Thursday, June 21, 2007

इन्हें प्यादा चाहिये, काका कलाम नहीं

काका कलाम पर लेख पढ़ने के बाद बहुत लोगों ने लेखक के बारे में पूछा। दरअसल मणीष से मेरा परिचय 1997 से है। एक साल के लिए ही सही हम दोनों ने साथ पढ़ाई की। आज मणीष पेशे से बैंक में मैनेजर हैं , लेकिन ग्राहकों के रुपये पैसे का लेखा जोखा रखते हुए भी उन्होंने पढ़ने लिखने की आदत नहीं छोड़ी। वो हर रोज वक्त निकाल कर कई घंटे पढ़ते हैं। जब उन्हें पता चला कि एक ऐसा ब्लॉग शुरू हुआ है जिसमें वो सरकार की गलत नीतियों और सामयिक विषयों पर अपनी राय रख सकते हैं तो उन्होंने लिखना शुरू कर दिया। लिखते वो काफी पहले भी रहे हैं। लेकिन इस बार उन्होंने वादा किया है कि ये क्रम तोड़ेंगे नहीं। चौखंबा के लिए वो एक महीने में ही सही एक लेख जरूर देंगे। इस मंच पर उनके पहले के दोनों लेख जिसने भी पढ़े उसे कुछ नया जरूर मिला। हमें उम्मीद है कि ये अच्छा सिलसिला बना रहेगा। साथी मणीष के लिखने और पाठकों के सुझावों का सिलसिला।

वे वाकई सहज आदमी लगते हैं। इतने सहज कि उन्हें पवित्र कहने को जी चाहता है। उनकी ऐसी ही सहज पवित्रता के कारण उनसे अपनापन लगता है। वे हमें नहीं जानते, पर हम उन्हें बेहद नजदीक से जानते हैं। नजदीकी इस कदर कि कई लोग और बच्चों का एक बड़ा वर्ग उन्हें चाचा कलाम कहता है। मैं खुद उन्हें काका कलाम कहता हूं। काका से अपनापन ज्यादा लगता है और कलाम के साथ काका की जोड़ी भी चाचा से ज्यादा अच्छी जमती है। वैसे भी चाचा तो नेहरू के साथ पहले से ही जुड़ा हुआ है।

तो मामला काका कलाम का है। आजकल वे फिर चर्चा में हैं। हमारे देश के राजनीतिक गुटों ने सुविधा और सहूलियत के हिसाब से गणराज्य के अगले प्रथम नागरिक के बारे में गुणा गणित शुरू किया, तो काका को सबसे पहले खारिज कर दिया। दलील ये दी कि प्रथम राष्ट्रपति के अलावा परंपरागत रूप से किसी भी शख्स को एक ही बार राष्ट्रपति बनने का मौका दिया जाता रहा है। मालूम पड़ता है कि राष्ट्रपति का चयन किसी व्यक्ति विशेष को उपकृत करने के लिए किया जाता है। गोया देश और देशवासियों के हित अनहित का इस पद के लिए चुने जा रहे व्यक्ति के कोई लेना-देना नहीं हो। सार्वभौम गणराज्य (sovereign republic) की अवधारणा हमारे संविधान में हैं और उसमें राष्ट्रपति किसी व्यक्ति विशेष को उपकृत करने वाला पद बन कर रह जाए, इसकी किसी ने कल्पना नहीं की होगी।

खैर, बाखबर लोग इसे जान पा रहे होंगे कि अगर चुनावी गणित राजनीतिक दलों के प्रति निष्ठा पर चला तो हमें प्रतिभा पाटिल के रूप में नई राष्ट्राध्यक्षा मिलेंगी। ये कहीं से आलोचना योग्य कदम नहीं है। पर मंशा वह कभी नहीं रही तो अभी जताई जा रही है। यूपीए और उसके सहयोगियों द्वारा प्रतिभा पाटिल के नाम की घोषणा ऐसे की जा रही है कि मानों शुरू से ही उनका उदेश्य शीर्ष पद पर किसी महिला को बैठाना रहा हो।

