कल देर रात उमाशंकर जी को किसी काम के लिए मैंने फोन किया। बातों बातों में उन्होंने कहा कि किसानों पर लेख का ऐसा शीर्षक (अगली आहुति आपकी) क्यों चिपकाया है कि लगे नारद पर मचे हंगामे के बारे में है। मैंने उनसे कहा कि शीर्षक एकदम लेख के मुताबिक ही है ना कि किसी को धोखा देने के लिए। मेरा मानना है कि गंभीर मुद्दों पर बहस के लिए आप किसी को झांसा देकर भले ही बुला लें उसे रोक कर नहीं रख सकते। इसलिए जो शीर्षक लगाया है वो पूरा सच है। अगर हम आज नहीं जागे तो अगली आहुति हमें ही देनी है। लेकिन उनकी बात से मुझे लगा कि इसी गलतफहमी में कई लोग चौखंबा पर आए होंगे। शायद यही वजह है कि एक घंटे के भीतर कई हिट हो चुके थे। मेरा यकीन है कि उनमें से कुछ को जब लगा होगा कि "अगली आहुति आपकी" किसानों से जुड़े गंभीर मुद्दे पर है तो उन्हें निराशा हुई होगी।
दरअसल आज के दौर का यही सच है और ब्लॉग की दुनिया भी इस सच से जुदा नहीं। यहां भी हमारे देश और दुनिया की व्यवस्था का खोखलापन साफ नजर आता है। गंभीर मुद्दों पर बहस करने वालों की संख्या बेहद कम है और रास्ता काफी तंग। मुझे लगता है कि नारद पर घमासान उसी खोखलेपन की गवाही देता है। अपनी इस बात को और साफ करने के लिए मैंने ये चिट्ठा लिखने का फैसला किया। ये फैसला इसलिए कतई नहीं है कि कुछ लोग ललकार रहे हैं कि आज तटस्थ रहे तो समय मांगेगा हिसाब। सच तो ये है कि ऐसा कहने वाले ये भूल जाते हैं कि ये नारा निर्णायक युद्ध या कहें कि धर्मयुद्ध के वक्त बुलंद किया जाता है। निर्णायक युद्ध या धर्मयुद्ध का मतलब उस युद्ध से है जब जुल्म के शिकार जुल्म करने वालों के खिलाफ जंग छेड़ देते हैं। खाये पीये अघाये लोगों के झगड़े को मैं बेहद बेतुका मानता हूं। ऐसे झगड़ों की कोख में होता है झूठा अहंकार और झूठी नफरत। आज नारद पर जो संग्राम चल रहा है उसमें ज्यादातर लोगों का यही सच है। चाहे वो नारद के समर्थक हों या फिर नारद के विरोधी।
सबसे पहले बात नारद के विरोधियों की। आखिर ये लोग हैं कौन और इनकी नीयत क्या है? अगर ये सभी विचारों को लेकर इतने गंभीर हैं तो फिर छिछली भाषा पर उतरे ही क्यों? जब ये हमले करने का हौसला रखते हैं तो हमले सहने का जिगर क्यों नहीं रखते? अब न चाहते हुए भी इस मसले पर लिखने बैठ ही गया हूं तो चर्चा सारे पहलुओं पर होगी। शुरुआत नारद के कदम के विरोध में दी जाने वाली दलीलों से। बाजार वाले के निकाले जाने के बाद कई दिग्गजों ने विरोध जताया और अब भी जता रहे हैं। कुछ ने बाजार वाले के समर्थन में कहा कि आखिर हम क्यों उस स्तर तक नहीं उठ पाते जहां वैचारिक युद्ध के बाद शाम को बिना किसी गिले शिकवे के मिल सकें और व्यक्तिगत बातें कर सकें। अब आप इसी से अंदाजा लगा सकते हैं कि ये लोग विचारों को लेकर कितने गंभीर है। जो शख्स ऐसा लिखते हैं वो मौजूदा दौर के ज्यादातर ओछे सियासतदानों की तरह ही हैं। जो चुनाव के वक्त एक दूसरे की खाल नोचते हैं और जब सत्ता की बारी आती है तो सभी वैचारिक मतभेद भुला कर एकजुट हो जाते हैं। दुश्मनों के साथ सत्ता में बैठ कर मलाई खाते हैं। अपना और खानदान का पेट भरते है। तब ये सफेदपोश भूल जाते हैं कि उनके विचारों के लिए न जाने कितने कार्यकर्ताओं ने जान की बाजी लगाई। कितने लोगों ने दिन रात पसीना से लेकर लहू तक बहाया है। वो ये भूल जाते हैं कि लाखों करोड़ों लोगों के सपनों की कब्र पर वो सत्ता का सुख भोग रहे हैं। वो ये भूल जाते हैं कि युद्ध हथियारों से हो या फिर विचारों से – दुश्मनों से दूरी जरूरी है। दुश्मनों से सिर्फ और सिर्फ युद्ध के मैदान में मिला जा सकता है .. चाय और खाने की टेबल पर नहीं।
