Wednesday, May 30, 2007

शावेज से सीखो मनमोहन (पहली कड़ी)





एक हैं दक्षिण अमेरिका के बेहद छोटे देश वेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्यूगो शावेज और दूसरे हैं दुनिया में सबसे बड़े लोकतंत्र यानी हमारे देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह। ये दोनों शख्स दो धाराओं की पहचान हैं। शावेज जहां आजादी के प्रबल समर्थक हैं वहीं वर्ल्ड बैंक जैसी संस्थाओं में काम कर चुके मनमोहन गुलाम मानसिकता के नुमाइंदे। आप सोच रहे होंगे की मनमोहन और शावेज की क्या तुलना। लेकिन ये तुलना बेहद जरूरी है। ये जानते और सोचते हुए तो और जरूरी कि मनमोहन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत का बंटाधार करने में जुटे हैं और एक छोटे से देश वेनेजुएला के राष्ट्रपति शावेज खुलेआम अमेरिका को ललकार रहे हैं। मनमोहन कि बात बाद में। पहले चर्चा शावेज की।
ह्यूगो शावेज ये नाम ज्यादातर भारतीयों के लिए नया है। बहुत कम लोग वेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्यूगो शावेज के बारे में जानते होंगे। लेकिन आने वाले दिनों में शावेज पूरी दुनिया में संघर्ष के नए प्रतीक बनेंगे। शावेज एक ऐसे शख्स के रूप में उभर रहे हैं, जो अमेरिका को ना केवल चुनौती दे रहा है बल्कि उसके सारे औजारों को भी भोथरा करने में जुटा है। अमेरिका ने पूरी दुनिया पर राज करने के लिए कुछ तंत्र खड़े किये। वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ ऐसे ही दो तंत्र हैं। लेकिन शावेज की अगुवाई में दक्षिण अमेरिका के छोटे से देश वेनेजुएला ने इनके जाल को काट दिया है। वामपंथी विचारधारा के समर्थक शावेज ने पहली बार १९९८ में वेनेजुएला की सत्ता संभाली। तब तक दुनिया में तेल का छठें नंबर का उत्पाद देश वेनेजुएला में अमेरिकी कंपनियों ने जाल बिछा दिया था। शावेज ने बड़ी शिद्दत से महसूस किया कि ये उनके देश को गुलाम बनाने की साजिश है। उन्हें ये भी महसूस हुआ कि संपूर्ण आजादी का एक ही रास्ता है। वो रास्ता अमेरिकी समर्थक कंपनियां और संस्थाओं को देश से बाहर निकालने के बाद ही खुलेगा। उसी के बाद उन्होंने एक कठोर फैसला किया। एक के बाद एक इन कंपनियों को बाहर निकालने की योजना बनाने में जुट गए। इसी साल उन्होंने चार बड़े क्षेत्रों का राष्ट्रीयकरण किया। पेट्रोलियम, दूरसंचार और ऊर्चा इन्हीं क्षेत्रों में शामिल हैं। वेनेजुएला में इन क्षेत्रों से जुड़ी सभी निजी कंपनियों का धंधा चौपट हो गया और उन्हें अपना बोरिया बिस्तर समेटना पड़ा। इसके बाद शावेज ने वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ पर निशाना साधा। वो जानते थे कि जब तक इनकी जड़ों को नहीं काटा जाएगा आजादी का सपना सिवाए सपना से अधिक कुछ नहीं। यही वजह है कि शावेज ने सबसे पहले इन संस्थाओं का कर्ज चुकाया। वो भी तय समय से काफी पहले। ऐसा करके उन्होंने ब्याज के करीब अस्सी लाख डॉलर यानी पैंतीस करोड़ रुपये भी बचाए। उसके बाद शावेज ने दोनों संगठनों से कहा कि वो उनके वतन से अपना कामकाज समेट लें।
