((खुद को समाजवादी कहने वाले तीन नेताओं ने इस देश को सबसे अधिक निराश किया। इसमें पहला नाम जॉर्ज फर्नांडिस का है तो दूसरे नंबर पर आते हैं लालू यादव। लेकिन मुलायम सिंह यादव ने भी कम उम्मीदें नहीं तोड़ी हैं। लोहिया के वारिस कहे जाने वाले मुलायम सिंह का उत्तर प्रदेश में पहला कार्यकाल जितना बेहतर रहा, आखिरी कार्यकाल उतना भी सूबे को रसातल में ले जाने वाला रहा। वजह कुछ भी हो सकती है, लेकिन सबसे बड़ी वजह ये कही जा सकती है कि पहले कार्यकाल में उनके आसपास अमर सिंह ऐसा सत्ता का कोई भी दलाल नहीं था। जबकि तीसरे कार्यकाल में मुलायम सिंह पर अमर हावी रहा। हमारे साथी विचित्र मणि ने मुलायम सिंह यादव को खुला पत्र लिखा है। लेकिन ये पत्र समाजवादी मुलायम के नाम है ना कि उस मुलायम सिंह के नाम जो आज अमर सिंह और अमिताभ बच्चन जैसे चेहरों से घिरे हुए हैं। अब ये पत्र आप सबके सामने है।))
आदरणीय मुलायम सिंह जी,
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों ने इस बार तमाम समीकरणों को ध्वस्त कर दिया। पिछले कई वर्षों से आप सूबे में सबसे बड़ी पार्टी के नेता बने हुए थे। लेकिन इन चुनावों ने ना सिर्फ आपके साढ़े तीन साल के काम काज को खारिज कर दिया बल्कि खुला पैगाम दे दिया कि लोग आपके शासन से खुश नहीं थे। उस शासन से, जिससे लोगों ने समाजवाद का सपना जोड़ा था। किसानों और खेतिहर मजदूरों ने इस उम्मीद की डोर आपकी हुकूमत से बांध रखी थी कि अब मुलायम आए हैं तो उनके बच्चों के भविष्य में एक सुनहरा सवेरा दस्तक देगा। लेकिन सारे सपने आहिस्ता आहिस्ता चकनाचूर होते गये और लोगों के हाथ मायूसी के सिवा कुछ नहीं लगा।
दरअसल लोगों ने आपमें लोहिया का अक्श देखा था। लेकिन सत्ता की चासनी में आप ऐसे डूबे कि आम लोग तो छोडिये लोहिया भी आपको भूल गये। गांव की बेबस गलियां भूल गयी, उदासी में डूबे खेत खलिहान भूल गये। किसानों के आखों के आंसू आपको नहीं दिखे और मजदूरों की मेहनत आपकी नजरों से ओझल हो गयी। और हां, आपने ऐसे दोस्त जरूर गांठ लिये, जिनका ना तो आम लोगों से कोई लेना देना रहा है, ना ही समाजवादी सपने या उत्तर प्रदेश के बेहतर भविष्य से। आपके दोस्त बने अमर सिंह, जो सियासी हलकों में कभी खुलकर तो कभी दबी जुबान में दलाल माने जाते हैं। जिनका कोई दीन ईमान नहीं माना जाता और समाजवाद के स से भी जिसका कोई वास्ता नहीं रहा है। उसी अमर सिंह के जरिये आपके दूसरे दोस्त बने अमिताभ बच्चन। होंगे वो बॉलीवुड के महानायक लेकिन नया उत्तर प्रदेश बनाने से उनका क्या लेना देना हो सकता है। उनसे आपने नारे जरूर लगवा दिये कि यूपी में दम है क्योंकि जुर्म यहां कम है। लेकिन मुलायम सिंह जी, सिर्फ नारों से समाज नहीं बदलता। यूपी का समाज भी नहीं बदला लेकिन हां, अमिताभ बच्चन जरूर गांव के बेबस लाचार किसानों की जमीन के मालिक बन बैठे। फिल्मी नचनिया बजनिया किसान बनने का दावा करने लगा। वो किसान, जिसे हिंदुस्तान ही नहीं, दुनिया के हर मुल्क में ऋषियों जैसा सम्मान और आदर मिलता है। आखिर अपने गांधी ने भी तो दुनिया की