किसान इस देश का वो तबका है जिसने विकास की सबसे बड़ी कीमत अदा की है। हममें से बहुत सारे अमिताभ बच्चन और आमिर खान की तरह ही ये कह सकते हैं कि वो भी किसान हैं क्योंकि उनके पूर्वज किसान थे। लेकिन ये सफेद झूठ होगा। सच तो ये है कि हम, शहरों में रहने वाले अपनी जड़ों से कट चुके हैं। हमें महानगरों की तंग गलियों की आदत लग गई है और हमारे दिल भी उतने ही तंग हो गए हैं। यही वजह है कि हम किसान की मुश्किलों पर घड़ियाली आंसू भले बहा लें उन्हें गहराई से समझने की कोशिश नहीं करते हैं। मगर हमारे ही साथी मणीष ने किसानों की बेबसी को पूरी तरह समझा है। वो बता रहे हैं कि किस तरह देश की सरकारें और हुक्मरान उनके साथ धोखा करते आए हैं। उनका लेख थोड़ा लंबा जरूर है, लेकिन आप जैसे जैसे आगे बढ़ेंगे ... आपको मालूम होगा कि किसान कितने बड़े पैमाने पर छला जा रहा है और विकास के नाम पर आहुति देने की अगली बारी किसकी है।
भारत समूची दुनिया में अकेला ऐसा देश है जिसका आधा से अधिक क्षेत्रफल खेती योग्य है। भारत में उपजाऊ जमीन का क्षेत्रफल दुनिया में सिर्फ अमेरिका से कम है। कुदरत की इस दरियादिली का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि हमसे पांच गुना अधिक भू-भाग वाले रूस और कनाडा के पास भी खेती योग्य जमीन हमसे कम है। चीन, ऑस्ट्रेलिया और ब्राजील, जो कि भारत से तीन गुना के करीब बड़े हैं, खेती योग्य भूमि के मामले में हमसे कमतर हैं। यही नहीं जमीन के अलावा खेती करने वालों की संख्या के मामले में भी भारत दुनिया में अव्वल है। फिर भी तीनों मुख्य खाद्य अनाज गेहूं, चावल और मक्का में से किसी एक की भी पैदावार के मामले में भारत नंबर एक नहीं है। इसके कई मायने निकलते हैं। हो सकता है कि भूमि कम उपजाऊ हो, या किसान पूरी मेहनत से काम नहीं करता हो या फिर खेती से संबंधित कोई और वजहे हैं जिनसे हम पिछड़ जाते हैं। इन तमाम मुद्दों पर चर्चा जरूरी है।
सबसे पहले सवाल जमीन की उर्वरता का। इस मामले में यह जानना काफी होगा कि दुनिया के तमाम मैदानी भू-भागों की तुलना में भारत का मैदानी इलाका सबसे ज्यादा ऊर्वर है। इस मैदानी भू-भाग का बड़ा हिस्सा सिंधु-गंगा और ब्रह्मपुत्र के द्वारा रचा गया है। सिंधु-गंगा और ब्रह्मपुत्र के मैदानी भाग की औसत मिट्टी की गहराई 2 किलोमीटर से ज्यादा है। उसमें से कुछ भाग पर 4 किलोमीटर तक मिट्टी की परत है। यानी कि इस मैदानी भाग की मिट्टी को अगर आप 2 किलोमीटर तक भी खोदेंगे तो मिट्टी ही मिलेगी न की चट्टान। दुनिया के किसी भी हिस्से में किसी भी नदी का मैदानी क्षेत्र मिट्टी की इतनी गहरी परत वाला नहीं है।
अब उस मेहनत की। यहां आशंका जताई जा सकती है कि मेहनत की कमी के कारण ऊपज कम है। लेकिन यह आशंका बेबुनियाद है। भारत में जिस तरह की खेती होती है उसे इंटेंसिव एंड सेडेंटरी एग्रीकल्चर (Intensive and Sedentary Agriculture) कहते हैं। इसका अर्थ होता है औसत किसान के पास जमीन कम होती है। इस कमी को पूरा करने के लिए वो बार बार फसलें उगाता है। वो पूरे परिवार के साथ मिल कर अधिक से अधिक पैदावार हासिल करने के लिए पूरे साल मेहनत करता है। इसलिए मेहनत के मामले में भारतीय किसानों का कोई जोड़ नहीं। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर वह कौन से कारण हैं जिनसे हमारी ऊपज दूसरे देशों से कम है। जब हम बेहतरीन जमीन के मालिक हैं, हमारे पास अमेरिका और अन्य विकसित देशों की तरह सूटकेस फारमर (suitcase Farmer – अमेरिका और कनाडा जैसे देशों में कॉरपोरेट स्टाइल में खेती करने वाले किसान) की अपेक्षा पूरे तन-मन के मेहनत करेन वाले खालिस किसान हैं। फिर भी हम पीछे क्यों हैं।