लेकिन ऐसा कतई नहीं है। इसे और गहराई से समझने के लिए हम थोड़ा अतीत में झांकते हैं। आप राष्ट्रपति के लिए पिछले चुनाव (2002) को याद करें। मरहूम कोचिल रमनन नारायणन तत्कालीन राष्ट्रपति थे। जानने और मानने वाले जानते और मानते हैं कि अब तक जितने भी राष्ट्रपति रहे हैं उनमें नारायणन किसी से कमतर नहीं थे। आप हर राष्ट्रपति के कार्यकाल का विवरण पढ़ें। संक्षेप में बताएं कि डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद अगर हिंदू कोड बिल को लेकर आलोचना के शिकार हुए तो फखरूद्दीन अली अहमद आपातकाल में अपनी भूमिका को लेकर। बीबी गिरी और नीलम संजीव रेड्डी तो अपने दौर में कांग्रेस में चल रही वर्चस्व की लड़ाई में मोहरे के तौर पर इस्तेमाल किये गये। डॉक्टर राधाकृष्णन और डॉक्टर शंकर दयाल शर्मा अपनी अकादमिक रूचियों के कारण ज्यादा विद्वत भले माने जाते रहे, पर राजनीतिक अभिरूचि से पद के महत्व को बढ़ाने के लिहाज से उनका कार्यकाल नहीं जाना जाता है।

वैंकटरमन कांग्रेस और श्रीमति गांधी(प्रथम) के वफादार बने रहे, तो ज्ञानी जैल सिंह को अलग तरह के क्रियाकलापों के लिये जाना गया। श्रीमति गांधी (प्रथम) के समय ज्ञानी जैल सिंह खुद को राष्ट्रपति से ज्यादा एक स्वामिभक्त कारिंदा मानते रहे। लेकिन राजीव काल में उन्होंने टकराव का नया द्वार खोला। राष्ट्राध्यक्ष और शासनाध्यक्ष के बीच टकराव का अभूतपूर्व उदाहरण सामने आया। हालत यहां तक बिगड़े कि राष्ट्रपति के द्वारा प्रधानमंत्री की बर्खास्तगी के कयास लगाए जाने लगे। साथ ही प्रधानमंत्री द्वारा राष्ट्रपति के खिलाफ महाभियोग लाने की अटकलें भी जोर पकड़ने लगीं। गनीमत रही कि ऐसा कुछ नहीं हुआ और ज्ञानी जैल सिंह ने अपना कार्यकाल पूरा कर लिया। इन सबों के कार्यकाल के बाद कभी इतनी शिद्दत से तत्कालीन समाज को महसूस नहीं हुआ कि इनके कार्यकाल को और विस्तार दिया जाए।

ज्ञानी जैल सिंह के बाद तो उपराष्ट्रपति के राष्ट्रपति के रूप में चुने जाने का सिलसिला सा बन गया। ये सिलसिला टूटा नारायणन के कार्यकाल के अंत में। दरअसल नारायणन का दौर उनकी बेहद खरी सोच और स्वतंत्र और निर्बद्ध कार्यपद्धति के लिए जाना जाता है। उनमें साहस भी गजब का था। बात अमेरिकी राष्ट्रपति क्लिंटन के भारत दौरे की है। तब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और उनके सभी मंत्री क्लिंटन के स्वागत में बिछे जा रहे थे। लेकिन नारायणन ने यहां भी भारत का पक्ष जोरदार तरीके से रखा। उस दौरे में क्लिंटन ने कहा कि दुनिया एक गांव के समान हो गई है और अमेरिका से दूरी किसी के लिए भी ठीक नहीं। तब नारायणन ने खाने की मेज पर क्लिंटन को दो टूक शब्दों में बताया कि इस वैश्विक गांव में कोई एक अपनी चौधराहट हांकने की कोशिश नहीं करे।

वाजपेयी सरकार के चंगु मंगुओं ने इसे नाजायज अकड़ में की गई एक बड़ी डिप्लोमेटिक भूल करार दिया। जब मन गुलाम हो, मस्तिष्क पर गुलामी का मुलम्मा चढ़ा हो तो जुबां से साहस की उम्मीद करना बेवकूफी है। गुलाम, मालिक की बेअदबी में कही गई हर बात को गलत और भूल करार नहीं देगा तो और क्या करेगा? वाजपेयी और उनके मंत्रियों ने यही किया। मगर नारायण गुलाम मन के नहीं थे। उनके मस्तिष्क पर गुलामी का मुलम्मा भी नहीं चढ़ा था।