बाजार वाले के समर्थन में दूसरा तर्क ये दिया जा रहा है कि उसने भावुक हो कर बेंगाणी बंधुओं के खिलाफ गालीगलौज शुरू कर दी, इसलिए इस बात को नजरअंदाज कर देना चाहिये। भावुकता बेहद कोमल तत्व है। भावुक होने पर इंसान रोता है ... तड़पड़ाता है। भावुकता का ताल्लुक दिल है और दीमाग से नहीं। इसलिए बाजार वाला जब भावुक हुआ तो उसके दीमाग ने काम करना बंद कर दिया और वो मार्यादाएं भूल गया। बेंगाणी बंधुओं के खिलाफ गालीगलौज पर उतारू हो गया। लेकिन यहां भी उसके निशाने पर बेंगाणी बंधु नहीं थे बल्कि मोदी और उनकी सांप्रदायिकता थी। इसलिए उसकी गालियों को नज़रअंदाज कर देना चाहिये और निष्कासन का फैसला रद्द होना चाहिये। दलील काफी मजेदार है, लेकिन वैचारिक स्तर पर उतनी ही खोखली भी। दरअसल मोदी के खिलाफ जितने घोर शब्दों का इस्तेमाल हो वो उतना कम है। रक्त में सने उसके हाथों और उसके चेहरे को देख कर मासूमों की चीखें कौंध जाती हैं। गुजरात दंगों की हक़ीक़त और राज्य की तरफ से हुए नरसंहार को शायद ही कोई संवेदनशील शख्स भूलने का साहस कर सकता है। लेकिन बाजार वाले ने मोदी पर हमला नहीं किया था, बल्कि सीधे और सीधे तौर पर बेंगाणी बंधुओं पर निशाना साधा था। उसने बेंगाणी बंधुओं को गाली दी थी। उसके लिखने का तरीका भी बेहद नीचले स्तर का था। पढ़ने पर ऐसा लगता है कि वो शख्स भले ही मोदी का विरोधी है .. लेकिन अपनी सोच और नजरिये को लेकर मोदी की तरह ही विकृत है। उसमें भी मोदी की तरह सहनशीलता जरा भी नहीं। और मेरा मानना है कि जिन लोगों में सहनशीलता नहीं होती है ... वो वैचारिक धरातल पर उतने ही खोखले होते हैं। यही नहीं सहनशील नहीं होने पर ही हिंसा जन्म लेती है और हिंसा चाहे कैसी भी हो उसका विरोध तो होना ही चाहिये। बाजार वाले भले ही धर्मनिरपेक्ष हो ... लेकिन उसने उस एक क्षण बेगाणी बंधुओं के खिलाफ हिंसक व्यवहार किया इसलिए उसे सजा तो मिलनी ही चाहिये। लेकिन सजा कैसी हो और उसका तरीका क्या हो इस पर बहस जरूरी थी। नारद से यहीं चूक हुई है ... उसने भी बाजारवाले की ही तरह भावुक होते हुए एक तुनकमिजाज फैसला ले लिया। प्रतिक्रिया में ही सही यहां वो भी हिंसक हो गया। यही नहीं उसके इस फैसले से कई सवाल उठ खड़े हुए।
बाजार वाले के समर्थक ऐसा ही एक बड़ा सवाल खड़ा कर रहे हैं। वो सवाल है एग्रीगेटर की भूमिका को लेकर। सवाल जायज है। एग्रीगेटर का चरित्र कैसा हो इस पर बहस होनी ही चाहिये। क्या किसी एग्रीगेटर को इसकी इजाजत दी जा सकती है कि वो कोई राजनीतिक फैसला ले सके? क्या एग्रीगेटर भी हमें भगवा रंग, नीले रंग या फिर लाल रंग में रंगा नजर आएगा? यहां पर अब नारद समर्थक कूद पड़ते हैं। वो कहते हैं मर्यादा तो होनी ही चाहिये और जो भी मर्यादा तोड़ेगा उसे नारद सजा देगा। यही नहीं वो ये भी कहते हैं कि जिसे जहां जाना है वो चला जाए। उससे नारद का कोई सरोकार नहीं। वो सभी अपने अपने किले से ताल ठोंक रहे हैं। लेकिन उन्हें इसका अंदाजा नहीं कि ऐसा करके वो नारद की राह मुश्किल कर रहे हैं। अभी विरोध में धुरविरोधी गायब हुआ है। बात आगे बढ़ी तो कई और नाता खत्म कर लेंगे। ऐसा हुआ तो न सिर्फ नारद के बुरे दिन शुरू हो जाएंगे।
