंत के बहाने जिस्म की नुमाइश में लगे हैं। अपराध को मसाला बना कर परोस रहे हैं। कभी जासूस बन कर इंचीटेप से क़ातिल के कदम नापने लगते हैं, तो कभी पहलवान के साथ रिंग में उतर कर कुश्ती की नौटंकी करते हैं। वो झूठ को सच बना कर बाज़ार में परोसते हैं और सच को झूठ बनाने का कारोबार करते हैं। वो बलात्कार और क़त्ल की ख़बरों को दिलचस्प बता कर पेश करते हैं। जब ऐसी कोई ख़बर नहीं होती जिसमें तड़का लगा सकें तो लोगों को डराना शुरू कर देते हैं। वैज्ञानिकों की जगह ज्योतिषियों को बिठा कर बात-बात पर कहते हैं कि दुनिया तबाह होने वाली है ... ज़िंदगी देने वाला सूरज खुद ही धरती को निगल लेगा... कलयुग है ... घोर कलयुग।
सच कहूं तो ख़बरों के लिहाज से ये कलयुग ही है और सतयुगी एसपी के ज़्यादातर साथी इस कलयुगी दौर के महानायक हैं। मैंने इसी कलयुग की शुरुआत में मीडिया में कदम रखा है। मैंने १९९७ में आईआईएमसी में दाखिला लिया। ये वही साल है जब एसपी ने दुनिया को अलविदा कहा था। उनके गुजरने की ख़बर सुनकर मुझे ना जाने क्यों ऐसा लगा कि मेरी किस्मत ख़राब है। इतने बड़े पत्रकार के साथ काम करना तो दूर मिल भी नहीं सका। लेकिन आज उनके ज़्यादातर साथियों को देख कर ऐसा नहीं लगता। जब भी मैं एसपी के नाम पर उनके साथियों को घड़ियाली आंसू बहाते देखता हूं तो लगता है कि झूठ का कारोबार करते करते अब ये एसपी को भी बेच रहे हैं। उनके इस चरित्र को देख कर एसपी से नहीं मिल सकने पर अब ज़रा भी अफ़सोस नहीं रहा।
बल्कि ये कहूं कि मैं खुद को खुशकिस्मत मानता हूं तो भी ग़लत नहीं होगा। लगता है कि चलो मैंने बाज़ारवाद के दौर में मीडिया में कदम रखा है। कम से कम मुझे ये भ्रम तो नहीं कि मैं या मेरा कोई गुरू महामानव की तरह बाज़ार की घातक गति को रोक देगा। मुझे ये भ्रम भी नहीं है कि मैं निरंकुश बाज़ार की धारा को मोड़ कर मीडिया को जनहित का हथियार बना दूंगा। मुझे ये मुलागता भी नहीं कि बिना किसी साझे प्रयास के मैं व्यवस्था में कोई मूलचूल परिवर्तन कर दूंगा। मैं जानता हूं कि जब तक मैं नौकर रहूंगा मुझे कंपनी का हित सबसे पहले साधना है। ये भी जानता हूं कि कंपनियों के पैसे से क्रांति नहीं होती और ये भी कि उधार की ज़िंदगी में लड़ने का हौसला नहीं होता। मैं जानता हूं कि आज मेरे पेशे में समाज के लिए बहुत थोड़ा स्पेस है और दिन ब दिन वो स्पेस सिकुड़ रहा है।
आज के दौर में हम कोई ख़बर दिखा कर किसी गरीब को किसी अमीर से चंदा दिला दें तो बहुत है। एयरकंडिशन्ड दफ़्तर और गाड़ियों से ऊबने के बाद बेबस किसानों की बात कर लें तो बहुत है। भूख से बिलबिलाते बच्चों का ख़याल आ जाए तो सोने पर सुहागा। कभी कभार हम ये रस्मअदायगी कर लेते हैं, शायद हम पत्रकार होने के झूठे भ्रम को जिंदा रखना चाहते हैं। ऐसा इसलिए कि पुरानी कहावत है जो अपनी नज़रों में गिर गया समझो वो मर गया। हम कलयुगी दौर के पत्रकार हर रोज मर कर भी मरने से डरते हैं।
