Friday, June 13, 2008

पश्चिम के ढोंग का गुणगान ना करें

आज दिलीप मंडल जी ने मोहल्ला में एक लेख लिखा है। पश्चिम के ब्लॉग में पूरब का मोटापा। इसमें उन्होंने पूरब के ढोंग की निंदा की है और पश्चिम से सीखने की जरूरत पर बल दिया है। उनके इस लेख के कुछ मुद्दों पर मेरी सहमति है और कुछ पर अहमति। उनके नाम इस खुले ख़त के ज़रिये ... मैं सहमति और असहमति – दोनों जतला रहा हूं।
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दिलीप जी,
ये सही है कि हमारे यहां पूरी व्यवस्था हिप्पोक्रेट है। आम आदमी से लेकर देश की ज्यादातर सम्मानित और ताकतवर संस्थाएं ढोंग और पाखंड में एक दूसरे से होड़ करती हैं। इस देश में न्यायपालिका के ढोंग के कई बड़े उदाहरण हैं। ये वही न्यायपालिका है जो पर्यावरण को ताक पर रख कर नर्मदा बांध परियोजना को हरी झंडी दिखाती है। लेकिन उसी पर्यावरण का हवाला देकर दिल्ली से उद्योगों को बाहर निकाल देती है। यही नहीं हमारे देश में सर्वोच्च न्यायालय ... कार्यपालिका से लेकर विधायिका में फैले भ्रष्टाचार पर खुल कर टिप्पणी करता है। भ्रष्ट अफसरों और नेताओं की किस्मत का फैसला करता है, लेकिन न्यायपालिका में मौजूद भ्रष्ट जजों को राष्ट्रपति की इच्छा के खिलाफ जाकर उच्च पदों पर बहाल भी करता है। सीधे कहूं तो जो न्यायपालिका हर रोज न्याय की अवधारणा का मजाक उड़ाती हो उससे कुछ बेहतर की उम्मीद नहीं करनी चाहिये। ऐसे में अगर दिल्ली हाई कोर्ट के सदा सम्मानित जजों ने एयरहोस्टेज के लिए खास वजन तय कर दिया तो इसमें हैरानी की कोई बात नहीं। वो ऐसे बेतुके फैसले करते आए हैं। कर सकते हैं और करते रहेंगे। संविधान ने हमारे देश में जजों को ये ताकत दी है और वो इस ताकत का धड़ल्ले से इस्तेमाल करते आए हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उनके गलत फैसलों का विरोध नहीं होना चाहिये। हमारा दायित्व है कि उन गलत फैसलों को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाएं। उन पर बहस छेड़ें और इस दायित्व को निभाने के लिए आपको साधुवाद।

लेकिन आपके लेख के कुछ मुद्दों पर मेरा विरोध भी है। गलत फैसले पर सवाल खड़े करते वक्त आपने भी कुछ गलतियां कर दी हैं। आपने पश्चिम की जिस सभ्यता की दिल खोल कर तारीफ की है, वो व्यवस्था उतनी उदार नहीं है। सबसे पहली बात हिलेरी पर ओबामा की जीत की। आपने कहा कि राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी की दौड़ में अश्वेत ओबामा की जीत में श्वेत लोगों का भी हाथ है। बात सही है। लेकिन यहां ध्यान देने वाला एक और पहलू है। ये मुकाबला श्वेत और अश्वेत के बीच होने के साथ एक महिला और अश्वेत के बीच भी था। जिस तरह अमेरिका में आज तक कोई अश्वेत राष्ट्रपति नहीं हुआ है ठीक उसी तरह वहां आज तक कोई महिला भी राष्ट्रपति नहीं चुनी गई है। इस लिहाज से दोनों की स्थिति भारत में दलितों की तरह ही है और एक दलित पर दूसरे दलित की जीत को सामाजिक न्याय का उत्तम उदाहरण तो नहीं माना जा सकता। कम से कम इसे अमेरिकी लोगों की मानसिक महानता और उदारता तो नहीं ही कहना चाहिये।

आपकी दूसरी गलती चीयरलीडर्स में रंगभेद को लेकर है। यहां आप भूल गए कि चीयरलीडर्स के कॉन्सेप्ट की मूल बुनियाद क्या थी? क्या आपने कभी किसी ज्यादा वजन और उम्र वाली महिला को चीयरलीडर की भूमिका निभाते देखा है? हो सकता है कि आपने देखा हो, लेकिन मैंने नहीं देखा। ना तो फिल्मों में और ना ही टीवी पर किसी मुकाबले के लाइव टेलीकास्ट के दौरान। सच यही है कि चीयरलीडर्स का पेशा उसी पुरुषवादी सोच का नतीजा है जिसके तहत हवाई जहाजों में एयरहोस्टेज के पेशे की नींव रखी गई। शुरू में दोनों ही जगह महिलाओं को पुरुष ग्राहकों और दर्शकों को लुभाने के लिए एक आइटम के तौर पर पेश किया गया। आज के आधुनिक दौर में भले ही ये दोनों प्रोफेशन सम्मानित हो गए हों, लेकिन उनकी बुनियादी अवधारणा ही शोषण की रही है। शोषण की ये मानसिकता पूरब से लेकर पश्चिम आज भी हर जगह मौजूद है। कहीं कम तो कहीं ज्यादा। फिर शोषण की इस व्यवस्था में रंगभेद एक और पहलू मात्र है।

