((कंपनियों के एजेंट मनमोहन के जबाव में आशीष श्रीवास्तव ने अपनी प्रतिक्रिया दी। उन्होंने लेख के एक हिस्से का जिक्र किया और कहा कि दुनिया के सबसे ज्यादा कर्ज लेने वालों की सूची में पहले 19 देश विकसित हैं। बात सही है। लेकिन भाई आशीष आंकड़ों के पीछे का गणित इतना सरल नहीं है। दरअसल गलती मेरी ही थी। मैंने लेख में ये जिक्र नहीं किया कि कर्ज का सही मूल्यांकन कैसे होता है ? कर्ज किसी देश के लिए कब और क्यों खतरनाक बनता है ? और उस लिहाज से जो सूची है उसमें विकसित देश कितने मजे में हैं और विकासशील देश कितनी बुरी तरह फंसे हैं ? इस चिट्ठे में जिक्र इन्हीं बातों का है। लेकिन मैं यहां भी साफ कर दूं कि मैं अर्थशास्त्री नहीं हूं। न ही मैंने कभी अर्थशास्त्र पढ़ा है। फिर भी इन दिनों कोशिश कर रहा हूं उसे समझने की। अगर कहीं कोई और चूक हो जाए तो आप उसे सुधारने का कष्ट करें। आपके सुझावों का स्वागत है।))
भाई आशीष,
आंकड़ों का खेल ही कुछ ऐसा है। इन्हीं आंकड़ों के मानक बदल कर हुक्मरान(नेता और अफसर) जनता को धोखे में रखते हैं। आपने जो सूची भेजी है वो सही है, लेकिन उससे अर्थव्यवस्था की सही स्थिति का मूल्यांकन नहीं हो सकता। कर्ज की भायवहता का अंदाजा सिर्फ और सिर्फ उसी सूची से लगाया जा सकता है, जिसका जिक्र मैंने किया है। आपने जो सूची भेजी है ऐसे देशों की सूची है जिन्होंने कर्ज लिया है। लेकिन इससे ये पता नहीं चलता कि वो कर्ज संबंधित देशों के लिए कितना भारी है। मैंने जिस सूची का जिक्र किया है। वो भी आपको उसी वेबसाइट पर मिल जाएगी। बस आप सकल घरेलु उत्पाद और कर्ज के बीच का अनुपात तलाशने की कोशिश करिये। इसके लिए आपको सर्च इंजन पर GDP-Debt ratio टाइप करना होगा। जिसके बाद आपको ये लिंक मिलेगा। http://en.wikipedia.org/wiki/List_of_countries_by_public_debt
यहां क्लिक करने के बाद आपको पता चलेगा कि कर्जदारों की इस सूची में पहले 25 देशों में सिर्फ और सिर्फ चार विकसित देश (जापान, इटली, ग्रीस और बेल्जियम) शामिल हैं। इन चारों देशों में सबसे ऊपर है जापान। वो भी इसलिये कि 2001 में वहां बड़ा आर्थिक संकट आया। उसका असर पूरी दुनिया पर पड़ा। लेकिन जापान अब धीरे धीरे उस संकट से उबर रहा है।
अब आप पूछेंगे कि कर्ज और जीडीपी के अनुपात से क्या मतलब निकलता है। ये कुछ वैसी ही बात है कि किस हैसियत के शख्स ने कितना कर्ज लिया है। मान लीजिये कि आपकी कमाई एक लाख रुपये महीना है। वैसी सूरत में आप 60 हजार रुपये प्रतिमाह का कर्ज लेकर भी आराम से रह सकते हैं। क्योंकि तब भी आपकी कमाई का 40 फीसदी हिस्सा इतना होगा कि आप खुद को और परिवार को एक अच्छी जिंदगी दे सकें। लेकिन मान लीजिये कि किसी शख्स की कमाई 5 हजार है और वो उसका 60 फीसदी यानी 3 हजार रुपये प्रतिमाह कर्ज चुकाने में खर्च करता है। वैसी सूरत में मात्र 2 हजार रुपये में वो परिवार तो दूर खुद का पेट भी नहीं पाल सकेगा। विकसित और गरीब देशों के कर्ज में भी यही गणित काम करता है।
