Thursday, July 24, 2008

बाल हठ के शिकार हो गए हैं सोमनाथ चटर्जी


उम्र का अपना असर होता है. ये एक ऐसा सत्य है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता. बीते वक़्त में हमने चंद्रशेखर को देखा था और अभी सोमनाथ चटर्जी को देख रहे हैं. बुढ़ापे में व्यक्ति एक छोटे बच्चे की तरह फ़ैसले लेने लगता है. ग़लत होते हुए भी ग़लती मानने को तैयार नहीं होता. उसमें बार बार बाल हठ झलकता है. वो हठ कई बार खुद उसके लिए सही नहीं होता, लेकिन तब इतना विवेक ही कहां कि ग़लत और सही का फ़ैसला कर सके.

सोमनाथ चटर्जी को सत्ता के गलियारे में सोमनाथ दा कहा जाता है. सोमनाथ ज़िंदगी भर लाल झंडा उठा कर चले. १९६८ से लेकर २००८ तक. चालीस साल. इन बीते चालीस साल में हमने कई सियासदानों को पथभ्रष्ट होते देखा. सत्ता के लिए कपड़े की तरह दल बदलते देखा. सोमनाथ इन सबसे दूर अपनी पार्टी के साथ अटल रहे. लेकिन सियासत के आखिरी पड़ाव में बग़ावत पर उतर आए. ये भूल कर कि आज वो जिस मुकाम पर पहुंचे हैं उसमें उनकी काबिलियत तो है मगर लाल झंडे का योगदान ज़्यादा बड़ा है. फिर आज वो खुद को उस झंडे से बड़ा कैसे मान बैठे हैं?

कायदे से होना तो यह चाहिये था कि सोमनाथ विश्वास प्रस्ताव पर बहस के लिए बुलाए गए विशेष सत्र से पहले ही स्पीकर पद से इस्तीफ़ा दे देते. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. जिस पोलित ब्यूरो ने उनकी गुजारिश पर उन्हें स्पीकर बनने के लिए हरी झंडी दिखाई थी. सोमनाथ ने उसी पोलित ब्यूरो की गुजारिश को ठुकरा दिया. बहुत से लोग कहने लगे कि ऐसा करके उन्होंने स्पीकर पद की गरिमा बचाए रखी. मेरा मत ऐसा बिल्कुल नहीं है, फिर भी थोड़ी देर के लिए मैं इस तर्क को मान लेता हूं. तो क्या विश्वास मत के बाद उन्हें पार्टी का मान नहीं रखना चाहिये था?

विश्वास मत से पहले उन्होंने अपने करीबी सूत्रों के जरिये ये संदेश भिजवाया कि मनमोहन सरकार की किस्मत का फ़ैसला होते ही वो पद से इस्तीफ़ा दे देंगे. साथ ही संसद की सदस्यता से भी. लेकिन अब इस्तीफ़ा देने की बात तो दूर विदेश दौरे की योजना बना रहे हैं. जाहिर है पद का मोह उन पर हावी हो चुका है. वो भी इस कदर कि सीपीएम से निकाले जाने और नैतिक आधार गंवाने के बाद भी वो पद पर बने रहना चाहते हैं. यही नहीं वो कांग्रेस और यूपीए नेताओं से मिल रहे हैं. लेकिन बावजूद इसके अब भी यही उम्मीद है कि धुंधली पड़ चुकी ही सही, एक विचारधारा से चालीस साल की वफादारी को वो गद्दारी से कलंकित नहीं करेंगे. अपना बाल हठ छोड़ कर विवेक से फ़ैसला लेंगे और अगले कुछ दिनों में स्पीकर पद से इस्तीफ़ा दे देंगे.

5 comments:

Rajesh Roshan said...

समर बाबु कुछ कहावत को केवल इसलिए नही मान लेना चाहिए क्योंकि वह कहा गया है..... लोग ३०-३५ की उम्र में भी सठिया जाते हैं.... विचारधारा को अपने ऊपर इतना हावी मत हो जाने दो ....अच्छे और बुरे में फर्क न कर पाओ.... सोमनाथ दा ने जो किया उसकी राय तो आपने दे दी लेकिन पोस्ट लिखने से पहले अपने दोस्तों से पूछ लिया होता तो मुमकिन है यह पोस्ट नही लिखते, या कल का खबरदार ही देख लिया होता.... कभी निष्पक्ष होकर भी पोस्ट लिखना सीखिए एक बात और आप जैसे से नेताओ के तरह बयान अच्छे नही लगते... तथ्यात्मक बातें करे न कि वस्तुपरक.....