नारायणन के दिल पर उस संयुक्त मोर्चा सरकार के प्रति भी वफादारी दिखाने का बोझ नहीं था जिसने उन्हें राष्ट्रपति भवन में प्रतिष्ठित किया था। उनके जेहन में अपनी भूमिका को लेकर कोई उलझन नहीं थी। वो जानते थे कि पद का परिस्कार या तिरस्कार उस पर आसीन व्यक्ति के चरित्र से होता है। नारायणन ने एक अहसानमंद व्यक्ति की अपेक्षा, एक कर्तव्यनिष्ठ और संविधान से आबद्ध राष्ट्रपति के रूप में अपनी भूमिका का चयन किया।

इसका उदाहरण भी मिलता है। 1998 में उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह के नेतृत्व में भाजपा की सरकार थी। केंद्र में सत्तारूढ़ संयुक्त मोर्चा सरकार ने उसकी बर्खास्तगी की सिफारिश की। लेकिन नारायणन ने उसे लौटाने में जरा भी संकोच नहीं किया। यह तय है कि केंद्र ने उन्हें अपना आदमी जान विरोधी दल की सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए उनका उपयोग करना चाहा। पर नारायणन राष्ट्रपति थे ना कि उपयोग में आने के लिए तैयार बैठा एक सामान्य अहसानमंद आदमी। उनका काम संविधान के अनुसार, संविधान की रक्षा करना था, ना कि किसी गठबंधन का अहसान चुकाना। उन्होंने वही किया जिसकी अपेक्षा संविधान उनसे करता था। नारायणन से पहले लगभग सौ बार इस देश में राज्य सरकारों को बे-सिर पैर के कारणों का हलावा देकर केंद्र की विरोधी दलों की सरकारों ने बर्खास्त करवाया था। परंपरा से हट कर भूमिका के चयन के लिए जिस साहस और स्वतंत्र चेतना की आवश्यकता होती है वह नारायणन ने अपने कामों से दिखाया।

हम और आप जानते हैं कि हर मालिक को हामी भरने वाले स्वामिभक्त टॉमी की जरूरत होती है। स्वतंत्र और निष्पक्ष राय देने वाला कभी अच्छे नौकर के तौर पर नहीं देखा जाता। इसलिए जब 2002 में राष्ट्रपति के चयन की बात आई तो एनडीए सरकार ने नारायणन की दोबारा ताजपोशी को यह कह कर नकार दिया कि दोबारा चुने जाने की परंपरा नहीं है। याद रहे कि नारायणन ने उत्तर प्रदेश में उसी एनडीए की सरकार को असंवैधानिक तरीके से उखाड़ने से मना कर दिया था। नारायणन का नाम खारिज करने के बाद तलाश ऐसे व्यक्ति की शुरू हुई जो मालिक के इशारे पर अपनी भूमिका चुने न कि संविधान के अनुरूप।

तमाम नाम आए। ताजिंदगी नौकरशाह रहे पी सी एलेक्जेंडर, तत्कालीन उपराष्ट्रपति और आंध्र प्रदेश के पूर्व राज्यपाल कृष्णकांत और 85 साल की कैप्टन लक्ष्मी सहगल भी। हर राजनीतिक गुट अपनी गोटी फिट करने में लगा हुआ था। प्रमोद महाजन को पी सी एलेक्जेंडर की वफादारी भा रही थी। तो चंद्रबाबू नायडू कृष्णकांत की पैरोकारी में जुटे थे। यह हम सबको मालूम है कि वर्तमान साझा सरकारों के दौर में आम चुनाव के तुरंत बाद या फिर बीच में किसी टकराव की स्थिति में किसी दल और व्यक्ति विशेष को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलवाना राष्ट्रपति का एक महती विवेधिकार होता है। सोचिये अगर पी सी एलेक्जेंडर राष्ट्रपति होते तब क्या प्रमोद महाजन की प्रधानमंत्री बनने की इच्छा ज्यादा परवान नहीं चढ़ती? गठबंधन की सरकार में रूठना मनाना लगा ही रहता है। ऐसे रूठने मनाने का खेल माहौल को अपने पक्ष में बनाने के लिए भी करवाया जाता है। ऐसे में जब अंपायर आपके अहसानों के बोझ से लदा, आपके पक्ष में फैसला सुनाने के लिए तैयार बैठा हो तो आशाएं क्यों न हिलोर मारें?