यहां एक और बात का जिक्र करना जरूरी है। वो ये कि जिन विकसित देशों का नाम कर्जदारों की सूची में है (जिसका मैंने जिक्र किया है)। उनमें से जापान को छोड़ कर बाकी देश या तो यूरोपीय यूनियन का हिस्सा हैं या फिर उत्तरी अमेरिका का। ये वो देश हैं जिनकी करेंसी (यूरो और डॉलर) पूरी दुनिया में चलती है। इस लिहाज से भी उन पर संकट उतना गहरा नहीं है जितना कि कर्ज के जाल में फंसे गरीब देशों पर।
तीसरी बात। ऐसा नहीं कि जिन विकसित देशों पर कर्ज ज्यादा है, वहां कोई हंगामा नहीं मचता। मसलन अमेरिका को ही लीजिये, जो सकल घरेलु उत्पाद और कर्ज के हिसाब से 32वें नंबर पर है। वहां भी इस हालत के लिए लोग जॉर्ज बुश को आड़े हाथों ले रहे हैं। उनके मुताबिक बुश ने बिल क्लिंटन के किये धरे पर पानी फेर दिया। क्लिंटन ने अपने कार्यकाल में कर्ज को काबू में करने की कोशिश की। जब उन्होंने कामकाज संभाला तब जीडीपी की तुलना में कर्ज 67 फीसदी था। तब उन्होंने सत्ता छोड़ी तब वो गिर कर 57 फीसदी हो गया। लेकिन एक बार फिर अमेरिका पर कर्ज बढ़ा है और इस सूची में नजर आ रहा है कि वहां जीडीपी की तुलना में कर्ज 64 फीसदी से ज्यादा है। यही वजह है कि बुश की कड़ी आलोचना हो रही है।
इसलिए कर्ज को जितना जल्द हो सके कम करना चाहिये। अगर हो सके तो खत्म करना चाहिये। आर्थिक आजादी के लिए ये बेहद जरूरी है क्योंकि कर्जदार कभी आजाद महसूस नहीं करता। वो कभी जोखिम नहीं उठा सकता। और ये बात हर किसी पर लागू होती है। आम आदमी से लेकर देशों पर भी।
आपका साथी
समर
भाई आशीष,
आंकड़ों का खेल ही कुछ ऐसा है। इन्हीं आंकड़ों के मानक बदल कर हुक्मरान(नेता और अफसर) जनता को धोखे में रखते हैं। आपने जो सूची भेजी है वो सही है, लेकिन उससे अर्थव्यवस्था की सही स्थिति का मूल्यांकन नहीं हो सकता। कर्ज की भायवहता का अंदाजा सिर्फ और सिर्फ उसी सूची से लगाया जा सकता है, जिसका जिक्र मैंने किया है। आपने जो सूची भेजी है ऐसे देशों की सूची है जिन्होंने कर्ज लिया है। लेकिन इससे ये पता नहीं चलता कि वो कर्ज संबंधित देशों के लिए कितना भारी है। मैंने जिस सूची का जिक्र किया है। वो भी आपको उसी वेबसाइट पर मिल जाएगी। बस आप सकल घरेलु उत्पाद और कर्ज के बीच का अनुपात तलाशने की कोशिश करिये। इसके लिए आपको सर्च इंजन पर GDP-Debt ratio टाइप करना होगा। जिसके बाद आपको ये लिंक मिलेगा। http://en.wikipedia.org/wiki/List_of_countries_by_public_debt
यहां क्लिक करने के बाद आपको पता चलेगा कि कर्जदारों की इस सूची में पहले 25 देशों में सिर्फ और सिर्फ चार विकसित देश (जापान, इटली, ग्रीस और बेल्जियम) शामिल हैं। इन चारों देशों में सबसे ऊपर है जापान। वो भी इसलिये कि 2001 में वहां बड़ा आर्थिक संकट आया। उसका असर पूरी दुनिया पर पड़ा। लेकिन जापान अब धीरे धीरे उस संकट से उबर रहा है।
