18 जून 2007, दैनिक हिंदुस्तान के पेज नंबर 13 पर पांच ख़बरें छपीं। इन पांचों खबरों में वक्त के कई राज छिपे हैं। आगे बढ़ने से पहले एक नज़र पांचों ख़बरों के शीर्षकों पर डालिये।
1. “नई मुसीबत में फंस सकते हैं ब्लेयर”
1. “नई मुसीबत में फंस सकते हैं ब्लेयर”
2. “इराकी कबीलों को हथियारों से लैस न करे अमेरिका – नूरी”
3. “खाड़ी देशों से ईरान पर अमेरिकी हमला न होने दिया जाएगा”
3. “खाड़ी देशों से ईरान पर अमेरिकी हमला न होने दिया जाएगा”
4. “अमेरिका बोला, लगे रहे जनरल मियां”
और
5. “काबुल में आत्मघाती हमला, 35 लोग मरे”
पहली खबर टोनी ब्लेयर के झूठ पर है। वो झूठ जो उन्होंने इराक पर हमले से पहले अपने देशवासियों से बोला था। तब टोनी ब्लेयर ने कहा था कि अमेरिका की अगुवाई में ब्रिटेन और उसके साथियों के पास हमले के बाद की पूरी योजना तैयार है। लेकिन अब सद्दाम हुसैन को सत्ता से बेदखल किये अरसा गुजर चुका है लेकिन योजना की भनक तक नहीं लग रही। यही वजह है कि अब टोनी ब्लेयर के खिलाफ ब्रिटेन में माहौल बनने लगा है। इस विरोधी माहौल को और अधिक हवा ब्लेयर के करीबी साथियों ने दी है। वो साथी जो हमले के उनके गुनाह में बराबर के भागीदार रहे, लेकिन ब्लेयर पर ही निशाना साध रहे हैं। उन्होंने एक डॉक्यूमेंट्री में कहा है कि ब्लेयर अच्छी तरह से वाकिफ थे कि युद्ध के बाद इराक के पुनर्निमाण की अमेरिका के पास कोई योजना नहीं थी, फिर भी उन्होंने हमले के लिए अपनी सेना भेजी।
दूसरी खबर भी इराक की है। अभी वहां ऐसी सरकार है जो अमेरिकी अगुवाई में तैनात सेना के दम पर राज कर रही है। वहां प्रधानमंत्री हैं नूरी अल मलिकी। नूरी से बेहतर बहुत कम लोग ही अमेरिकी ताकत का सही आकलन कर सकते हैं। लेकिन अपने वतन में हो रही रोज की हिंसा से नूरी भी जरूर आहत होते होंगे। उन्हें भी धीरे-धीरे ये अहसास हो रहा है कि अमेरिकी सैनिक इस हिंसा को बढ़ावा दे रहे हैं। अमेरिकी सैनिक अपने फायदे के लिए इराक के स्थानीय कबीली गुटों को हथियार बांट रहे हैं ताकि वो एक दूसरे पर हमले जारी रखें। इराकी लड़ाकू आपस में ही लड़ कट मरें। यही वजह है कि नूरी अब आगाह कर रहे हैं। अमेरिकी सेना को आगाह। इराक में अभी तक अमेरिका को चेतावनी विरोधी देते थे। अब समर्थक भी दे रहे हैं। हालांकि उनके सुर अभी बहुत हल्के हैं... लेकिन हालात तेजी से बदलते हैं। वक्त के साथ इराकी आवाम में छले जाने का अहसास गहरा होता जाएगा ... और ये अहसास जितना गहरा होगा ... अमेरिका के खिलाफ गुस्सा भी उतना ही बढ़ेगा। तब वो सब विरोधी और समर्थक मिल कर अमेरिका से हिसाब मांगेंगे। अपनी बर्बादी का हिसाब, अपने लोगों के लहू का हिसाब। अमेरिका इस खतरे को टाल सकता है, लेकिन हमेशा के लिए। नूरी की चेतावनी इसी बदलाव का संकेत है।
और
5. “काबुल में आत्मघाती हमला, 35 लोग मरे”