मेरे हिसाब से एग्रीगेटर का फर्ज बनता है कि वो सब पर समान दृष्टि डाले। वो सही गलत का फैसला खुद नहीं करे, बल्कि लोगों को करने दे। क्योंकि जब कोई एग्रीगेटर खुद इस तरह के फैसले लेने लगता है तो वो खुद ही अपने चरित्र का हनन करता है। वो खुद को सीमित विचारधारा में बांध लेता है और ऐसे में उसे चुनौती भी मिलने लगती है। नारद को सोचना चाहिये कि अब से कुछ दिन पहले तक जहां सभी उसका गुणगान करते थे अब तीस फीसदी ही सही विरोध पर उतर आए हैं। ये एक एग्रीगेटर की हार है और अगर उसने अपने फैसले पर विचार नहीं किया तो आगे चल कर ऐसा हो सकता है कि कुछ और एग्रीगेटर अस्तित्व में आएं। ऐसा हुआ तब लोग उन विकल्पों की तरफ जाएंगे जो अपने फर्ज को लेकर ज्यादा ईमानदार होंगे। उस वक्त नारद के पास पछताने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचेगा।
ऐसे में आप सोच रहे होंगे कि मैं बाजारवाले को सजा देने के पक्ष में भी हूं और नारद के फैसले के खिलाफ भी हूं ... ऐसा कैसे हो सकता है। यहां मेरा मानना है कि किसी को भी उसके अपराध की सजा देने का तरीका ये नहीं है कि उसे फांसी पर लटका दिया जाए। बाजार वाले की सजा यही होती कि उसकी बेहूदा बातों पर विचार करने की बजाए उसे वैसे ही छोड़ दिया जाता। मेरा मानना है कि कई बार हम ओछी चीजों पर प्रतिक्रिया जता कर उसे महान बना देते हैं। अगर नारद ने थोड़ा उदारता दिखाई होती और बाजारवाले को छोड़ दिया होता तो कुछ दिन बाद वो अपनी मौत मर जाता। ऐसे लोग एक बुलबुले की तरह होते हैं। जो बुलबुला जितनी तेजी से उठता है वो उतनी ही तेजी से फट भी जाता है। बाजार वाला भी एक बुलबुले की तरह है। लगता है कि उसे सिर्फ और सिर्फ गालियां देने ही आता है। उसके पास शब्दों की तरह ही विचारों की कमी भी है और जिसके पास ना तो शब्द हैं और ना ही विचार .. वो बहुत दिन तक नहीं टिका रह सकता।
कुल मिला कर अपराध दोनों तरफ से हुए हैं। उसी का नतीजा है कि कुछ दिनों पहले तक नारद की दुनिया इतनी बड़ी थी कि वहां एक ही वक्त पर कई सार्थक बहसें होती थी, लेकिन अब ये दुनिया इतनी तंग हो गई है घुटन महसूस हो रही है। जहां पहले लोग सार्थक बहस करते नजर आते थे, वहां अचानक सभी के सभी तलवारें भांज रहे हैं। यही नहीं वो दूसरों को भी तलवारें भांजने के लिए उकसा रहे हैं .. भड़का रहे हैं। लेकिन माफ करें जनाब ये धर्मयुद्ध नहीं है। ये शोषकों के खिलाफ शोषितों का संघर्ष नहीं चल रहा है। इसलिए नारद एग्रीगेटर होते हुए भी भले ही तटस्थ नहीं रहे, लेकिन मैं और मेरे जैसे लोग इस झूठे विवाद में तटस्थ हो कर दोनों पक्षों की आलोचना करते हैं और करते रहेंगे।
16 comments:
एकदम सही लिखा है
सही समय पर सही पोष्ट !
