जमाना बीत गया है अपने लिये कुछ लीखे हुए। दफ़्तर में तो हर रोज कई पन्ने टाइप कर लेता हूं, लेकिन अपनी ज़िंदगी को पन्नों पर दर्ज करने के लिए या यूं कहें कि अपने लिये लिखने की फुर्सत ही नहीं मिलती। खाली होने पर खालीपन का अहसास इतना गहरा हो जाता है कि कुछ भी करने का जी नहीं करता। जब से शराब और सिगरेट छोड़ दी है, कई दोस्तों से मिलने का बहाना भी छूट गया है। इसलिए ज्यादातर वक्त अब घर में कटता है। टीवी देखते, सोते और ये सोचते हुए कि ज़िंदगी के मायने क्या है। क्या यूं ही अंतहीन... अंधेरे सफ़र पर चलते जाना मेरी नियति है? क्या जीवन का सिर्फ़ इतना ही लक्ष्य है कि अपना और परिवार का पेट पाल लें? छोटे भाई-बहनों को पढ़ा लें? बच्चों के लिए कुछ जमा कर दें?
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http://dreamndesire.blogspot.com/2008/05/blog-post.html
1 comment:
यहाँ तक में ही माहोल जम गया, अब जाते हैं वहाँ पढ़ने.
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