सबसे बड़ी हुकूमत से लोहा लेने के लिए किसानों का ही तो बाना ग्रहण किया था। विषयांतर ना हो, इसलिए आपके तीसरे दोस्त पर लौटता हूं। वे हैं अनिल धीरुभाई अंबानी। उसी धीरुभाई के बेटे, जिन्होंने बड़ी शान और गुमान से कभी कहा था कि चांदी का जूता तो मंत्री से लेकर संतरी तक हर किसी के सिर पर चलता है। आखिर अंबानी पुत्र ने आपको कौन सा सिद्धांत पढाया और उनके बड़े औद्योगिक साम्राज्य से यूपी के लोगों का क्या भला हुआ।
मुलायम सिंह जी, सियासत सिर्फ सत्ता तक पहुंचने की सीढी नहीं होती। वो उस भरोसे की सरजमीं भी होती है, जहां खडा होकर राजधर्म निभाने की प्रेरणा मिलती है। आखिर यही मकसद लेकर और लोहिया जी के आदर्शों से प्रभावित होकर आपने भी तो शिक्षक की नौकरी छोडकर राजनीति की रपटीली राह पर अपने कदम बढ़ाए थे। लेकिन सत्ता महाठगिनी ने आपको दिग्भ्रमित कर दिया और समाजवाद का मुलायम धीरे धीरे पूंजीपतियों और सत्ता के दलालों के प्रति मुलायम होने लगा।
फिर भी यूपी की जनता ने आपमें भरोसा नहीं खोया। आपकी सीटें घटीं लेकिन वोट थोडे बढ़े ही। बड़े बडे स्वनामधन्य चुनावी पंडितों ने आपको तो इस कदर खारिज कर दिया था कि बीजेपी जैसी गयी गुजरी और जनाधार विहीन पार्टी को नंबर टू पर ला खडा कर दिया। लेकिन यूपी की जनता शायद उन स्वयंभू विद्वानों के प्रलाप पर हंस रही थी कि कैसे नादान हैं ये। जनता जनार्दन ने आपको हराया नहीं, हां मायावती को जिता जरूर दिया। उसे लगा कि कानून व्यवस्था का राज जिस तरह सूबे से खत्म हो गया है, उससे माया मेम साब ही निजात दिला सकती हैं। लेकिन माया का पिछला रिकॉर्ड कुछ ऐसा रहा है कि दूसरों को आस बंधे तो बंधे, हमें नहीं बंधती। अगर दलित-ब्राह्णण समीकरण चुनावी जीत के साथ ही विकास का भी पैमाना होता, तो बहुत पहले ही यूपी में खुशहाली की गंगा बहनी चाहिए थी। आखिर इंदिरा गांधी ने तो काफी पहले ही ब्राह्मण दलित समीकरण बनाया था, जिसमें मुसलमानों को भी शामिल किया गया था। लेकिन उससे कांग्रेस और इंदिरा जी की जयजयकार करने वालों को सत्ता जरूर मिल गयी थी, सूबे की सूरत नहीं बदली। अब दलित जरूर केंद्र बिंदु बन गये हैं लेकिन जातिगत जोड़ तोड का ये समीकरण विकास का नया इतिहास नहीं रच सकता।
और यही वजह है कि मायामय माहौल में भी आप तमाम नई खामियों के बावजूद उम्मीद की किरण दिखते हैं। सत्रह साल पहले जब आपने उत्तर प्रदेश की कमान पहली बार संभाली थी, तब आपकी प्राथमिकता में गांव देहात के वो बच्चे और नौजवान थे, जिनके आंखों में बेहतर भविष्य का सपना पलता था और उसे साकार करने के लिए उनके पास पर्याप्त इच्छा शक्ति और आत्म बल भी था। लेकिन भाषा की मार उनकी उम्मीदों का गला घोंट देती थी। तब यूपी पीसीएस की परीक्षाओँ में गांव देहात के बच्चों की एंट्री के लिए आपने अंग्रेजी की बाध्यता को खत्म किया और हिंदी को जगह दिलायी। वाकई ये उस पीड़ा और वेदना से आपके जुडाव का परियाचक था, जिसने मिट्टी से जुडे मुलायम को देश के सबसे बड़े सूबे का मुखिया बना दिया था।