आंध्र प्रदेश के दिनों से ही राज्यपाल रहे कृष्णकांत पर चंद्रबावू नायडू का अहसान तारी हो रहा था। फिर उन्हें उप राष्ट्रपति बनवाने में भी नायडू की भूमिका अहम थी। नायडू को लगा कि राष्ट्रपति बनवा कर कृष्णकांत से जरूरत पड़ने पर बड़ी कीमत वसूली जाएगी। खुद कृष्णकांत को भी लगने लगा कि अब सत्ता का शीर्ष उनके करीब है। एक दौर में अपने तीखे तेवर के लिए युवा तुर्क की उपाधि पाने वाले कृष्णकांत ने 2002 के राष्ट्रपति चुनाव से पहले के मौसम में मौन धारण कर लिया। साफ लगने लगा कि पदोन्नति कि आशा में उन्होंने वो तेवर खो दिया जिसके लिए उनकी तारीफ होती थी। कालांतर में आप ऐसे व्यक्ति से दृढनिष्पक्षता की उम्मीद कैसे करते?

जहां कई नेता अपनी अनर्गल महत्वाकांक्षा को साधने की जुगाड़ में लगे थे तो वहीं उनके विरोधी काट तैयार कर रहे थे। इसी कारण ऐसे आज्ञाकारी व्यक्ति की खोज शुरू हुई जो समय आने पर इतना संविधानभक्त न बने कि उसके कृत्य से अहसानफरामोशी की बू आए। आप बताएं कि भला ऐसे में नारायणन को कौन पूछता? हालांकि देश का प्रबुद्ध और अराजनीतिक तबका उनके पक्ष में लगातार आवाज उठाता रहा और उन्होंने स्वयं भी आम सहमति की स्थिति होने पर अपनी उम्मीदवारी के लिए हामी भरी। आम सहमति पर जोर इसलिए रहा कि एक बार राष्ट्रपति रह चुका व्यक्ति अपने साथ पराजित उम्मीदवार का पैबंद कभी नहीं लगाना चाहेगा।

येन केन प्रकारेण राजनीतिक गुटों के एक बड़े वर्ग की सहमति अबील पकीर जमील अब्दुल कलाम के नाम पर बनी। कलाम का पहले का व्यवहार और बर्ताव बेहद आज्ञाकारी पदाधिकारी के रूप में रहा था। पिछली तमाम भूमिकाओं में उन्होंने हमेशा अपने से ऊपर के ओहदेवालों की प्रशंसा ही बटोरी। काम के प्रति समर्पण भाव को नेताओं ने उनकी स्वामिभक्ति के तौर पर लिया। उनके नाम पर कमोवेश आम सहमति थी। वाममोर्चे को भी कोई खास एतराज नहीं था। लेकिन सिद्धांतत: उसने दक्षिणपंथी भाजपा नेतृत्व गंठबंधन के उम्मीदवार का विरोध करने का फैसला लिया और कैप्टन लक्ष्मी सहगल को मैदान में उतार दिया।

इस तरह काका कलाम इस अपेक्षा से लदे राष्ट्रपति भवन पहुंचे कि वो अगले नारायणन नहीं बनेंगे। सोच यह थी कि आजीवन नौकरी कर चुका व्यक्ति अपनी स्वतंत्र चेतना खो चुका होगा और शीर्ष पर रह कर भी वही करेगा जैसा उससे कहा जाएगा। उनसे ऐसी ही एक गलती हुई भी। रूस प्रवास के दौरान बिहार में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश को कलाम ने आधी रात को मंजूरी दी। हड़बड़ी में हस्ताक्षर के इस एक मामले को छोड़ दें तो काका कलाम का कार्यकाल गणतांत्रिक लोकतंत्र के स्वस्थ विकास के एक चरण के तौर में जाना जाएगा।

ऐसे कई मौके आए जब अंधस्वार्थी हुक्मरानों ने कलाम से वह सब उम्मीदें की जिन पर खरा उतरने के बाद उन्हें अगला कार्यकाल मिल सकता था। बेहद हालिया घटना को लें तो लाभ के पद के बिल पर हामी भरना ऐसा ही एक कार्य होता, लेकिन काका कलाम ने ऐसा कुछ नहीं किया। श्रीमति गांधी (द्वितीय) को अराध्य देवी के रूप में पूजने वाले हुक्मरानों की वर्तमान जमात ने इसे अपनी देवी की शान में गुस्ताखी माना। कलाम को भी हमेशा अंदाजा रहा कि ऐसे भोकुस दलालों के रहते दूसरा कार्यकाल नहीं मिलेगा। इस कारण उन्होंने अपनी उम्मीदवारी की चर्चा को वही कह कर खारिज कर दिया जो नारायणन ने कहा था। मतलब आम सहमति की स्थिति में कलाम ने खुद को अगले कार्यकाल के लिए तैयार बताया। हालांकि यह भी सत्य है कि उनके नाम पर जो सियासी दुरचालें चली गईं और जाल बुना गया उसने उन्हें और क्षुब्ध कर दिया।