मोटे तौर पर देखें तो कारण कई हैं और उन पर किसान का बस नहीं। नाकामी की वजहें या तो संस्थागत होती हैं या फिर व्यक्तिगत। सिंचाई सुविधा संस्थागत जिम्मेदारी है तो उसका सही तरीके से इस्तेमाल व्यक्तिगत जिम्मेवारी। उन्नत बीज और अच्छी मशीन को मुहैया कराना सरकार की जिम्मेवारी है और उस उपलब्धता से खेती को उन्नत बनाना किसान की जिम्मेदारी। पर तकनीक कभी यूं ही नहीं आती। उसकी कुछ कीमत होती है। तकनीक बेचने वाले उसे अधिक से अधिक कीमत पर बेचना चाहते हैं और खरीदार कम से कम कीमत देना चाहता है। ऐसे में सरकार नियंता और नियामक की भूमिका निभाती है। समाज और राज्य के हितों को ध्यान में रखते हुए वह ऐसी नीति बनाती है कि तकनीक ईजाद करने वाले को सही मुनाफा मिले और तकनीक को आजमाना किसान के लिए इतना महंगा सौदा नहीं हो कि उसकी हिम्मत जवाब दे जाए। यहां एक बात और ध्यान रखने की है। अगर किसान अपनी फसल का मूल्य खुद निर्धारित कर पाता तो उसे लागत की चिंता कभी नहीं होती। लेकिन भारत में ऐसा नहीं होता। फसल का मूल्य सरकार निर्धारित करती है। ऐसे में यहां सरकार की भूमिका दो स्तर पर अहम हो जाती है। उसकी पहली जिम्मेदारी है फसल के लागत को काबू में रखने का बंदोबस्त करना और दूसरी जिम्मेदारी फसल के लिए लाभदायी मूल्य की व्यवस्था करना है। उसकी दूसरी जिम्मेदारी पर चर्चा फिर कभी। अभी बात कि सरकार खेती में लागत के तत्वों का मूल्य किस तरह तय कर सकती है और करती है। ये सरकार की जिम्मेदारी है कि सिंचाई, बीज, उर्वरक और दूसरी जरूरी चीजों का मूल्य किसानों की पहुंच के भीतर रखे। अब हम जानने की कोशिश करते हैं कि सरकार ने अब तक अपनी इस जिम्मेदारी को पूरा करने की कोशिश किस हद तक की है। शुरुआत सिंचाई व्यवस्था से।
भारत में आधी से ज्यादा खेती वर्षा आधारित होती है। किसान सिंचाई के लिए मानसून का मुंह जोहते हैं। इसी से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि देश में सिंचाई के साधन की क्या हालत है। जहां सिंचाई की सुविधा है वहां भी आधे से ज्यादा भू-भाग में ये सुविधा ट्यूबेल के रूप में है (करीब 57 फीसदी)। मतलब ये कि किसान भूमिगत जल का दोहन या तो बिजली के मोटर से करता है या फिर डीजल पंपसेट से। इस देश में बिजली की उपलब्धता के बारे में आपको बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिये। पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ जैसे कुछेक राज्यों को छोड़कर भारत का कोई राज्य अपनी जरूरत भर भी बिजली पैदा नहीं कर पाता। इसमें भी यह बात स्थापित तथ्य है कि सरकारें खेती की तुलना में शहरी नागरिक जरूरत और उद्योग धंधों के लिए बिजली मुहैया कराने पर ज्यादा जोर देती हैं। तो लब्बोलुआब यह है कि सिंचाई के लिए बिजली बेहद सीमित क्षेत्र में ही उपलब्ध है। इसलिए देश में आधे से ज्यादा ट्यूबेल डीजल पंपसेट से ही चलते हैं। उदारीकरण के इस दौर में जब आप जैसे नियमित आमदनी वाले लोग अपनी डीजल कार, जीप के लिए कटौती करने में लगे होते हैं तो ऐसे में एक सामान्य भारतीय किसान 35 रुपये प्रति लीटर की दर से कितनी देर तक अपने पंपसेट चालू रख सकेगा। ये भी याद रखिये डीजल की महंगाई से आप अपने व्यक्तिगत वाहनों को चलाने से परहेज कर सकते हैं लेकिन किसान पानी की जरूरत में खड़ी फसल को मुरझाते नहीं देख सकता। फिर भी सरकार ना तो उसे कम दर पर डीजल मुहैया कराती है और ना ही डीजल खरीदने के लिए कम दरों पर कर्ज।