उन दिनों आपके मुख्य सचिव होते थे टीएसआर सुब्रमण्यम, जो बाद में भारत सरकार के कैबिनेट सेक्रेट्री भी बने। टीएसआर ने एक किताब लिखी-जर्नी थ्रू बाबूडॉम एंड नेतालैंड। उसमें उन्होंने आपकी भरपूर सराहना की है। कहा है कि बतौर मुख्यमंत्री आपने सड़कों की सफाई करने वालों से लेकर गरीब किसानों के दुख दर्द को बार बार अधिकारियों के साथ बैठकों में उकेरा। और उन्हें दूर करने के लिए कोशिश भी की। ये वो दौर था, जब मंडल के जवाब में कमंडल से नफरत निकल रही थी और पूरा देश मजहबी कटुता की आग में सुलग रहा था। तब हिंदुवादी सांप्रदायिक ताकतों के निशाने पर अयोध्या था। जहां खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने वाले बड़े बड़े नेता बंद कमरों में सांप्रदायिक ताकतों के साथ अठखेलियां मना रहे थे, तब मुलायम सिंह यादव ने यूपी के मुख्यमंत्री के तौर पर उन्मादियों को खुली चुनौती दी कि अयोध्या में परिंदा भी पर नहीं मार सकता। फिर भी नफरत फैलाने वालों का उबाल कम नहीं हुआ तो राजधर्म निभाते हुए आपने गोलियां चलवाने में भी कोई हिचक नहीं की। कुछ दिनों बाद आपकी सरकार चली गयी, यूपी के विधानसभा में आपकी पार्टी के विधायकों की तादाद कम हो गयी लेकिन धरतीपुत्र के धीरज की दाद देनी होगी कि फिनिक्स की तरह राख से पैदा होने का माद्दा आपने नहीं खोया और डेढ़ साल बाद ही ये साबित कर दिया कि मुलायम सिंह तो सूबे की सियासत में पूरी ठसक के साथ कायम है।
मुलायम सिंह जी, चुनाव नतीजों के बाद जिस विनम्रता से आपने अपनी हार कबूल कर ली थी और कहा कि अब आप सड़क पर खडा़ होकर फिर संघर्ष करेंगे, उसमें अठारह साल पुराने मुलायम की झलक साफ दिखी। अमूमन ये होता है कि पार्टी हारती है तो सबसे बड़ा नेता विधानसभा से इस्तीफा दे देता है ताकि सदन में उसे हार की मार ना झेलनी पड़े। लेकिन आपने ये साहस दिखाया कि विधानसभा से इस्तीफा नहीं दिया, बल्कि पूरी ठसक के साथ प्रभावशाली विपक्ष की भूमिका निभाने को तत्पर दिखे। संघर्ष करने का यही जज्बा आपको फिर शिखर पर पहुंचाएगा। बस, दलाली की सियासत करने वालों से खुद को दूर रखिये और पूरी ईमानदारी से किसानों को फोकस में रखिये।
आखिर में एक बात और, चिठ्ठी लिखते समय पहले सोचा कि आपके नाम के पहले कोई आदरणीय या जी नहीं लगाऊं क्योंकि अपने शासन में आपने ऐसा कुछ नहीं किया, जिससे आपके प्रति मन में ज्यादा सम्मान बढ़े। लेकिन गांव देहात का आदमी हूं, जिसके संस्कार में ये छुपा होता है कि किसी में अगर थोडी भी अच्छाई दिखे तो उसका सम्मान जरूर किया जाना चाहिए। फिर स्कूल और कॉलेज के दिनों में खेती किसानी की वकालत करने वाले इस लेखक को जिन नेताओं से उम्मीद बंधती थी, बेशक उनमें से एक आप थे। और मेरे जैसे ना जाने कितने किशोर और युवा ऐसा ही सोचते रहे होंगे। एक बार फिर वही पुराना तेवर और पुराना समाजवादी सपना लेकर सामने आइए।
भवदीय
विचित्र मणि