आखिर में इतना ही कहूंगा कि एसपी सिंह के साथ जुड़े रहने के बाद भी, अगर यही सब करना था तो अच्छा हुआ कि मैं उनसे नहीं मिला। अगर मिला होता तो उनके तमाम साथियों की तरह उस बोझ को उठाए जी रहा होता कि एसपी हम आपको सच्ची श्रद्धांजलि नहीं दे सके। आप ने तो २७ जून, १९९७ को दुनिया को अलविदा कह दिया था, लेकिन हम तो आपको हर रोज मार रहे हैं।
17 comments:
जबरदस्त आलेख। वाकई जिन लोगों के मुंह से या कलम से एसपी की तारीफ हर साल जून के महीने में रस्म अदायगी के तौर पर निकलती है वे किसी न किसी चैनल में मुख्य पदों पर काबिज हैं। दफ्तर के बाहर तो नैतिकता की बड़ी-बड़ी बाते करते हैं लेकिन दफ्तर के अंदर वही लकीर के फकीर और इनकी लकीर भी वो लकीर नहीं है जो एसपी ने खींची होगी।
एसपी का नाम कोई गंगा जल नहीं है कि जिसने उनके साथ अपना नाम जोड़ लिया उनके पाप माफ हो गए। एसपी के दौर की क्रिटिकल समीक्षा होनी चाहिए ठीक उसी तरह एसपी के बाद के दौर का भी विश्लेषण होना चाहिए। उम्मीद है कि पत्रकारिता प्रशिक्षण संस्थानों में, काम करने वाले पुर्जे ढालने के साथ ही इस तरह का शोध कार्य भी हो रहा होगा। सहमति और असहमति से परे बढ़िया आलेख।
सच्चाई यही है। ज्यादातर लोग इस रस्म अदायगी क बहाने भी मीडिया में अपनी चर्चा की आस रखते हैं।
एसपी के चेले गुरु बन गए हैं लेकिन अपने चेलो को गुड भी नही बना सके चीनी की बात रहने दीजिये. एसपी जो कर गए उसका रोना रोना अलग बात है और २१ वी सदी के भारत के बाजार से लड़ना अलग बात.
एसपी के सामने भी कामयाबी के शॉर्टकट रहे होंगे। लेकिन अगर उन्होंने उस समय का कोई शॉर्टकट अपनाया होता तो जैसा कि हर्षवर्धन त्रिपाठी कहते हैं - एसपी की बात छेड़कर कोई "मीडिया में अपनी चर्चा की आस" कैसे रखता?
हर्ष, तुमने बात को सही पकड़ा है।
पंडे भर गए हैं पत्रकारिता में जो मरे हुए लोगों को भगवान बनाकर मलाई काट रहे हैं। एसपी की आलोचनाच्मक समीक्षा कोई नहीं करता। मैंने अपने छोटे से अनुभव से जाना था कि एसपी टीम बनाने में कतई एकीन नहीं करते थे। दूसरे वो बंगाल की धांधा (क्विज टाइप) परंपरा के वाहक थे। ज्ञान की गहराई में उतरने का माद्दा नहीं था उनमें। बेहद छिछले थे एसपी। उनके मरने पर मैंने भी अमर उजाला के मुख्य संस्करण में श्रद्धांजलि लिखी थी। उनके जाने पर अमिट शून्य बनाया था। लेकिन आज तो उनको गुजरे 11 साल होने को हैं। इसलिए हिंदी टीवी पत्रकारिता की मौजूदा दुर्गति का स्रोत बाज़ार और हालात के साथ-साथ उसके पुरोधा में भी खोजा जाना चाहिए।
समरेंद्र, आपने बड़ी खरी-खरी बात कही है। साधुवाद।
mujhe nahi pata ki aap kanha kaam karate hain, par main ek hi baat janata hoon ki chahe koi bhi ho use dhara ke sath hi bahana hota hai. after all patrakaarita dhandha achca hai, lekin naukari buri..... aur ye vidmbna hai ki har patrakaar naukar hi hota hai...apni naukari chalane ke liye use wohi sab karana hai jo ho raha hai.... kul mila kar jo haota hai wo hone do...... jo gujar gaye we isliye behatar hain kyonki we aaj nahi hain... yadi we hote to shayad we bhi kanhi na kahi isi bheed ka ek chehra hote.....