अब लगता है आपके चिठ्ठे पर रोज आना होगा !
आपने बहुत अच्छा लिखा है। सहनशीलता तो होनी ही चाहिये। आप मेरा यह लेख देखिएगा अगर समय मिले।http://hindini.com/fursatiya/?p=289
आपके कुछ निष्कर्षों से सहमत नहीं हूं।
किसी भी सिस्टम ( जैसे- मानव शरीर) की सफाई बहुत जरूरी चीज है। गन्दगी को इकट्ठा करते रहने से तन्त्र खराब होता है, सफाई करते रहने से सदा स्वस्थ बना रहता है।
नारद के अलावा और भी कई एग्रीगेटर पहले से ही हैं और नया एग्रीगेतर बनाना भी बांये हाथ का खेल है। मै तो यह सोचता हूँ कि जितने ही अधिक एग्रीगेतर रहेंगे, हिन्दी के लिये उतना ही अच्छा है। ऐसे में जो "परम स्वातंत्रय" (absolute freedom?) की इच्छा रखते हैं उनका नारद के नियमों में बधे रहने का विवशता समझ में नहीं आ रही है।
एक बात और। मोदी को जी भर के गाली दीजिये, लेकिन जो अनेकानेक लोग मोदी को भारत का गौरव मानकर उनके चरित्र की पूजा करते हैं, मत भूलिये वे भी स्वतन्त्र हैं। उनको मोदी की पूजा करने का हक है।
गाली-गलौज पर उतर आना तर्कहीनता की स्थिति का असंदिग्ध लक्षण है।
स्थिति का बहुत ही अच्छे तरीके से विश्लेषण किया आपने। आपकी तरह निष्पक्ष भाव से लिखने वाले ईमानदार व्यक्ति बहुत कम हैं।
"सबसे पहले बात नारद के विरोधियों की। आखिर ये लोग हैं कौन और इनकी नीयत क्या है? अगर ये सभी विचारों को लेकर इतने गंभीर हैं तो फिर छिछली भाषा पर उतरे ही क्यों? जब ये हमले करने का हौसला रखते हैं तो हमले सहने का जिगर क्यों नहीं रखते?"
ऊपर से तुर्रा ये कि जो इनकी भाषा का विरोध करे उसे हिन्दुत्ववादी का तमगा दे देते हैं।
गुजरात दंगों की हक़ीक़त और राज्य की तरफ से हुए नरसंहार को शायद ही कोई संवेदनशील शख्स भूलने का साहस कर सकता है।
सही कहा, गुजरात में जो हुआ वो एक भयानक दुस्वप्न है।
लेकिन बाजार वाले ने मोदी पर हमला नहीं किया था, बल्कि सीधे और सीधे तौर पर बेंगाणी बंधुओं पर निशाना साधा था। उसने बेंगाणी बंधुओं को गाली दी थी। उसके लिखने का तरीका भी बेहद नीचले स्तर का था। पढ़ने पर ऐसा लगता है कि वो शख्स भले ही मोदी का विरोधी है .. लेकिन अपनी सोच और नजरिये को लेकर मोदी की तरह ही विकृत है।
सत्यवचन, यदि बजार वाले ने केवल भावुकता में लिखा होता तो बाद में उन्हें अपनी गलती महसूस होती लेकिन उसकी बजाय वे तो और ताल ठोक कर कुतर्क लिखने लगे।
ऐसे लोग एक बुलबुले की तरह होते हैं। जो बुलबुला जितनी तेजी से उठता है वो उतनी ही तेजी से फट भी जाता है। बाजार वाला भी एक बुलबुले की तरह है। लगता है कि उसे सिर्फ और सिर्फ गालियां देने ही आता है। उसके पास शब्दों की तरह ही विचारों की कमी भी है और जिसके पास ना तो शब्द हैं और ना ही विचार .. वो बहुत दिन तक नहीं टिका रह सकता।
मैं हमेशा कहता हूँ कि घटिया लेखन का जीवन कुछ ही दिनों का होता है। आज से कुछ महीनों बाद ही इस तरह की पोस्टें कोई नहीं पढ़ेगा जबकि अच्छी पोस्टें आज से सालों बाद भी खोज-खोज कर पढ़ी और सराही जाएंगी।
अगर नारद ने थोड़ा उदारता दिखाई होती और बाजारवाले को छोड़ दिया होता तो कुछ दिन बाद वो अपनी मौत मर जाता।
पहले इस तरह के ब्लॉगों के मामले में ऐसे ही किया गया था, लेकिन उम्मीद के मुताबिक हुआ नहीं।
आपकी पोस्ट पढ़कर सुकून हुआ कि कोई तो है जो निष्पक्ष होकर लिखता है वरना तो कई अच्छे चिट्ठाकार भी सिर्फ विचारधारा के साम्य के कारण गलत लोगों का साथ दे रहे हैं।
भूतकाल में मोदी विरोधी व समर्थक लेखो को नारद पर समान दृष्टि से देखा गया है, आगे भी देखा जाता रहेगा. नारद पर पक्षपात के आरोप न लगाएं. हर जालस्थल व संस्था के अपने अपने नियम होते है, नारद के भी है.