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों ने इस बार तमाम समीकरणों को ध्वस्त कर दिया। पिछले कई वर्षों से आप सूबे में सबसे बड़ी पार्टी के नेता बने हुए थे। लेकिन इन चुनावों ने ना सिर्फ आपके साढ़े तीन साल के काम काज को खारिज कर दिया बल्कि खुला पैगाम दे दिया कि लोग आपके शासन से खुश नहीं थे। उस शासन से, जिससे लोगों ने समाजवाद का सपना जोड़ा था। किसानों और खेतिहर मजदूरों ने इस उम्मीद की डोर आपकी हुकूमत से बांध रखी थी कि अब मुलायम आए हैं तो उनके बच्चों के भविष्य में एक सुनहरा सवेरा दस्तक देगा। लेकिन सारे सपने आहिस्ता आहिस्ता चकनाचूर होते गये और लोगों के हाथ मायूसी के सिवा कुछ नहीं लगा।
दरअसल लोगों ने आपमें लोहिया का अक्श देखा था। लेकिन सत्ता की चासनी में आप ऐसे डूबे कि आम लोग तो छोडिये लोहिया भी आपको भूल गये। गांव की बेबस गलियां भूल गयी, उदासी में डूबे खेत खलिहान भूल गये। किसानों के आखों के आंसू आपको नहीं दिखे और मजदूरों की मेहनत आपकी नजरों से ओझल हो गयी। और हां, आपने ऐसे दोस्त जरूर गांठ लिये, जिनका ना तो आम लोगों से कोई लेना देना रहा है, ना ही समाजवादी सपने या उत्तर प्रदेश के बेहतर भविष्य से। आपके दोस्त बने अमर सिंह, जो सियासी हलकों में कभी खुलकर तो कभी दबी जुबान में दलाल माने जाते हैं। जिनका कोई दीन ईमान नहीं माना जाता और समाजवाद के स से भी जिसका कोई वास्ता नहीं रहा है। उसी अमर सिंह के जरिये आपके दूसरे दोस्त बने अमिताभ बच्चन। होंगे वो बॉलीवुड के महानायक लेकिन नया उत्तर प्रदेश बनाने से उनका क्या लेना देना हो सकता है। उनसे आपने नारे जरूर लगवा दिये कि यूपी में दम है क्योंकि जुर्म यहां कम है। लेकिन मुलायम सिंह जी, सिर्फ नारों से समाज नहीं बदलता। यूपी का समाज भी नहीं बदला लेकिन हां, अमिताभ बच्चन जरूर गांव के बेबस लाचार किसानों की जमीन के मालिक बन बैठे। फिल्मी नचनिया बजनिया किसान बनने का दावा करने लगा। वो किसान, जिसे हिंदुस्तान ही नहीं, दुनिया के हर मुल्क में ऋषियों जैसा सम्मान और आदर मिलता है। आखिर अपने गांधी ने भी तो दुनिया की सबसे बड़ी हुकूमत से लोहा लेने के लिए किसानों का ही तो बाना ग्रहण किया था। विषयांतर ना हो, इसलिए आपके तीसरे दोस्त पर लौटता हूं। वे हैं अनिल धीरुभाई अंबानी। उसी धीरुभाई के बेटे, जिन्होंने बड़ी शान और गुमान से कभी कहा था कि चांदी का जूता तो मंत्री से लेकर संतरी तक हर किसी के सिर पर चलता है। आखिर अंबानी पुत्र ने आपको कौन सा सिद्धांत पढाया और उनके बड़े औद्योगिक साम्राज्य से यूपी के लोगों का क्या भला हुआ।
मुलायम सिंह जी, सियासत सिर्फ सत्ता तक पहुंचने की सीढी नहीं होती। वो उस भरोसे की सरजमीं भी होती है, जहां खडा होकर राजधर्म निभाने की प्रेरणा मिलती है। आखिर यही मकसद लेकर और लोहिया जी के आदर्शों से प्रभावित होकर आपने भी तो शिक्षक की नौकरी छोडकर राजनीति की रपटीली राह पर अपने कदम बढ़ाए थे। लेकिन सत्ता महाठगिनी ने आपको दिग्भ्रमित कर दिया और समाजवाद का मुलायम धीरे धीरे पूंजीपतियों और सत्ता के दलालों के प्रति मुलायम होने लगा।