सिंचाई के बाद बारी बीज की। यह सारा मसला अब सरकार ने प्राइवेट कंपनियों पर छोड़ दिया है। राष्ट्रीय बीज निगम और राज्य सरकारों के बीज निगम अब मात्र ऐसी संस्थाएं रह गई हैं जिनका वजूद तो है पर प्रासंगिकता नहीं। बीजों की खपत और सरकारी संस्थाओं की बिक्री के आंकड़े को देखने से पता चल जाता है कि निजी कंपनियों की उपस्थिति के बीच आखिर सरकारी एजेंसियां क्या कर रही हैं। बीज को उन्नत बनाने के लिए किये गए अनुसंधान के खर्च के नाम पर ये निजी कंपनियां ऐसे दाम पर बीज बेचती हैं जिन्हें अदा करते वक्त किसान की रूह कांप जाती है। उदाहरण के तौर पर किसान के जिस धान की कीमत बाजार अधिक से अधिक 7-12 रुपये प्रति किलो तक लगाता है उसी के बीज के लिए वही बाजार उससे 700 से 1000 रुपये वसूलता है। आप किसी भी फसल की कीमत और उसके बीज की कीमत का बाजार में आकलन कर लीजिये आपको लगेगा कि लूट किस कदर होती है। फिर भी सरकार निजी कंपनियों को ही ज्यादा पैदावार वाले बीजों (हाई इल्डिंग वेरायटी) के विकास के नाम पर प्रोत्साहित करती है। यहां यह भी बताना जरूरी है कि बीज की महंगी कीमत चुकाने पर भी कोई गारंटी नहीं मिलती। पैदावार हो या नहीं ... किसान की अपनी किस्मत।
उर्वरक के मामले में भी सरकार का चरित्र दोहरा है। आपने उर्वरक को मिल रहे केंद्रीय अनुदान के बारे में सुना होगा। पर तथ्य यह है कि सरकार सिर्फ यूरिया पर ही सब्सिडी देती है। यह सब्सिडी भी किसानों को सीधे ना देकर यूरिया कंपनियों को दी जाती है। यह सब्सिडी की ऐसी विधा है जिसमें सरकार अपनी जेब ढीली करती है कंपनियों को नुकसान से बचाने के लिए। जबकि कायदा यह होना चाहिये कि सरकार की जेब निकला धन सीधे किसानों के पास जाय ताकि वे किसी भी लागत मूल्य पर यूरिया खरीद सकें। पर सरकार ऐसी कोई वित्तीय सहायदा नहीं देती। यह भी एक बड़ा तथ्य है कि यूरिया ही एकमात्र उर्वरक नहीं होता। डी.ए.पी, सिंगल सुपर फास्फेट, जिंक, पोटाश आदि अन्य उर्वरक हैं जिनकी जरूरत मिट्टी और फसल के हिसाब से तय होती है। लेकिन इन सबके लिए किसी भी प्रकार की सब्सिडी का कोई प्रावधान नहीं है। यहां सरकार किसानों को मुक्त बाजार के हवाले छोड़ देती है।
अब बात मशीनीकरण की। भारत में किसान खेती के लिए परंपरागत तौर पर पालतू पशुओं की सहायता लेते रहे। धीरे धीरे जब चारागाह सिकुड़ते गए और पशुपालन की लागत बढ़ती गई तो छोटी आकार की खेती भी मशीन पर आधारित होने लगी। इन मशीनों में मुख्य रूप से ट्रैक्टर, थ्रेसर, पंपसेट और कल्टीवेटर आते हैं। इन्हें अपनेदम पर खरीदना सामान्य किसान के बस की बात नहीं। फिर भी सरकार इनमें से कोई भी मशीन खरीदने के लिए किसी तरह की आर्थिक मदद नहीं देती। ना कोई सब्सिडी और ना कोई अनुदान।
आपने सिलसिलेवार रूप से जाना कि खेती में लागत के जो अवयव हैं उसमें कुछ किसान के हाथ में हैं और कुछ उसके बूते के बाहर की चीज हैं। जो उनके हाथ में है उसमें वह अपना शत प्रतिशत देता है और जिस मामले में वह सरकार पर निर्भर है उसमें सरकार उसे बाजार के हवाले छोड़ देती है। वो बाजार जो लाभ को लूट की हद तक ले जाने की फिराक में रहता है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर वो उपाय क्या हैं जिनसे किसानों की स्थिति सुधर सकती है। उपाय दो तरफा हैं। या तो उपज की कीमत का निर्धारण किसान को करने दिया जाए या जो सरकार उपज की कीमत तय करती है वह लागत के अवयवों का मूल्य इस कदर नियमित और निर्धारित करे कि किसानों को भी मुनाफा हो। इस काम को दो तरीके से अंजाम दिया जा सकता है। पहला तरीका यह है कि खेती के काम आने वाली चीजों जिन्हें ऊपर गिनाया गया है का दाम नियंत्रित करे और दूसरा तरीका है कि दाम भले ही कुछ भी हो उसे खरीदने के लिए किसानों को वित्तीय सहायता दी जाए। याद रखिये वित्तीय सहायता की आशा याचक के रुप में नहीं की जाती। बल्कि इसलिए की जाती है कि उसे किसानों को अपनी उपज का मूल्य निर्धारित करने की आजादी नहीं दी जाती।
