Saturday, June 2, 2007

बिकता है इंसाफ, खरीद सको तो खरीद लो

एनडीटीवी के स्टिंग ऑपरेशन “इंसाफ का सौदा” ने एक बार फिर साबित किया है कि हमारी न्यायिक व्यवस्था कितनी खोखली हो गई है। इसमें आर के आनंद जैसा नामी वकील और नेता एक गवाह को पैसे की पेशकश कर रहा है। वो भी करोड़ों रुपये में। मामला भी काफी बड़े शख्स से जुड़ा है। ये शख्स पूर्व नौसेना अध्यक्ष एस एम नंदा का बिगड़ैल पोता संजीव नंदा है। बात 1999 की है। दिल्ली में एक बीएमडब्ल्यू कार ने छह लोगों को कुचल कर मार डाला। ये कार संजीव नंदा चला रहा था और नशे की हालत में चला रहा था। पुलिस ने उसे और उसके दो साथियों को बाद में गिरफ्तार भी कर लिया। कार भी बरामद हो गई और खून के छींटे भी मिल गए। फिर भी करीब आठ साल बीत चुके हैं, सुनवाई जारी है। इस दौरान गवाह सुनील कुलकर्णी को छोड़ कर सभी अपने बयान से पलट गए। सुनील कुलकर्णी को भी खरीदने की कोशिश की जा रही थी। धमकाया भी जा रहा था। आखिर तंग आकर कुलकर्णी ने एनडीटीवी से संपर्क साधा। स्टिंग ऑपरेशन शुरू हुआ और एक बड़ा खुलासा सबके सामने है। कैमरे पर बचाव पक्ष के वकील आर के आनंद गवाह कुलकर्णी से सौदेबाजी करते नजर आ रहे हैं। यही नहीं सरकारी वकील आई यू खान, जिन पर मारे गए लोगों के गुनहगारों को सजा दिलाने की, इंसाफ दिलाने की जिम्मेदारी है, वो भी इस सौदेबाजी में शामिल हैं। इस खुलासे के बाद पूरे देश में हड़कंप मच गया। आनन-फानन में आई यू खान को इस मामले से हटा दिया गया और जांच शुरू कर दी गई। मगर न्यायपालिका में भ्रष्टाचार इस कदर बढ़ चुका है कि दोनों नामी वकीलों आर के आनंद और आई यू खान को सजा मिलेगी, कहना मुश्किल है।

आज हमें आस पास ऐसे कई शख्स मिल जाते हैं जो न्याय की उम्मीद में पांच-दस साल से कोर्ट और कचहरी के चक्कर लगा रहे हैं। थोड़ी मेहनत करने पर ऐसे लोग भी मिल जाएंगे जिनके साथ अन्याय हुआ है, मगर खामोश बैठे हैं। उनमें कोर्ट, कचहरी से लोहा लेने की हिम्मत नहीं बची है। उन्हें अहसास हो चुका है कि कितना भी दौड़भाग कर लें न्याय नहीं मिलेगा। इसी पर करीब दो साल पहले सीएमएस ने एक सर्वे किया था। नतीजे चौंकाने वाले थे।

  • उसमें अनुमान लगाया गया कि न्यायपालिका में करीब 2630 करोड़ रुपये का सालाना भ्रष्टाचार होता है।
  • देश के करीब 13.37 फीसदी लोगों का अदालतों से साबका पड़ा है। इनमें से करीब 80 फीसदी का मानते हैं कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार है।
  • शहरों में करीब 8.2 फीसदी और गांवों में करीब 5.5 फीसदी लोगों ने ये कबूल किया कि फैसला अपने हक में करवाने के लिए उन्होंने रिश्वत दी है।
  • जबकि 54 फीसदी लोगों ने मनमाफिक फैसला पाने के लिए अपने रसूख या फिर जब के करीबी लोगों से साठगांठ की और दबाव बनाया।
  • तीन चौथाई लोगों ने कहा कि न्यायपालिका अपने यहां फैले भ्रष्टाचार को लेकर गंभीर नहीं है।
  • करीब 63 फीसदी लोगों का मानना है कि न्यायपालिका में कामकाज का तरीका और लोगों से कर्मचारियों व्यवहार भी अच्छा नहीं है।