फिर भी यूपी की जनता ने आपमें भरोसा नहीं खोया। आपकी सीटें घटीं लेकिन वोट थोडे बढ़े ही। बड़े बडे स्वनामधन्य चुनावी पंडितों ने आपको तो इस कदर खारिज कर दिया था कि बीजेपी जैसी गयी गुजरी और जनाधार विहीन पार्टी को नंबर टू पर ला खडा कर दिया। लेकिन यूपी की जनता शायद उन स्वयंभू विद्वानों के प्रलाप पर हंस रही थी कि कैसे नादान हैं ये। जनता जनार्दन ने आपको हराया नहीं, हां मायावती को जिता जरूर दिया। उसे लगा कि कानून व्यवस्था का राज जिस तरह सूबे से खत्म हो गया है, उससे माया मेम साब ही निजात दिला सकती हैं। लेकिन माया का पिछला रिकॉर्ड कुछ ऐसा रहा है कि दूसरों को आस बंधे तो बंधे, हमें नहीं बंधती। अगर दलित-ब्राह्णण समीकरण चुनावी जीत के साथ ही विकास का भी पैमाना होता, तो बहुत पहले ही यूपी में खुशहाली की गंगा बहनी चाहिए थी। आखिर इंदिरा गांधी ने तो काफी पहले ही ब्राह्मण दलित समीकरण बनाया था, जिसमें मुसलमानों को भी शामिल किया गया था। लेकिन उससे कांग्रेस और इंदिरा जी की जयजयकार करने वालों को सत्ता जरूर मिल गयी थी, सूबे की सूरत नहीं बदली। अब दलित जरूर केंद्र बिंदु बन गये हैं लेकिन जातिगत जोड़ तोड का ये समीकरण विकास का नया इतिहास नहीं रच सकता।
और यही वजह है कि मायामय माहौल में भी आप तमाम नई खामियों के बावजूद उम्मीद की किरण दिखते हैं। सत्रह साल पहले जब आपने उत्तर प्रदेश की कमान पहली बार संभाली थी, तब आपकी प्राथमिकता में गांव देहात के वो बच्चे और नौजवान थे, जिनके आंखों में बेहतर भविष्य का सपना पलता था और उसे साकार करने के लिए उनके पास पर्याप्त इच्छा शक्ति और आत्म बल भी था। लेकिन भाषा की मार उनकी उम्मीदों का गला घोंट देती थी। तब यूपी पीसीएस की परीक्षाओँ में गांव देहात के बच्चों की एंट्री के लिए आपने अंग्रेजी की बाध्यता को खत्म किया और हिंदी को जगह दिलायी। वाकई ये उस पीड़ा और वेदना से आपके जुडाव का परियाचक था, जिसने मिट्टी से जुडे मुलायम को देश के सबसे बड़े सूबे का मुखिया बना दिया था।
उन दिनों आपके मुख्य सचिव होते थे टीएसआर सुब्रमण्यम, जो बाद में भारत सरकार के कैबिनेट सेक्रेट्री भी बने। टीएसआर ने एक किताब लिखी-जर्नी थ्रू बाबूडॉम एंड नेतालैंड। उसमें उन्होंने आपकी भरपूर सराहना की है। कहा है कि बतौर मुख्यमंत्री आपने सड़कों की सफाई करने वालों से लेकर गरीब किसानों के दुख दर्द को बार बार अधिकारियों के साथ बैठकों में उकेरा। और उन्हें दूर करने के लिए कोशिश भी की। ये वो दौर था, जब मंडल के जवाब में कमंडल से नफरत निकल रही थी और पूरा देश मजहबी कटुता की आग में सुलग रहा था। तब हिंदुवादी सांप्रदायिक ताकतों के निशाने पर अयोध्या था। जहां खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने वाले बड़े बड़े नेता बंद कमरों में सांप्रदायिक ताकतों के साथ अठखेलियां मना रहे थे, तब मुलायम सिंह यादव ने यूपी के मुख्यमंत्री के तौर पर उन्मादियों को खुली चुनौती दी कि अयोध्या में परिंदा भी पर नहीं मार सकता। फिर भी नफरत फैलाने वालों का उबाल कम नहीं हुआ तो राजधर्म निभाते हुए आपने गोलियां चलवाने में भी कोई हिचक नहीं की। कुछ दिनों बाद आपकी सरकार चली गयी, यूपी के विधानसभा में आपकी पार्टी के विधायकों की तादाद कम हो गयी लेकिन धरतीपुत्र के धीरज की दाद देनी होगी कि फिनिक्स की तरह राख से पैदा होने का माद्दा आपने नहीं खोया और डेढ़ साल बाद ही ये साबित कर दिया कि मुलायम सिंह तो सूबे की सियासत में पूरी ठसक के साथ कायम है।