यहां आप कहेंगे कि सरकार किसानों को सस्ती दर पर ऋण उपलब्ध कराती है। लेकिन ये सच नहीं है। आइये एक सामान्य उदाहरण से इस स्थिति को समझने की कोशिश करें। इस देश में बैंकों के माध्यम से सरकार कृषि ऋण के प्रवाह को नियंत्रित करती है। इन बैंकों में सभी प्रकार के बैंक शामिल हैं। सरकारी और गैर सरकारी। सरकारी बैंकों की संख्या 225 के आस-पास हैं। इनमें सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक, राष्ट्रीयकृत बैंक, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक और सहकारी बैंक आते हैं। ग्रामीण क्षेत्र में इन्हीं बैंकों की पहुंच है और सरकारी कर्ज इन्हीं के माध्यम से दिया जाता है। आप अगर नौकरी पेशा हैं और मोटरसाइकिल, कार, फ्रिज, टीवी या ऐसा ही कोई गैर उत्पादक यानी उपभोक्ता जरूरत भर के लिए सामान खरीदना चाहते हैं तो ये बैंक बिना किसी हील-हवाला के आपको एक ही दो दिन में इसके लिए कर्ज दे देंगे। इस ऋण पर ब्याज क्या होगा ये आये दिन अखबारों में छपने वाले विज्ञापन से जाना जा सकता है। यही हाल घर खरीदने के लिए दिये जाने वाले ऋण का भी है। हर बैंक चाहे वो सरकारी हो या गैर सरकारी – न्यूनतम दर पर आपको घर खऱीदने के लिए पैसा देने को तैयार मिलेगा। नियम और शर्तों में इतना ढीलापन होता है कि आए दिन आप ऐसे केस के बारे में सुनते व पढ़ते होंगे कि अमुक जगह पर एक ही फ्लैट पर कई बैंकों ने कई व्यक्तियों को ऋण दे दिया था। अमुक जगह पर एक बैंक ने जिस फ्लैट को बंधक रख कर कर्ज दिया था वो फ्लैट था ही नहीं। इस तथ्य को जानिये की यह कोई मानवीय भूल के तहत आने वाली समस्या नहीं है। यह इतने बड़े स्तर पर इस देश में हुआ है और हो रहा है कि वित्त मंत्रालय को इस बारे में बैंकों को सावधानी पूर्वक कदम बढ़ाने का निर्देश जारी करना पड़ा। आपने देखा कि सामान्य शहरी के लिए उपभोक्ता ऋण लेना कितना आसान है। लेकिन किसानों के लिए ऐसा नहीं है।
सबसे पहले सवाल जमीन की उर्वरता का। इस मामले में यह जानना काफी होगा कि दुनिया के तमाम मैदानी भू-भागों की तुलना में भारत का मैदानी इलाका सबसे ज्यादा ऊर्वर है। इस मैदानी भू-भाग का बड़ा हिस्सा सिंधु-गंगा और ब्रह्मपुत्र के द्वारा रचा गया है। सिंधु-गंगा और ब्रह्मपुत्र के मैदानी भाग की औसत मिट्टी की गहराई 2 किलोमीटर से ज्यादा है। उसमें से कुछ भाग पर 4 किलोमीटर तक मिट्टी की परत है। यानी कि इस मैदानी भाग की मिट्टी को अगर आप 2 किलोमीटर तक भी खोदेंगे तो मिट्टी ही मिलेगी न की चट्टान। दुनिया के किसी भी हिस्से में किसी भी नदी का मैदानी क्षेत्र मिट्टी की इतनी गहरी परत वाला नहीं है।
अब उस मेहनत की। यहां आशंका जताई जा सकती है कि मेहनत की कमी के कारण ऊपज कम है। लेकिन यह आशंका बेबुनियाद है। भारत में जिस तरह की खेती होती है उसे इंटेंसिव एंड सेडेंटरी एग्रीकल्चर (Intensive and Sedentary Agriculture) कहते हैं। इसका अर्थ होता है औसत किसान के पास जमीन कम होती है। इस कमी को पूरा करने के लिए वो बार बार फसलें उगाता है। वो पूरे परिवार के साथ मिल कर अधिक से अधिक पैदावार हासिल करने के लिए पूरे साल मेहनत करता है। इसलिए मेहनत के मामले में भारतीय किसानों का कोई जोड़ नहीं। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर वह कौन से कारण हैं जिनसे हमारी ऊपज दूसरे देशों से कम है। जब हम बेहतरीन जमीन के मालिक हैं, हमारे पास अमेरिका और अन्य विकसित देशों की तरह सूटकेस फारमर (suitcase Farmer – अमेरिका और कनाडा जैसे देशों में कॉरपोरेट स्टाइल में खेती करने वाले किसान) की अपेक्षा पूरे तन-मन के मेहनत करेन वाले खालिस किसान हैं। फिर भी हम पीछे क्यों हैं।