अब आप पूछेंगे कि कर्ज और जीडीपी के अनुपात से क्या मतलब निकलता है। ये कुछ वैसी ही बात है कि किस हैसियत के शख्स ने कितना कर्ज लिया है। मान लीजिये कि आपकी कमाई एक लाख रुपये महीना है। वैसी सूरत में आप 60 हजार रुपये प्रतिमाह का कर्ज लेकर भी आराम से रह सकते हैं। क्योंकि तब भी आपकी कमाई का 40 फीसदी हिस्सा इतना होगा कि आप खुद को और परिवार को एक अच्छी जिंदगी दे सकें। लेकिन मान लीजिये कि किसी शख्स की कमाई 5 हजार है और वो उसका 60 फीसदी यानी 3 हजार रुपये प्रतिमाह कर्ज चुकाने में खर्च करता है। वैसी सूरत में मात्र 2 हजार रुपये में वो परिवार तो दूर खुद का पेट भी नहीं पाल सकेगा। विकसित और गरीब देशों के कर्ज में भी यही गणित काम करता है।
यहां एक और बात का जिक्र करना जरूरी है। वो ये कि जिन विकसित देशों का नाम कर्जदारों की सूची में है (जिसका मैंने जिक्र किया है)। उनमें से जापान को छोड़ कर बाकी देश या तो यूरोपीय यूनियन का हिस्सा हैं या फिर उत्तरी अमेरिका का। ये वो देश हैं जिनकी करेंसी (यूरो और डॉलर) पूरी दुनिया में चलती है। इस लिहाज से भी उन पर संकट उतना गहरा नहीं है जितना कि कर्ज के जाल में फंसे गरीब देशों पर।
तीसरी बात। ऐसा नहीं कि जिन विकसित देशों पर कर्ज ज्यादा है, वहां कोई हंगामा नहीं मचता। मसलन अमेरिका को ही लीजिये, जो सकल घरेलु उत्पाद और कर्ज के हिसाब से 32वें नंबर पर है। वहां भी इस हालत के लिए लोग जॉर्ज बुश को आड़े हाथों ले रहे हैं। उनके मुताबिक बुश ने बिल क्लिंटन के किये धरे पर पानी फेर दिया। क्लिंटन ने अपने कार्यकाल में कर्ज को काबू में करने की कोशिश की। जब उन्होंने कामकाज संभाला तब जीडीपी की तुलना में कर्ज 67 फीसदी था। तब उन्होंने सत्ता छोड़ी तब वो गिर कर 57 फीसदी हो गया। लेकिन एक बार फिर अमेरिका पर कर्ज बढ़ा है और इस सूची में नजर आ रहा है कि वहां जीडीपी की तुलना में कर्ज 64 फीसदी से ज्यादा है। यही वजह है कि बुश की कड़ी आलोचना हो रही है।
इसलिए कर्ज को जितना जल्द हो सके कम करना चाहिये। अगर हो सके तो खत्म करना चाहिये। आर्थिक आजादी के लिए ये बेहद जरूरी है क्योंकि कर्जदार कभी आजाद महसूस नहीं करता। वो कभी जोखिम नहीं उठा सकता। और ये बात हर किसी पर लागू होती है। आम आदमी से लेकर देशों पर भी।
आपका साथी
समर
2 comments:
this is very true. the real mix of this debt is also very interesting to understand. a very big portion of the debt given in the name of assistance, actually goes back to the lender in some form or the other. hope to see some latest figures on this from my dear friend, as he is doing extensive research on the topic these days. keep it up man...congrats and best wishes...
viplav
समर भाई
मेरी टिप्पणी के जवाब मे एक पूरी पोष्ट लिखने का शुक्रिया।
अर्थशास्त्र का ज्ञाता तो मै भी नही हूं।
इस सूची मे सबसे ज्यादा देश अमरीका या युरोपियन युनियन के है जो डालर और युरो का प्रयोग करते है। इस तत्थ से पूरी तरह सहमत हूं।
ये देश डालर और युरो मे अन्य देशो द्वारा रखे गये विदेशी पूंजी भडांर का पूरी तरह फायदा उठाते है। स. रा. अमरिका की पूरी अर्थ व्यवस्था ही ऐसी है, कि दूसरो के पैसो पर ऐश !
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