Friday, June 15, 2007

कंपनियों के एजेंट मनमोहन

((कुछ दिन पहले चौखंबा पर इस लेख का पहला हिस्सा पेश किया गया। उसमें बात शावेज की हुई। वेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्यूगो शावेज ने अपने देश के ढांचे को पूरी तरह बदल दिया है। अपने देश से वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ को उठा कर बाहर फेंक दिया और अमेरिकी कंपनियों पर नकेल कस दी है। बौखलाहट में पूरा अमेरिकी तंत्र शावेज और वेनेजुएला पर निशाना साध रहा है। मीडिया के सहारे ये तस्वीर पेश की जा रही है कि वेनेजुएला में लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन हो रहा है और उसकी अर्थव्यवस्था चरमरा गई है। लेकिन शावेज भी टिके हुए हैं। वो जानते हैं कि अमेरिका की कमजोर नसों पर वार नहीं किया गया तो टिकना मुश्किल होगा। इसलिए वो उसकी आर्थिक जड़ों को काटने में लगे हुए हैं। शावेज को ये भी मालूम है कि अमेरिकी के खिलाफ अकेले जंग नहीं लड़ी जा सकती। क्योंकि आज अमेरिका एक देश होने के साथ एक परभक्षी संस्कृति भी है। इसलिए अमेरिका के खिलाफ जंग में हर उस देश को शामिल करना होगा जिन्हें उसने तबाह किया है या फिर वर्षों से दबा कर रखा है। लैटिन अमेरिकी देश भी अमेरिका का जुल्म सह चुका है। सभी लैटिन अमेरिकी देश अमेरिका के सताए हुए देशों के फेहरिस्त में शामिल हैं। इसलिए शावेज उन्हें एकजुट करने में लगे हुए हैं। मतलब साफ है कि आज वो एक ऐसी जंग की पहचान हैं .. जिसमें अगर जीते तो दुनिया में सुधार होगा। अगर हारे तो उन्हें इसका मलाल नहीं होगा कि अमेरिका के पिछलग्गू होकर जिंदगी गुजार दी। साथ ही ये मलाल भी नहीं होगा कि आर्थिक गुलामी की बेड़ियों को काटने के लिए कोई पहल नहीं की। हम सब जानते हैं कि जंग में या तो जीत मिलती है या फिर हार। लेकिन हमें ये भी याद रखना चाहिये की युद्ध सिर्फ ताकत के बूते नहीं लड़े जाते .. युद्ध में जीत उसी की होती है जिसकी रणनीति बेहतर हो। अमेरिका के खिलाफ जंग में जीत भी तभी होगी .. जब लोकतंत्र और पूर्ण आजादी में यकीन रखने वाले दुनिया के तमाम देश एकजुट होंगे। भारत की मूल सोच भी पूर्ण आजादी की रही है। उससे बड़ा लोकतांत्रिक देश भी कोई नहीं है। इसलिए उसे ना केवल वेनेजुएला के समर्थन में आना चाहिये बल्कि अमेरिका के खिलाफ जंग का नेतृत्व करना चाहिये। लेकिन ये तब तक नहीं हो सकता, जब तक मनमोहन सिंह जैसे अमेरिका परस्त नेता देश के हुक्मरान बने हुए हैं। आज की कड़ी में चर्चा मनमोहन की... उनकी खतरनाक आर्थिक नीतियों की और उदारीकरण से नई गुलामी की तरफ बढ़ते तेज रफ्तार कदमों की।))