मोटे तौर पर देखें तो कारण कई हैं और उन पर किसान का बस नहीं। नाकामी की वजहें या तो संस्थागत होती हैं या फिर व्यक्तिगत। सिंचाई सुविधा संस्थागत जिम्मेदारी है तो उसका सही तरीके से इस्तेमाल व्यक्तिगत जिम्मेवारी। उन्नत बीज और अच्छी मशीन को मुहैया कराना सरकार की जिम्मेवारी है और उस उपलब्धता से खेती को उन्नत बनाना किसान की जिम्मेदारी। पर तकनीक कभी यूं ही नहीं आती। उसकी कुछ कीमत होती है। तकनीक बेचने वाले उसे अधिक से अधिक कीमत पर बेचना चाहते हैं और खरीदार कम से कम कीमत देना चाहता है। ऐसे में सरकार नियंता और नियामक की भूमिका निभाती है। समाज और राज्य के हितों को ध्यान में रखते हुए वह ऐसी नीति बनाती है कि तकनीक ईजाद करने वाले को सही मुनाफा मिले और तकनीक को आजमाना किसान के लिए इतना महंगा सौदा नहीं हो कि उसकी हिम्मत जवाब दे जाए। यहां एक बात और ध्यान रखने की है। अगर किसान अपनी फसल का मूल्य खुद निर्धारित कर पाता तो उसे लागत की चिंता कभी नहीं होती। लेकिन भारत में ऐसा नहीं होता। फसल का मूल्य सरकार निर्धारित करती है। ऐसे में यहां सरकार की भूमिका दो स्तर पर अहम हो जाती है। उसकी पहली जिम्मेदारी है फसल के लागत को काबू में रखने का बंदोबस्त करना और दूसरी जिम्मेदारी फसल के लिए लाभदायी मूल्य की व्यवस्था करना है। उसकी दूसरी जिम्मेदारी पर चर्चा फिर कभी। अभी बात कि सरकार खेती में लागत के तत्वों का मूल्य किस तरह तय कर सकती है और करती है। ये सरकार की जिम्मेदारी है कि सिंचाई, बीज, उर्वरक और दूसरी जरूरी चीजों का मूल्य किसानों की पहुंच के भीतर रखे। अब हम जानने की कोशिश करते हैं कि सरकार ने अब तक अपनी इस जिम्मेदारी को पूरा करने की कोशिश किस हद तक की है। शुरुआत सिंचाई व्यवस्था से।
भारत में आधी से ज्यादा खेती वर्षा आधारित होती है। किसान सिंचाई के लिए मानसून का मुंह जोहते हैं। इसी से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि देश में सिंचाई के साधन की क्या हालत है। जहां सिंचाई की सुविधा है वहां भी आधे से ज्यादा भू-भाग में ये सुविधा ट्यूबेल के रूप में है (करीब 57 फीसदी)। मतलब ये कि किसान भूमिगत जल का दोहन या तो बिजली के मोटर से करता है या फिर डीजल पंपसेट से। इस देश में बिजली की उपलब्धता के बारे में आपको बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिये। पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ जैसे कुछेक राज्यों को छोड़कर भारत का कोई राज्य अपनी जरूरत भर भी बिजली पैदा नहीं कर पाता। इसमें भी यह बात स्थापित तथ्य है कि सरकारें खेती की तुलना में शहरी नागरिक जरूरत और उद्योग धंधों के लिए बिजली मुहैया कराने पर ज्यादा जोर देती हैं। तो लब्बोलुआब यह है कि सिंचाई के लिए बिजली बेहद सीमित क्षेत्र में ही उपलब्ध है। इसलिए देश में आधे से ज्यादा ट्यूबेल डीजल पंपसेट से ही चलते हैं। उदारीकरण के इस दौर में जब आप जैसे नियमित आमदनी वाले लोग अपनी डीजल कार, जीप के लिए कटौती करने में लगे होते हैं तो ऐसे में एक सामान्य भारतीय किसान 35 रुपये प्रति लीटर की दर से कितनी देर तक अपने पंपसेट चालू रख सकेगा। ये भी याद रखिये डीजल की महंगाई से आप अपने व्यक्तिगत वाहनों को चलाने से परहेज कर सकते हैं लेकिन किसान पानी की जरूरत में खड़ी फसल को मुरझाते नहीं देख सकता। फिर भी सरकार ना तो उसे कम दर पर डीजल मुहैया कराती है और ना ही डीजल खरीदने के लिए कम दरों पर कर्ज।