दिलीप जी, मैं विदेश कभी नहीं गया, इसलिए आपके दोस्तों की तरह वहां के उदार चरित्र का गवाह नहीं बन सका। लेकिन खबरों से जुड़े रहने के कारण इतना जरूर जानता हूं वहां भी लोग और संस्थाएं कम ढोंगी नहीं हैं। आखिर में बस इतना ही कहना चाहता हूं कि हम सबको अपने पूरब में फैले ढोंग, पाखंड और भेदभाव का जोरदार विरोध करना चाहिये, लेकिन इस चक्कर में पश्चिम के ढोंग के गुणगान से बचना भी चाहिये।

धन्यवाद,
समरेंद्र

5 comments:

Arun Arora said...

न्याय भी वही मिलता है जिधर का पलडा भारी होता है, कुछ किस्सो को छोडकर (अपवाद स्वरूप)

दिलीप मंडल said...

समरेंद्र, आपसे असहमत होने का कोई कारण नहीं है। मेरा लेख उन लोगों के प्रति है जो इस धोखे में हैं कि हम सभ्यता की आदिभूमि या विश्वगुरु टाइप कुछ हैं।

पश्चिम का एडवांटेज इस समय है और सिर्फ इसलिए है क्योंकि पिछली चार-पांच सदियों में और खासकर औद्योगिक क्रांति के बाद वहां उत्पादन प्रक्रिया और साथ ही उत्पादन संबंध पूरब की तुलना में आधुनिक बन गए हैं। इसका असर वहां के समाज और संस्कृति पर भी पड़ा है।

समरेंद्र, हम ये कैसे भूल सकते हैं कि विश्वगुरु हम बेशक होंगे लेकिन सिविल और क्रिमिनल कोड, आधुनिक विज्ञान, टेक्नॉलॉजी, कपड़े-लत्ते, शिक्षा पद्धति और डिग्री सिस्टम, शासन प्रणाली, लोकतंत्र और भी ऐसी कई चीजें, अवधारणाएं हमने पश्चिम से ली हैं। और इसमें कुछ बुरा या अपमानजनक भी नहीं है। कृषि सभ्यता के शुरुआती दौर में पश्चिम ने पूरब से बहुत कुछ सीखा था।

शायद एक बार फिर समय का पहिया तेजी से घूम रहा है। इक्कीसवीं सदी के एशियाई सदी होने का अंदाजा लगाया जा रहा है। इसमें चीन और भारत की निर्णायक भूमिका हो सकती है। ऐसे समय में पीछे लौटने का अवकाश नहीं है।

महेन said...

मैने दोनो ही लेख पढ़े और दोनो की ही बातों से सहमत हूँ। दिलीप का कहना सही है कि हमें अपने अतीत की ओर देखकर चलना अब बंद कर देना चाहिये। रहे होंगे हमारे पूर्वज कभी विश्वगुरू, मगर हमारा वर्तमान वो नहीं है। अब समय है कि हम उनसे कुछ सीखें।
दिलीप ने पश्चिम में नस्ल और रंगभेद के मुद्दे को छुआ है। मैं मानता हूँ वहाँ पर किसी के रंग और नस्ल पर टिप्पणी करना बहुत महंगा पड़ सकता है। इन्ग्लैंड में एक शराबी हमें कोशिश करके भी "you blody indians" नहीं कह पाया। इससे साबित होता है कि उनकी मानसिकता तो नहीं बदली है मगर नियम इतने सख्त हैं कि आपको कई बार सोचना पड़ेगा। यह भी आधा ही सच है। पूरा सच तो यह है कि समानता का तमाम ढकोसला करने के बावजूद वह समाज आज भी वही है अपनी नस्ल को सर्वष्रेठ मानने वाला। अगर ऐसा नहीं है तो क्यों हर अमीर पश्चिमी देश में अफ़्रीकी समुदाय के लोग सबसे दरिद्र इलाकों में रहते हैं?
मुझे उनमें और हमारे समाज में कोई खास अंतर नहीं नज़र आता।

Rajesh Roshan said...

Cool and Healthy debate. Go Ahead. Nice to read Dilip and Samrendra u both. Thanks to u both :)
-Rajesh Roshan

Anonymous said...

Jis England ki aap badhai kar rah hain usi England mein 1 guard ne mere mitra ko pakistani kutta kaha aur aas paas ke log muskara rahe the.Aur ye aaj se 2 saal pahle ki baat hai.

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