यूपीए सरकार जीत गई. लोकसभा में मनमोहन सिंह के विश्वास प्रस्ताव पर मतदान के नतीजे उसके पक्ष में गए हैं. लेकिन इस नतीजे पर फख्र महसूस करने का हक़ किसी को नहीं है. ना ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को, ना उनकी आका सोनिया गांधी को, ना ही अमर सिंह और मुलायम सिंह यादव को और ना ही उनके समर्थकों को. इसलिए कि इस विश्वास मत से पहले और उसके दौरान जितनी गंदगी फैली है उसे साफ करने में कई दशक लगेंगे.
इस बार के विश्वास मत ने अवसरवाद की नई परिभाषा को जन्म दिया. बताया कि सत्ता के संघर्ष में विचार कहीं नहीं टिकते. सत्ता सर्वोपरी है और उसे हासिल करने के लिए विचारों का वध भी जायज है. यही वजह है कि चार साल तक कांग्रेस से लतियाए जाने के बाद भी मुलायम आखिर में कांग्रेस की गोद में जाकर बैठक गए. जम्मू कश्मीर में चंद दिनों पहले कांग्रेस की सरकार गिराने वाले नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी ने मनमोहन सरकार के समर्थन में वोट दिया. अमेरिका के ख़िलाफ़ नारेबाजी करने वाले ज़्यादातर मुस्लिम सांसद अमेरिका से हुए ऐटमी करार के पक्ष में नज़र आए.
सत्ता बचाने वालों ने पूरी नंगई की तो गिराने वालों ने भी कम गलीचपन नहीं किया. एक तथाकथित धर्मनिरपेक्ष सरकार को गिराने के लिए दक्षिणपंथी और वामपंथी एक मंच पर आ गए. जाति की राजनीति का विरोध करने का दंभ भरने वाले वामपंथी सिर्फ जाति की राजनीति करने वाली मायावती के हाथ से हाथ मिला बैठे.
सिर्फ वैचारिक धरातल पर ही नहीं मर्यादाएं हर स्तर पर टूटी हैं. पहली मर्तबा नेताओं ने खुल कर एक दूसरे पर खरीदो-फ़रोख़्त के आरोप लगाए. इसकी शुरुआत सीपीआई महासचिव एबी बर्धन के बयान से हुई, फिर इस विवाद को हवा दी मायावती, मुलायम और अमर सिंह और अंत बीजेपी सांसदों ने लोकसभा में रुपयों की नुमाइश से किया. लगता है कुछ और दिन के लिए बहस खिंचती तो ना जाने क्या-क्या हो जाता.
यही नहीं इस दौरान जुबां की तल्खी भी देखने को मिली. तल्खी भी ऐसी जिसे मिटाने में कई पीढ़ियां लग जाएं. संसद के बाहर तो गालीगलौज हुआ ही. भीतर भी नेताओं ने एक दूसरे को बेपर्दा किया. वो भी इतना कि लाइव प्रसारण की आवाज़ बंद कर देनी पड़ी.
इतना सबकुछ होने के बाद जब विश्वास प्रस्ताव पर मतदान के नतीजे आए तो सोनिया गांधी और उनके भांट मनमोहन सिंह का चेहरा खिला हुआ था. उनके खिले चेहरों से ये तो अंदाजा लगाया ही जा सकता है कि बीते साठ साल में हमने कितना कुछ खो दिया है. सिर्फ स्वतंत्रता सेनानियों के सपनों से गद्दारी नहीं की है बल्कि खुद से भी गद्दारी की है. तभी तो हमारी आंखों का पानी सूख गया है... वर्ना आज एक अरब से ज़्यादा हिंदुस्तानियों की आंख से थोड़ा-थोड़ा पानी भी बहता तो संसद की सारी गंदगी बह जाती.
इस बार के विश्वास मत ने अवसरवाद की नई परिभाषा को जन्म दिया. बताया कि सत्ता के संघर्ष में विचार कहीं नहीं टिकते. सत्ता सर्वोपरी है और उसे हासिल करने के लिए विचारों का वध भी जायज है. यही वजह है कि चार साल तक कांग्रेस से लतियाए जाने के बाद भी मुलायम आखिर में कांग्रेस की गोद में जाकर बैठक गए. जम्मू कश्मीर में चंद दिनों पहले कांग्रेस की सरकार गिराने वाले नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी ने मनमोहन सरकार के समर्थन में वोट दिया. अमेरिका के ख़िलाफ़ नारेबाजी करने वाले ज़्यादातर मुस्लिम सांसद अमेरिका से हुए ऐटमी करार के पक्ष में नज़र आए.
सत्ता बचाने वालों ने पूरी नंगई की तो गिराने वालों ने भी कम गलीचपन नहीं किया. एक तथाकथित धर्मनिरपेक्ष सरकार को गिराने के लिए दक्षिणपंथी और वामपंथी एक मंच पर आ गए. जाति की राजनीति का विरोध करने का दंभ भरने वाले वामपंथी सिर्फ जाति की राजनीति करने वाली मायावती के हाथ से हाथ मिला बैठे.
सिर्फ वैचारिक धरातल पर ही नहीं मर्यादाएं हर स्तर पर टूटी हैं. पहली मर्तबा नेताओं ने खुल कर एक दूसरे पर खरीदो-फ़रोख़्त के आरोप लगाए. इसकी शुरुआत सीपीआई महासचिव एबी बर्धन के बयान से हुई, फिर इस विवाद को हवा दी मायावती, मुलायम और अमर सिंह और अंत बीजेपी सांसदों ने लोकसभा में रुपयों की नुमाइश से किया. लगता है कुछ और दिन के लिए बहस खिंचती तो ना जाने क्या-क्या हो जाता.
यही नहीं इस दौरान जुबां की तल्खी भी देखने को मिली. तल्खी भी ऐसी जिसे मिटाने में कई पीढ़ियां लग जाएं. संसद के बाहर तो गालीगलौज हुआ ही. भीतर भी नेताओं ने एक दूसरे को बेपर्दा किया. वो भी इतना कि लाइव प्रसारण की आवाज़ बंद कर देनी पड़ी.
इतना सबकुछ होने के बाद जब विश्वास प्रस्ताव पर मतदान के नतीजे आए तो सोनिया गांधी और उनके भांट मनमोहन सिंह का चेहरा खिला हुआ था. उनके खिले चेहरों से ये तो अंदाजा लगाया ही जा सकता है कि बीते साठ साल में हमने कितना कुछ खो दिया है. सिर्फ स्वतंत्रता सेनानियों के सपनों से गद्दारी नहीं की है बल्कि खुद से भी गद्दारी की है. तभी तो हमारी आंखों का पानी सूख गया है... वर्ना आज एक अरब से ज़्यादा हिंदुस्तानियों की आंख से थोड़ा-थोड़ा पानी भी बहता तो संसद की सारी गंदगी बह जाती.
5 comments:
अफसोसजनक!!
शर्मनाक, कहा हे ईमान दार ?????????
आपने एकदम सही कहा. मैं तो सोच रहा हूं कि दूसरे देश वाले क्या सोच रहे होंगे हमारे देश के बारे में.
bilkul sahi kaha...
देश और लोकतंत्र के हित के लिये 'रिश्वत-प्रकरण' की सच्चाई देश के सामने आना आवश्यक है। आरोप सच है या झूठ, दोनों ही सूरतों मे इस मामले का खुलासा होना ही चाहिए, ताकि लोकतंत्र और संसद के प्रति जनता का विश्वास बना रहे।
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