सिंचाई के बाद बारी बीज की। यह सारा मसला अब सरकार ने प्राइवेट कंपनियों पर छोड़ दिया है। राष्ट्रीय बीज निगम और राज्य सरकारों के बीज निगम अब मात्र ऐसी संस्थाएं रह गई हैं जिनका वजूद तो है पर प्रासंगिकता नहीं। बीजों की खपत और सरकारी संस्थाओं की बिक्री के आंकड़े को देखने से पता चल जाता है कि निजी कंपनियों की उपस्थिति के बीच आखिर सरकारी एजेंसियां क्या कर रही हैं। बीज को उन्नत बनाने के लिए किये गए अनुसंधान के खर्च के नाम पर ये निजी कंपनियां ऐसे दाम पर बीज बेचती हैं जिन्हें अदा करते वक्त किसान की रूह कांप जाती है। उदाहरण के तौर पर किसान के जिस धान की कीमत बाजार अधिक से अधिक 7-12 रुपये प्रति किलो तक लगाता है उसी के बीज के लिए वही बाजार उससे 700 से 1000 रुपये वसूलता है। आप किसी भी फसल की कीमत और उसके बीज की कीमत का बाजार में आकलन कर लीजिये आपको लगेगा कि लूट किस कदर होती है। फिर भी सरकार निजी कंपनियों को ही ज्यादा पैदावार वाले बीजों (हाई इल्डिंग वेरायटी) के विकास के नाम पर प्रोत्साहित करती है। यहां यह भी बताना जरूरी है कि बीज की महंगी कीमत चुकाने पर भी कोई गारंटी नहीं मिलती। पैदावार हो या नहीं ... किसान की अपनी किस्मत।
उर्वरक के मामले में भी सरकार का चरित्र दोहरा है। आपने उर्वरक को मिल रहे केंद्रीय अनुदान के बारे में सुना होगा। पर तथ्य यह है कि सरकार सिर्फ यूरिया पर ही सब्सिडी देती है। यह सब्सिडी भी किसानों को सीधे ना देकर यूरिया कंपनियों को दी जाती है। यह सब्सिडी की ऐसी विधा है जिसमें सरकार अपनी जेब ढीली करती है कंपनियों को नुकसान से बचाने के लिए। जबकि कायदा यह होना चाहिये कि सरकार की जेब निकला धन सीधे किसानों के पास जाय ताकि वे किसी भी लागत मूल्य पर यूरिया खरीद सकें। पर सरकार ऐसी कोई वित्तीय सहायदा नहीं देती। यह भी एक बड़ा तथ्य है कि यूरिया ही एकमात्र उर्वरक नहीं होता। डी.ए.पी, सिंगल सुपर फास्फेट, जिंक, पोटाश आदि अन्य उर्वरक हैं जिनकी जरूरत मिट्टी और फसल के हिसाब से तय होती है। लेकिन इन सबके लिए किसी भी प्रकार की सब्सिडी का कोई प्रावधान नहीं है। यहां सरकार किसानों को मुक्त बाजार के हवाले छोड़ देती है।
अब बात मशीनीकरण की। भारत में किसान खेती के लिए परंपरागत तौर पर पालतू पशुओं की सहायता लेते रहे। धीरे धीरे जब चारागाह सिकुड़ते गए और पशुपालन की लागत बढ़ती गई तो छोटी आकार की खेती भी मशीन पर आधारित होने लगी। इन मशीनों में मुख्य रूप से ट्रैक्टर, थ्रेसर, पंपसेट और कल्टीवेटर आते हैं। इन्हें अपनेदम पर खरीदना सामान्य किसान के बस की बात नहीं। फिर भी सरकार इनमें से कोई भी मशीन खरीदने के लिए किसी तरह की आर्थिक मदद नहीं देती। ना कोई सब्सिडी और ना कोई अनुदान।
आपने सिलसिलेवार रूप से जाना कि खेती में लागत के जो अवयव हैं उसमें कुछ किसान के हाथ में हैं और कुछ उसके बूते के बाहर की चीज हैं। जो उनके हाथ में है उसमें वह अपना शत प्रतिशत देता है और जिस मामले में वह सरकार पर निर्भर है उसमें सरकार उसे बाजार के हवाले छोड़ देती है। वो बाजार जो लाभ को लूट की हद तक ले जाने की फिराक में रहता है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर वो उपाय क्या हैं जिनसे किसानों की स्थिति सुधर सकती है। उपाय दो तरफा हैं। या तो उपज की कीमत का निर्धारण किसान को करने दिया जाए या जो सरकार उपज की कीमत तय करती है वह लागत के अवयवों का मूल्य इस कदर नियमित और निर्धारित करे कि किसानों को भी मुनाफा हो। इस काम को दो तरीके से अंजाम दिया जा सकता है। पहला तरीका यह है कि खेती के काम आने वाली चीजों जिन्हें ऊपर गिनाया गया है का दाम नियंत्रित करे और दूसरा तरीका है कि दाम भले ही कुछ भी हो उसे खरीदने के लिए किसानों को वित्तीय सहायता दी जाए। याद रखिये वित्तीय सहायता की आशा याचक के रुप में नहीं की जाती। बल्कि इसलिए की जाती है कि उसे किसानों को अपनी उपज का मूल्य निर्धारित करने की आजादी नहीं दी जाती।