पहली खबर टोनी ब्लेयर के झूठ पर है। वो झूठ जो उन्होंने इराक पर हमले से पहले अपने देशवासियों से बोला था। तब टोनी ब्लेयर ने कहा था कि अमेरिका की अगुवाई में ब्रिटेन और उसके साथियों के पास हमले के बाद की पूरी योजना तैयार है। लेकिन अब सद्दाम हुसैन को सत्ता से बेदखल किये अरसा गुजर चुका है लेकिन योजना की भनक तक नहीं लग रही। यही वजह है कि अब टोनी ब्लेयर के खिलाफ ब्रिटेन में माहौल बनने लगा है। इस विरोधी माहौल को और अधिक हवा ब्लेयर के करीबी साथियों ने दी है। वो साथी जो हमले के उनके गुनाह में बराबर के भागीदार रहे, लेकिन ब्लेयर पर ही निशाना साध रहे हैं। उन्होंने एक डॉक्यूमेंट्री में कहा है कि ब्लेयर अच्छी तरह से वाकिफ थे कि युद्ध के बाद इराक के पुनर्निमाण की अमेरिका के पास कोई योजना नहीं थी, फिर भी उन्होंने हमले के लिए अपनी सेना भेजी।
दूसरी खबर भी इराक की है। अभी वहां ऐसी सरकार है जो अमेरिकी अगुवाई में तैनात सेना के दम पर राज कर रही है। वहां प्रधानमंत्री हैं नूरी अल मलिकी। नूरी से बेहतर बहुत कम लोग ही अमेरिकी ताकत का सही आकलन कर सकते हैं। लेकिन अपने वतन में हो रही रोज की हिंसा से नूरी भी जरूर आहत होते होंगे। उन्हें भी धीरे-धीरे ये अहसास हो रहा है कि अमेरिकी सैनिक इस हिंसा को बढ़ावा दे रहे हैं। अमेरिकी सैनिक अपने फायदे के लिए इराक के स्थानीय कबीली गुटों को हथियार बांट रहे हैं ताकि वो एक दूसरे पर हमले जारी रखें। इराकी लड़ाकू आपस में ही लड़ कट मरें। यही वजह है कि नूरी अब आगाह कर रहे हैं। अमेरिकी सेना को आगाह। इराक में अभी तक अमेरिका को चेतावनी विरोधी देते थे। अब समर्थक भी दे रहे हैं। हालांकि उनके सुर अभी बहुत हल्के हैं... लेकिन हालात तेजी से बदलते हैं। वक्त के साथ इराकी आवाम में छले जाने का अहसास गहरा होता जाएगा ... और ये अहसास जितना गहरा होगा ... अमेरिका के खिलाफ गुस्सा भी उतना ही बढ़ेगा। तब वो सब विरोधी और समर्थक मिल कर अमेरिका से हिसाब मांगेंगे। अपनी बर्बादी का हिसाब, अपने लोगों के लहू का हिसाब। अमेरिका इस खतरे को टाल सकता है, लेकिन हमेशा के लिए। नूरी की चेतावनी इसी बदलाव का संकेत है।
तीसरी खबर का ताल्लुक भी अरब देशों से है। सऊदी अरब और खाड़ी सहयोग परिषद ने एलान किया है कि ईरान पर हमले के लिए अमेरिका को खाड़ी देशों की जमीन का इस्तेमाल नहीं करने दिया जाएगा। उनका कहना है कि ईरान पर अमेरिकी हमले से अरब देशों को कोई फायदा नहीं पहुंचेगा इसलिए वो किसी भी सूरत में अमेरिका का समर्थन नहीं करेंगे। यही नहीं वो सभी इस विवाद में ईरान के साथ हैं। इस परिषद में सिर्फ सऊदी अरब ही नहीं है बल्कि कुवैत, कतर, बहरीन, संयुक्त अरब अमीरात और ओमान भी हैं। ऐसे में अरब देशों का ये बयान काफी अहमियत रखता है। ये संकेत है कि आने वाले दिनों में अमेरिका को किस तरह की चुनौती का सामना करना पड़ सकता है। ये संकेत है कि इराक पर हमले को बर्दाश्त कर चुके अरब देश अब ईरान पर हमले को बर्दाश्त नहीं करेंगे और अगर अमेरिका ने उनकी इच्छाओं के विपरीत हमला किया तो उसे और अधिक मुश्किलों का समाना करना पड़ सकता है। इससे आने वाले दिनों में खाड़ी के देशों में किस तरह के कूटनीतिक संबंध स्थापित होंगे इसकी भनक लगाई जा सकती है।