मुलायम सिंह जी, चुनाव नतीजों के बाद जिस विनम्रता से आपने अपनी हार कबूल कर ली थी और कहा कि अब आप सड़क पर खडा़ होकर फिर संघर्ष करेंगे, उसमें अठारह साल पुराने मुलायम की झलक साफ दिखी। अमूमन ये होता है कि पार्टी हारती है तो सबसे बड़ा नेता विधानसभा से इस्तीफा दे देता है ताकि सदन में उसे हार की मार ना झेलनी पड़े। लेकिन आपने ये साहस दिखाया कि विधानसभा से इस्तीफा नहीं दिया, बल्कि पूरी ठसक के साथ प्रभावशाली विपक्ष की भूमिका निभाने को तत्पर दिखे। संघर्ष करने का यही जज्बा आपको फिर शिखर पर पहुंचाएगा। बस, दलाली की सियासत करने वालों से खुद को दूर रखिये और पूरी ईमानदारी से किसानों को फोकस में रखिये।
आखिर में एक बात और, चिठ्ठी लिखते समय पहले सोचा कि आपके नाम के पहले कोई आदरणीय या जी नहीं लगाऊं क्योंकि अपने शासन में आपने ऐसा कुछ नहीं किया, जिससे आपके प्रति मन में ज्यादा सम्मान बढ़े। लेकिन गांव देहात का आदमी हूं, जिसके संस्कार में ये छुपा होता है कि किसी में अगर थोडी भी अच्छाई दिखे तो उसका सम्मान जरूर किया जाना चाहिए। फिर स्कूल और कॉलेज के दिनों में खेती किसानी की वकालत करने वाले इस लेखक को जिन नेताओं से उम्मीद बंधती थी, बेशक उनमें से एक आप थे। और मेरे जैसे ना जाने कितने किशोर और युवा ऐसा ही सोचते रहे होंगे। एक बार फिर वही पुराना तेवर और पुराना समाजवादी सपना लेकर सामने आइए।
भवदीय
विचित्र मणि
3 comments:
विचित्र मणि जी, जब भी जन नायक या क्रान्ति नायक सत्ताधारी की भूमिका में आये हैं बहक या भटक गये हैं.
आपने बहुत अच्छा विश्लेशण किया है
Mulayam singh has lost not just mandate but also the credibility by his acts. If you think he can turn back to 'samajwad', I seriously doubt it. But any thing is possible in Indian politics as there is no permanent definition of any ideology as such. Neither for politicians nor for masses. Otherwise why would someone like Mayawati make such a majorly comeback despite being tainted with such a corrupt past. Probably people do not have any options.Only if her case was also heard on an urgent basis by our judiciary.As far as Mulayam singh is concerend, many new cases will come to light soon..noida land scam, SEZ, Amitabh farmer and many more.....
So your hope probably is a lost cause. Moreover I think India can do without such role models.
अभिषेक भाई,
मैं मुलायम को रोल मॉडल नहीं मानता, बल्कि फिराक गोरखपुरी का ये शेर कहना चाहूंगा."इस खंडहर में अभी हैं कुछ दीये टूटे हुए, उन्हीं से काम चलाओ, बड़ी उदास है रात"। आशा है आप हमारी सोच को समझ गए होंगे।
विचित्र मणि
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