यहां आप कहेंगे कि सरकार किसानों को सस्ती दर पर ऋण उपलब्ध कराती है। लेकिन ये सच नहीं है। आइये एक सामान्य उदाहरण से इस स्थिति को समझने की कोशिश करें। इस देश में बैंकों के माध्यम से सरकार कृषि ऋण के प्रवाह को नियंत्रित करती है। इन बैंकों में सभी प्रकार के बैंक शामिल हैं। सरकारी और गैर सरकारी। सरकारी बैंकों की संख्या 225 के आस-पास हैं। इनमें सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक, राष्ट्रीयकृत बैंक, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक और सहकारी बैंक आते हैं। ग्रामीण क्षेत्र में इन्हीं बैंकों की पहुंच है और सरकारी कर्ज इन्हीं के माध्यम से दिया जाता है। आप अगर नौकरी पेशा हैं और मोटरसाइकिल, कार, फ्रिज, टीवी या ऐसा ही कोई गैर उत्पादक यानी उपभोक्ता जरूरत भर के लिए सामान खरीदना चाहते हैं तो ये बैंक बिना किसी हील-हवाला के आपको एक ही दो दिन में इसके लिए कर्ज दे देंगे। इस ऋण पर ब्याज क्या होगा ये आये दिन अखबारों में छपने वाले विज्ञापन से जाना जा सकता है। यही हाल घर खरीदने के लिए दिये जाने वाले ऋण का भी है। हर बैंक चाहे वो सरकारी हो या गैर सरकारी – न्यूनतम दर पर आपको घर खऱीदने के लिए पैसा देने को तैयार मिलेगा। नियम और शर्तों में इतना ढीलापन होता है कि आए दिन आप ऐसे केस के बारे में सुनते व पढ़ते होंगे कि अमुक जगह पर एक ही फ्लैट पर कई बैंकों ने कई व्यक्तियों को ऋण दे दिया था। अमुक जगह पर एक बैंक ने जिस फ्लैट को बंधक रख कर कर्ज दिया था वो फ्लैट था ही नहीं। इस तथ्य को जानिये की यह कोई मानवीय भूल के तहत आने वाली समस्या नहीं है। यह इतने बड़े स्तर पर इस देश में हुआ है और हो रहा है कि वित्त मंत्रालय को इस बारे में बैंकों को सावधानी पूर्वक कदम बढ़ाने का निर्देश जारी करना पड़ा। आपने देखा कि सामान्य शहरी के लिए उपभोक्ता ऋण लेना कितना आसान है। लेकिन किसानों के लिए ऐसा नहीं है।
वर्तमान दौर में किसान के लिए हाथ-पांव उसका ट्रैक्टर है। ट्रैक्टरों का वर्गीकरण हॉर्स पॉवर से किया जाता है। मसलन 25-30 हॉर्सपॉवर या 30-35 और 35-40 हॉर्स पॉवर वगैरह वगैरह। 35 हॉर्स पॉवर श्रेणी का ट्रैक्टर भारत में सबसे ज्यादा बिकता है। भारतीय ट्रैक्टर बाजार में इसका हिस्सा 50 फीसदी से ज्यादा है। ऐसा इसलिए इससे कम क्षमता के ट्रैक्टर भारतीय जमीन के हिसाब से उपयोगी नहीं होते। जबकि 35 हॉर्स पॉवर से ज्यादा ताकतवर ट्रैक्टर जरूरत से ज्यादा उपयोगी और महंगे होते हैं। भारत में सबसे ज्यादा बिकने वाले 35 हॉर्स पॉवर के ट्रैक्टर की कीमत 4-4.5 लाख रुपये के बीच होती है। यहां हर साल चार लाख के आसपास ट्रैक्टर बिकते हैं। इसमें से एक फीसदी ट्रैक्टर ही ऐसे होते हैं जिनका सौदा नकद होता है। यानी भारतीय ट्रैक्टर बाजार का 99 फीसदी कारोबार कर्ज पर निर्भर है। इस तथ्य से आप ये भी अंदाजा लगा सकते हैं कि भारतीय किसान के पास पूंजी की कमी किस कदर है। पूंजीविहीन इस वर्ग के लिए, जो कि ट्रैक्टर जैसी उपयोगी मशीन के लिए ऋण लेना चाहता है, इस देश के बैंक 15 फीसदी से ऊपर की दर से कर्ज देते हैं। कर्ज की ये दर भी दो स्तरीय है। यदि कोई किसान दो लाख रुपये का कर्ज लेना चाहता है तो उसे सामान्य तौर पर एक फीसदी कम दर पर कर्ज दिया जाता है। अगर राशि दो लाख रुपये से ऊपर है तो वो दर 1-1.5 फीसदी बढ़ा दी जाती है। यानी ज्यादा कर्ज पर ज्यादा ब्याज दर। यही नहीं चूंकि ट्रैक्टर अपने आप में उपयोगी वाहन नहीं है। उसे उपयोगी बनाने के लिए उसके साथ कुछ अन्य कृषि उपकरण भी खरीदने होते हैं मसलन ट्रेलर, कल्टीवेटर, थ्रेसर आदि। बैंकों ने ये नियम बना रखा है कि सिर्फ ट्रैक्टर की खरीद के लिए कर्ज नहीं दिया जा सकता। इसके साथ कम से कम तीन अन्य कृषि उपकरण खरीदने भी अनिवार्य होते हैं। इन सब तथ्यों को अगर आप जांचे तो पाएंगे कि 5-5.5 लाख रुपये में ही एक ट्रैक्टर का सौदा हो सकता है।