ये सबसे बड़ी त्रासदी है कि हम किसी का मूल्यांकन करते समय या तो उसे भगवान बना देते हैं या शैतान । ये बात आजतक मेरी समझ में नहीं आई कि व्यक्ति चाहे वो कितना भी बड़ा हो, वो समाज या समुदाय का समुच्चय नहीं हो सकता । एसपी सिंह से मैं भी कभी नहीं मिला, लेकिन मैं ये मानने को तैयार नहीं हूं कि आज वो होते तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की धारा बदल देते । बगैर किसी लाग लपेट के कहा जाए तो या तो वो इसी सड़ी गली व्यवस्था का हिस्सा बनते या हाशिये पर सरका दिये जाते । आखिर जो लोग आज गंदगी को चाशनी बनाकर परोस रहे हैं, वो लोग ही तो एसपी के दौर में तीखे तेवर वाली स्टोरी बनाते थे । वैसी खबरें निकाल कर लाते और लिखते थे कि हुकूमत और हुक्मरानों को सांप सूंघ जाता था । लेकिन समरेंद्र, हम मानें या ना मानें, बाजार की धारा इतनी ताकतवर है कि पत्रकारों के बदलने से समाज का मानस नहीं बदल सकता और जब तक समाज का मन नहीं बदलेगा, टीवी वाले अपना धंधा करते रहेंगे ।
दरअसल ये सारी चीजें बड़ी सापेक्षिक होती हैं । आज जब चारो तरफ हमें अंधेरा दिखायी देता है और उस अंधेरे को बढ़ाने में हम भी हिस्सा ले रहे हैं, उस समय एनडीटीवी के मालिक और मुखिया प्रणव राय पत्रकारिता की आत्मा को बचाते हुए दिखते हैं । लेकिन उसी प्रणव राय के बारे में समाजवादी चिंतक किशन पटनायक ने एक तीखा लेख लिखा था, जिसका शीर्षक था- प्रोफेसर से तमाशबीन । लेख लिखने का सीधा मकसद रहा होगा कि प्रणव राय उन मानकों पर खरे नहीं उतर रहे हैं, जो समाज को सही मायने में आईना दिखाता है । इस लिहाज से देखें तो इस बात की क्या गारंटी है कि अगर एसपी होते तो टीवी पत्रकारिता का ढांचा बदल देते । ये हमारा दुर्भाग्य है कि जैसे एक खास जीव को रात में ही दिखायी पड़ता है, वैसे ही हमें किसी व्यक्ति में ही सिस्टम को बदल देने का माद्दा दिखने लगता है। इस लिहाज से मैं तुमसे सौ फीसद सहमत हूं कि जो लोग एसपी के नाम का रोना रो रहे हैं, वो बेसहारा लोग हैं या फिर हर्षवर्धन या दिलीप मंडल के शब्दों में कहूं तो अपने लिए स्पेस तलाश रहे हैं ।
ये हम सबका दुर्भाग्य हो सकता है कि हम उस दौर की पत्रकारिता के साक्षी हैं, जहां हम सिर्फ नौकर हैं । बस एसपी बहुत खुशकिस्मत थे कि हमारे दौर की नौकरी से वो बच गये और उनसे भी खुशकिस्मत वो लोग हैं, जिनकी तरफ, समरेंद्र, तुमने इशारा किया है । जो एसपी के नाम का रुदन अपनी आंखों पर टांगे रखते हैं । बहरहाल बाजार और निर्मम पूंजी की ताकतों ने जिस तरह पत्रकारिता को उलझाकर रखा है, उस पर यही कहना ठीक होगा-
गैर मुमकिन है कि हालात की गुत्थी सुलझे,
अहले दानिश ने बड़ा सोचकर उलझाया है ।
सटीक लेख! अच्छी टिप्पणियां भी आईं।
झमाझम लिखा है .विचित्रमणि जी टिपण्णी से पूर्ण सहमति .अनिल जी अपने पुराने अंदाज़ में अच्छे लगे.
धन्यवाद समरेन्द्र खुला लेख के लिए .
वैसे मैं भी हमेशा सोचता रहता हूँ आज गाँधी होते तो ऐसा होता . काश ! आज सुभाष होते तो भारत ऐसे होता . इस टाइप की नाटकीय परम्परा का अंत नही है .
एक बात और बता दूँ हर व्यक्ति किसी "वाद" से प्रभावित होता है और दुसरे "वाद" की खूबी की अनदेखी जाने अनजाने करता रहता है इसी चलते क्रम में स्थापित हो जाता है . गाँधी -सुभाष और भी नाम जोड़ते जाएँ .
गांधी सुभाष होते तो क्या हो जाता ? हममे से कोई गांधी सुभाष क्यों नही होता . जय प्रकाश हुए न ! लोगों ने हथेली पर रखा . आज भी गाँधी सुभाष पैदा होते हैं कुछ दूर चलकर चोला बदल लेते है या बदल दिया जाता है .हम जल्दी थक क्यों जाते हैं ? क्योंकि बाज़ार में खड़े हैं !
