ये बात पुरानी है लेकिन उतनी ही सही भी। अगर कोई शख्स कुछ कहता है और लोग उसका गलत मतलब निकालते हैं तो ये गलती लोगों की नहीं बल्कि कहने वाले की है। लगता है कि ये गलती मुझसे हो गई है। अगर ऐसा नहीं होता तो दो पढ़े-लिखे, काबिल और बौद्धिक स्तर पर मुझसे ज्यादा संपन्न लोग – दिलीप जी और विनीत मेरी बात का गलत अर्थ नहीं निकालते। मोहल्ला पर पश्चिम से क्यों सीखे सभ्यता की आदि भूमि में दिलीप जी मुझसे ये नहीं कहते कि मैं आंखें मूंदे हुए हूं और उस पर अपनी टिप्पणी में विनीत ये नहीं कहते कि मुझे अपनी संस्कृति को महान बताने की लत है।
उन दोनों लोगों ने मेरी बातों को एकदम दूसरा ही मोड़ दे दिया है। मैंने दिलीप जी के नाम लिखे खुले खत में कहा कि पूरब को गरियाने के चक्कर में पश्चिम के ढोंग का गुणगान ना करें। यहां मैंने गुणगान शब्द का सोच समझ कर इस्तेमाल किया था। क्योंकि हम बीते जमाने में निराद सी चौधरी जैसे जैंटलमैन देख चुके हैं जिन्हें भारत में बुराई ही बुराई नज़र आती थी, अच्छाई नहीं। मेरे कहने का आशय इतना ही था कि हम पूरब में ढोंग और पाखंड की निंदा करें, उन्हें मिटाने की मुहिम चलाएं, लेकिन उस चक्कर में पश्चिम की बुराइयों को आत्मसात ना कर लें। लेकिन मेरी बातों का उन्होंने ये मतलब निकाल लिया कि मैं पूरब के ढोंग का समर्थक हूं और पश्चिम की अच्छाइयों का धुर्र विरोधी।
ये मतलब उन्होंने निकाला तो इसकी तीन वजहें हो सकती हैं।
१) मैं उन्हें समझा नहीं सका या यूं कहें कि मैं अपनी बात सही तरीके से नहीं रख सका।
२) वो इतने नासमझ हैं कि मेरे लिखे का सही मतलब नहीं समझ सके।
३) या फिर उन्होंने सोची समझी साज़िश के तहत बहस को गलत मोड़ दिया है। (साज़िश शब्द का इस्तेमाल इसलिए कर रहा हूं कि पिछले ग्यारह साल से मैं भी इसे पेशे में हूं। मुझे मालूम है कि एक अच्छे आदमी को यहां किस साज़िश के तहत बुरा साबित किया जाता है। मैं ये भी जानता हूं कि एक प्रगतिशील शख्स को भी लोग अपने निजी स्वार्थ के लिए दकियानूसी, जातिवादी और सांप्रदायिक करार दे देते हैं।)
शुरुआत तीसरी वजह से करता हूं। दिलीप जी को मैं व्यक्तिगत तौर पर जानता हूं। वो मेरे सीनियर हैं और मैंने उनके मातहत काम भी किया है। इसलिए ये दावे से कह सकता हूं कि वो मुझे दकियानूसी और सुधार विरोधी घोषित करने की साज़िश नहीं रच रहे। अगर खुद दिलीप जी मुझसे कहेंगे कि वो मेरे खिलाफ साज़िश रच रहे हैं तो भी मैं नहीं मानूंगा। रही बात विनीत की तो मैं उन्हें जानता ही नहीं और जिसे नहीं जानता उसे हमेशा अच्छा मान कर चलता हूं।
अब दूसरी वजह। दिलीप जी एक बेहद प्रगतिशील विचारक किस्म के आदमी हैं। मुझसे ज्यादा पढ़े लिखे और समझदार हैं। अनुभव भी मुझसे ज्यादा है। इसलिए मैं ये मान ही नहीं सकता कि वो मेरे लिखे का सही मतलब नहीं समझ सकें। जहां तक विनीत का सवाल है उनके लिखने के तौर तरीके से ये अंदाजा लगाया जा सकता है कि वो भी समझदार किस्म के शख्स हैं।
जब ये दोनों वजहें गलत हैं तो बाकी बस एक ही वजह बचती है और वो सही ही होगी। इसलिए मैं दिलीप जी और विनीत दोनों से माफी मांगता हूं और प्रार्थना करता हूं कि मुझे दकियानूसी और सुधार विरोधी घोषित ना करें।
समरेंद्र
7 comments:
देखो मित्र, या तो लिखो मत जब लिखो तो माफी मत मांगों। इससे स्तर गिरता है। बात में लिजलिजापन आ जाता है। बड़ों का मान-सम्मान अपनी जगह है और अपनी बात अपनी जगह। व्यक्ति की इज्जत करने का मतलब यह नहीं होता कि उसके सामने नतमस्तक हो जाओ।
ध्यान रखो, बड़े हर वक्त सही नहीं होते।
अचानक ये क्या हो गया, बहस अच्छी चल रही थी और उसके एकदम से माफ़ी... क्यों...? इससे आगे चलकर बात करनी चाहिए...