मनमोहन ने हाल ही में कटोरा फैलाया है। मनमोहन जब से किसी हैसियत के शख्स बने हैं कटोरा लेकर घूम रहे हैं। कभी उन्होंने वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ के सामने कटोरा फैलाया तो कभी सीधे अमेरिका के सामने। इस बार उन्होंने अपने ही देश के धनपशुओं से भीख मांगी है। गांधी जी की ट्रस्टीशिप के सिद्धांत का सहारा लेकर। कहा है कि कंपनियां अपने सीईओ की तनख्वाह कम करें और देश की बेहतरी में हिस्सा लें। सोच कर ताज्जुब होता है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का प्रधानमंत्री, एक अरब से ज्यादा लोगों का नुमाइंदा अपने ही देश में याचना कर रहा है। लेकिन हैसियत देखिये कि उद्योगपति ये कह कर उसकी याचना ठुकरा देते हैं कि उनकी कमाई गाढ़ी मेहनत की कमाई है। किसी को हक नहीं है कि उनकी तनख्वाह की सीमा तय करे। ये कंपनियां कौन है? इनके मालिकों का चरित्र क्या है? इस बारे में चर्चा आगे। पहले मनमोहन और उनकी नीतियों पर एक नज़र डालें। 1992 में नरसिंह राव सरकार के दौरान मनमोहन सिंह वित्त मंत्री बने। उसके बाद उन्होंने देश में आर्थिक उदारीकरण का नया दौर शुरू किया। धीरे धीरे देश में विदेशी कंपनियों के लिए तमाम दरवाजे खोल दिये। आर्थिक उदारीकरण के समर्थन में तर्क दिया गया कि जब देश सात से आठ फीसदी की विकास दर हासिल करने लगेगा तो गरीबी खुद ब खुद कम हो जाएगी और धीरे धीरे समाप्त। ये दलील आज भी दी जाती है। अब गरीबी खत्म करने के लिए दस फीसदी की विकास दर जरूरी बताई जा रही है। लेकिन हकीकत तो यही है कि गरीबी खत्म नहीं हुई है। बल्कि अमीरों और गरीबों के बीच की खाई दिनों दिन गहरी हुई है। क्षेत्रीय विषमता भी लगातार बढ़ी है। आंकड़े इसकी गवाही देते हैं।

  • 1993-94 में देश की कुल गरीबी में बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और असम की हिस्सेदारी 68.8 फीसदी थी। 2000 तक पहुंचते पहुंचते ये हिस्सेदारी बढ़ कर 74.4 फीसदी हो गई। साफ है कि ये राज्य विकास की दौड़ में काफी पिछड़ गए हैं। ((एस महेंद्र देव, सेमीनार, 2004)
  • जिन राज्यों में विकास की रफ्तार ज्यादा तेज रही है उनमें से कुछ जिलों में खुदकुशी के मामले में सामने आए हैं। महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब और केरल जैसे राज्य उसी फेहरिस्त में शामिल हैं जहां खेतों में अब मौत की फसल पैदा हो रही है।
  • आर्थिक सुधार लागू करने के बाद से सार्वजनिक क्षेत्रों में कर्मचारियों की तनख्वाह सालाना 5.0 फीसदी की रफ्तार से बढ़ी है। जबकि इस दौर में खेतीहर मजदूरों का वेतन सिर्फ 2.5 फीसदी की रफ्तार से बढ़ा है। ((एस महेंद्र देव, सेमीनार, 2004)
  • यही नहीं राष्ट्रीय सेंपल सर्वे 2004 के मुताबिक शहरों और गांवों में पढ़े लिखे बेरोजगार युवकों की संख्या काफी अधिक है। बेरोजगार युवकों की ये वही फौज है जो हल्की सी आहट होने पर सड़कों पर उतर आती है और हिंसा फैलाने लगती है।



  • यही नहीं उदारीकरण के समर्थक अक्सर ये दलील देते हैं कि विकास दर नौ फीसदी तक पहुंच गई है। लेकिन ऐसा कहते वक्त वो ये भूल जाते हैं कि पिछले एक दशक में बाल मजदूरों की संख्या में दस फीसदी बढ़ोत्तरी हुई है। आज बाल मजदूरों की संख्या १ करोड़ २६ लाख है। ये किसी भी देश के लिए शर्म की बात है।
  • इतना सबकुछ होने के बाद भी विकास की बात होती है। लेकिन वो विकास एक छलावा है। सच यही है कि आज हमारा देश कर्ज के दलदल में दब गया है। 1990-91 में भारत पर बाहरी कर्ज प्रति व्यक्ति 1943 रुपये था। जो 2002-03 में बढ़ कर प्रति व्यक्ति 4863 रुपये हो गया है। यानी बच्चा जन्म लेने से पहले कर्ज से दबा होता है। ((वित्त मंत्रालय की रिपोर्ट-2003)) ये हाल तब है जब भारत की विकास दर लगातार बढ़ रही है और आबादी भी। यानी उससे ज्यादा तेज अनुपात से कर्जा लगातार बढ़ रहा है।
  • 31 मार्च 1995 को भारत पर कुल कर्ज (बाहरी और भीतरी) करीब 632572 करोड़ रुपये था। जो कि 2005-06 में बढ़ कर 3072210 करोड़ रुपये हो गया। यानी 11 साल में करीब पांच गुना बढ़ोत्तरी। ((संसद में वित्त मंत्रालय का जवाब))
  • आज भी हमारे बजट का सबसे बड़ा हिस्सा इसी कर्ज की ब्याज अदायगी पर जाता है। 1960 के दशक में कोठारी कमीशन ने कहा था कि देश को पूरी तरह शीक्षित बनाने के लिए बजट का छह फीसदी हिस्सा शिक्षा पर खर्च करना होगा। हमारी सरकारें एक-दो साल को छोड़ कर कभी इस पर अमल नहीं कर सकीं। लेकिन बजट का बीस फीसदी हिस्सा अब भी कर्ज का ब्याज चुकाने पर खर्च होता है।
  • हालांकि यहां मनमोहन के समर्थक ये दलील देते हैं कि बाहरी कर्ज आर्थव्यवस्था की मजबूती की पहचान है। लेकिन जब भी दुनिया के चोटी के पंद्रह कर्ज के बोझ तले दबे हुए देशों की बात होती है तो उसमें कोई भी विकसित देश शामिल नहीं होता।