समरेन्द्र जी, एक पाठक के रूप में मेरी ओर से सौ में सौ अंक।
ये बात उन सभी महापुरुषों पर लागू होती है, जिनके मरने के बाद उनके साथ रहे लोगों ने उनकी मूर्तियां गढ़ीं और खुद को उनका प्रमुख शिष्य बताकर उन्हें बेचने लगे।
यदि किसी को श्रद्धांजलि ही देनी है तो उसका सबसे अच्छा तरीका है उसके कदमों का अनुसरण करना, ढिंढोरा पीट कर मातम मनाना नहीं।
बेशक हिंदी पत्रकारिता टीवी चैनलों से लेकर छप रहे अखबारों तक अक अजीब रफ्तार पकड़ चुकी है मगर इसका मतलब यह तो नहीं कि अच्छा काम कर चुके लोगों को याद ही नहीं किया जाए। अगर बुरे लोग याद कर रहे हैं तो गलत है तो अच्छे लोग क्या कर रहे हैं। खुद को कोसने से क्या होता है। पत्रकारिता ही नहीं , राजनीति, धर्म और समाज को चला रहे लोग भी भरोसे के नहीं रहे। बोले तो, देश ही गर्त में जा रहा है। तो क्या करना चाहिए। निंदा ऐसे लोगों की करनी चाहिए मगर यह भी मूल्यांकन होना चाहिए कि जिनकी सोच सही है वे क्या कर रहे हैं। हवा के खिलाफ चलने वाले बेशक कम हैं मगर मुझे आप जैसे लोगों से यह उम्मीद जरूर है कि आप अलग से एसपी सिंह को याद करें और बताएं कि गलत राह पर चल रहे लोग एसपी को याद करने लायक भी नहीं हैं।
मैं कोलकाता से हूं। यहीं से एसपी का प्रारंभिक नाता रहा है। यहां भी हर साल ऐसा ही विलाप होता है मगर अच्छे लोगों की ऐसी कोई जमात नहीं खड़ी हो पाती जो गलत को गलत उनके बीच ही जाकर तार्किक और व्यवहारिक स्तर पर कहे। आपने अपने ब्लाग से ही सही यह सवाल उठाया , इसके लिए आपको धन्यवाद।
मिशन की भावना,जज़बात और समाजसेवा की बात पत्रकारिता (प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक दोनो)में बेमानी होती जा रही है.ओवरहेड़ बढ़ रहे हैं,इन्सेटिव पर पूरा खेल बढ़ रहा है और तकनीक से साथ बढ़ रही है जवाबदेही.इन सब पर एन.आर.एस. / ए.बी.सी. और टी.आर.पी का तमग़ा भी चाहिये मीडिया को ...मालिक हर बात का जवाब मांगता है. मुश्किल आन पड़ी है भैया...आपका आलेख सच के बहुत क़रीब है...साधुवाद !
अच्छा है। कम से कम इसी बहाने आज के भ्रम को बीते कल की आशा से जोड़ना भी कम साहस का काम नहीं है। एक पत्रकार होने के नाते मैं बस यही कहूंगा - टूटा ही सही हम जोड़ेंगे, आख़िर ये घर हमारा है, अश्रुमिश्रित,लज्जित, खंडित...यही विकल्प हमारा है।
------ राजीव किशोर
समरेन्द्र भाई सच्चा लेख है इसलिए अच्छा लेख है। नौकर बनकर किसी क्रांति की उम्मीद क्या करना। पूँजीवाद ने उत्पादन को लाभ की चेरी बना रखा है। ज़रूरत पूरी करने के लिए उत्पादन हो ये सोचना आज भी सपना ही बना हुआ है।
अगर वास्तव में पत्रकारिता करनी है तो आज क्रन्तिकारी ही बनना होगा। पूंजीपतियों का नौकर बनकर तो पैसा ही कमाया जा सकता है। पत्रकारिता नही की जा सकती।
सवाल पूँजी के चरित्र का जो है।
चलो अच्छा है, इस बहाने टीवी मीडिया की पोल खोलने की पहल खुद टीवी पत्रकारों ने ही शुरू कर दी है। टिप्पणियां बढ़िया हैं मगर फिर कुछ लोग वाग्जाल फेंकने से बाज नहीं आ रहे हैं । क्या ये समझाना पड़ेगा कि समरेन्द्र का लेख एसपी के विश्लेषण की नहीं , टीवी पत्रकारिता के विश्लेषण की मांग कर रहा है ?
अनिल रघुराज ने बड़ी हिम्मतवाली बात तब भी कही होगी और अब भी कही है। सही लग रही है। बाकी सभी साथियों ने भी ईमानदार टिप्पणियां की हैं।
बधाई समर...एक अच्छा मुद्दा उठाने के लिए और सार्थक हस्तक्षेप के लिए ।
सचमुच हकीकत लिखी है आपने.....केवल एस पी के नाम पर लोगों को धोखा देकर अपनी दुकान चला रहे हैं। खुद करें तो गलत नहीं और कोई दूसरा करें तो वह गलत है...वाह भाई यह कौन सी बात हुई....लेकिन ये मीडिया माफिया अपनी गलती कभी नहीं मानते दूसरों के शोषण को प्रमुखता से दिखाते है लेकिन मीडिया हाउस में खुद कितना शोषण है ये तो किसी से छुपा नहीं हैं। चलिए ऐसा ही लिखते रहिए।
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