हो सकता है कि इस सर्वे के नतीजे पूरी तरह सही नहीं हों। लेकिन इससे ये पता तो चलता ही है कि जिसे हम न्याय का मंदिर कहते हैं वहां किस हद तक गंदगी है। ये सड़ांध दिन ब दिन बढ़ रही है और अब इसे न्यायिक व्यवस्था से जुड़े लोग भी शिद्दत से महसूस कर रहे हैं। इसी सिलसिले में कुछ समय पहले तहलका में अविनाश दत्त की रिपोर्ट छपी। इसमें जजों से जुड़े कई विवादित मामलों का जिक्र है। कुछ साल पहले कई नामी वकीलों और जजों ने मिलकर एक संस्था बनाई। उस संस्था का नाम रखा कमेटी ऑन ज्यूडिसियल एकाउंटेबिलिटी। उसमें वरिष्ठ वकील शांति भूषण और जस्टिस राजेंद्र सच्चर जैसी शख्सियतें भी शामिल हैं। कमेटी ने कई बार अदालतों में भ्रष्टाचार के मुद्दे को उछाला, लेकिन कोई असर नहीं हुआ।
11 जुलाई, 2006 को इस कमेटी की तरफ से सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस वाई के सब्बरवाल को चिट्ठी लिखी गई। इसमें कहा गया कि इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज जस्टिस जदगीश भल्ला ने अवैध तौर पर काफी संपत्ति जमा की है। उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज किया जाना चाहिये। जस्टिस भल्ला ने 2003 में अपनी पत्नी रेणु भल्ला के नाम पर नोएडा-ग्रेटर नोएडा एक्सप्रेस-वे के करीब 7200 वर्ग मीटर जमीन खरीदी। उस समय के हिसाब से इस जमीन की कीमत करीब 7.2 करोड़ रुपये बनती थी। लेकिन कागजात में इसकी कीमत सिर्फ पांच लाख रुपये दिखाई गई। 26 जून 2005 में नोएडा के एसडीएम आर के सिंह ने अपनी रिपोर्ट में खुलासा किया कि ये जमीन भू माफिया की थी। जस्टिस भल्ला पर ये बेहद संगीन आरोप था और उन पर कार्रवाई करने की मांग की गई। लेकिन तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश वाई के सब्बरवाल ने न्यायपालिका से जुड़े अहम लोगों की शिकायत को सिरे से खारिज कर दिया। यही नहीं 14 दिसंबर, 2006 को जगदीश भल्ला को सम्मान देते हुए केरल का मुख्य न्यायाधीश भी नियुक्त कर दिया। बाद में राष्ट्रपति के सवाल उठाने पर वर्तमान मुख्य न्यायाधीश के जी बालाकृष्णन की अध्यक्षता वाले कोलेजियम ने जस्टिस भल्ला की नियुक्ति रद्द की। लेकिन इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ा। हमारे कानून मंत्री भारद्वाज ने उन्हें छत्तीसगढ़ का एक्टिंग चीफ जस्टिस बना दिया है। मतलब साफ है। तमाम आरोपों के बाद भी जस्टिस भल्ला की सेहत पर कोई खास फर्क नहीं पड़ा है और इसकी एक बड़ी वजह पूर्व चीफ जस्टिस वाई के सब्बरवाल खुद हैं। अगर उन्होंने पहले ही आरोपों की जांच का आदेश दिया होता और कार्रवाई की होती तो एक आदर्श स्थापित किया जा सकता है। मगर उन्होंने सभी आरोपों को नजरअंदाज कर दिया।
ऐसा करके तत्कालीन माननीय चीफ जस्टिस सब्बरवाल क्या साबित करना चाहते थे। इस सवाल का जवाब एक दूसरे मामले से मिल जाता है। जुलाई 2005 में नोएडा प्लॉट घोटाला सामने आया। सेक्टर 44 में जमीन आवंटन के लिए कंप्यूटर से ड्रा निकाले गए। ज्यादातर प्लॉट बड़े और रसूख वाले लोगों के निकले। जिसके बाद कुछ लोगों ने इलाहाबाद हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। अक्टूबर 2005 में हाई कोर्ट ने सीबीआई जांच के आदेश दिये और नए सिरे से आंवटन का हुक्म सुनाया। लेकिन नवंबर 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के आदेश पर रोक लगा दी। बाद में जांच हुई तो पता चला कि इसमें एक प्लॉट माननीय जस्टिस वाई के सब्बरवाल की बहु शीबा सब्बरवाल के नाम भी निकला था। साथ ही एक प्लॉट विवादों में घिरे जस्टिस जगदीश भल्ला के बेटे आरोही भल्ला के नाम पर था।
ऐसे उदाहरणों की फेहरिस्त लंबी चौड़ी है। हाल ही में ऐसे दो और मामले सामने आए हैं। पहला जस्टिस वीरेंद्र जैन का है। जनवरी 2005 में दिल्ली हाई के जस्टिस वीरेंद्र जैन पर सबूतों की अनदेखी करते हुए एक परिचित के पक्ष में फैसला सुनाने का आरोप लगा। ये आरोप सुभाष अग्रवाल नाम के शख्स ने लगाया। इसके पक्ष में उसने सबूत भी पेश किये। लेकिन सबकुछ जानते बूझते सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम ने जस्टिस जैन को पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट का चीफ जस्टिस नियुक्त कर दिया। जब ये फाइल राष्ट्रपति कलाम के पास पहुंची तो उन्होंने कोलेजियम से अपने फैसले पर फिर से विचार करने की अपील की। लेकिन उनकी अपील ठुकरा दी गई।
कुछ ऐसा ही मामला जस्टिस एस एल भयाना का भी है। भयाना कुछ समय पहले तक दिल्ली की निचली अदालत में बतौर जज काम कर रहे थे। उन्होंने ही जेसिका लाल हत्याकांड में फैसला सुनाया। मुख्य आरोपी मनु शर्मा समेत सभी को बरी कर दिया। बाद में मामला हाई कोर्ट पहुंचा। जहां भयाना के फैसले को पलटते हुए मनु शर्मा को उम्रकैद की सजा सुनाई। इस ऐतिहासिक फैसले में हाई कोर्ट ने कड़ी टिप्पणी की। हाई कोर्ट ने कहा कि लगता है “जज (भयाना) ने आरोपियों को बरी करने के लिए ही बयानात और सबूत नजरअंदाज कर दिये”। जब ऊपरी अदालत निचली अदालत के जज के बारे में ऐसी कठोर टिप्पणी करे तो आप मामले की गंभीरता का अंदाजा लगा सकते हैं। लेकिन इसी साल कोलेजियम ने इन्हीं जज साहब को तोहफा देते हुए दिल्ली हाई कोर्ट का स्थाई जज नियुक्त कर दिया है। यहां भी राष्ट्रपति ने विचार करने की अपील की थी। लेकिन मौजूदा मुख्य न्यायधीश के जी बालकृष्णन की अगुवाई में कोलेजियम ने उनकी अपील ठुकरा दी।
ऐसे उदाहरणों की फेहरिस्त लंबी चौड़ी है। यही वजह है कि अब देश के ज्यादातर लोगों को अहसास हो रहा है कि न्यायपालिका में दूसरी संस्थाओं की तुलना में कहीं ज्यादा भ्रष्टाचार है। अब लोग कह रहे हैं कि इंसाफ बिकता है और सरेआम बिकता है। जिसकी जेब में भी पैसा हो वो अपने लिए इंसाफ खरीद सकता है। जिसके पास भी रसूख को वो सरे आम गुनाह करने के बाद भी बच सकता है। अगर ऐसा नहीं होता तो सैयद मोदी के कातिल आजाद नहीं घूम रहे होते । अगर ऐसा नहीं होता तो बोफोर्स के दलाल सलाखों के पीछे होते। अगर ऐसा नहीं होता तो गुजरात में हजारों लोगों के कातिल फांसी पर चढ़ा दिये गए होते और अगर ऐसा नहीं होता तो जमाने बाद भी हाशिमपुरा के लोग अपने गुनहगारों के गिरफ्तार होने का इंतजार नहीं कर रहे होते।