अब चर्चा कंपनियों के चरित्र की। आपको याद होगा कि कुछ महीने पहले भारतीय मूल के दुनिया के सबसे बड़े धनपशु लक्ष्मी निवास मित्तल ने यूरोप की स्टील कंपनी आर्सेलर के लिए दावा ठोंका। तब यूरोप में कई देशों में इस दावे के खिलाफ आवाज उठने लगी। लक्ष्मी मित्तल ने बड़ी चतुराई से उसे नस्लवादी मुहिम करार दिया और कहा कि चूंकि उनका नाता भारत से है इसलिए यूरोपीय देश उनके दावे का विरोध कर रहे हैं। यही नहीं तब टीवी चैनलों पर दिये इंटरव्यू में मित्तल ने उम्मीद जताई की भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह फ्रांस दौरे के दौरान वहां के तत्कालीन राष्ट्रपति ज्यां शिराक से इस बारे में बात करेंगे। यही नहीं तत्कालीन वाणिज्य मंत्री कमलनाथ ने आनन-फानन में लक्ष्मी मित्तल के समर्थन में आवाज बुलंद करनी शुरू कर दी। लेकिन आज उसी लक्ष्मी मित्तल से कहिये कि वो देश में निवेश करे तो जवाब मिलता है कि अगर टैक्स में छूट दोगे, जमीन खरीदने में मदद करोगे और तमाम दूसरी तरह की रियायतें दोगे तो निवेश किया जाएगा। वो दो जरूरतमंद राज्यों झारखंड और उड़ीसा के बीच मोलभाव करता है।
दूसरा उदाहरण रिलायंस से है। आपको याद होगा कि नंदीग्राम और सिंगूर में हुई हिंसा के बाद सेज का दायरा तय करने का सरकार ने फैसला लिया। ये घोषणा की गई कि कोई भी सेज पांच हजार एकड़ से ज्यादा बड़ा नहीं होगा। लेकिन मुकेश अंबानी की रिलायंस ने दस हजार एकड़ के सेज के दो प्रस्ताव दिये थे। एक मुंबई के करीब और दूसरा गुड़गांव में। उसके एक नुमाइंदे ने कहा कि सेज का दायरा कम करने का फैसला अंतिम नहीं है और उस पर विचार करना चाहिये। इस फैसले के तुरंत बाद फिर कमलनाथ ने बयान दिया कि सेज पर नीति बदली जा सकती है। आखिर क्यों? क्या सिंगूर और नंदीग्राम में जो किसानों का लहू बहा उसका कोई मोल नहीं है? या फिर कमलनाथ इस देश की जनता के नुमाइंदे हैं या रिलायंस जैसी कंपनियों के एजेंट?
इतना सबकुछ करने के बाद भी जब ये कंपनियां प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की याचना को ठुकराती हैं तो आप इनके चरित्र का अंदाजा लगा सकते हैं। दरअसल कहने को कारोबारियों का ताल्लुक किसी धर्म, जाति और देश से हो सकता है लेकिन उनका मकसद एक ही होता है। वो मकसद है ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना। वो मुनाफे के लिए किसी को भी दांव पर लगा सकते हैं। रिश्तों को, इंसानों को और देश को भी। ऐसे में ये हुक्मरानों पर निर्भर करता है कि कारोबारियों को कब, क्यों और कितनी छूट दी जाए? और जरूरत के हिसाब से कितनी नकेल कसी जाए? लेकिन हमारे देश के हुक्मरान भांट में तब्दील हो चुके हैं। ऐसे भांट जो कंपनियों की धुनों पर थिरकते हैं। कारोबारियों के आगे-पीछे दुम हिलाते हैं और अपने देश की जनता के साथ विश्वासघात करते हैं। आज के दौर में इन एजेंटों में सबसे ऊपर चल रहे हैं मनमोहन सिंह।
यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि मनमोहन सिंह की अगुवाई में हमारा देश पूर्ण आजादी की तरफ कदम बढ़ाने की बजाए गुलामी की तरफ कदम बढ़ा रहा है। एक ऐसी गुलामी की तरफ .. जहां नुमाइंदा हम चुनेंगे लेकिन वो हमारे लिए काम नहीं करेंगे। जहां कहने को देश पर नियंत्रण जनता का होगा.. लेकिन राज कंपनियां करेंगी, बड़ी कंपनियां। कहने को कानून तब भी होगा .. लेकिन चंद धनपशुओं की जेब में। आज हमने मनमोहन सिंह की नीतियों पर वार नहीं किया तो वो दिन दूर नहीं जब हम चारों तरफ से बंधें होंगे। अपने ही देश में लाचार.. खुद पर तरस खाते हुए .. और ये अफसोस करते हुए कि काश हमने कुछ समय पहले अक्ल से काम लिया होता और अपने हक़ के लिए आवाज़ बुलंद की होती।