नारद के भविष्य़ को लेकर दीर्घ-दृष्टि की कमी नहीं है. अतः नारद के भविष्य की चिंता छोड़ आप अपना लेखन करते रहें. भविष्य को तय करने दे किसका अस्तित्व रहेगा किसका नहीं.
कुछ लोग ललकार रहे हैं कि आज तटस्थ रहे तो समय मांगेगा हिसाब। सच तो ये है कि ऐसा कहने वाले ये भूल जाते हैं कि ये नारा निर्णायक युद्ध या कहें कि धर्मयुद्ध के वक्त बुलंद किया जाता है। निर्णायक युद्ध या धर्मयुद्ध का मतलब उस युद्ध से है जब जुल्म के शिकार जुल्म करने वालों के खिलाफ जंग छेड़ देते हैं। खाये पीये अघाये लोगों के झगड़े को मैं बेहद बेतुका मानता हूं। ऐसे झगड़ों की कोख में होता है झूठा अहंकार और झूठी नफरत। आज नारद पर जो संग्राम चल रहा है उसमें ज्यादातर लोगों का यही सच है।
क्या बात कही है आपने चौखंभा ! मैं २०० प्रतिशत आपकी बात का समर्थन करता हूँ। आपने इस सिलसिले के बारे में दोनों पक्षों के प्रति जो राय रखी है उससे मैं पूरी तरह सहमत हूँ। आज नारद में मेरे जैसे कई लोग हैं जो इस मसले पर आपकी तरह की सोच रखते हैं ।
यही वह जगह है जहाँ विविध विषयों पर जो इससे कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण हैं उसके लिए रोज की आपाधापी से समय बचा के पाठकगण/ चिटठाकार पढ़ने या कहने आते है। क्या मिल रहा है इन लोगों को यहाँ? क्या छवि बन रही है हिंदी चिट्ठा जगत की ? ये बात पीछे चली गई है। रह गई है तो इस वाकयुद्ध में एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाने की मुहिम जिसमें गहन चिंतन की झलक कम और भावुकता ही सर्वोपरि दिखती हे।
'...नारद एग्रीगेटर होते हुए भी भले ही तटस्थ नहीं रहे, लेकिन मैं और मेरे जैसे लोग इस झूठे विवाद में तटस्थ हो कर दोनों पक्षों की आलोचना करते हैं और करते रहेंगे।'
चिटृठाकारी की सार्थकता ऐसे स्वरों से है- खेमाबंद सच अक्सर झूठ का निकटवर्ती होता है। थोड़ा और सूक्ष्मता से देखें बहुत से आप जैसे स्वरों को जबरिया इस या इस पाले में धकेला जा रहा है-
छोड़ें इसे और आगे देखें
जनाब आपने सचमुच अच्छा , और निष्पक्ष लिखा. इस आलेख को हर हिन्दी चिट्ठाकार को पढ़ना चाहिए.
और, आपकी ये बात भी बिलकुल सही है कि लोगों ने व्यक्तिगत आक्षेप और गंदी भाषा के कारण को सांप्रदायिकता का रूप दे दिया है. साथ ही दूसरे कोण से, नारद का अतिरेक भी गलत था - जिसे स्वयं अनूप शुक्ल ने भी माना है.