चौथी खबर पाकिस्तान की। इराक में सद्दाम को अमेरिका ने सत्ता से बेदखल किया और हिंसा का वो दौर शुरू किया जो थमने का नाम नहीं ले रहा। अब अमेरिका की साजिश ईरान में सत्ता परिवर्तन की है। लेकिन पाकिस्तान में वो तानाशाह मुशर्रफ को सत्ता में बने रहने का आशीर्वाद दे रहा है। आप इसी से अंदाजा लगे सकते हैं कि अमेरिका के मंसूबे कितने खतरनाक हैं। अमेरिका बार बार कहता है कि आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में पाकिस्तान की अहमियत को वो समझता है। दरअसल ये आतंकवाद के खिलाफ जंग नहीं है। ये सारी जंग पैसे की है। इस्लामिक देशों के पास ऊर्जा का ऐसा भंडार है जो आने वाले दिनों में दुनिया की दिशा तय करेगा। यही वजह है कि धीरे धीरे अमेरिका उन सब पर कब्जा करना चाहता है। लेकिन वो जानता है कि उसके मंसूबे तभी पूरे होंगे जब उसे कुछ ताकतवर इस्लामिक देशों का समर्थन भी हासिल होगा। पाकिस्तान भी एक ताकतवर इस्लामिक देश है और वहां एक बड़ा धड़ा अमेरिका के खिलाफ भी है। लेकिन मुशर्रफ अमेरिका समर्थक हैं। इसलिए बुश सरकार की कोशिश है कि मुशर्रफ लंबे समय तक बने रहें। वो जब तक पाकिस्तान की सत्ता में रहेंगे, अमेरिका का हित साधते रहेंगे। लेकिन ऐसा नहीं है कि कोई और सत्ता में आया तो अमेरिका उससे ठुकरा देगा। बल्कि उसकी कोशिश उसे भी अपने सांचे में ढालने की होगी।
अब बात पांचवी खबर की। ये खबर एक ऐसे देश से है जहां अमेरिका ने खूब प्रयोग किये। नया प्रयोग लोकतंत्र स्थापित करने के बहाने चल रहा है। वहां चुनी हुई सरकार सत्ता में भी है। लेकिन हिंसा थम नहीं रही। बावजूद इसके कि अमेरिका समेत कई देशों की सेना वहां शांति बहाली की कोशिश में लगी हुई है। वो भी कई साल से। लेकिन शांति बहाल होने की बजाए हिंसा बढ़ती जा रही है। इराक
की ही तरह अफगानिस्तान भी सुलग रहा है। ये दोनों देश गवाह हैं कि जिस देश में भी अमेरिका और उसके साथियों ने दखल दिया है वो देश बर्बाद हुआ है। अफगानिस्तान में पहले अपने हितों के लिए अमेरिका ने तालिबानियों और मुल्ला उमर को बढ़ावा दिया और बाद में अपने ही हित के लिए उनका सफाया किया। लेकिन इस सबके चक्कर में अफगानिस्तान बर्बाद हो गया।चौथी खबर पाकिस्तान की। इराक में सद्दाम को अमेरिका ने सत्ता से बेदखल किया और हिंसा का वो दौर शुरू किया जो थमने का नाम नहीं ले रहा। अब अमेरिका की साजिश ईरान में सत्ता परिवर्तन की है। लेकिन पाकिस्तान में वो तानाशाह मुशर्रफ को सत्ता में बने रहने का आशीर्वाद दे रहा है। आप इसी से अंदाजा लगे सकते हैं कि अमेरिका के मंसूबे कितने खतरनाक हैं। अमेरिका बार बार कहता है कि आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में पाकिस्तान की अहमियत को वो समझता है। दरअसल ये आतंकवाद के खिलाफ जंग नहीं है। ये सारी जंग पैसे की है। इस्लामिक देशों के पास ऊर्जा का ऐसा भंडार है जो आने वाले दिनों में दुनिया की