((इस विषय पर चर्चा जारी रहेगी। आगे हम बात करेंगे अटल बिहारी वाजपेयी जैसे चेहरों की जो प्रधानमंत्री बने तो एक जन नेता थे, लेकिन आखिर तक आते आते कंपनियों के एजेंट में तब्दील हो गए। आपको याद होगा कि उनके दौर में प्रमोद महाजन देश के संचार मंत्री थे। लेकिन उन्होंने बीएसएनएल, एमटीएनएल और वीएलएनएल के विस्तार से ज्यादा रिलायंस कम्यूनिकेशन के विस्तार पर ध्यान दिया। यहां तक कि वाजपेयी जैसे प्रधानमंत्री जिसे देश की जनता ने चुन कर भेजा था, रिलायंस का प्रचार करते नजर आए। उन्होंने रिलायंस कम्यूनिकेश का उद्घाटन किया और उस तमाशे को पूरे देश ने देखा। दूरदर्शन पर। उसी का नतीजा है कि आज वीएसएनएल पर टाटा का कब्जा है। बीएसएनएल और एमटीएनएल से ज्यादा ताकतवर रिलायंस कम्युनिकेशन और भारती टेली हैं। आखिर दूर संचार की तीनों सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के पतन की वजह क्या है ? आखिर क्यों एक जन नेता सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने के बाद कंपनियों का गुलाम बन जाता है ? आखिर क्यों जन्म लेती है मनमोहन सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी जैसी गुलाम मानसिकता ? और आखिर इस मानसिकता और साजिश के खिलाफ युद्ध का तरीका क्या होगा ? मुद्दे बेहद गंभीर हैं और इन पर हम सबको मिल कर सोचना चाहिये, बहस करनी चाहिये। हमें आपके सुझावों और विचारों का इंतजार है।))

3 comments:

Anonymous said...


हालांकि यहां मनमोहन के समर्थक ये दलील देते हैं कि बाहरी कर्ज आर्थव्यवस्था की मजबूती की पहचान है। लेकिन जब भी दुनिया के चोटी के पंद्रह कर्ज के बोझ तले दबे हुए देशों की बात होती है तो उसमें कोई भी विकसित देश शामिल नहीं होता।

एक नजर इधर भी डाल ले
http://findarticles.com/p/articles/mi_hb3120/is_200504/ai_n15033026
http://en.wikipedia.org/wiki/List_of_countries_by_external_debt

दूनिया का सबसे बड़ा कर्जदार देश सयुंक्त राज्य अमरीका है। और कर्जदारो की इस सूची मे पहले अठारह विकसीत देश है।
भारत इस सूची मे अठ्ठाइसवां है !

Anonymous said...

पिछले कमेंट मे दी गयी सूची पूरानी थी ये नयी है,
https://www.cia.gov/library/publications/the-world-factbook/rankorder/2079rank.html

विश्व के सबसे बड़े कर्जदारो की सूची जिसमे पहले १९ देश विकसीत देश है !

उमाशंकर सिंह said...

अच्छा लिख रहे हो समर भाई, उम्मीद है बात उनके कानों तक भी पहुंचेगी जिनके बारे में लिखा जा रहा है।

custom search

Custom Search