'बाजार वाले के समर्थक' कह कर आप बात की गम्भीरता कम कर रहे हैं। लेकिन उससे पहले आपकी बात एक दम सही है... यह न तो धर्मयुद्ध् है और न ही यहां क्रांति हो रही है। हम एक दम साफ हैं, इस बारे में। हम किसी के समर्थक नहीं है... राहुल को जानते भी नहीं। सवाल यह है कि आपको बाजार की भाषा दिख गयी... देख लेने की धमकी देने वाले की नहीं दिखी... निर्मल आनन्द पर चन्द नमूने हैं... वो भी देख लें... हमने ढाई आखर पर लिखा था, एक ब्लॉग कुछ लिखता है, जो इन लोगों को पसंद नहीं आया ... तो उसे हिन्दी को समृद्ध करने के नाम पर 'नारद समूह' से निकाल दिया गया। उस पोस्ट के बहाने, सभी ब्लॉगों की भाषा पर बात की जा सकती थी, संवाद शुरू किया जा सकता था। टिप्पणियों के ज़रिये लोग अपनी राय दे रहे थे और दे सकते थे... फिर ऐसा क्यों। यह 13 की लिखी पोस्ट है। इसमें 'बाजार वाले के समर्थक' हम कहां दिखते हैं।
आपने नारद की वो दो पोस्ट पढी है या नहीं जो इस संदर्भ में है। पढें और खुद तय करें। नारद संचालकों की टिप्पणियां भी पढे। उस भाषा पर विचार करें।
वैसे आपकी कल की पोस्ट मुझे ठीक लगी थी। हालांकि भ्रम में मैं भी पड गया था पर इसी बहाने कुछ पढने को मिला। नेट पर आपकी पोस्ट मुझे ठीक नहीं दिख रही है। आप अपना एलाइनमेंट देखिये अगर जस्टिफाइड है तो उसे लेफ्ट कर दें।
आपके लिखे से पूरी तरह सहमत हूं । ये धर्मयुद्ध नहीं । इस विवाद से हिंदी चिट्ठा जगत का ध्यान मुद्दों से भटक गया है । उम्मीद है कि इस विवाद के बाद हम सब ज्यादा विवेकशील, सहनशील और परिपक्व बनेंगे । और इस घटना के दोहराव से बचेंगे । चाहे किसी भी शक्ल में हो ।
दिल से लिखा है. सही लिखा है. धन्यवाद!
मौजूदा विवाद में दुष्यंत कुमार के लेखन का जितना दुरुपयोग हुआ है, उतना तो चुनावी सभाओं में भी नहीं होता है. इससे पहले हिटलर-तानाशाही, स्तालिन-ज़ारशाही, गांधी-अहिंसा, लोहिया-समाजवाद, मोदी-सांप्रदायिकता, सर्वहारा-क्रांति जैसे राजनीतिक उपमा-अलंकारों का इतना बेतुका प्रयोग भी नहीं हुआ था.
इन सब का फ़ायदा? कुछ भी नहीं. संयत चिट्ठाकार अब भी संयत हैं. दहकने वाले अब भी दहक रहे हैं. बीच-बचाव करने वाले अब भी 'शांति-शांति' कहे जा रहे हैं. उकसाने वाले अब भी उकसा रहे हैं.
हाँ, पाठकों का नुक़सान ज़रूर हुआ है. लगातार अच्छा लिखते कुछ लोगों की ऊर्जा जाने-अनजाने विवाद की ओर चली गई.
समर,
अभी तक लगता था कि तुम सिर्फ विवाद पैदा कर सकते हो... विवाद सुलझाने लायक मंतव्य भी रख सकते हो पहली बार पता चला। अल्पज्ञता के लिए क्षमा करना।
लटके हुए पर खुश चेहरे के साथ
उमाशंकर सिंह
पहले नज़र नहीं गई थी. पीछे से लौटकर आया हूं.. सही लिखा. धन्यवाद.
शानदार!!
समर,
आपकी प्रतिभा का तो सालों से कायल रहा हूं और यह भी जानता हूं कि आप कितनी दृढ़ता से अपने मंतव्य रखते हो। आज जहां हर तरफ बहस आदि को किसी विवाद को सुलझाने का जरिया की जगह अपनी नाक ऊंची रखने का साधन बना दिया गया है वैसे में समाधान की ललक रखने वाली इस तरह की सोच सुकून देती हैं।
हालांकि तथ्यों के आधार पर आपके निष्कर्षों में फेरबदल की थोड़ी गुंजाइश है फिर भी आपकी नीयत की सराहना तो करनी ही पड़ेगी।
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