आपकी इस बात से सहमत हु .. कि सोमनाथ दा को विश्वाश मत के बाद इस्तीफा दे देना चाहिए... उससे उनका कद और बढ़ा जाता....... वैसे एक बात कहू बाल हठ अब करात कर रहे हैं.....

आप गहरे सोचे, चिंतन करे फ़िर लिखे...... क्योंकि ये जो पोस्ट लिखा है आपने ऐसा लगता है मानो आप सीपीआई के दफ्तर में काम करते हो.... खबरदार जब सीपीआई के इस कदम को विनाश काले विपरीत बुद्धि कह सकती है फ़िर आप तो कह ही सकते हैं...

इन सब के बावजूद अगर मेरी किसी बात से आपको दुःख हुआ हो तो क्षमा कीजियेगा, दिल से नही लगाईयेगा

Unknown said...

ये राजेश रोशन नाम का जीव कौन है भई? इसे तो हिंदी भी नहीं लिखनी आती. बाबू को बाबु लिख रहा है. कह रहा है अपने ब्लॉग पर दोस्तों से राय मश्वरा के बाद लिखो. खबरदार देख कर लिखो. गजब आदमी है ये. इसे तो ये भी नहीं मालूम कि सोमनाथ सीपीआई नहीं सीपीएम के सांसद थे. ये गलती उसने दो बार की है. (( आप गहरे सोचे, चिंतन करे फ़िर लिखे...... क्योंकि ये जो पोस्ट लिखा है आपने ऐसा लगता है मानो आप सीपीआई के दफ्तर में काम करते हो.... खबरदार जब सीपीआई के इस कदम को विनाश काले विपरीत बुद्धि कह सकती है फ़िर आप तो कह ही सकते हैं... ))
भई राजेश रोशन समरेंद्र पर अगर प्रवक्ता होने का आरोप ही लगाना है तो सीपीएम का प्रवक्ता लिखो. पहले खुद कुछ पढ़ो और उसके बाद सलाह दो. जाने कहां कहां से आ जाते हैं फिर बौद्धिक होने का दंभ भी भरते हैं.

द्रष्टिकोन said...

स्पीकर या विधानसभा अध्यक्ष का पद हमेशा सत्तारूढ या उसके सहयोगी दल के पास होता है. जब भी किसी सत्तारूढ़ दल का सहयोगी समर्थन वापिस लेता है अध्यक्ष से त्यागपत्र की मांग होती है. अनेकों विधानसभाओं में काग्रेस और बाकी की सभी पार्टियां कर चुकीं हैं.

सोमनाथ को अध्यक्ष का पद सत्तारूढ़ पार्टी के सहयोगी दल के नाते मिला था. नैतिकता का तकाजा यही था कि जब उनकी पार्टी ने समर्थन वापिस लिया तभी सोमनाथ को अपने आप त्यागपत्र दे देना चाहिये था.

प्रशंसा आदमी का दिमाग खराब कर देती है और सोमनाथ इसके जीते जागते उदाहरण है.

Rajesh Roshan said...

@pol
दुरुस्त करने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। जब-जब गूगल के ट्रांस्लिट्रेशन का उपयोग किया, तब-तब गलती हुई। यह तो वर्तनी की गलती थी। लेकिन जो सीपीआई की गलती है वह तो शायद मेरे जैसे के लिए क्षम्य भी ना हो। मैं अपनी गलती मानता हूं।
इसके बावजूद भाषा का काम बात संप्रेषित करने का है, जो मुमकिन है, हो गया होगा।

कुमार आलोक said...

आपका इमानदार विश्लेषन पढा ..अच्छा लगा ..सोमनाथ दा दल के प्रति प्रतिबद्ध रहें लेकिन जैसा आपने कहा कि अपनी पारी के अंतीम पडाव पर बालहठ पर उतर आये ..आपने सौफ्ट शब्द का इस्तेमाल किया ..पदलोलुपता की हद कर दी उन्होने ...प्रकाश करात ने कहा की स्पीकर पद से इस्तिफा देना उनका अपना निणॆय है और दल को क्या करना है ये हमें सोचना था जो हमने कर लिया।व्यक्ति से उपर दल है दल से उपर व्यक्ति नही ..बहुत सुंदर पोस्ट बधाइ...

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