शावेज जानते हैं कि अमेरिका को चुनौती देने के बाद उनकी जान खतरे में है। लेकिन जो डर गया वो मर गया, इसी तर्ज पर शावेज ने आक्रामक तेवर में कोई कमी नहीं आने दिया है। उन पर दो बार जानलेवा हमले हो चुके हैं। पहला हमला २००५ में हुआ। तब विपक्षी पार्टियों ने कोलंबिया के अपराधियों से हमला कराया। लेकिन जाको राखे साइयां मार सके ना कोई। शावेज का बाल भी बांका नहीं हुआ। इन हमलों के बाद शावेज के तेवर और कड़े हो गए। कुछ दिनों पहले उन्होंने संयुक्त राष्ट्र के महाधिवेशन में इसका सबूत दिया। शावेज से एक दिन पहले अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने उसी मंच से पूरी दुनिया के नुमाइंदों को संबोधित किया था। जब अगले दिन शावेज उस मंच पर पहुंचे तो उन्होंने कहा कि “एक दिन पहले एक शैतान (बुश) ने इसी मंच से भाषण दिया था। उस शैतान (बुश) की बू अभी तक फिजा में फैली हुई है”। शावेज अच्छी तरह जानते हैं कि दुनिया में सबसे बड़ा आतंकवादी देश कोई है तो वो है अमेरिका। इसीलिए वो सबसे पहले अमेरिका को चुनौती दे रहे हैं। हिंसा के रास्ते नहीं बल्कि कूटनीतिक तरीके से। हाल ही में वेनेजुएला ने इजरायल से दूत को वापस बुला लिया। शावेज ने कहा कि अमेरिका का पिछलग्गू इजरायल फिलिस्तीन समेत सभी पड़ोसी मुल्कों पर नापाक इरादों से हमले कर रहा है। इसका विरोध होना चाहिये। जिस दिन उन्होंने दूत वापस बुलाया उसी दिन बोइंग विमान में राहत सामाग्री भेज कर बमबारी में मारे गए लोगों की मदद की। हाल के दिनों में वेनेजुएला ने लैटिन अमेरिका और खाड़ी के देशों में अपना समर्थन मजबूत किया है। इक्वाडोर इसी का उदाहरण है। इक्वाडोर कच्चा तेल निर्यात करता था और पेट्रोल और डीजल आयात। वेनेजुएला ने पहल कर वहां रिफाइनरी स्थापित करवाई। अब इक्वाडोर जरूरत का तेल खुद ही तैयार करता है। इसी तरह शावेज लैटिन अमेरिका के तमाम देशों को लामबंध कर रहे हैं ताकि वो सभी अमेरिका के जाल से बाहर निकल सकें। इसमें कामयाबी भी मिल रही है। हाल ही में जब बुश लैटिन अमेरिकी देशों के दौरे पर गए तो वहां जमकर विरोध हुआ। अर्जेंटीना और ब्राजील में हजारों लोगों ने सड़कों पर उतर कर बुश विरोधी नारे लगाए और कहा “गो बैक बुश”।
ये अकारण नहीं है कि हाल के दिनों में अमेरिका और उसके समर्थक देशों की सारी एजेंसियां शावेज को बदनाम करने में जुटी हैं। आए दिन समाचार पत्र और पत्रिकाओं में उनके खिलाफ लेख छप रहे हैं। ये बताया जा रहा है कि वेनेजुएला के फॉरेन बॉन्ड की कीमत गिर रही है। अर्थव्यवस्था के सूचांक धराशायी हो रहे हैं। वो दिन दूर नहीं जब वेनेजुएला की अर्थव्यवस्था चरमा जाएगी। उसे फिर से अमेरिका और उसकी परभक्षी संस्थाओं की शरण में आना पड़ेगा। इसी दलील तो मजबूत करने के लिए जिन कंपनियों ने वेनेजुएला के फॉरेन बॉन्ड खरीदे थे वो अब अपना पैसा वापस मांग रही हैं। लेकिन इस गलत प्रचार में लगे लोग भूल जाते हैं कि वेनेजुएला में आर्थिक संकट १९८० के दशक में शुरु हुआ। तब वहां गरीबी ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिये। देश की करीब ७० फीसदी जनता गरीबी के दलदल में फंस चुकी थी। पूरे लैटिन अमेरिका में सभी देश समृद्धि और विकास के मामले में वेनेजुएला से आगे निकल गए। अब वो हालात नहीं हैं। शावेज ने जब से सत्ता संभाली है गरीबी घट रही है। अब वहां पर गरीबी तीस फीसदी के करीब है। शावेज की नीतियों की जनता भी मुरीद है। पिछले साल दिसंबर में हुए चुनाव में शावेज को ६३ फीसदी वोट मिले। जिसे अपने वतन की आवाम का इतना बड़ा समर्थन हासिल हो उसे किसी से डरने की जरूरत ही क्या है?
((अगली कड़ी में मनमोहन की चर्चा। बात होगी की किस तरह मनमोहन देश को गुलामी के नए दौर में ढकेल रहे हैं। साथ ही ये भी कि कैसे कंपनियां (भारतीय और विदेशी) अपने फायदे के लिए मनमोहन को औजार के तौर पर इस्तेमाल कर रही हैं और वो खुशी खुशी इस्तेमाल हो रहे हैं। चर्चा मनमोहन के समर्थकों कि इस दलील पर भी होगी कि वो ईमानदार हैं। लेकिन यहां सवाल उठता है कि क्या राजनीतिक स्तर पर भ्रष्ट होना खतरनाक नहीं है।))