दिशा तय करेगा। यही वजह है कि धीरे धीरे अमेरिका उन सब पर कब्जा करना चाहता है। लेकिन वो जानता है कि उसके मंसूबे तभी पूरे होंगे जब उसे कुछ ताकतवर इस्लामिक देशों का समर्थन भी हासिल होगा। पाकिस्तान भी एक ताकतवर इस्लामिक देश है और वहां एक बड़ा धड़ा अमेरिका के खिलाफ भी है। लेकिन मुशर्रफ अमेरिका समर्थक हैं। इसलिए बुश सरकार की कोशिश है कि मुशर्रफ लंबे समय तक बने रहें। वो जब तक पाकिस्तान की सत्ता में रहेंगे, अमेरिका का हित साधते रहेंगे। लेकिन ऐसा नहीं है कि कोई और सत्ता में आया तो अमेरिका उससे ठुकरा देगा। बल्कि उसकी कोशिश उसे भी अपने सांचे में ढालने की होगी।
अब बात पांचवी खबर की। ये खबर एक ऐसे देश से है जहां अमेरिका ने खूब प्रयोग किये। नया प्रयोग लोकतंत्र स्थापित करने के बहाने चल रहा है। वहां चुनी हुई सरकार सत्ता में भी है। लेकिन हिंसा थम नहीं रही। बावजूद इसके कि अमेरिका समेत कई देशों की सेना वहां शांति बहाली की कोशिश में लगी हुई है। वो भी कई साल से। लेकिन शांति बहाल होने की बजाए हिंसा बढ़ती जा रही है। इराक
एक बड़े अखबार के एक ही पेज पर दुनिया की पांच बड़ी खबरें और हर खबर अमेरिका और उसके साथियों की साजिश से जुड़ी हुई। उन्होंने ये साजिश रची लोकतंत्र की मजबूती और आतंकवाद विरोधी मुहिम के नाम पर। अरब देशों और इस्लामिक देशों से आती खबरें चीख चीख अमेरिका के खौफनाक चेहरे को बयां करती हैं। साथ ही ये ख़बरें आगाह भी कर रही हैं कि गरीब और पिछड़े हुए देशों को उनके नापाक इरादों की भनक लग गई है। हर तरफ अमेरिका विरोधी सुर मजबूत हो रहे हैं। ये सुर जितनी जल्दी अधिक मजबूत होंगे। अमेरिकी साम्राज्यवाद की मौत भी उतनी ही जल्दी होगी। इसलिए जरूरत है उन सुरों को मजबूत करने की।
3 comments:
बहुत अच्छा लिखा आपने, ये बताएं कि भारत का हित किस में है?
अमेरिकी साम्राज्यवाद का अंत उतना आसान नहीं है जिसकी हम दिन रात प्रार्थना करते रहते हैं. भूमंडलीकरण के इस युग में लड़ाई देशों की नहीं मानसिकता की है. मानसिकता के इस धरातल पर हम कहां खड़े हैं. आज भारत में मानसिक अमरीकियों की संख्या शायद अमरीका में रहने वाले अमरीकी मानसिकता वाले लोगों से ज्यादा हो गयी है.
लेकिन कोई भी सुपरपॉवर अपराजेय नहीं होता. यह मानसिकता की लड़ाई है और इसे मानसिकता से ही जीता जाएगा.
श्रीश भाई और संजय भाई,
आप दोनों की बातों पर विस्तार से चर्चा होगी। सवाल का जवाब भी दूंगा। लेकिन एक-दो दिन बाद पूरे ब्योरे के साथ। उससे पहले एक बात साफ कर दूं कि हर शब्द और विचारधारा के कुछ मतलब होते हैं। भूमंडलीकरण का भी बड़ा मतलब है। वो मतलब हमें नव साम्राज्यवाद की ओर ले जाता है। राजनीति के कई जानकार ये कह रहे हैं कि हैं शब्द भूमंडलीकरण असल में नव साम्राज्यवाद की जड़ों को और मजबूत करने के लिए ही उछाला गया था। कुछ तो यहां तक कह रहे हैं कि ग्लोबलाइजेशन कुछ नहीं बल्कि सबकुछ नव साम्राज्यवाद है।
समर.
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