4 comments:

Anonymous said...

बहुत भयानक तस्वीर है भाई.
शायद इन्हें किसी रंग दे बसंती का इन्तजार है.

Anonymous said...

इंसाफ नहीं इन्सान बिकता है क्योकि बिकाऊ इंसाफ इंसाफ नहीं होता अपितु धंधा होता है।

Unknown said...

This seems to be the problem with judiciary which people have been talking for long. But what purpose does this solve? Since legislative is guided by political motives [votebank politics], we do not trust them. Better not to talk about executive which predominantly follows the netas and self interests. Judiciary and its activism since 1990's seemed to be the only hope but that also is gone which is what your article indicates. Corruption is the cancer for all the organs of our democracy.
So waht should we do? What should a common man think about our 'system'? Do you think setting up accountability can help? How can our judicial system work if its head is corrupt? Do you think media should raise these issues consistentlya s it did in case of Jessical lal case?
Rather than just talking about the problems and inidcating core issues, you should also suggest what can be the 'practical remedy' for such ills???

समरेंद्र said...

भाई अभिषेक,
आपने ठीक कहा कि न्यायपालिका उम्मीद का आखिरी चिराग था जो अब बुझने लगा है। फिर आपने ये भी कहा है कि ऐसे में सिर्फ सवाल उठाने से काम नहीं चलेगा बल्कि रास्ते भी सुझाने चाहिये। मैं यहा यही कहूंगा कि सवाल उठाना जितना आसान है, रास्ता सुझाना उतना ही मुश्किल। लेकिन इतना तय है कि लोकतंत्र में कई बार हल्की सी गड़बड़ी पर सवाल खड़े करने से भी रास्ते निकलते हैं। न्यायपालिका जैसी संस्थाओं पर जब लगातार हमले होंगे, उनकी पोल लगातार खोली जाएगी, भ्रष्ट लोगों को बेनकाब किया जाएगा तो खुद न्यायपालिका से जुड़े लोग अपने यहां फैली गंदगी को साफ करने की दिशा में पहल होगी। इसके अलावा न्यायपालिका की गंदगी को साफ करने का दूसरा रास्ता तो फिलहाल नज़र नहीं आता। क्योंकि आज के दौर में विधायिका की इतनी हैसियत नहीं कि वो न्यायपालिका पर नकेल कस सके।
समर

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