4 comments:

Rajesh Roshan said...

समर जी माफ़ कीजियेगा लेकिन शायद आप भारत कि बनावट को आप को करीब से नही जानते । अभी शावेज ने अपने देश के ५३ साल पुराने टीवी चैनल को बंद कर दिया । जिसका विरोध जारी है । ये भारत में नही हो सकता ।

There is no comparison between Mr. Manmohan and Mr. Chavez

उमाशंकर सिंह said...

कई जानकारियां हैं इस लेख में। इंतज़ार मनमोहन पर लगाए गए आरोप को तार्किक ढंग से रखने का है।

समरेंद्र said...

साथी राजेश,
भारत की बनावट को मैं जानता हूं। ये दंभ नहीं है कि कहूं आपसे बेहतर जानता हूं। ये सही है कि शावेज ने ५३ साल पुराने टीवी चैनल को बंद कर दिया है। इस पर वहां अदालती लड़ाई चल रही है। मैं शावेज के इस फैसले का समर्थन नहीं करता। किसी भी देश में मीडिया की आवाज को दबाया नहीं जाना चाहिये। लेकिन मैं बात आर्थिक नीतियों की कर रहा हूं। बात वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ की हो रही है। बात हो रही है उस जाल कि जिसमें हम धंसते जा रहे हैं। इस पर विस्तार से चर्चा होगी इस लेख की अगली कड़ी में। रही बात शावेज और मनमोहन के बीच तुलना नहीं होने की तो वो भी सही है। शावेज को उनके देश की ६३ फीसदी जनता ने चुना है। जबकि इस देश की जनता ने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने के लिए वोट नहीं दिया था, फिर भी वो देश के प्रधानमंत्री बने हुए हैं। तीन साल से प्रधानमंत्री होने के बाद भी लोकसभा का चुनाव लड़ने का हौसला नहीं जुटा पा रहे। दोबारा राज्यसभा से संसद पहुंचे हैं। इसलिए यहां तुलना का सवाल ही नहीं। सवाल है कि कहीं कुछ अच्छा हो रहा है तो उससे सबक सीखा जा सकता है या नहीं। अगर नहीं तो बात यहीं खत्म हुई। अगर हां तो चर्चा जारी रहेगी।
धन्यवाद

चंद्रप्रकाश said...

शावेज ने जो कुछ किया है वो अमेरिकी नीतियों के बुरे असर से अपने देश को बचाने के मकसद से किया गया है। ऐसा करके वो दुनिया भर में उन लोगों के लिए उम्मीद बन गए हैं, जो अमेरिकी 'दादागिरी' से लड़ने वाले एक चेहरे की तलाश में हैं। उम्मीद है कि वो इन उम्मीदों पर खरे उतरेंगे।

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