अनिल भाई से आप की तारीफ़ सुनी थी.. और आप को पहले पढ़कर उसे सही भी पाया था.. पर आज तो आप ने ज़बरदस्त परिपक्वता, बड़प्पन और समझदारी का मुज़ाहिरा कर के चकित कर दिया.. बन्धु आप की सोच की सफ़ाई और सहजता का मैं कायल हो गया..
और मैं ये नहीं समझता कि माफ़ी माँगकर आप ने स्तर गिराया है या बहस को बन्द किया है.. आप ने बहस को रौशन किया है..
ओह, आपने तो एकदम से दिल पर ले लिया। मैं बहस को किसी और तरफ नहीं मोड़ना चाहता, आप अपनी बात मौज से लिखिए। आप इस तरफ माफी मानकर शर्मिंदा न करें। कमेंट नहीं करुंगा तो फिर कैसे चलेगा। मेरे मन में कोई दुर्भावना नहीं है। और लीजिए आपने मुझे समझदार समझकर मेरा हौसला बढ़ा दिया, अच्छा लगा। प्लीज आप इसे अन्यथा न लें।
एक पोस्ट के पीछे इतना कुछ हो गया। चर्चा को देखकर गिद्धों की मौज न आ जाए, इसलिए ये सफाई देना जरूरी है (गिद्ध जुटने भी लगे हैं)कि मोहल्ला पर पोस्ट का ड्राफ्ट डाला था। वो पूरा नहीं था। नीयत में खोट न हो तो इसे समझा जा सकता है। समरेंद्र की बात के बहाने चर्चा का विस्तार करने का ही इरादा था। लेकिन जब ड्राफ्ट ही छप गया तो उसमें भी आसमान फटने वाली क्या बात है?
समरेंद्र, इज्जत इतनी फ्रेजाइल चीज नहीं होनी चाहिए। वैसे भी इज्जत एक सामंती कॉन्सेप्ट है। आप की सोच आपके एक लिखे से बहुत बड़ी है। आपकी प्रतिबद्धताओं के बारे में किसी और को सफाई मांगने की जरूरत हो सकती है। मुझे तो नहीं है। और हां साजिश जैसा कुछ कहीं नहीं है। दिलीप मंडल समरेंद्र के खिलाफ साजिश कर रहा है। एक बार ठंडे माथे से सोचकर देखो। नए-पुराने संदर्भों को याद करके एक बार ये वाक्य बोलकर देखो।
शर्म मुझे भी आ रही है और तुम्हें भी आनी चाहिए। शुभकामनाएं।
विनीत जी और दिलीप जी के कमेंट को देखकर मन खुश हो गया और दिल प्रश्नचित.
प्यारे समरेंद्र,
तुम्हें तब भी पसंद करते थे और अब भी। नंबर भी दे दिया है। तो कब होगी बात ?
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