सरकार खुद यह मानती है कि किसी भी सामान्य खेती के मौसम में जरूरी 20-50 हजार रुपये शुरुआती पूंजी के लिए भी किसान साहूकार की चौखट पर जाता है। ऐसे में उस सरकार को यह कौन और क्यों बताए कि वही किसान ट्रैक्टर जैसी जरूरी चीज के लिए इतने रुपये की व्यवस्था कैसे और कहां से कर पाएगा? ऐसे में कर्ज लेना उसकी मजबूरी है। कर्ज की रकम औसतन 3.5 से 4.5 लाख रुपये होती है और वो भी कड़ी शर्तों पर। ऋण चुकाने की अवधि आमतौर पर 7-9 वर्ष की होती है। साल में इसकी दो किस्ते होती हैं। रबी और खरीफ फसल की कटाई के अनुसार। यह मान कर चलें कि अगर कोई किसान 4 लाख रुपये का कर्ज लेता है तो न्यूनतम 15 प्रतिशत की दर से उसे सालाना 60 हजार रुपये बतौर ब्याज भरने होंगे। आपको मालूम हो कि ब्याज की ये दर तीन चक्रवृद्धि प्रवृति की होती है। इसलिए राशि 60 हजार रुपये से बढ़ जाती है। फिर भी मान लीजिये की कोई किसान साल भर में 60 हजार रुपये तक चुका देता है तो भी उसके कर्ज की मूल रकम 4 लाख रुपये ही रहती है। उसे चुकाने के लिए किसान को और ज्यादा पैसे भरने होंगे। यह कल्पना करना मुश्किल है कि जो किसान अपने खेतीहर जीवन के अधिकांश भाग में 3-4 लाख रुपये की ऐसी पूंजी जमा नहीं कर सका, जिससे वह अपने लिए ट्रैक्टर खरीद सके, वह किसान 60 हजार रुपये से ज्यादा की रकम सिर्फ ब्याज के रूप में कितने दिन चुका पाएगा। अगर कभी किसी भी कारण से वो एक किस्त चुकाने में चूक गया तो ब्याज की वही राशि उसके मूल धन में जुड़ कर अगली बार ज्यादा बड़ी हो जाती है। और कुछेक किसान जो हालात के कारण समय पर कर्ज नहीं चुका पाते हैं उनका हवाला देकर कृषि ऋण की प्रक्रियागत मुश्किलों व कठिनाइयों को बनाए रखने की वकालत की जाती है। आप पाएंगे कि इस देश में न चुकाए जाने वाले कर्ज में कृषि क्षेत्र की सबसे कम हिस्सेदारी है। दबाए गए कर्ज में सबसे बड़ा हिस्सा उद्योगपतियों का है। फिर भी हमारे हुक्मरान किसानों को धोखा देते हैं और उद्योगपतियों के तलवे चाटते हैं।
आप उद्योग संघों के सम्मेलनों में यहां के हुक्मरानों का भाषण सुने तो उनकी बोली से दलाली का ये भाव निकलता है कि उद्योगपति और कारोबारी चिंता नहीं करें। उनकी सुविधा और उन्नति के लिए सरकार हर कदम उठाएगी। किसी भी नीति, नियम और नियंत्रण को उनके हितों के आड़े नहीं आने दिया जाएगा। दलाली की ऐसी मानसिकता वाले यही हुक्मरान जब 15 अगस्त या 26 जनवरी जैसे मौकों पर राष्ट्र की आम जनता से मुखातिब होते हैं, तो राष्ट्रहित में कठिनाई सहने की अपील करते हैं। कहते हैं कि जना का ये कष्ट राष्ट्रहित के लिए आवश्यक आहुति है। हम और आप ऐसी आहुति देने वालों की कतार में थोड़े पीछे खड़े हैं, जबकि देश के किसान सबसे आगली कतार में हैं। इसलिए हम और आप घरफूंक हवन की आंच को उतना महसूस नहीं करते जितना कि इस देश का किसान करता है। वो तथाकथित विकास के लिए सबसे पहले आहुति देता है और आंच भी सबसे ज्यादा उसी को झुलसाती है। लेकिन याद रखिये कल आहुति देने की बारी हमारी और आपकी होगी।
लेखक : मणीष
1 comment:
मनीष भाई, शानदार ब्यौरा दिया है। किसानों की समस्या से अगर निपटा नहीं गया तो सारा देश बरबाद हो जाएगा। खाते-पीते मध्यवर्ग की करीब 30 करोड़ आबादी पर जो देशी-विदेशी कंपनियां भारत को दुनिया की शक्ति बनाना का हल्ला मचा रही हैं, वो विपत्ति की आहट मिलते ही रफूचक्कर हो जाएंगी। भोगना तो हम देशवासियों को ही पड़ेगा। माहौल बनाए रखिए। बहुत जरूरी है खेती-किसानी के मसले को राष्ट्रीय मंच पर स्थापित करना।
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