आप काका कलाम के कार्यों को देखें तो आप जान पाएंगे कि उनके जैसे व्यक्ति का शीर्ष पर होना कितना आश्वस्त करता है। न्यायपालिका की स्वतंत्र सत्ता के बावजूद राष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र में जो भी बन पड़ा काका कलाम ने उसका प्रयोग किया ताकि न्यायपालिका में शुचिता लाई जा सके। घाघ नेताओं के बीच काका कलाम ने हमेशा स्वच्छ राजनीतिक आचरण की वकालत की। यह उनके व्यक्तित्व का ही असर था कि कभी किसी की हिम्मत नहीं पड़ी कि चेहरे के हावभाव से भी उनके कहे का तिरस्कार कर सके। कलाम तमाम प्रकार से लूटने वाले मुनाफाखोर उद्योगपतियों के सम्मेलन में इस देश और इसके आम नागरिकों के बारे में सोचने और करने की वकालत करते हैं और श्रोता धनपशु सहमति में सिर हिलाते नज़र आते हैं। ये और बात है कि बेशर्म धनपशुओं ने उनके सुझावों पर कभी अमल नहीं किया।

काका कलाम बताते हैं कि बिना खेती और खेतीहर समाज के विकास के असली विकास का हमारा सपना बेमानी है। काका कलाम के जैसों के रहते आप इस देश के सर्वोच्च प्रतिष्ठान की निष्पक्षता को लेकर आश्वस्त रह सकते हैं। ऐसे लोगों की जरूरत हम और आप जैसे आम नागरिकों को हो सकती है। लेकिन घाघ और दलाल हुक्मरानों को नहीं। उन्हें वह सब करने की छूट चाहिये, जो उनकी दलाली के लिए जरूरी हो। ऐसा करने में नारायणन और काका कलाम जैसे लोग कहीं से फिट नहीं बैठते हैं।


राष्ट्रपति के पिछले चुनाव और अब होने जा रहे चुनाव ने इन राजनीतिक गुटों को यह समझा और सिखला दिया है कि नारायणन और कलाम जैसे लोग शुरुआत में भोले भले दिखें, लेकिन अंतत: ये भारी पड़ते हैं। इस सीख और अनुभव के बाद राष्ट्रपति पद के लिए इस बार से फिर ऐसे लोगों का चुनाव शुरू हो गया जो घुटे राजनीतिक माहौल में पला बढ़ा और स्वामिभक्त हो। आप शुरुआत में उछले नामों पर गौर करें। शिवराज पाटिल, कर्ण सिंह, प्रणब मुखर्जी, अर्जुन सिंह, मोतीलाल वोरा, नारायण दत्त तिवारी ... वगैरह वगैरह। यह भी बताते चलें कि ऐसे लोगों के बारे में हुई चर्चा का कोई मतलब नहीं जिन्हें सत्तारूढ़ गुट का जिताने वाला समर्थन हासिल नहीं हो सकता। मसलन भैरों सिंह शेखावत, सोमनाथ चटर्जी आदि।

हुक्मरानों की अराध्य देवी श्रीमति गांधी (द्वितीय) को उसी व्यक्ति की उम्मीदवारी तुष्ट करती जिसका पिछला रिकॉर्ड स्वामिभक्ति से ओत पोत रहा हो। वो भी इस कदर कि उसके भविष्य के अहसानपरस्त आचरण के प्रति आश्वस्त हुआ जा सके। सिर्फ परंपरा की दुहाई देकर कलाम की अपेक्षा श्रीमति पाटिल को तवज्जो देने का मतलब सिर्फ उतना नहीं जितना बताया जा रहा है। असल में हुक्मरानों को वह नहीं चाहिये जो नारायण और कलाम करते रहे हैं। उन्हें वह चाहिये जो प्रणब मुखर्जी या शिवराज पाटिल या फिर प्रतिभा पाटिल जैसे लोग करने की गारंटी देते हैं।

अब बात एक महिला को राष्ट्रपति बनाने की। यहां यह कहना काफी होगा कि जाकीर हुसैन, फखरुद्दीन अली अहमद और काका कलाम के राष्ट्रपति हो जाने से देश में मुसलमानों की स्थिति बेहतर नहीं हो गई है। एक सिख के राष्ट्रपति होने से उसके कार्यकाल के दौरान ठीक उसी की नाक के नीचे सिखों का सरेआम कत्ल नहीं रुका। साफ है प्रतीक रूप में आप किसी को कुछ देते हैं तो वह उस व्यक्ति के समुदाय को ... उसका बकाया देना नहीं होता। प्रतिभा पाटिल का राष्ट्रपति होना इस देश की महिलाओं को उन सब बेड़ियों से मुक्त नहीं करेगा जिनके कारण उनका शोषण होता है।

किसी महिला की उम्मीदवारी का विरोध करना इस लेख की मंशा नहीं। बताना बस इतना है कि हम ऐसे घाघ और घुटे हुए लोगों से शासित हैं, जो ऐसे व्यक्ति को भी तथाकथित परंपरा के नाम पर बाहर करने का षणयंत्र रचते हैं जिसने अपना सबकुछ इस राष्ट्र को दिया है। ऐसा शख्स जो पूरे कार्यकाल के दौरान घूम घूम कर बच्चों को सिखाता रहा कि हमेशा देश हित में सोचो। कलाम की मंशा ये रही कि इस राष्ट्र का भविष्य भी मजबूत हो। वो अपने आचरण से हम सबको सीख देते हैं कि इस मुश्किल दौर में भी ईमानदार सपनों के लिए सहज रूप से जिया जा सकता है।


याद रखिये कहने को हमारे पास तर्क है कि भला राष्ट्रपति के चयन में हमारी क्या भूमिका हो सकती है? पर तथ्य यह भी है कि हम ऐसे लोगों के द्वारा ही शासित होते हैं जिनके चयन में हमारी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष भूमिका होती है। अप्रत्यक्ष ही सही हम अपनी भूमिका के होने से इनकार नहीं कर सकते। अपनी जिम्मेदारी को ना निभाने पर या अनमने ढंग से निभाने पर हम दोमुंहे नेताओं से शासित होने को शापित हैं और सही ढंग से निभाएं तो इसी में हमारी मुक्ति है। हमारा मतलब ... हम और ठीक हमारे ही जैसे काका कलाम।

लेखक: मणीष

6 comments:

मैथिली गुप्त said...

बहुत समय बाद एक बहुत अच्छा लेख पढ़ने को मिला.

Anonymous said...

मैंने पूरा लेख पढ़ा। बहुत अच्छा लगा इसे पढ़कर। सच में कलाम जी जैसे लोग हमारे समय की दुर्लभ धरोहर हैं जिनकी सियासत को कोई दरकार नहीं है।

ePandit said...

राष्ट्रपति पद को तो राजनीतिज्ञों ने खिलौना बना दिया है। होना यह चाहिए कि राष्ट्रपति चुना ही गैर-राजनीतिक व्यक्ति को जाए।

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

राष्ट्रपति पद की गरिमा तो बहुत पहले ही मटियामेट की जा चुकी है. वह भी कोंग्रेस ने ही किया था. अब तो प्रधानमंत्री पद की ऐसी-तैसी भी कोंग्रेस ने ही कर के दिखा दिया. एक ऐसे समय में जबकि पूरा देश ही डमी व्यवस्था में चल रहा है, किसी योग्य व्यक्ति को किसी बडे पद का उम्मीदवार कैसे बनाया जा सकता है. कुछ दिन अगर और इनकी चल गयी तो पूरा देश ही वे डमी बना देंगे.

डा.अरविन्द चतुर्वेदी Dr.Arvind Chaturvedi said...

एक बहुत ही सटीक,सामयिक एवम सारगर्भित
आलेख.
बधाई
http://bharateeyam.blogspot.com

Sanjay Tiwari said...

वे श्रीमान कलाम ही थे जिन्होंने सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनने से रोक दिया था. सोनिया गांधी को कलाम ने साफ कहा था कि ऐसा करने में उनके सामने कानूनी अड़चने हैं. क्योंकि इटली में किसी भारतीय को चुनाव लड़ने की इजाजत नहीं है इसलिए वे किसी ऐसे देश के पूर्व नागरिक को देश के सर्वोच्च प्रशासनिक पद की शपथ नहीं दिला सकते.

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